सिक्किम की आपदा से उभरे असहज सवाल

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तीव्र भूकंप, सूनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कॉमनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिए बने अंतर्राष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था का सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सूनामी में इतनी बड़ी संख्या में इंसानी जान की तबाही नहीं होती। तब एक अरब रुपए से भी ज्यादा की लागत से सूनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केंद्र ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।

यों तो पहाड़ पर जीवन ही एक आपदा के समान है लेकिन सामान्य समय में पहाड़ पर रहकर जीने वाले लोग अपने जीवन (आपदा) का प्रबंधन करना भी बखूबी जानते हैं। अभी 18 सितंबर को आए भूकंप का केंद्र सिक्किम था और इसकी तीव्रता 6.8 मापी गई। पहाड़ पर इतनी तीव्रता का भूकंप शक्तिशाली माना जाता है और इसमें होने वाली क्षति को कमतर नहीं आंका जा सकता। भूकंप के चार दिन बाद भी कई ऐसे इलाके और गांव हैं जहां राहत दल पहुंच नहीं पाया है और वहां पीने का पानी भी नहीं है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सुरक्षा और आपदा प्रबंधन का हमारा तंत्र कितना दुरुस्त है।

अभी केंद्र सरकार न तो भूकंप की पूरी जानकारी इकट्ठा कर पाई है और न ही होने वाली क्षति का समुचित आकलन। चार दिन बाद पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की घोषणाओं से भी ऐसा नहीं लगता कि सरकार को पूरी भयावह स्थिति का पूरा अंदाजा हो पाया है। दशहत और नाउम्मीदी में जीते सिक्किम के 54 लाख लोग और 450 गांव अभी भी अपनी बर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। मरने वालों की आधिकारिक संख्या 65 बताई जा रही है लेकिन गंगटोक की एक स्वयंसेवी संस्था के मुताबिक मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। सिक्किम में ही तैनात भारतीय सेना के जीओसी 17 माउंटेन डिवीजन के मेजर जनरल एसएल नरसिंहन ने बताया कि खराब मौसम के कारण अभी भी यहां के पश्चिम और दक्षिण जिले में सेना को पहुंचने में कठिनाई हो रही है।

वजह साफ है कि आपदा प्रबंधन हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं। 6.8 रिक्टर पैमाने का भूकंप पर्वतीय क्षेत्र के लिए तो भंयकर तबाही का मंजर होता है लेकिन प्रशासनिक एवं राजनीतिक रूप से इस भूकंप ने हमारे नीति-निर्धारकों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं किया है। यही नहीं, दिल्ली और इसके आस-पास का नागरिक समाज भी उतना चिंतित नहीं है जितना कि वह अन्य इलाकों के लिए होता है।

इस तरह सिक्किम भूकंप ने कई सवाल खड़े किए हैं। एक अहम सवाल तो यह है कि विविधताओं वाले देश भारत अपने सभी प्रदेशों और नागरिकों के प्रति क्या अपनी सम्यक जिम्मेदारी का निर्वाह कर पा रहा है? क्या वह अपने पर्वतीय क्षेत्र के नागरिकों को भी एक समान सुविधा एवं व्यवस्था दे पा रहा है? क्या राष्ट्रीय राजधानी अपने सुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के साथ उतनी ही संवेदना से जुड़ी है जितना कि अन्य क्षेत्रों से। ऐसे ही एक और कड़वा सवाल बार-बार खड़ा होता है कि पर्वतीय प्रदेशों के प्रति जब हमारी सरकार इतनी उदासीन है तो वे क्यों न आत्मनिर्णय की मांग करें? गाहेबगाहे ऐसे सवाल खड़े भी होते हैं और उसके जवाब में नई दिल्ली या तो कड़े सैन्य कानून का सहारा लेती है या उन्हें अलगाववादी करार देती है। इस भूकंप ने ऐसे कई चिंताजनक सवाल खड़े किए हैं।

सन् 2001 के विनाशकारी भूकंप के बाद ही केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के गठन की घोषणा की थी। प्राधिकरण बन भी गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों पर जिला आपदा केंद्र भी बने लेकिन कुछ अपवाद को छोड़कर लगभग अधिकांश आपदा प्रबंधन केंद्र स्वयं आपदाग्रस्त हैं। तीव्र भूकंप, सूनामी एवं भयानक हादसों से गुजरता देश भारत, कॉमनवेल्थ खेल और ओलंपिक के आयोजन में तो रुचि लेता है लेकिन वह समुद्री तूफानों की पूर्व चेतावनी के लिए बने अंतर्राष्ट्रीय चेतावनी व्यवस्था का सदस्य नहीं बन पाता है। बताते हैं कि यदि भारत इस सिस्टम का सदस्य होता तो वर्ष 2004 में आए सूनामी में इतनी बड़ी संख्या में इंसानी जान की तबाही नहीं होती। तब एक अरब रुपए से भी ज्यादा की लागत से सूनामी चेतावनी प्रणाली लगाने की केंद्र ने घोषणा की थी मालूम नहीं उसका क्या हुआ।

सफल आपदा प्रबंधन की पहली शर्त होती है मजबूत सूचना एवं संपर्क प्रणाली। खास कर पर्वतीय क्षेत्र में जब संपर्क के माध्यम सीमित हों तो विशिष्ट साधनों जैसे हेलिकॉप्टर, वाईफाई, रेडियो आदि तंत्रों को सदैव दुरुस्त रखना चाहिए। हमारे पर्वतीय क्षेत्रों में प्राशसनिक भ्रष्टाचार की अनगिनत बानगी देखने-सुनने को मिलती है। अब वक्त की जरूरत है कि सहकारी समितियों या अन्य भरोसेमंद समितियों की मदद से आपदा प्रबंधन मशीनरी दुरुस्त की जाए।

देश को अपने पर्वतीय प्रदेशों, इलाकों में सामान्य प्रशासन एवं आपदा प्रबंधन दोनों के लिए ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। यह विडंबना ही है कि हम अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न मैदानी इलाके में रहने वाले लोग पर्वतीय प्रदेशों या क्षेत्र को महज पर्यटन की नजर से देखते हैं। यदि भारतीय प्रदेशों की एकता और अखंडता की हमें वास्तविक चिंता है तो हमें इन क्षेत्रों में घटने वाली हर अच्छी बुरी घटना या आपदा से स्वयं को जोड़ऩा होगा। भारत का लगभग पूरा क्षेत्र ही भूकंप संवेदी क्षेत्र है। ऐसे में हम भारतीयों को दूरदर्शी होकर अपने सभी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याओं व मुसीबतों में स्वयं को जोडऩा चाहिए। तभी हमारी सरकारों पर भी दबाव बनेगा कि वे केरल से कश्मीर और उड़ीसा से सिक्किम तक के नागरिकों की बराबर परवाह करें। सिक्किम का भूकंप हमें चेतावनी भी देता है और भविष्य के लिए मौका भी। वरना हम एशिया के सर्वाधिक ज्वलनशील एवं अशांत क्षेत्र में बसे राष्ट्र हैं जहां कई प्रकार की प्राकृतिक और सामरिक-कूटनीतिक आपदाएं हमें चुनौती दे रही हैं।

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