हिमालय में प्राकृतिक आपदा और प्रबन्धन में सरकार की भूमिका (Role of Government in Natural Disasters and Management in the Himalayas)

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मानव इस पृथ्वी पर आदिकाल से जीवन-निर्वाह करता आया है। प्रकृति के साथ रहते हुए वह आये दिन तमाम तरह की आपदाओं से भी संघर्ष करता रहा है। आपदाएँ चाहे प्राकृतिक हों या मानवजनित यह दोनों रूपों में घटित होकर मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। आपदा का दुःखद परिणाम अन्ततः जन-धन व सम्पदा के नुकसान के रूप में हमारे सामने आता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में किसी प्राकृतिक रूप से घटित घटना के फलस्वरूप जब मानव का जीवन संकट में पड़ जाता है तो उस स्थिति को प्राकृतिक आपदा माना जाता है। मुख्य रूप से आंधी, तूफान, चक्रवात, बवंडर, बाढ़, बादल फटना, बज्रपात, अवर्षण (सूखा), भूकम्प, भूस्खलन तथा हिमस्खलन आदि को प्राकृतिक आपदाओं के अर्न्तगत शामिल किया जा सकता है। प्रस्तुत आलेख में हिमालय में आपदा और उसके प्रबन्धन विशेष रूप से उत्तराखण्ड हिमालय के परिपेक्ष में यहाँ घटित होने वाली आपदाओं - भूकम्प, भूस्खलन और बाढ़ का उल्लेख करना नितान्त प्रासंगिक होगा।

भारत के उत्तर में अवस्थित उत्तराखण्ड राज्य प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। इसकी उत्तरी पर्वत श्रृंखलाएँ जहाँ तीव्र ढाल व बर्फ से ढकी हैं वहीं इसका मध्य भाग अपेक्षाकृत सामान्य ढाल वाला है इसके दक्षिण में विस्तृत मैदानी भू-भाग स्थित है जो पर्वतीय नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी से निर्मित है। अपने विशिष्ट भू-गर्भिक संरचनाओं, पर्यावरणीय व जलवायुगत विविधताओं से युक्त हिमालयी क्षेत्र में अक्सर प्राकृतिक आपदाओं भू-स्खलन, बाढ़ व बादल फटने की घटनाएँ देखने को मिलती हैं। भू-गर्भिक संरचना की दृष्टि से भी हिमालय का यह इलाका अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है। भूगर्भीय हलचलों के कारण यहाँ छोटे-बड़े भूकम्पों की आशंका लगातार बनी रहती है।

पिछले कुछ दशकों में अनियोजित विकास के कारण पहाड़ों में भू-कटाव और भूस्खलन की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। अनियोजित विकास, प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन व बढ़ते शहरीकरण की स्थिति ने यहाँ के पर्यावरणीय सन्तुलन को बिगाड़ दिया है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि हो रही है। जनसंख्या का अधिक दबाव, जन-जागरूकता की कमी, पूर्व-सूचनाओं व संचार साधनों की समुचित व्यवस्था न होने जैसे कारणों से प्राकृतिक आपदाओं से जन-धन की हानि में व्यापक स्तर पर वृद्धि हो रही है।उत्तराखण्ड में वर्ष 1998 के मालपा भू-स्खलन में 250 से अधिक तीर्थयात्रियों की असमय मौत तथा जून 2013 में आयी केदारनाथ आपदा में हजारों लोगों की मौत के पीछे भी यह मुख्य कारण माने गये थे।

आंकड़ों के हिसाब से यदि हम पिछले दस सालों में आयी प्राकृतिक आपदा पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं से उत्तराखण्ड के जन-जीवन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। मध्य जून से लेकर सितम्बर माह तक (मॉनसून के दौरान) की मध्यम अथवा मूसलाधार बारिश यहाँ के लोगों के लिये मुसीबत बनकर आती है। मॉनसून के दौरान भूस्खलन व बाढ़ से पर्वतीय राज्य के लोगों का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिसमें अक्सर लोगों व मवेशियों की जानें चली जाती हैं और घर-मकान के साथ ही खेती की जमीन व सार्वजनिक सम्पतियों यथा सड़क, गूल, नहर, पुल, घराट व स्कूल भवनों की क्षति देखने को मिलती है। इस कारण लोगों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

उत्तराखण्ड में घटित होने वाली प्राकृतिक आपदाएँ

भूकम्प :
भू-स्खलन :
बाढ़ :

उत्तराखण्ड में बाढ़ एवं भूस्खलन : कुछ प्रमुख ऐतिहासिक घटनाएँ

उत्तराखण्ड हिमालय में एक दशक में आपदा में हुई क्षति

आपदा प्रबन्धन में शामिल तत्व :
आपदा जोखिम प्रबन्धन :

आपदा प्रबन्धन व न्यूनीकरण हेतु उत्तराखण्ड सरकार की कार्यनीति

1. राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण :
2. राज्य आपदा प्रबन्धन बल :
3. राज्य आपातकालीन परिचालन केन्द्र :
4. आपदा सम्बन्धित सूचनाओं का आदान-प्रदान :
5. राज्य आपदा प्रबन्धन कार्य योजना का विकास :
6. मानक प्रचालन विधि :
7. मॉक अभ्यास :
8. न्याय पंचायत के अन्तर्गत खोज एवं बचाव प्रशिक्षण :
9. आपदा संवेदनशील स्थानों में खोज व बचाव दलों की व्यवस्था :
10. खोज एवं बचाव प्रशिक्षण :
11. भूकम्प सुरक्षित निर्माण हेतु अभियन्ताओं का प्रशिक्षण :
12. भूकम्प सुरक्षित निर्माण हेतु राजमिस्त्रियों का प्रशिक्षण :
13. भवनों का मजबूतीकरण :
14. राज्य के 341 संवेदनशील ग्रामों का भूगर्भीय सर्वेक्षण :
15. भौगोलिक सूचना प्रणाली की प्रगति :
17. सर्वेक्षण कार्य :
18. जन-जागरूकता
19. अन्य :
निष्कर्ष
संदर्भः

लेखक परिचय

लेखक का पता
चंद्रशेखर तिवारी
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