कोसी तटबंध के निवासी हर दिन आवागमन या बाज़ार जाने के लिए नाव का इस्तेमाल करते हैं।
कोसी तटबंध के निवासी हर दिन आवागमन या बाज़ार जाने के लिए नाव का इस्तेमाल करते हैं।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

तीन महीने बाढ़, नौ महीने असर : बिहार में कोसी तटबंधों के बीच उजड़ता-बसता शरणार्थी जीवन

कोसी के तटबंधों के भीतर बसे गांवों की कहानी बताती है कि इनके जीवन और अधिकारों को सरकारों और जनप्रतिनिधियों ने पूरी तरह अनदेखा कर इन्हें नदी के भरोसे छोड़ दिया है। वह नदी, जिसे इन्हीं सरकारों ने दो तटबंधों के बीच बांधा है।
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सुपौल (कोसी,बिहार)। सुपौल ज़िला मुख्यालय से करीब पांच किलोमीटर दूर पूर्वी तटबंध की ओर बसे मुगरार गांव में इन दिनों आपको दूर-दूर तक सिर्फ कोसी नदी का पानी दिखेगा और बीच में टापू नुमा एक दो गांव। यहां दर्ज़नों गांव बसे हैं लेकिन दूर-दूर तक आबादी की झलक तक आपको नहीं मिलेगी। कोसी के बदनाम तटबंधों के बीच बसे इन गांवों की कहानी सुनी जाए, तो यह आज़ाद भारत की तमाम आबादी की कहानी से बहुत साल पीछे की कहानी मालूम होती है।

पिछले साल कोसी नदी में हुए कटान में मुगरार गांव के 195 घर कट गये। जहां आज पानी भरा है पिछले साल यहां घनी आबादी थी। लोगों के घर थे, ज़मीनें थीं, जानवर थे और आवागमन का रास्ता भी था लेकिन आज यह नावों का अड्डा बन गया है। पश्चिमी तटबंध के आस-पास रहने वाले लोग यहां नावों से उतरकर बाजार जाते हैं और फिर घर वापसी के लिए यहीं से नाव पकड़ते हैं।

इन गांवों में बच्चों के लिए पर्याप्त स्कूल नहीं, जो स्कूल हैं भी उनमें सभी शिक्षक नियमित नहीं आते। ये स्कूल एक-दो अध्यापकों के सहारे चलते हैं। इनके लिए अगर उपलब्ध स्वास्थ्य की आधारभूत सुविधा की बात की जाए, तो कुछ गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, लेकिन वे भी केवल नाम के लिए ही, क्योंकि वहां चिकित्सक नहीं आते।

देश भर में आई शौचालय क्रांति के बावजूद यहां शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं, क्योंकि यहां की अनिश्चितता के बीच जब पक्के मकान तक नहीं बनाए जाते, शौचालयों के बारे में कौन सोचे। इनकी आजीविका के मुख्य स्रोत दुधारू जानवरों के चारागाह और फसल, दोनों ही भगवान और कोसी के भरोसे हैं। इन्हें नहीं पता होता है कि इस साल फसल पैदा होगी या नहीं, क्योंकि सब कुछ कोसी की बाढ़ पर निर्भर करता है।

कोसी के गांवों में लोगों के आवागमन का एकमात्र साधन नाव है। रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इन्हें घंटों नाव में सफर कर नदी पार करनी पड़ती है।
कोसी के गांवों में लोगों के आवागमन का एकमात्र साधन नाव है। रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इन्हें घंटों नाव में सफर कर नदी पार करनी पड़ती है।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

अपनी मर्ज़ी से आना-जाना तक मुमकिन नहीं

यहां लोगों का जीवन अन्य लोगों की तुलना में कई गुना ज़्यादा संघर्षों भरा है। लोग सामान्य आबादी की तरह कभी भी कहीं भी अपनी मर्ज़ी से आ जा नहीं सकते। इनका बाहर आने-जाने का समय नाव की उपलब्धता पर निर्भर करता है। जितने समय में एक आम नागरिक 100-200 किलोमीटर दूरी तय करके एक शहर से दूसरे शहर पहुंच जाए, उतनी देर में ये लोग अपने गांव से केवल मुख्य सड़क तक पहुंच पाते हैं।

एक नाव में 15 से 20 लोग तक यात्रा करते हैं। सामान ज़्यादा होने पर लोगों की संख्या कम हो जाती है। साग, सब्जी, दवा, गेहूं पिसाई, गैस भरवाई जैसे अनगिनत कामों के लिए इन्हें शहर आना पड़ता है। इनके लिए साल के सात-आठ महीने नाव से यात्रा सामान्य सी बात है। मानसून के दिनों में इनकी मुश्किलें कई गुना बढ़ जाती हैं, क्योंकि इन्हें दो तीन महीने बाढ़ के उफनते पानी के बीच तटबंधों के भीतर गांवों में कैद होकर रहना पड़ता है।

देश भर में आई शौचालय क्रांति के बावजूद यहां शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं, क्योंकि यहां की अनिश्चितता के बीच जब पक्के मकान तक नहीं बनाए जाते, तो शौचालयों के बारे में कौन सोचे।
देश भर में आई शौचालय क्रांति के बावजूद यहां शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं, क्योंकि यहां की अनिश्चितता के बीच जब पक्के मकान तक नहीं बनाए जाते, तो शौचालयों के बारे में कौन सोचे। फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

अगस्त की उस दोपहर सूरज की तपिश कुछ ज़्यादा थी। पश्चिमी तटबंध के अन्दर बसे गांवों से एक के बाद एक आ रही नावों में बैठे लोगों की हालत तेज गर्मी और उमस की वजह से खराब थी। सबको नाव से उतरकर ऑटो में बैठने की हड़बड़ी थी, क्योंकि इन्हें सारा काम निपटाकर इसी नाव से वापस भी लौटना था। एक नाव से तीस वर्षीय प्रियंका देवी उतरीं। इन्हें अपने गांव खुखनहा से मुगरार तक पहुंचने में पांच घंटे का समय लगा। 

पूछने पर वे रोज़मर्रा के अपने संघर्ष के बारे में समझाने लगीं, “सुबह सात बजे घर से चले हैं। अभी घड़ी में समय देखिये, 12 बज गया होगा। नाव बहुत घूम-घूमकर आती है। कभी तीन-चार तो कभी-कभी पांच घंटे लग जाते हैं। अभी बाढ़ नहीं आयी है, तो बाज़ार आ जाते हैं। बाढ़ आ जायेगी तब तो दो तीन महीने तक अन्दर ही गांव में ही रहना पड़ेगा।”

प्रियंका के पति पंजाब कमाने गये हैं। जो साल में तीन से चार बार आते हैं। ये अपने दो बच्चों के साथ गांव में रहती हैं और महीने-पन्द्रह दिन में ऐसे ही घर के ज़रुरी सामान खरीदने के लिए नाव से सुपौल आती हैं। आज ये अपने बीमार बच्चे को लेकर इलाज के लिए जा रही थीं। नाव से आने-जाने में इनका पूरा एक दिन जाता है। नाव का दोनों तरफ का किराया 100 रूपये पड़ता है और फिर ऑटो से किराया देकर सुपौल पहुंचती हैं।

लगभग पांच घंटे की यात्रा के बाद प्रियंका देवी अपने घर का जरूरी सामान खरीदने सुपौल पहुंची हैं। बाढ़ के दिनों में जब कोसी नदी के उस पार जीवन ठहर जाता है, तब इन्हें राशन के नाम पर सिर्फ़ चिवड़ा-मूढ़ी से गुज़ारा करना पड़ता है।
लगभग पांच घंटे की यात्रा के बाद प्रियंका देवी अपने घर का जरूरी सामान खरीदने सुपौल पहुंची हैं। बाढ़ के दिनों में जब कोसी नदी के उस पार जीवन ठहर जाता है, तब इन्हें राशन के नाम पर सिर्फ़ चिवड़ा-मूढ़ी से गुज़ारा करना पड़ता है।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

मुगरार घाट पर नाव से उतरते हुए बेचू मुखिया आज बहुत गुस्से में थे, क्योंकि आज उनकी हाथ से चलाने वाली नाव हवा के तेज बहाव में पलट गयी थी। वे बताते हैं, “आज नाव चलाकर आया, तो बीच में हवा तेज चलने लगी। बैलेंस बिगड़ गया। दूध बेचने जा रहा था नाव डगमगाई तो पूरा दूध फैल गया। शुक्र है उधर से स्टीमर (इंजन से चलने वाली नाव) आ रही थी उसमें बैठा। ये रोज का संघर्ष कौन समझेगा। लोग तो समझते हैं कि बाढ़ में ही दिक्कत होती है। यहां का आदमी तो हर दिन तकलीफ में जीता है। ”

वे आगे कहते हैं, “शुद्ध सरसों का तेल 200 रूपये लीटर, चावल 40 से 50 रूपये किलो है, साग सब्जी के दाम आसमान छू रहे हैं। महंगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। यहां कमाई का कोई जरिया नहीं। लोगों को दो वक़्त का खाना मिल जाए वही बड़ी बात है। साल में एक फसल हो पाती है दूसरी फसल कोसी भरोसे रहती है। बीडीओ, कलेक्टर कोई कुछ नहीं सुनता है। नाव की बहाली के लिए हर साल घूस मांगी जाती है।”

“अगर बांध से पूरब दिशा में जमीन चली गयी तो थोड़ी सी जमीन की कीमत 10-20 लाख रूपये हो जाती है। हमारी जमीन बांध से पश्चिम में है तो उसकी कीमत मिट्टी मोल भी नहीं बिकती”, बेचू मुखिया ने सरकार पर अनदेखी का आरोप लगाया।  

बाढ़ के दौरान नाव परिचालन के लिए सरकारी प्रावधान है। अप्रैल 2023 में बिहार विधान परिषद ने ‘नौकाघाट बंदोबस्ती एवं प्रबंधन विधेयक 2023’ पारित किया। इसके तहत नाव मालिकों को नावों का पंजीकरण कराना होता है। इसके लिए फीस लेकर नाव की फिटनेस जांच की जाती है।

नाव पर चालक का नाम, रजिस्ट्रेशन संख्या और मोबाइल नंबर लिखना ज़रूरी होता है। साथ ही यात्रियों के लिए नाव पर लाइफ जैकेट रखने का भी नियम है। आम नागरिकों को आवागमन की सुविधा उपलब्ध कराने के अलावा पंजीकृत नावों को प्रशासन बाढ़ या राहत कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है। हालांकि, ये नियम कभी पूरे नहीं किए जाते।

इस नाव में, नाविक समेत 15 लोग सवार हैं, जो साग-सब्ज़ी, दवा, गेहूँ पिसाई, गैस भरवाने जैसे अनगिनत कामों के लिए शहर जा रहे हैं।
इस नाव में, नाविक समेत 15 लोग सवार हैं, जो साग-सब्ज़ी, दवा, गेहूँ पिसाई, गैस भरवाने जैसे अनगिनत कामों के लिए शहर जा रहे हैं।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

मुगरार गांव में हमारे तीन चार घंटे गुज़ारने के दौरान छह-सात नावें आयीं, दर्ज़नों लोग उतरे पर किसी ने भी लाइफ जैकेट नहीं पहनी थी। सरकारी नावें एक तो सभी गांवों को नहीं जातीं, दूसरे उनकी संख्या पर्याप्त नहीं है, इसलिए लोग निजी नाव चलाते हैं, जिसके लिए हर व्यक्ति को किराया देना पड़ता है।

बाकी देश से 40 साल पीछे है तटबंधों के भीतर का जीवन

कोसी नदी के अन्दर तटबंध का जीवन कैसा है? इस सवाल के जवाब में खुखनहा की प्रियंका कहती हैं, “ज्यादातर मर्द परदेश कमाने चले जाते हैं। बुजुर्ग और महिलाएं बचती हैं। उन्हें ही साल भर जूझते रहना पड़ता है। वहां अस्पताल नहीं हैं। आठवीं के बाद स्कूल नहीं हैं। बच्चों को पढ़ने के लिए सुपौल रखना पड़ता है। जिनके पास पैसा है वे रख लेते हैं नहीं तो बच्चे थोड़े बड़े हुए और उन्हें कमाने भेज दिया जाता है। वहां जब आप रहेंगे तब आपको पता चलेगा हम लोग कैसे जीवन जी रहे हैं। हमारा जीवन आज भी 40-50 साल पीछे है।” 

प्रियंका के इन शब्दों में एक शिकायत थी कि उनका जन्म कोसी इलाके में क्यों हुआ, जहां जीवन इतना मुश्किल है। कोसी के लोगों के 40 साल पीछे होने की बात का जिक्र लोक वैज्ञानिक दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी एक रिपोर्ट में की है। वे लिखते हैं कि कोसी तटबंधों के भीतर रहने वाले लोग शिक्षा के मामले में देश से लगभग 40 साल और बिहार के बाकी हिस्सों से करीब 20 साल पीछे हैं।

नाव तक पहुंचने के लिए ग्रामीणों को इन सुनसान जंगलों से होकर गुज़रना पड़ता है। घंटों तक चलने के बाद वे नाव तक पहुंच पाते है।
नाव तक पहुंचने के लिए ग्रामीणों को इन सुनसान जंगलों से होकर गुज़रना पड़ता है। घंटों तक चलने के बाद वे नाव तक पहुंच पाते है। फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

उनकी रिपोर्ट के मुताबिक तटबंधों के भीतर शिक्षा की स्थिति बहुत खराब है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार सहरसा जिले की साक्षरता दर केवल 39.28 प्रतिशत थी (पुरुष 52.04 और महिला 25.31 प्रतिशत) जबकि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता दर 65.38 प्रतिशत थी। कोसी के तटबंधों के भीतर महिला साक्षरता तो महज 14.39 प्रतिशत दर्ज़ की गई जो 1951 में भारत की महिला साक्षरता दर के बराबर है। कुछ ब्लॉकों जैसे सुपौल के मरौना और सहरसा के सिमरी बख्तियारपुर में महिला साक्षरता 10 प्रतिशत से भी कम थी।

वहीं, 2011 की जनगणना के मुताबिक सुपौल ज़िले की ग्रामीण साक्षरता दर 56.89 प्रतिशत (पुरुष 69 प्रतिशत और महिला 44 प्रतिशत) और सहरसा की 51.08 प्रतिशत (पुरुष 62 प्रतिशत और महिला 39 प्रतिशत) थी। कई गांवों में यह दर और भी कम है जैसे महिषी प्रखंड के सुपौल गांव में केवल 39.30 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कोसी के तटबंधों के बीच बसे 380 गांवों में 9 लाख 80 हजार लोग रहते हैं।

पुनर्वास का दावा, पर पलायन है यहां की आर्थिक सच्चाई

कोसी तटबंध के निर्माण के बाद 3 दिसंबर 1958 को बिहार विधानसभा में सरकार ने घोषणा की थी कि प्रभावित ग्रामीणों के लिए घर बनाने की जमीन उपलब्ध कराई जाएगी। सामूहिक सुविधाओं जैसे स्कूल और सड़कों के लिए अतिरिक्त जमीन दी जाएगी, पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था होगी और आवागमन के लिए पर्याप्त संख्या में नौकाओं का प्रबंध भी किया जाएगा। 

खुखनहा से आये 65 वर्षीय विन्देश्वर, सरकार से नाराजगी ज़ाहिर करते हैं, “हमारे पूर्वजों को ठग कर, हमसे तमाम झूठे वादे करके हमारी मर्जी के खिलाफ सरकार ने तटबंध बना लिया। बोला था नौकरी देंगे, सब सुविधा देंगे पर दिया कुछ नहीं। पूर्वी-पश्चिमी तटबंध के बीच रखकर हमें सरकार प्रलोभन दे रही है। जहां से आ रहा हूँ वहां चारों तरफ नदी है। कुछ दूर नदी में तैरने के बाद नाव में बैठकर सुपौल बाजार जा रहा हूँ। बच्चों को पढ़ाई की दिक्कत, बीमारी में इलाज की दिक्कत, युवाओं को रोजगार की दिक्कत। कोसी नदी के किनारे बसे लोगों का जीवन तो भगवान भरोसे रहता है।”

साल 2008 की कोसी बाढ़ के बाद विश्व बैंक और बिहार सरकार के बीच हुए समझौते में लगभग एक लाख घरों के पुनर्निर्माण, सड़कों और पुलों के निर्माण तथा आजीविका सुधारने के उपाय शामिल थे। इसके लिए विश्व बैंक से दो बार कर्ज़ लिया गया। कुल 160 मिलियन अमेरिकी डॉलर का कोसी फ़्लड रिकवरी प्रोजेक्ट और 250 मिलियन अमेरिकी डॉलर का कोसी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट। इन कर्जों से तटबंध के बाहर के इलाकों में कार्य हुए, पर तटबंधों के भीतर लोगों को मदद नहीं मिली।

बिहार सरकार के अनुसार कोसी नदी के किनारे बसे प्रभावित परिवारों का पुनर्वास किया गया है। सरकार का दावा है कि तटबंधों के बाहर इन परिवारों को ज़मीन आवंटित की गई है और उन्हें आवास निर्माण के लिए आवश्यक सहायता प्रदान की गई है। इन गावों के लोगों के मुताबिक पुनर्वासित लोगों को रहने के लिए केवल 3 डिसमिल यानी 1960 वर्ग फुट ज़मीन दी गयी लेकिन आर्थिक रूप से उनकी आजीविका को पुनर्वास में शामिल नहीं किया गया। सरकार ने कहा था कि बाढ़ प्रभावित इलाके के लोगों को 15 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा, शिक्षितों को थर्ड और फोर्थ ग्रुप की नौकरी दी जायेगी।

आईडब्लूपी ने जितने भी लोगों से बात की, किसी को भी नौकरी का लाभ नहीं मिला था।  ज़्यादातर परिवारों के पुरुष आजीविका की तलाश में पलायन कर चुके हैं। 

नाव चला रहे 25 वर्षीय श्रवण कुमार का घर निर्मली में है। वे कहते हैं, “एक साल से नाव चला रहे हैं। गाँव में कोई लड़का लोग नहीं बचा है। गाँव यहाँ रहेंगे तो खायेंगे क्या? सब बाहर कमाने चले गये। हमें नाव से एक चक्कर लगाने में दो से तीन घंटा लग जाता है। सुबह छह बजे से शाम छह-सात बजे तक नाव चलाते रहते हैं। पानी में किसको नहीं डर लगेगा, पर क्या करें करना पड़ता हैं। उतना ही कमा पाते है जिससे भूखा न सोना पड़े। यहां सबका हाल एक जैसा ही है।”

घरों को बांस, तिरपाल और घास-फूस की मदद से बनाया जाता है। ये घर कितने दिन चलेंगे ग्रामीणों को खुद पता नहीं होता।
घरों को बांस, तिरपाल और घास-फूस की मदद से बनाया जाता है। ये घर कितने दिन चलेंगे ग्रामीणों को खुद पता नहीं होता।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

हर साल कोसी में घर डूबते हैं और सपने भी

यहां लोग सालों से हर बार उजड़ने और बसने के बीच जी रहे हैं। हर साल इनके घर डूबते हैं और सपने भी। घरों को बांस, तिरपाल और घास-फूस की मदद से बनाया जाता है। ये घर कितने दिन चलेंगे इन्हें खुद पता नहीं होता। घरों में सुविधाओं के नाम पर खाना बनाने के कुछ बर्तन, राशन और सीमित कपड़े हैं। टीवी, फ्रिज, कूलर जैसी आम सुविधाएं इनके लिए किसी सपने से कम नहीं हैं। 

बलवा पंचायत के डुमरिया गांव में रहने वाले विन्देश्वर यादव बात करने पर मीडिया से नाराज़गी दिखाते हैं। वे कहते हैं, “मीडिया वाले सब यहां बाढ़ के समय आते हैं। वो यहां की समस्याएं भी देखकर जाते हैं पर टीवी और मोबाइल पर बड़े-बड़े नेताओं का इंटरव्यू दिखाते हैं कि उन्होंने पुनर्वास कर दिया। हमारी समस्या वो वैसी नहीं दिखाते जैसी हम लोग सालभर झेलते हैं। गुड़-चूड़ा बांटा गया वो दिखा देंगे पर हमने कितने दिन भरपेट खाना नहीं खाया, वो किसी को पता नहीं चलेगा। कोसी के लोगों का जीवन तो पशुओं से बदतर हैं। पर क्या करें जीना, मरना सब यहीं पर है।”

वे बताते हैं कि पिछले साल डुमरिया के 100 घर बाढ़ में बह गये। अभी वे जहां रहते हैं वहां चारों ओर पानी है। ज़मीन का कटाव यहां बड़ी समस्या है। “गांव का कोई कोना बाढ़ से सुरक्षित नहीं है। नहीं पता कौन सी रात हमारी आखिरी हो, पर क्या करें? कोसी तटबंध पर सरकार हमें रहने नहीं देती। खेत डूब जाते हैं, चारागाह डूब जाते हैं, घर कट जाते हैं। कई बार तो गांवों का नामोनिशान तक नहीं बचता है,” वे बताते हैं।

बेरिया पंचायत में पिछली साल बाढ़ में 195 घर कट गये लेकिन पुनर्वास केवल 100 लोगों को मिला। इस गांव के नौ नम्बर वार्ड के सदस्य मोहम्मद हासिम बांस से बना अपना घर दिखाते हुए कहते हैं कि इस नदी को बिहार का शोक ऐसे नहीं कहा जाता। हकीकत में यहां रहने वाले लोगों को इस नदी ने शोक दिया है और दे रही है।

जिस जमीन पर आप हमारा घर देख रही हैं यह हमारे पूर्वजों ने खरीदी थी। हमारी पंचायत के बाढ़ में 195 घर विलीन हो गये थे लेकिन पुनर्वास सिर्फ 100 को मिला। बाकी बचे 90-95 लोग ऐसे ही रह गये। उनका तो सब चला गया अब वे कहां जायेंगे। बचे हुए कुछ लोग पूर्वी तटबंध पर आकर बस गये लेकिन अब सरकार उन्हें भी खदेड़ रही है। बताईये वे क्या करें?”

मोहम्मद हासिम, वार्ड सदस्य, बेरिया पंचायत

कोसी के तटबंधों पर बसे गांवों में घरों का हाल कुछ ऐसा है। बहुत कम सामान के साथ ये लोग बाढ़ के वक्त इन्हीं घरों में महीनों तक खटिया के ऊपर खटिया रखकर उसके ऊपर रहते हैं।
कोसी के तटबंधों पर बसे गांवों में घरों का हाल कुछ ऐसा है। बहुत कम सामान के साथ ये लोग बाढ़ के वक्त इन्हीं घरों में महीनों तक खटिया के ऊपर खटिया रखकर उसके ऊपर रहते हैं।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल
कोसी पीड़ितों की मदद के लिए काम करने वाला जन संगठन कोसी नव निर्माण मंच (केएनएनएम) लगातार इस इलाके की आवाज़ बनता रहा है। संगठन के परिषदीय अध्यक्ष इन्द्रनारायण बताते हैं, “हमारे आंकड़ों के अनुसार जिनके गांव कटे हैं उनमें से कुछ लोगों को ही पुनर्वास के नाम पर घर बनाने के लिए 3 डिसमिल ज़मीन मिली है। बाकी के लोग पुनर्वास के इंतजार में हैं। उन्हें नहीं मालूम वे कहां जाएंगे। कुछ लोग पूर्वी तट पर बसे हैं, उन्हें हटाने के लिए कहा जा रहा है। जिनका पुनर्वास किया भी गया उन्हें किसी तरह का आर्थिक पुनर्वास नहीं दिया गया है। किसी तरह उन्होंने रहने के लिए घास-फूस की झोंपड़ी भर बना पाई है।”

भारत में बाढ़ प्रभावित इलाकों में 17.2 प्रतिशत हिस्सा बिहार का है

भारत के बाढ़  प्रभावित इलाकों में 17.2 प्रतिशत हिस्सा बिहार का है। राज्य में लगभग हर साल बाढ़ आती है, जिससे लोगों को भारी आर्थिक और मानवीय नुकसान होता है। पिछले दस सालों में बाढ़ से 2,300 लोगों की मौत हुई और करोड़ों रुपये की फसलें बर्बाद हुईं। 

बिहार में आठ बड़ी नदियां और 600 से ज़्यादा मौसमी नदियां हैं, जिन्हें हर साल आने वाली बाढ़ का कारण माना जाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल सुपौल, नालंदा, गया, भागलपुर, कटिहार, दरभंगा, सीतामढ़ी समेत 18 जिलों के 30.62 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। 

बीते 23 जून, 2025 को बिहार आपदा प्रबंधन विभाग ने गृह मंत्रालय को बताया कि 2024 की बाढ़ में 27 जिलों के 3,662 पंचायतें डूब गईं। वहीं 19 लोगों की मौत हुई और 56 लाख लोग प्रभावित हुए। वर्ष 2015 से 2024 के बीच बाढ़ से 1,752 लोगों की जान गई और 6.76 करोड़ लोग प्रभावित हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अगस्त 2017 की बाढ़ में 815 लोगों की मौत हुई और करीब 9 लाख लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। वहीं साल 2010 से 2019 के बीच बाढ़ से आधे लाख से ज्यादा घरों को नुकसान हुआ।

साल 2008 की बाढ़ कोसी की सबसे भयावह त्रासदियों में गिनी जाती है। लेकिन 2023 और 2024 में भी हालात कुछ अलग नहीं रहे। 18 अगस्त 2008 को नेपाल के कुसहा में पूर्वी तटबंध टूटने से सुपौल, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा और सहरसा ज़िलों के सुरक्षित माने जाने वाले इलाकों में 50 लाख लोग प्रभावित हुए थे। बिहार सरकार, विश्व बैंक और जीएफ़डीआरआर की रिपोर्ट के अनुसार, 412 पंचायतों के 993 गांव इसकी चपेट में आए। 

बिहार कोसी फ़्ल्ड्स (2008) नीड्स असेसमेंट रिपोर्ट के मुताबिक 2,36,632 घर या तो पूरी तरह ढह गए या उन्हें बहुत नुकसन हुआ और इनमें से 157,428 घरों को मदद मिलने की ज़रूरत बताई गई। कोसी नवनिर्माण मंच के महेंद्र यादव को ये आंकड़े उंगलियों पर याद हैं। वे बताते हैं कि उस समय प्रशासन ने मात्र 56058 घर बनाकर इति श्री कर ली और बाकी पीड़ितों को छोड़ दिया गया।

घरों के अलावा, उस बाढ़ में 1100 पुल और पुलिया (कल्वर्ट) टूटीं, 1800 किमी सड़कें खराब हुईं। वहीं 38,000 एकड़ धान, 15,500 एकड़ मक्का और 6,950 एकड़ अन्य फसलें बर्बाद हुईं। जबकि 10,000 दुधारू पशु, 3,000 अन्य पशु और 2,500 छोटे जानवर मारे गए। 362 लोगों की जान गई और 3,500 लोग लापता हुए। कोसी तटबंध अलग-अलग जगहों पर अब तक आठ बार टूट चुका है।

लेकिन इतने साल बीतने और इतने नुकसान के बावजूद बिहार में बाढ़ के असर से बचने की कोई वैज्ञानिक-राजनैतिक तैयारी नज़र नहीं आती।

बिहार आपदा प्रबंधन विभाग की तरफ से हर साल बाढ़ को रोकने के लिए गांवों के किनारे ये बोरियां लगाई जाती हैं, लेकिन तेज़ बाढ़ इन्हें भी बहा ले जाती है।
बिहार आपदा प्रबंधन विभाग की तरफ से हर साल बाढ़ को रोकने के लिए गांवों के किनारे ये बोरियां लगाई जाती हैं, लेकिन तेज़ बाढ़ इन्हें भी बहा ले जाती है।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझते कोसी के गांव

कोसी के तटबंधों के भीतर बुनियादी सुविधाओं के अभाव की बात सभी निवासी करते हैं, बस चुने हुए प्रतिनिधि और सरकारें इस बारे में कुछ भी कहने से बचती हैं।

केएनएनएम के इन्द्रनारायण सिंह कहते हैं, “कोसी नव निर्माण मंच यहां के लोगों से जुड़े बुनियादी सवाल सरकार से पूछता है। तटबंध के अन्दर किसी भी गांव में कोई भी उप-स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। यहां के लोगों को इलाज के लिए जिला अस्पताल सुपौल लाना पड़ता है। कुछ गांव के लोगों को 2-3 बार नाव बदलनी पड़ती है। स्कूल नहीं, रोजगार के साधन नहीं, 40 प्रतिशत लोगों को पुनर्वास नहीं मिला। इधर अनगिनत समस्याएं हैं। भूमिहीन लोगों को 5 डिसमिल (0.05 एकड़) जमीन देने की सरकार ने योजना चलाई है इन्हें क्यों नहीं दे देती ज़मीन।”

सीआरपीएफ़ में इंस्पेक्टर के पद से रिटायर होने के बाद इंद्रनारायण सिंह अब कोसी नव निर्माण मंच से जुड़कर बाढ़ प्रभावित इलाकों तक बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का काम कर रहे हैं।
सीआरपीएफ़ में इंस्पेक्टर के पद से रिटायर होने के बाद इंद्रनारायण सिंह अब कोसी नव निर्माण मंच से जुड़कर बाढ़ प्रभावित इलाकों तक बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का काम कर रहे हैं।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

वे बताते हैं कि पुनर्वास की ज़मीन मिलने के बाद तटबंध के बाहर रहने वाले लोगों को भी खेती करने के लिए तटबंधों के अन्दर अपने खेतों पर आना पड़ता है। आने-जाने की सुविधा न होने के कारण जब वे यहां रह जाते हैं तो पुनर्वास वाली, जगह पर अवैध कब्ज़ा हो जाता है। इसे छुड़ाना काफी मुश्किल हो जाता है।

स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के बारे में वे बताते हैं, “प्रसव पीड़ा के वक्त अन्दर के लोगों को सुपौल जिला अस्पताल आना पड़ता है। इस अस्पताल तक पहुंचने के लिए कई गांवों के लोगों को तीन बार नाव बदलनी पड़ती हैं। ऐसे में काफी समय लग जाता है और मरीज अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते ही दम तोड़ देता है। सांप के काटने से या कोई और गंभीर बीमारी के समय मरीज इसी तरह दम तोड़ देते हैं, पर स्वास्थ्य सेस जरुर देना पड़ता है।  

यही स्थिति शिक्षा की भी है। कोसी इलाके में पहले सरकारी नियमानुसार 15 जून से 30 सितंबर तक के समय को बाढ़ का समय माना जाता था इस वजह से यहां के स्कूलों की छुट्टी रहती थी बाकी गर्मियों की छुट्टियों में यहां पढ़ाई रहती थी। पर अब ये नियम बदल दिए गए हैं। 

इंद्र नारायण बताते हैं, “जब जुलाई-अगस्त में स्कूल खुलने की बात हुई, तो इस पर सरकार ने किसी से राय मशविरा नहीं लिया। जब जुलाई-अगस्त और सितंबर में यहां स्कूल खुलेंगे तो बच्चे पढ़ने नहीं जा पाएंगे क्योंकि एक तो नावें सीमित हैं, दूसरा नदी का बहाव तेज़ रहता है और उसका जल-स्तर भी बढ़ जाता है। जिससे ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। अब स्कूल जून से सितंबर के बीच कागजों में ही संचालित हो रहे हैं, क्योंकि स्कूल में बच्चों की संख्या न के बराबर ही पहुंचती है।”

डगमरा पंचायत के वार्ड नम्बर 17 में  रहने वाली बबिता कुमारी तीन बहनें हैं। बबिता ने छठी कक्षा में सिघरहट्टा के उच्च प्राथमिक विद्यालय में पिछली साल एडमिशन कराया था। यह स्कूल तटबंध से बाहर है और भीतर आस-पास के गांवों में पांचवी कक्षा के बाद कोई स्कूल नहीं है। ये पिछले तीन महीने से स्कूल नहीं गईं हैं। 

हमारे गांव से नाव पकड़ने के लिए एक घंटे पैदल चलना पड़ता है। इधर जंगल में घास है और अकेले जाने में रोज डर भी लगता है, दूसरा अक्सर समय से नाव नहीं मिलती। एक दो महीने तो नदी में बहुत तेज़ बहाव रहता है, ऐसे में डर लगता है तो स्कूल नहीं जाते हैं। इस साल सातवीं में पहुंच गये पर किताबें अभी तक नहीं मिली। स्कूल जाकर भी क्या फायदा? जब किताबें नहीं तो क्या ही पढ़ाई करेंगे।

बबिता कुमारी, कक्षा छह, सिघरहट्टा उच्च प्राथमिक विद्यालय

बबिता के पिता श्री प्रसाद मेहता स्कूल में दो साल से किताबें न दिए जाने पर नाराज़गी जाहिर करते हैं। वे कहते हैं, “हमारी तीन बेटियां हैं। पिछले साल स्कूल में नामांकन कराया था। हमारे गांव के 90 बच्चों को स्कूल की ओर से मिलने वाली किताबें नहीं मिलीं।”

बबिता ने छठी कक्षा में सिघरहट्टा के उच्च प्राथमिक विद्यालय में पिछली साल एडमिशन कराया था। पर उन्हें किताबें नहीं मिली हैं, और आवागमन की सुविधा न होने के कारण वे नियमित स्कूल नहीं जा पा रही हैं।
बबिता ने छठी कक्षा में सिघरहट्टा के उच्च प्राथमिक विद्यालय में पिछली साल एडमिशन कराया था। पर उन्हें किताबें नहीं मिली हैं, और आवागमन की सुविधा न होने के कारण वे नियमित स्कूल नहीं जा पा रही हैं।फ़ोटो: नीतू सिंह, इण्डिया वाटर पोर्टल

आपके गांव के बच्चों को शिक्षा कैसे मिल पाती है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं, “गांव के 300-400 बच्चे स्कूल नहीं जाते। प्राइवेट नाव एक बच्चे के चार महीने के 1000 रुपये लेगी। गरीब आदमी कहां से इतना पैसा देगा? गांव में करीब 300 घर हैं हर घर में आठ से दस लोग रहते हैं जोड़ लीजिये कितनी आबादी होगी। यहां हरिजन लोग ज्यादा रहते हैं। हर साल वोट डालते हैं पर सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं है।”  

ज़मीन बचे या डूबे, सुविधाएं मिलें न मिलें, टैक्स और सेस देना ज़रूरी

द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक सालाना भूमि कर के अलावा, किसानों को 50 फीसद शिक्षा सेस, 50 फीसद स्वास्थ्य सेस, 20 फीसद कृषि विकास सेस और 25 फीसद सड़क विकास सेस देना होता है। कुल मिलाकर यह अतिरिक्त सेस 145 फीसद हो जाता है। 

कोसी तटबंधों के भीतर रहने वाले किसानों के लिए यह एक क्रूर मज़ाक से भी बुरा है। जहां हर साल ज़मीनें बाढ़ में डूब जाती हैं, खेत कट जाते हैं और बाढ़ उतरने के बाद बहुत सा समय सिर्फ़ खेतों से रेत और गाद हटाने में चला जाता है, जहां शिक्षा के लिए विद्यालय और शिक्षक नहीं, स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक और बिजली नहीं, सड़कों की व्यवस्था नहीं, रोज़गार के साधन नहीं, वहां इस तरह का कर और सेस, लोगों की दयनीय स्थिति सरकारों की हृदयहीनता की बानगी है। 

साल 2019 में केएनएनएम ने भूमि कर हटाने के लिए, तटबंधों के भीतर के 80 गांवों के 3,800 किसानों से हस्ताक्षर लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय के नाम पत्र लिखा था। मंच के अध्यक्ष ने पत्र में पूछा था, “जब तटबंध के भीतर के गांवों में खेती असंभव हो गई है और शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क की सुविधाएं ही नहीं है, तब ये सेस लगाने का क्या औचित्य है?”

पर इस प्रयास के बाद भी इन किसानों की दरख्वास्त को पूरी तरह नकार दिया गया। कोसी के तटबंधों के भीतर रहने वाले ग्रामीण न सिर्फ़ बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं, बल्कि इस तरह की कर व्यवस्था स्पष्ट करती है कि वे सरकारों के शोषण का भी शिकार हैं।

यह रिपोर्ट क्षेत्रीय पत्रकारिता फ़ैलोशिप 2025 के अंतर्गत लिखी गई है।

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