संदर्भ जलजीवन मिशन : जरूरी है गांवों में पेयजल की आपूर्ति हेतु वैकल्पिक और टिकाऊ जल-संसाधनों की तलाश (भाग 2)
3 - जल संरक्षण की प्रादेशिक प्रणालियों का विकासः-
चूंकि भारत में वर्षा का वितरण एक समान नहीं है, बल्कि इसकी प्राप्ति, उपलब्धता और वितरण में पर्याप्त विषमता है, जैसे मानसूनी वन प्रदेशों में जहां वार्षिक वर्षा की मात्रा 100 से 200 सेमी. तक होती है। वहीं मध्य प्रदेश, दक्षिण के पठारी भाग, गुजरात, उत्तरी-दक्षिणी आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा और दक्षिणी उत्तरी प्रदेश में 50 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है जिसमें वर्षा की विषमता 20 से 25 प्रतिशत तक है। जबकि कच्छ, पश्चिमी राजस्थान, लद्दाख जैसे क्षेत्रों में 50 सेमी. से भी कम वर्षा होती है जिसके कारण यहां जलापूर्ति एक विकराल समस्या है। इसलिए एक जैसी विधियों की बजाय क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुसार जल संरक्षण प्रणालियों का विकास किया जा सकता है और इसके लिए देश में भौतिक विशेषताओं के आधार पर वर्षा के वितरण एवं मात्रा के अनुसार विभिन्न प्रकार की जल-संरक्षण प्रणालियां प्रचलित हैं, जैसे हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश की कुहल प्रणाली, उत्तराखंड की हौजा प्रणाली, नगालैंड की जाखो और रूपा प्रणाली से जल संचयन का अनुसरण किया जा सकता है। मैदानी क्षेत्रों में राजस्थान और पंजाब की झालरा प्रणाली, हरियाणा की आबी व्यवस्था, उत्तर प्रदेश की पोखर और जलतलैया प्रणाली, बिहार की अटर और आहर पईन व्यवस्था, असम की डोंग व्यवस्था, ब्रह्मपुत्र मैदान की जाम्पोई विधि द्वारा जल संग्रहण प्रणाली का अनुसरण किया जा सकता है। पठारी क्षेत्र में मध्यप्रदेश की हवेली प्रणाली, कर्नाटक की कोरे प्रणाली, छत्तीसगढ़ की बंधारे व्यवस्था और महाराष्ट्र की फड प्रणाली से जल संचयन का अनुसरण किया जा सकता है। तटीय क्षेत्रों में गुजरात के काठियावाड़ की बाबडिया व्यवस्था, महाराष्ट्र की शिलोत्री सिंचाई व्यवस्था और तमिलनाडु की इरी व्यवस्था से जल-संचयन का अनुसरण किया जा सकता है। मरुस्थलीय क्षेत्र में राजस्थान की खादीन, नाड़ी, जोहड़, झालरा, बावड़ी, कुंड, थेबा, बुई, एनिकट आदि अनूठी पारंपरिक जल संचयन प्रणालियां हैं जिनके अनुसरण से आवश्यक जलापूर्ति के साथ बेहतर जल प्रबंधन भी किया जा सकता है।
4 - समुदाय-आधारित जल संचयनः
देश में प्राचीनकाल से ही सामुदायिक आधार पर विभिन्न तकनीकों द्वारा वर्षाजल संचयन एवं भूजल भंडार का पुनर्भरण किया जाता रहा है। करीब 3000 ई.पू. बलूचिस्तान और कच्छ के कृषक समुदाय वार्षिक उपयोग हेतु सामयिक जल-संचयन करते थे। राजस्थान के थार क्षेत्र में 4500 वर्ष पूर्व बारिश के पानी को एकत्र करने के प्रमाण हड़प्पा की खुदाई के दौरान पाए गए। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जब विज्ञान आज की भांति विकसित नहीं था तब भी समाज ने जल को संग्रहित करने की उन्नत विधियां विकसित कर ली थीं। जल संचयन हेतु कुई और बेरियों के निर्माण की प्रथा बहुत पुरानी है, जिसमें भूजल रिसाव से एकत्रित होता था। उसके बाद नाड़ी बनाने की शुरुआत हुई। गांवों के लिए नाड़ी सामुदायिक जल संग्रहण की प्रभावी तकनीक है। यह समुदाय के साथ पालतू जानवरों व पशुओं, दोनों के पेयजल की पूर्ति का स्रोत है, जो मरुस्थल में ग्रामीणों के लिए आजीविका का प्रमुख साधन है। इसी प्रकार टांका राजस्थान की सामुदायिक आधार पर विकसित एक परंपरागत जल-संग्रहण तकनीक है, जिसमें मूलतः वर्षाजल संग्रहित किया जाता है। यह ऊपर से ढका हुआ भूमिगत पक्का कुंड है। इसके प्रवेशद्वार पर आधा इंच की वर्गाकार लोहे की जाली लगी होती है, जो कचरे के साथ छोटे-छोटे जीवों जैसे सांप, चमगादड़, चिड़िया, गोह आदि को अंदर जाने से रोकती है। इस जल का उपयोग पीने, घरेलू कार्यों व पालतू पशुओं को पिलाने के लिए किया जाता है। आज के परिप्रेक्ष्य में भी प्राचीन परंपरागत जल संग्रहण विधियां पेयजल, कृषि और लोकजीवन को जीवित रखने में काफी कारगर हैं। इन विधियों को समयानुसार तकनीकी सुधार करके पानी की समस्या से निजात पा सकते हैं।
समुदाय-आधारित जल संचयन के तहत अपघटित वन- भूमियों, सरकारी, सामुदायिक और निजी भूमियों सहित खेती योग्य और गैर-खेती योग्य आदि सभी प्रकार की भूमियों के लिए एक जलसंभर प्रबंधन कार्ययोजना तैयार करके क्षेत्र की जलवायु और लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार जल-संचयन योजनाओं का विकास किया जा सकता है। कम लागत वाले फार्म टैंक, नालों पर बने बांध, चेक बांध, तालाब व भूजल पुनर्भरण की छोटी जल संग्रहण संरचनाओं का विकास किया जा सकता है। जल स्रोतों का नवीकरण और विस्तारण करके पेयजल और सिंचाई का प्रबंध, गांवों के तालाबों से तलछट (गाद) को निकालकर उनका पुनरुद्धार किया जा सकता है। वानस्पतिक और अभियांत्रिकीय संरचनाओं के उपयोग से जल निकासी नालियों का स्व-स्थाने उपचार किया जा सकता है। प्रायः गांवों में सामुदायिक आधार पर वर्षाजल संचयन एवं पुनर्भरण के लिए वाटरशेड को एक इकाई के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। रिचार्ज शाफ्ट, चेकडैम, गैबियन स्ट्रक्चर, नाला प्लानिंग, रिचार्ज कूप, फालतू जल हेतु रिचार्ज पिट आदि जल बचाने की आसान व सस्ती सामुदायिक विधियां हैं।
5 - भूजल का कृत्रिम पुनर्भरणः
भूजल संसाधनों का कृत्रिम पुनर्भरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में विद्यमान मृदा एवं चट्टानों की रचना के अनुरूप संरचना का निर्माण कर, वर्षाजल के बहाव को एक निश्चित दिशा देकर, जल रिसाव में वृद्धि कर, भूजल भंडार के पुनर्भरण में योगदान किया जाता है। सतही जल का भंडारण, जल का भूमिगत संचयन, जलभृत का कृत्रिम पुनर्भरण आदि भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के प्रमुख स्रोत हैं। पुनर्भरण संरचना का निर्माण कम लागत में उसी स्थान पर उपलब्ध सामग्री से किया जा सकता है। वर्षाजल का भूमिगत जल के एक्वीफर में पुनर्भरण किसी उपयुक्त ढांचे जैसे बोरवेल, पुनर्भरण खंदक या गड्ढे के माध्यम से किया जा सकता है। सामान्यतः खुदे हुए कूप, त्यक्त ट्यूबवैल, पुनर्भरण खंदक या गड्डे, सोखता या रिसावी गड्डे, पुनर्भरण गर्त आदि प्रमुख कृत्रिम पुनर्भरण विधियां हैं। इसके अलावा, कई मौजूदा संरचनाओं यथा कूप, गड्ढे व टांकों को पुनर्भरण संरचनाओं के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है जिससे नई पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की आवश्यकता नहीं होगी। कृत्रिम पुनर्भरण से भूजल स्रोतों की जलक्षमता में वृद्धि होती है और भूजल की गुणवत्ता में सुधार होता है। पुनर्भरण से जल उपयोग किए जाने वाले स्थान पर उपलब्ध होता है और अपर्याप्त भूजल के क्षेत्रों में यह भूजल की समस्या का आदर्श समाधान होता है। चूंकि इसमें जीवाणुओं रहित जल जलभृत में भंडारित होता है। इसलिए जल का उपयोग आवश्यकतानुसार जल के अभाव में किया जा सकता है।
6 - जल का संरक्षण एवं प्रबंधनः
जल संरक्षण से आशय जल का उचित उपयोग करते हुए मानव व्यवहार में परिवर्तन के साथ जल-दक्षता को बढ़ाना और विभिन्न कार्यों के लिए गंदे जल का पुनः प्रयोग करने से है। चूंकि हमारे देश में सतही जल स्रोत आबादी के अनुपात में अत्यल्प हैं, जो लगातार घट रहे हैं। जबकि हमारे जीवन की पोषणीयता, विकास की संभावनाएं और आजीविका की अधिकांश निर्भरता भूजल पर ही है। इसलिए जल संसाधनों की सुरक्षा, संरक्षण, उन्नयन और विकास के लिए व्यक्तिगत कोशिशों के साथ सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है। वस्तुतः जल संसाधनों का संरक्षण व्यक्तिगत, सामुदायिक और संस्थानिक स्तर पर किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत जल प्रबंधन के तहत जल का आवश्यकतानुसार उपयोग करना, इस्तेमाल के बाद नल बंद करना, ब्रश करते, बर्तन और कपड़े धोते समय नल बंद रखना, नल लीक होने पर तुरंत ठीक करवाना, दक्ष वाशिंग मशीन का प्रयोग, ऊर्जा कुशल फव्वारे और अवशिष्ट पानी को पौधों में डालना या टॉयलेट फ्लश के लिए प्रयोग करना, गंदे पानी का पुनः प्रयोग करना, वर्षाजल संचयन आदि घरेलू उपयोग के लिए जल प्रबंधन के प्रमुख अवयव है। इस तरह यदि हर व्यक्ति जल बचाने का संकल्प कर लेता है तो वह अपने दैनिक कार्यकलापों में जल के विवेकपूर्ण उपयोग से सैकड़ों लीटर जल बचा सकता है।
समुदाय जल निकाय पारिस्थितिकी के प्रबंधन, प्रयोक्ताओं की भलाई और जल संरक्षण का सबसे प्रभावी माध्यम है, जिसमें लोगों की पूर्ण भागीदारी और भिन्न-भिन्न स्तरों पर संगठनों के सहयोग से जल निकायों की प्रभावी सफाई और संरक्षण किया जा सकता है। पानी की आपूर्ति प्रायः नलों, हैंडपंपों, तालाबों, कुओं आदि से करते हैं, इनसे पानी का उपयोग सही व स्वच्छ तरीके से होने के लिए आवश्यक है कि ग्राम स्तर पर सभी लोग मिलकर एक समिति गठित करें, जो विचार करे कि गांव की आबादी के अनुसार कितने पानी की आवश्यकता है और यह किन स्रोतों से पूरी हो सकती है। गांव में सुरक्षित पानी की आवश्यकतानुसार पेयजल एवं खाना पकाने के लिए अपने क्षेत्रों में उपलब्ध जल स्रोतों की पहचान कर इनका उपयोग केवल पीने व खाना पकाने के लिए करें और शेष जलस्रोतों की परख कर उनका संरक्षण करें। समिति समय-समय पर सामूहिक स्तर पर धन एकत्र कर हैंडपंप की मरम्मत, कुएं व तालाब को गहरा करवाना, आवश्यकता होने पर टैंकरों से पानी मंगवाना, टांका बनवाना, जलग्रहण क्षेत्रों का अतिक्रमण रोकना आदि कार्य करवा सकती है। जिन तालाबों का पानी पीने के काम आता हो. उनकी पशुओं आदि के संक्रमण से रक्षा और बारिश के बाद जल का जीवाणु परीक्षण करवाना चाहिए। यह सुविधा नजदीकी जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग में उपलब्ध है।
संस्थानिक स्तर पर जल संरक्षण के लिए सार्वभौमिक निगरानी और किफायती जल नेटवर्क की समग्र रूपरेखा आवश्यक है, जो जल बचाने की सभी संभावित विधियों का प्रयोग करके विभिन्न क्षेत्रों के लिए स्वच्छ जल और गंदे जल की न्यूनतम मात्रा के लक्ष्य को निर्धारित करने में मदद करे। औद्योगिक क्षेत्रों के लिए पानी के पुनःचक्रण की अनिवार्यता के साथ घरों, कारखानों, संस्थाओं, व्यावसायिक और सरकारी क्षेत्रों में वितरण व्यवस्था का अंकेक्षण करना चाहिए। देश में 13 लाख से अधिक जल निकाय हैं, जिनमें से सार्वजनिक जल निकायों का पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा जीर्णोद्धार कराया जाए और शेष निकायों के लिए समुदाय-आधारित प्रबंधन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, जलवायु के प्रति लोचदार प्रौद्योगिकी विकल्पों को अपनाने के लिए समुदाय की क्षमताओं में वृद्धि करके सूक्ष्म-स्तर पर कमी की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
निष्कर्षतः
किसी भी देश की वृद्धि और विकास के लिए प्रभावी जल प्रबंधन बहुत आवश्यक है, इसलिए जल संचयन और भंडारण पर अधिक गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। कृषि और उद्योगों के साथ विशाल आबादी की पानी संबंधी मांगों को पूरा करने के लिए भारत को जल उपलब्धता, अनुकूलतम प्रबंधन, बेहतर आवंटन प्रक्रिया, रिसाव की उच्च दर में कमी लाना, गंदे पानी का पुनः प्रयोग और वर्षाजल संचयन के साथ जलापूर्ति के वैकल्पिक संसाधनों को बढ़ाने के लिए मरम्मत, नवीनीकरण और पुनर्स्थापन (आरआरआर) के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक और संस्थानिक प्रयासों को प्रोत्साहित करना चाहिए। ग्रामीण समुदाय अपने प्राकृतिक जल संसाधनों का प्रबंधन करने हेतु जल संचयन ढांचों का निर्माण कर सकते हैं और जल संरक्षण की अपनी प्राचीन परंपराओं को अपनाने के लिए संगठित होकर अपनी दीर्घकालिक जल प्रबंधन समस्याओं का समाधान पा सकते हैं। राष्ट्र के समक्ष आ रही जल संकट की गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए हमें अपने सबसे निचले स्तर के लोगों के अनुभव का इस्तेमाल करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में ग्रामीण समुदायों को संगठित करने और उन्हें अपनी पारंपरिक जानकारी का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किए जाने से काफी सहायता मिल सकती है।
(लेखक भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में वरिष्ठ तकनीकी सहायक हैं।) ई-मेल: gajendra.singh88@gov.in