अब सूरज की रोशनी सबको देगी पीने का साफ़ पानी
यूं तो पृथ्वी की सतह का लगभग 71% हिस्सा पानी से ढका है, पर इसमें से 97.5% पानी खारा है। केवल 2.5% ही मीठा पानी मौज़ूद है, जिसे हम पी सकते हैं। पीने लायक इस मीठे पानी पर कई तरह के प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में गंदे या प्रदूषित पानी को पीने लायक बनाने के लिए इसे साफ और शुद्ध करना ज़रूरी है। हालांकि, पानी के शुद्धीकरण के लिए आरओ (रिवर्स ऑस्मोसिस) एक्टिव कार्बन फिल्ट्रेशन जैसी कई तरह की तकनीकें मौज़ूद हैं, पर इनमें बाधक बनती है इनकी लागत। महंगी लागत के चलते वाटर फिल्ट्रेशन के यह उपाय हमारे देश भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर लोगों की पहुंच के बाहर हैं। यही वजह है कि आज भी दुनिया की 30% से अधिक की आबादी यानी करीब 2 अरब लोगों को स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह समस्या खासकर ग्रामीण और पानी किल्लत वाले इलाकों में तो और भी गंभीर है, जहां दूषित जल से पीने से बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हो जाती हैं। ऐसे में ज़रूरत है एक ऐसी तकनीक की जो कारगर होने के साथ-साथ सस्ती भी हो। आयरलैंड के एक वैज्ञानिक ने ऐसी ही एक तकनीक विकसित की है, जो सूर्य की रोशनी जैसी मुफ्त चीज़ और बिस्मूटाइट (Bismutite) या बिस्मथ नाम के खनिज की मदद से पानी को साफ कर पीने लायक बना सकती है।
क्या होता है बिस्मथ, भारत में कहां मिलता है
बिस्मूटाइट (Bismutite) या बिस्मथ एक कार्बोनेट खनिज है। यह प्राकृतिक रूप से बिस्मथ कार्बोनेट ऑक्साइड के रूप में पाया जाता है। इसका रासायनिक सूत्र Bi₂(CO₃)O₂ है। यह अकसर सोना, चांदी और तांबे जैसी महंगी धातुओं की खदानों में मिलने के कारण अपेक्षाकृत दुर्लभ होता है लेकिन इसकी रासायनिक प्रकृति और फोटोकैटालिटिक क्षमता के कारण शोधकर्ता इसे पानी शुद्ध करने वाली तकनीकों में संभावित रूप से उपयोगी मान रहे हैं। बिस्मथ नॉर्वे की खदानों में प्रचुर मात्रा में मिलता है।अच्छी बात यह है कि बिस्मथ भारत में अच्छी खासी मात्रा में पाया जाता है। हालांकि हमारे देश में इसका खनन प्राथमिक अयस्क के रूप में नहीं किया जाता है, बल्कि यह सोने और तांबे के साथ एक सह-उत्पाद के रूप में पाया जाता है, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की सोने की खदानों से यह प्रचुर मात्रा में निकलता है। इसके अलावा में कर्नाटक में कोलार की गोल्ड माइंस, तमिलनाडु के कोयंबटूर और झारखंड के जमशेदपुर के आसपास की स्वर्ण और तांबा खदानों में भी यह मिलता है। इसे तांबे के एनोड स्लाइम का शोधन करके प्राप्त किया जाता है।
कैसे हुई खोज?
नार्वे के प्रतिष्ठित साइंस जर्नल नार्वेजियन साइटेक् न्यूज में प्रकाशित रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक नॉर्वेजियन विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग में पीएचडी शोधकर्ता जिबिन एंटनी का कहना है कि दुनिया को पीने का साफ और शुद्ध पानी मुहैया कराने के लिए हमें ऐसी तकनीकों की आवश्यकता है जो पर्यावरण के अनुकूल, किफायती और कुशल हो। मतलब सर्वसुलभ पेयजल का समाधान किसी ऐसी चीज का उपयोग करके ही मिल सकता है, जो हमारे पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो और यह सस्ता भी हो या मुफ्त हो तो और भी अच्छा है। सूर्य का प्रकाश (Sunlight) यानी सूरज की रोशनी एक ऐसी ही चीज़ है। यह तकरीबन सारी दुनिया में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वह भी पूरी तरह से मुफ्त। चुनौती उन सामग्रियों को खोजने की थी, जो सूर्य के प्रकाश की सहायता से पानी में मौजूद प्रदूषकों को विघटित कर सकें।
इसके लिए उन्होंने प्रकाशिक उत्प्रेरक (फोटोकैटलिस्ट) के ज़रिये संपन्न होने वाली प्रकाश उत्प्रेरक (फोटोकैटलिसिस) नामक प्रक्रिया का अध्ययन किया। फोटोकैटलिस्ट विशेष पदार्थ होते हैं जो प्रकाश के संपर्क में आने पर भौतिक या रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं। यह प्रतिक्रिया पानी में मौजूद हानिकारक पदार्थों जैसे रंजक, कार्बनिक यौगिक जेसे हानिकारक पदार्थों को नष्ट कर देती है। एंटनी ने अपने अध्ययन में पाया कि बिस्मूटाइट यानी बिस्मथ नाम का खनिज पदार्थ का उपयोग पानी के शुद्धीकरण के लिए फोटोकैटलिस्ट के रूप में किया जा सकता है। लेकिन, दिक्कत यह थी कि यह केवल पराबैंगनी प्रकाश के संपर्क में आने पर ही प्रभावी ढंग से काम करता है, जो सूर्य के प्रकाश में काफी कम मात्रा में पाया जाता है। लिहाज़ा इस समस्या के समाधान के लिए बिस्मूटाइट को सूर्य के सामान्य प्रकाश में अधिक प्रभावी बनाने के लिए, एंटनी ने तीन अलग-अलग तरीकों का परीक्षण किया। यह तरीके इस प्रकार हैं-
पहली विधि : बिस्मूटाइट को सिलिका के साथ मिलाकर सिलिकॉन डाइऑक्साइड ( SiO₂ ) बनाया गया । एंटनी ने बताया कि सिलिका प्रदूषक तत्वों के कणों को किसी सामग्री से बेहतर ढंग से चिपकने में मदद करता है साथ ही यह आण्विक स्तर पर इनमें छोटे संरचनात्मक दोष भी पैदा करता है, जो प्रक्रिया को तेज करने का काम करते हैं। इस तरह पानी में मौजूद प्रदूषकों को अलग करने में मदद मिलती है।
दूसरी विधि : इस विधि में प्रदूषकों से पानी के शुद्धीकरण की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से आगे बढ़ाने के लिए बिस्मूटाइट को सोने में पाए जाने वाले 'प्लास्मोनिक' नाम के नैनो कणों से ढकने का तरीका अपनाया गया। विभिन्न आकृतियों वाले प्लास्मोनिक कण कुछ खास तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) के प्रकाश को अवशोषित करने और बिखेरने में सक्षम होते हैं। लंबे आकार के प्लास्मोनिक नैनो कणों ने इस मामले में बेहतरीन प्रदर्शन करके दिखाया। एंटनी ने बताया कि यह कण सूर्य की रोशनी को अवशोषित करने के लिए लगभग एंटीना की तरह काम करते हैं। इसलिए फोटोकैटलिसिस की प्रक्रिया पर इसका काफी स्पष्ट और अच्छा प्रभाव देखने को मिला।
तीसरी विधि : तीसरे तरीके के तहत एंटनी ने एक रासायनिक उपचार यानी कैमिकल ट्रीटमेंट की विधि को आज़माया, जिसमें क्षारीय विलयन (एल्केलाइन सॉल्यूशन) का उपयोग करके बिस्मूटाइट को उत्कीर्ण (एन्ग्रेव) किया।हालांकि इस विधि से अकेले कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं मिला, लेकिन यह अन्य विधियों के प्रभाव को बढ़ाने में मददगार पाई गई।
कैसे काम करती है सौर-प्रेरित शुद्धीकरण की प्रक्रिया
जब बिस्मूटाइट जैसे खनिज को सूर्य की रोशनी के संपर्क में लाया जाता है, तो उसके भीतर एक सूक्ष्म लेकिन अत्यंत प्रभावी रासायनिक प्रक्रिया शुरू होती है। वैज्ञानिक भाषा में इसे प्रकाश उत्प्रेरण या फोटो कैटालिसिस कहा जाता है। इस प्रक्रिया के तहत सूर्य से आने वाली ऊर्जा बिस्मूटाइट की सतह पर पड़ते ही उसके परमाणुओं के भीतर मौजूद इलेक्ट्रॉनों को सक्रिय कर देती है। ये इलेक्ट्रॉन अपनी सामान्य स्थिति से निकलकर ऊंचे ऊर्जा स्तर पर पहुंच जाते हैं, जिससे दो हिस्से बनते हैं -
इलेक्ट्रॉन (e⁻)
होल या रिक्त स्थान (h⁺)
इन्हें मिलकर electron–hole pair कहा जाता है। यही जोड़ी पानी के भीतर मौजूद प्रदूषकों के साथ रासायनिक प्रतिक्रिया की शुरुआत करती है। इलेक्ट्रॉन (e⁻) पानी में घुले ऑक्सीजन से प्रतिक्रिया कर सुपरऑक्साइड रेडिकल (O₂⁻) बनाते हैं। जबकि, होल (h⁺) पानी के अणुओं को तोड़कर हाइड्रॉक्सिल रेडिकल (OH) उत्पन्न करते हैं। ये दोनों तत्व इतने प्रतिक्रियाशील होते हैं कि वे बैक्टीरिया, वायरस, कीटनाशकों, कार्बनिक रसायनों, औद्योगिक रसायनों और जैविक प्रदूषकों की आणविक संरचना को तोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया में जटिल और जहरीले यौगिक धीरे-धीरे टूटकर कार्बन डाइऑक्साइड, पानी या अन्य अपेक्षाकृत निष्क्रिय तत्वों में बदल जाते हैं। इस तरह बिस्मूटाइट जैसे खनिजों की मौजूदगी में सूर्य का प्रकाश पानी को भीतर से शुद्ध करने वाली प्राकृतिक प्रयोगशाला की तरह काम करके उसके भीतर मौज़ूद अशुद्धियों को साफ़ कर देता है। अच्छी बात यह है कि यह प्रक्रिया खर्चीली नहीं है। पूरी प्रक्रिया बिना बिजली, बिना रसायन मिलाए और बिना किसी भारी तकनीक के सम्पन्न होती है। इसलिए यह गरीब देशों और जल संकट से जूझते क्षेत्रों के लिए वाटर फिल्ट्रेशन के एक व्यावहारिक और टिकाऊ समाधान के रूप में अपनाए जाने की संभावना रखती है।
भारत के लिए कितनी कारगर हो सकती है यह तकनीक?
भारत जैसे देश में आज भी लगभग 16–17 करोड़ लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है। इसलिए हमारे देश के लिए ऐसी सौर-आधारित यह तकनीक काफ़ी उपयोगी और प्रासंगिक है। ग्रामीण भारत, आदिवासी क्षेत्र, तटीय इलाके, खासकर बुंदेलखंड, विदर्भ, राजस्थान, बंगाल डेल्टा और शहरी झुग्गी बस्तियां आज भी दूषित पानी और भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और जैविक प्रदूषण जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं। इन क्षेत्रों के लिए बिजली से चलने वाले महंगे वाटर प्यूरीफायर कारगर समाधान नहीं पेश करते। इसलिए बिस्मूटाइट जैसी सस्ती खनिज-आधारित फोटोकैटालिटिक तकनीक भारत के लिए इसलिए खास हो सकती है, क्योंकि हमारे देश में सूर्य का प्रकाश और बिस्मूटाइट खनिज, दोनों ही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में यह खनिज आधारित पानी की सफाई का यह समाधान स्थानीय स्तर पर काफ़ी कम लागत में विकसित किया जा सकता है। यदि इस तकनीक को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित किया जाए, तो यह ग्रामीण स्कूलों, आंगनबाड़ी केंद्रों, खेतों और दूरस्थ बस्तियों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने का एक कारगर और पर्यावरण अनुकूल न विकल्प बन सकती है। एक ऐसा सस्ता व आसान विकल्प, जो न तो भारी मशीनरी मांगता है और न ही इसे बिजली की ज़रूरत पड़ती है।
इस तरह धूप और बिस्मूटाइट खनिज पर आधारित यह तकनीक सारी दुनिया को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने की दिशा में एक नई आशा की किरण है। यह भविष्य में ग्रामीण इलाक़ों और जल-संकट से जूझ रहे इलाक़ों के लाखों-करोड़ों लोगों के लिए एक व्यावहारिक समाधान उपलब्ध करा कर प्रदूषित जल से होने वाली मौतों और बीमारियों की समस्या से निजात दिलाने में भी अहम भूमिका निभा सकती है। सूरज, खनिज और ज्ञान, तीनों मिलकर दुनिया को पीने के साफ पानी की नई सौगात दे सकते हैं।
दुनिया के गरीब, अल्प विकसित देशों के लिए भी वरदान
काफ़ी कम लागत में पानी को साफ़ कर उसे पीने लायक बनाने वाली यह तकनीक दुनिया के कई आर्थिक रूप से पिछड़े (गरीब) और अल्प विकसित देशों के लिए भी एक वरदान साबित हो सकती है। क्योंकि इन देशों में स्वच्छ पेयजल न मिलने के कारण होने वाली मौतों और बीमारियों के मामले सबसे ज़्यादा देखने को मिलते हैं। इनमें खासतौर पर अफ्रीका और एशिया महाद्वीप के कई देश इस दायरे में आते हैं, जिनके लिए इस तकनीक पर आधारित सस्ता वाटर प्यूरीफ़ायर इन मौतों और बीमारियों को घटाने में काफी कारगर साबित हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र (UN) के आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2024 तक दुनिया में 44 देश "सबसे कम विकसित देश" (LDCs) की सूची में थे। इनमें दक्षिण सूडान, बुरुंडी, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, मलावी, मोजाम्बिक और यमन जैसे देश शामिल हैं, जो प्रति व्यक्ति जीडीपी और मानव विकास सूचकांक (HDI) जैसे कारकों के आधार पर सबसे गरीब माने जाते हैं। इसी तरह एशिया के सबसे गरीब देशों की सूची में आमतौर पर अफगानिस्तान, यमन, सीरिया, नेपाल, कंबोडिया, किर्गिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, ताजिकिस्तान और पूर्वी तिमोर जैसे देश शामिल हैं। इन देशों में कम प्रति व्यक्ति आय और बड़े पैमाने पर गरीबी है। भारतीय उपमहाद्वीप के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान जैसे देशों में भी गरीबी रेखा से नीचे गुज़र-बसर करने वाले लोगों (BPL) की संख्या काफ़ी बड़ी है। इनके पास भी महंगी लागत के चलते अकसर स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होता। धूप की रोशनी से पानी को साफ़ करने की तकनीक इनके लिए भी एक वरदान साबित हो सकती है।

