traditional irrigation system
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बाढ़ के नैहर में सूखे की मार

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उत्तर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में सूखा बड़ी मारक होती है। वहाँ की महीन बालूई मिट्टी को पानी की अधिक जरूरत होती है क्योंकि ऐसी मिट्टी में पानी को रोककर रखने की क्षमता कम होती है। इसलिये सिंचाई अधिक बार करनी होती है। बाढ़ के साथ आई मिट्टी से खेतों का भूगोल बदल जाये, तब कुछ अधिक इन्तजाम करना होता है।

परन्तु जब वर्षा अधिक होती थी तो बाढ़ की चर्चा ही अधिक होती थी, तब उसके बाद के सूखा की चिन्ता नहीं होती थी। बाद में नलकूपों का समाधान उपलब्ध हो गया। लेकिन सिंचाई की आवश्यकता लगातार बढ़ती गई है। वर्षा कम होने लगी है। डीजल महंगा होते जाने से उत्तर बिहार में सूखा का संकट अधिक विकराल हो गया है।

जबकि बाढ़ में अधिक पानी को सम्भालने और उसके बाद पानी की बढ़ी हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिये प्राचीन काल में पोखरों की बेहतरीन व्यवस्था विकसित हुई थी। हालांकि पोखर या तालाब दक्षिण बिहार के सूखा प्रवण क्षेत्रों में भी उतने ही उपयोगी रहे हैं।

कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उनकी भूमिका अलग ढंग की होती है। पर उत्तर हो या दक्षिण, वर्षा और नदी जल के प्रबन्धन की ऐसी उन्नत व्यवस्थाएँ यहाँ रही हैं कि धान यहाँ की मुख्य फसल है जिसे निरन्तर पानी की जरूरत होती है। परन्तु प्राचीन व्यवस्थाओं के नष्ट होने से बिहार में बाढ़ और सूखाड़ दोनों आपदा बन गई है जिसे झेलने के लिये पूरा प्रदेश बाध्य है। पानी की कमी की वजह से धान की खेती संकटग्रस्त हो गई है।

वर्षा की बूँदें जहाँ गिरे वहीं रोक लेने और अतिरिक्त जल को तेजी से निकलने देने के सिद्धान्त पर बने तालाब वर्षा की कमी और अधिकता दोनों आपदाओं से निपटने में सक्षम होते थे। अधिक वर्षा और बाढ़ वाले क्षेत्रों में तालाब सतही जल के प्रवाह को रोकने और संयमित तरीके से बहने की व्यवस्था है। तो कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उस पानी का संग्रह कर रखने की संरचना।

वर्षा का पानी बाढ़ के इलाके में पहले तालाब में जाता है। उसके अधिक पानी आगे बढ़ जाता है। विभिन्न चौरों में आज भी यह प्राकृतिक व्यवस्था दिख जाती है। प्राचीन काल में तकरीबन सभी गाँवों में तालाबों की ऐसी व्यवस्था थी। तालाबों और उनके बीच के सहयोगी क्षेत्र में एकत्र बरसाती पानी सतत प्रवाहित रहता है।

सतही पानी कम होने पर सतही प्रवाह रुकता, तब भी तालाब के पानी का भूगर्भ में जाना जारी रहता है। भूगर्भ जलभण्डार के साथ तालाब के सतही जलसंभार का दोतरफा सम्बन्ध होता है।

नलकूल या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया और नदियों को बाँधकर नहरों के जरिए सिंचाई का सपना भी था जो बूरी तरह नाकाम रहा। इस प्रकार भूजल के उपयोग का प्रचलन लगातार बढ़ता गया।

तालाब और कुँआ वर्षाजल के संग्रह और उपयोग की बेहतरीन और परम्परासिद्ध तकनीकें हैं। तालाबों में एकत्र जल भूमिगत कुंडों से सीधे सम्पर्क के कारण सदा तरोताजा बना रहता और सूर्य के ताप के प्रभाव में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का स्वतः उपचार होकर शुद्ध और स्वच्छ बना रहता है। इनमें एकत्र जल रिस-रिसकर भूजल-कुंडों को भरता है। तालाबों का भूजल कुंडों से सम्पर्क दोतरफा लाभदायक होता है। वर्षाजल इनमें संचित होता है। वर्षा नहीं होने या कम होने पर पड़ोस की नदियों को बाँधकर तालाब को भरने का प्रचलन रहा है।

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