फटते बादल, बाढ़ और भूस्खलन: क्यों दबाव में आकर बिखर रहा है उत्तराखंड का नाज़ुक हिमालय
उत्तराखंड में सौंदर्य और त्रासदी दोनों साथ-साथ रहते-बसते हैं। एक तरफ़ जहां बर्फ के पानी से भरी नदियाँ, पवित्र तीर्थस्थल और भव्य पर्वत, जो तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, वहीं दूसरी ओर लगभग हर साल आती बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएं दिखाती हैं कि स्वर्ग जैसी यह जगह कितनी नाज़ुक हो चुकी है।
हाल ही में उत्तरकाशी के धराली में बादल फटने की घटना से दर्ज़नों घर तबाह हो गये और कई लोग का कुछ पता भी नहीं चला। धराली की यह घटना भी “अप्राकृतिक” आपदाओं की इस श्रृंखला की ताज़ा कड़ी है।
साल 2013 की केदारनाथ त्रासदी से लेकर 2023 में जोशीमठ की धँसती ज़मीन तक, यह पैटर्न बेहद साफ़ है: अनियंत्रित निर्माण, वनों की कटाई और नाज़ुक पारिस्थितिकी का अंधाधुंध दोहन हिमालय को उसकी सहन-सीमा तक धकेल रहा है।
इस क्षेत्र में पर्यटक भारी संख्या में पहुँचते हैं और इलाक़े की सड़क को चौड़ी करने के लिए पहाड़ों की कटाई की जाती है, नतीजतन स्थानीय समुदायों की स्थिति पहले से भी अधिक नाज़ुक हो गई है और वे अधिक असुरक्षित स्थिति में आ गए हैं।
दरअसल, उत्तराखंड की कहानी अब केवल प्रकृति के प्रकोप की कहानी नहीं रह गई है - यह हमारे द्वारा किए गये चुनावों की कहानी है और उन चेतावनियों की अनदेखी क़ीमत है, जिनकी ओर यहां की धरती लगातार इशारा कर रही है।
धराली (उत्तरकाशी, अगस्त 2025), में हाल में बादल फटने के कारण 40–50 इमारतें ढहने के साथ कई लोगों की जान भी चली गई। इतना ही नहीं, इस आपदा में नौ सैनिकों सहित क़रीब सौ से अधिक लोगों के लापता होने की खबर है। बचाव दलों को काफ़ी संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि इलाके की कुल 163 सड़कें और हाइवे भूस्खलन के कारण बंद हो गए थे। धराली, जो गंगोत्री जाने वाले यात्रियों के लिए एक ठहराव स्थल है, अब उन स्थानों की लंबी सूची में शामिल हो गया है जो आपदाओं से दाग़दार हो चुके हैं।
यह उत्तराखंड में आई कोई पहली आपदा नहीं है और ना ही धराली कोई अपवाद ही है। 2013 में केदारनाथ से लेकर 2021 में चमोली और 2023 में जोशीमठ तक, उत्तराखंड की कहानी बार-बार घटित होने वाली आपदाओं की रही है। ऐसी त्रासदियां, जिन्हें केवल प्रकृति के प्रकोप ने ही नहीं बल्कि विकास के नाम पर लिए गए फ़ैसलों ने और अधिक गंभीर और गहरा बना दिया है। पिछले कई वर्षों से राज्य में इस तरह की घटनाएँ बार-बार होती रही हैं।
“अप्राकृतिक” आपदाओं की दास्तान
2013 में, केदारनाथ में आई बाढ़ के कारण हज़ारों जानें चली गईं थीं और लाखों की संख्या में तीर्थयात्री फँस गए थे। हज़ारों स्थानीय लोग भी बेघर हो गये थे। इसके बाद साल 2021 में, ग्लेशियर पिघलने और भूस्खलन से उत्पन्न अचानक आई बाढ़ के कारण चमोली में दो सौ लोगों ने अपनी जान गँवा दी।
साल 2023 के जनवरी माह में, जोशीमठ में करीब नौ मकान ज़मीन के नीचे धंस गए। इसरो की एक उपग्रह रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि 27 दिसंबर 2022 से 8 जनवरी 2023 के बीच महज़ 13 दिनों में जोशीमठ की ज़मीन 5 सेंटीमीटर से अधिक धँस गई। इन बड़े हादसों के अलावा हर साल कई छोटे-छोटे हादसे लगातार होते रहते हैं।
साल 2000 तक उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि प्रकृति ने इसे न केवल असीम सुंदरता से नवाज़ा है, बल्कि यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों के विशाल भंडार से भी समृद्ध है। लेकिन विडंबना यह है कि इसकी मनमोहक वादियाँ और प्राकृतिक संपदा ही यहां आने वाली त्रासदियों का कारण भी बन गईं।
इलाके के प्राकृतिक सौदर्य का फ़ायदा उठाते हुए उत्तराखंड सरकार ने अपने राज्य को एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रचारित करना और यहां सड़कों के जाल को विस्तार देना शुरू कर दिया। नतीजतन, साल 2000 से साल 2024 कुल सड़क लंबाई में भारी वृद्धि हुई है।
साल 2013 में, केदारनाथ त्रासदी के बाद स्थानीय लोगों और पर्यावरणविदों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उत्तराखंड में किसी भी निर्माण कार्य से पहले भूवैज्ञानिक आकलन को अनिवार्य किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, आर्थिक विकास के नाम पर इस पहाड़ी राज्य में बेतहाशा निर्माण कार्य आज भी जारी है।
पर्यटन और विकास का दबाव
उत्तराखंड में आपदाओं की बढ़ती संख्या के पीछे कई प्रमुख कारण हैं, जिनमें वनों की अंधाधुंध कटाई, तेज़ी से किया जा रहा शहरीकरण, चार धाम सड़क परियोजना, जलविद्युत परियोजनाएं, विस्फोटकों से पहाड़ों को उड़ा कर बनाए जा रहे सुरंग मार्ग, नदियों और धाराओं के प्राकृतिक बहाव पैटर्न में बदलाव, रोपवे और हेलीपैड का निर्माण आदि शामिल हैं।
मसूरी, रानीखेत, नैनीताल, अल्मोड़ा और जोशीमठ जैसे शहरों में तेज़ी से विकास हुआ है। इन शहरों के तीव्र विकास का सीधा संबंध उनकी प्राकृतिक सुंदरता से है, जो बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करती है।
इसके अलावा, हिन्दू धर्म के चार पवित्र तीर्थस्थल, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ भी इसी राज्य में स्थित हैं। ऋषिकेश, हरिद्वार और सिखों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल हेमकुंड साहिब भी यहीं है। आर्थिक विकास के नाम पर राज्य सरकार ने अपने इस प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक पर्यटन के मेल का व्यावसायिक दोहन शुरू कर दिया।
इन सभी स्थानों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए चार-लेन सड़कें बनाई जा रही हैं। इसके परिणामस्वरूप पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की संख्या हर वर्ष तेज़ी से बढ़ रही है। वर्ष 2000 में जहां पर्यटकों की संख्या 1.11 करोड़ थी, वहीं 2023 में यह बढ़कर 5.96 करोड़ हो गई।
विशेषज्ञों से सलाह लिए बिना, नदी घाटियों में बड़े-बड़े होटल बनाए गए हैं, जिससे नदियों के प्राकृतिक प्रवाह मार्ग संकरे हो गए हैं। नतीजतन, भारी बारिश के दौरान, ये निर्माण नदियों के वेग के साथ बह जाते हैं। अक्सर, पूरे के पूरे गाँव ही बह जाते हैं, जिससे स्थानीय समुदायों को दुखद परिणाम भुगतने पड़ते हैं। इन घटनाओं से एक चिंताजनक सच्चाई सामने आती है कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र दबाव के कारण टूट रहा है।
कमज़ोर हो रहे पहाड़ों का असुरक्षित भविष्य
जंगलों की अंधाधुंध कटाई और विस्फोटकों से पहाड़ों को उड़ाने की प्रक्रिया ने इस क्षेत्र की अस्थिरता को पहले से भी अधिक बढ़ा दिया है। मानसून के दौरान, अपने प्राकृतिक संतुलन को को बनाए रखने में असमर्थ ये बंजर और कमजोर ढलान अपनी जगह से खिसकने लगते हैं। इसरो की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 1988 से 2022 के बीच उत्तराखंड में भूस्खलन की 11 हज़ार 219 घटनाएँ घटित हुई हैं।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड का 39 हज़ार वर्ग किलोमीटर (72 प्रतिशत) हिस्सा भूस्खलन-संभावित क्षेत्र है। ऐसे संवेदनशील इलाक़ों में किसी भी प्रकार का निर्माण- चाहे वह सड़कें हों, सुरंगें, इमारतें या बड़े प्रोजेक्ट—विनाशकारी परिणाम ला सकता है। वर्ष 2023 में उत्तरकाशी-यमुनोत्री मार्ग पर सिल्क्यारा-बरकोट सुरंग का एक हिस्सा ढह गया था, जिसमें 41 मज़दूर फँस गए थे। गहन प्रयासों के बाद उन्हें 17 दिन बाद सुरक्षित निकाला जा सका।
पहाड़ों के सुरक्षा-केंद्रित विकास के लिए मुख्य उपाय
अगर उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाए रखना है, तो इसके पहाड़ों को बचाना होगा। और इसके पहाड़ों को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है कि इस इलाके में विकास की एक नई परिभाषा गढ़ी जाए जिसके केंद्र में यहां की ज़मीन और पहाड़ों का भूगोल हो। सबसे ज़रूरी है कि पर्वतीय समुदायों की आवाज़ को जगह दी जाए। वे भूमि की लय को समझते हैं और उनके पास पारंपरिक ज्ञान है, जो सुरक्षित विकास का मार्गदर्शन कर सकता है।
विशेषज्ञों से सलाह को प्राथमिकता: नाजुक हिमालयी क्षेत्रों में भूवैज्ञानिक और पर्यावरणीय आकलन और स्थानीय समुदायों से जानकारी प्राप्त किए बिना किसी भी परियोजना पर काम शुरू नहीं किया जाना चाहिए।
सड़कों का सीमित चौड़ीकरण: ढलान की स्थिरता और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए, कई यूरोपीय देशों की तरह इस पहाड़ी इलाक़े में भी सड़कों की चौड़ाई को 8–10 मीटर तक सीमित किया जाना चाहिए।
पहाड़ों की वास्तविकता का सम्मान: मैदानी इलाक़ों के लिए बनाए गए विकास मॉडल को पहाड़ी इलाक़ों पर नहीं थोपा जाना चाहिए। इन इलाक़ों में विकास की योजनाएं स्थानीय भूगोल और ज़मीनी हकीकत पर आधारित होनी चाहिए।
नदियों का संरक्षण: किसी भी बांध या जल-विद्युत परियोजना को बनाते समय नदियों के प्राकृतिक प्रवाह और पारिस्थितिकी को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
कानूनी सुरक्षा उपायों को लागू करना: भविष्य में आपदाओं को रोककर लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र, दोनों की सुरक्षा के लिए नदी-घाटियों और बाढ़ के मैदानों में निर्माण पर सख्त प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
कहीं देर न हो जाए
उत्तराखंड एक चेतावनी है। उसकी नदियाँ, जंगल और पहाड़ केवल पर्यटन की पृष्ठभूमि या ऊर्जा संसाधन भर नहीं हैं, बल्कि जीवंत तंत्र हैं, जिन पर लाखों लोगों की ज़िंदगियाँ निर्भर करती हैं। विस्फोटों की मदद से हर सुरंग का निर्माण, हर जंगल की कटाई, हर नदी पर बाँध हिमालय को ढहने के और करीब ले जा रहे हैं।
धराली की बादल फटने की घटना कोई अलग-थलग त्रासदी नहीं है, बल्कि गहरी सामूहिक उपेक्षा का संकेत है। अगर भारत यूं ही मैदानों की तरह इस हिमालयी क्षेत्र में भी राज्यमार्गों और बाँधों का निर्माण जारी रखता है, तो आने वाले समय में इस तरह की त्रासदियों में इज़ाफ़ा ही होगा।
उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि पहाड़ी इलाक़ों में मैदानी इलाक़ों की तर्ज़ पर विकास कार्य को अंजाम नहीं दिया जा सकता है। जब तक पारिस्थितिकीय सीमाओं का सम्मान नहीं किया जाएगा तब तक आपदाएं और त्रासदियां भी प्राकृतिक नहीं होंगी। इसका दोष हम मनुष्यों पर ही होगा।
सवाल अब यह नहीं है कि बादल फटेंगे या भूस्खलन होगा। वे होंगे ही। असली सवाल यह है कि क्या हम इन पहाड़ों की सीमाओं का सम्मान करना चुन सकेंगे या तब तक बार-बार वही गलतियां दोहराते रहेंगे जब तक बचाने लायक कुछ शेष न रह जाए।
इस लेख का अनुवाद कुमारी रोहिणी ने किया है।