संदर्भ शहरी बाढ़: पानी ने नहीं भूली राहें, भटक तो शहर गया है
बरसात पहले भयावह सिर्फ शहर के उन्हीं इलाकों के लिए होती थी जिन्हें गरीब–गुरबों के झोपड़पट्टी वाला इलाका कहा जाता था। पर अब बरसात हर शहरी और उससे भी बढ़कर शहरी निकायों के अधिकारियों के लिए भी भयावह होने लगी है। क्योंकि बरसात आते ही बड़े जतन से छुपाए गए भ्रष्टाचार और झूठ को बेपर्दा कर जनता के सामने रख देती है। शहरियों के लिए तो यह छोटे–मोटे प्रलयकाल की तरह का अनुभव देने लगी है। लगता है मानो नदियां अपना रास्ता भूल कर सड़कों पर उतर आई हैं‚ और समतल तथा निचले इलाकों को समंदर मान ले रही हैं। पर पानी ने अपना रास्ता नहीं भूला है। शहर शराफत के रास्ते से भटक गया है। शहर और शहरी सारी सभ्यता को अपने सेवक की तरह मानने लगे हैं‚ उन्हें किसी की कद्र नहीं रही। नदियों‚ झीलों और तालाबों का कत्लगाह बन चुके शहरों के सुधर पाने के इंतजार में जब पानी के सब्र का बांध टूट जाता है तो वह स्थानीय निकायों की लाचारी और बेशर्मी एक साथ उजागर कर देता है।
आजकल बरसात का मौसम आते ही जीवन को रोजमर्रा के ढर्रे पर बनाए रखने की कोशिश में पस्तहिम्मत शहरियों की छवियों से मीडिया पट जाता है। कारण‚ सड़क नदियों का रूप ले लेती हैं‚ और मैदान समुद्र से लगने लगते हैं। उंगलियों के एक इशारे पर सब कुछ अपने हिसाब से चलाने के आदी हो चुके शहरी लोगों की जिंदगी में अव्यवस्था अपने विकराल रूप में उपस्थित हो जाती है। बरसाती पानी नदियों का रूप धारण कर घर के भीतर घुस आता है‚ बिजली और बिजली के उपकरण बंद हो जाते हैं। सड़कें उनके लिए मिशन इंपॉसिबल बन जाती हैं। शहरों को यह सब प्रकृति की ज्यादती लगने लगती है तो सत्ता को यह दुःस्वप्न की तरह लगता है। इस वक्त उनसे इस अव्यवस्था का जवाब मांगने वालों का शोर बढ़ जाता है। ॥ पहले आम धारणा थी कि यह सब अविकसित झोंपड़पट्टी वाले इलाकों की बात है पर अब कथा बदल चुकी है। अब ये परेशानियां मर्सिडीज में चलने वाले सबसे इलीट वर्ग तक भी पहुंच चुकी हैं। चेन्नई के वे दृश्य शायद लोगों अभी भी नहीं भूले होंगे जब हजारों लग्जरी गाडि़यां पानी में डूब जाने के कारण बेकार हो गई थीं और साधन–संपन्न लोगों को भी कई दिनों तक ब्रेड–चाय पर गुजारा करना पड़ा था। इस बार दिल्ली में बरसात में होने वाली परेशानियों ने न सिर्फ आम लोगों का दरवाजा खटखटाया है पर इस बार उसने संसदों और सत्ताधारी लोगों का भी दरवाजा खटखटा दिया है। बरसात में बदइंतजामी से परेशान शहर और शहरी कोई नई बात नहीं रह गए हैं। दिल्ली‚ मुंबई‚ चेन्नई‚ बेंगलुरुû हर जगह एक ही कहानी बार–बार दोहराई जा रही है‚ एक ही शहर पहले पानी के लिए तरसता है फिर कुछ दिनों बाद पानी के रेलमपेल से हलकान होता है। सबसे दुखद यह बात है कि हादसे अक्सर पहले से बदनाम जगहों पर होते हैं। संजीदगी से जवाबदेही तय कर दोषियों को सजा दिलाने की बजाय कागजी खानापूर्ति कर अगले हादसे की पृष्ठभूमि तैयार कर दी जाती है। दिल्ली का मिंटो ब्रिज हर साल डूबेगा।
पानी का नहीं कोई दोष
पर इस पूरी कथा में बेचारे पानी का कोई दोष नहीं है। वह तो अपने धर्म को याद रखे हुए अपने ही तय रास्तों पर चलना चाहता है। भटकी तो सत्ता है जिसे पानी के रास्तों की न तो याद है‚ न उसकी कद्र। उसने उसकी याददाश्त और कद्र‚ दोनों ही भुला दी हैं। शहर अपने विस्तार और सुविधा के रास्ते में न जमीन की प्राकृतिक ढलान की परवाह करता है‚ न नदियों और जल स्रोतों के आपसी रिश्तों की। सबको ध्वस्त करते लीलता चलता है।
बरसात में जहां सड़क नदी का रूप लेती है वहां शासन और शहर ने किसी पुरानी नदी की हत्या की होती है जहां एक समंदर सा लहराता नजर आता है वहां कोई तालाब दफन हुआ रहता है। पानी के अपने धर्म पर कायम रहने से भटकी हुई सत्ता बेपानी हो रही है। मगर अभी भी सबक सीखने को तैयार नहीं है। गावों और छोटे शहरों में फिर भी थोड़ी राहत होती है क्योंकि वहां जब तक कोई बड़ा हादसा नहीं होता तब तक मीडिया के कैमरे और रिपोर्ट का रु ख उस ओर नहीं होता पर महानगरों में मीडिया की बड़ी उपस्थिति की वजह से उनकी सांसें अटकी होती हैं। राजनीतिक आकाओं और जनता के बीच बसे इन लोगों की मुश्किल यह होती है कि मीडिया और जनता उन्हें चुप नहीं होने देती‚ चुप नहीं रहने देती और राजनीति उन्हें मुंह खोलने की इजाजत नहीं देती।
सत्ता के केंद्र दिल्ली में समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों की उपस्थिति में शासन व्यवस्था की लाचारगी कहती है कि महज रस्मी तौर पर भ्रष्ट प्रशासन और नाकारा कर्मचारियों की करतूत कह कर इस बहस को समाप्त नहीं किया जा सकता। समस्या की जड़ें गहरी हैं जो सिर्फ वर्तमान में ही नहीं हैं‚ बल्कि अतीत तक फैली हैं। जहां हमारे महानगरों का चयन करते वक्त औपनिवेशिक शासन ने अपनी वित्तीय सुविधा और सुरक्षा को ही केंद्र में रखा था‚ शहरों की योजना बनाते समय शहरों के भविष्य और नदियों को जल स्रोतों के साथ उसके रिश्तों की परवाह नहीं की थी।
शहरी समस्या के सभी पहलुओं पर गौर करने की जरूरत है। शहरों की संकल्पना के स्तर पर‚ संरचना या निÌमति के स्तर पर और फंक्शनल या प्रकार्यात्मक स्तर पर। स्थानीय समस्याओं को शहरी निकायों के हवाले कर दिया गया है। हालांकि संविधान संशोधन के माध्यम से उन्हें संवैधानिक दर्जा तो दिया गया है परंतु शक्ति संरचना में उनकी स्थिति संसद और विधानसभा के बीच त्रिशंकू की तरह है। लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की बात करने के बावजूद अभी तक सही मायने में उन्हें शक्ति प्रदान नहीं की गई। शहरी निकायों की जिस तरह के वित्तीय संसाधनों और सांस्थानिक संरचनाओं की जरूरत है‚ उसके लिए वे राज्यों और केंद्र सरकार पर निर्भर होते हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव को और उनकी प्रशासनिक संरचना को इस प्रकार लचीला बनाने की जरूरत है ताकि ऐसा न हो कि स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि चुने जाने से पहले स्थानीय जनता के प्रति और चुने जाने के बाद राजनीतिक पार्टियों के हाईकमान के प्रति निष्ठावान बन जाएं।
स्थानीय निकायः चुनाव प्रक्रिया दुरुस्त हो
स्थानीय निकायों के चुनाव को नियमित तौर पर छोटे–छोटे अंतरालों पर कराए जाने की जरूरत है‚ और इन्हें राजनीतिक पाÌटयों के प्रभाव से मुक्त कराने की कोशिश भी करनी चाहिए अन्यथा यह भी देखने में आया है कि अगर विधानसभा में किसी एक पार्टी का बहुमत है और नगर निगम में किसी अन्य पार्टी का बहुमत है‚ तो अक्सर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण नगर निगम के वित्तीय संसाधनों को सीमित कर उसे असफल बनाने की कोशिश की जाती है ताकि उसकी अनुप्रियता बढ़े और आने वाले चुनाव में उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। हमारे यहां अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है। हम अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाते हैं। भारत जैसे विशाल देश में देश और राज्य के स्तर पर तो यह ठीक है परंतु स्थानीय स्तर पर इसे अधिक से अधिक प्रत्यक्ष और भागीदारीपूर्ण बनाने की कोशिश होनी चाहिए।
आज जिस तेजी से नई–नई तकनीकें सामने आई हैं‚ उन्होंने समय और स्थान की बंदिशें कमजोर कर साझे निर्णय को आसान और संभव बनाया है। उनके लिए संभव है कि स्थानीय निकायों के स्तर पर महkवपूर्ण निर्णय के समय में जनता की एक बड़े आबादी की राय रियल टाइम पर ली जा सके॥। जिस तरह संसद की गतिविधियों का टीवी के माध्यम से प्रसारण होता है‚ उस तरह स्थानीय निकायों की आम सभा बैठक का स्थानीय केवल टीवी के माध्यम से प्रसारण किया जाए और प्रस्तावों पर जनता की प्रतिक्रिया उनमें शामिल करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। सरकारी प्रशासनिक विशेषज्ञों के अलावा जनता की ओर से विषय के जानकार विशेषज्ञों को महkवपूर्ण निर्णय पर होने वाली बहसों में उपस्थित रहने की व्यवस्था होनी चाहिए। आजकल छोटे उपग्रहों ने कम लागत पर शहरी आंकड़ों के रियल टाइम में संग्रहण और प्रसारण सुविधा उपलब्ध कराई है। जिस तरह से उपग्रहों ने बाजार (खासकर पर्यटन उद्योग और परिवहन उद्योग में आंकड़ों को रियल टाइम में उपलब्ध कराना संभव बनाया है) को प्रबंधन सहायता सेवा उपलब्ध कराई है‚ उसी तरह स्थानीय प्रशासन को सेटेलाइट डाटा और सॉफ्टवेयर प्रोग्राम के माध्यम से शहर के सम्मुख उपस्थित होने वाली समस्याओं और उनके हल के उपलब्ध विकल्प‚ उन विकल्पों की व्यवहार्यता और इससे पड़ने वाले वित्तीय भार की जानकारी देनी चाहिए। आजकल जिस तरह से छोटे उपग्रहों की लागत कम हुई है‚ और उनके आकलन की क्षमता बढ़ती है‚ उसे अनुमानित वर्षा की मात्रा और उसकी वजह से शहर के किन–किन स्थानों पर कितना जल जमाव हो सकता है‚ या उसे कहां से निकाला जा सकता है‚ इन सबके बारे में आंकड़ों को एकत्रित करना आसान है। वेदर मॉडलिंग में भारतीय प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञता ने जिस तरह से सटीक भविष्यवाणी करने को संभव बनाया है‚ उसके अनुसार शहरों को तैयारी के लिए मुकम्मल समय मिल सकता है। हमें शहर में नागरिकों की मदद से ऐसे समूहों को तैयार रखने की जरूरत है‚ जो आपात समय में नागरिक सुविधा सेवा बहाल करने में अपनी विशेष सहायता–सेवा दे सकें।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकर हैं।