गांवों से शहरों तक घटता पानी और रिस्ता विकास
बढ़ते जल संकट से निजात पाना जरूरी है। यह संकट अगर दूर नहीं किया गया तो आर्थिक विकास की रफ्तार कम होती जाएगी। साल के ज्यादातर महीनों में जल का अभाव समाज और उसके विकास को प्रभावित करता है। नदी तट वाले इलाके भी शुद्ध पेयजल के लिए तरसने लगे हैं। कृषि क्षेत्र में जल का अपव्यय हो रहा है, तो शहरों में जल की बर्बादी हो रही है। हम जल कैसे बर्बाद कर रहे हैं ? जल का अभाव कितना गहरा है ? जल से उत्पादन पर कितना असर पड़ रहा है ? इस लेख के माध्यम से आपको बताया जा रहा है।
वर्ष 2010 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिला तब सुर्खियों में आया था, जब उसने एक ही दिन में 65 मर्सिडीज़ बेन्ज़ लग्जरी कार का ऑर्डर देने का रिकॉर्ड बनाया था। यहां से एक ही बार में 150 करोड़ का ऑर्डर दिया गया था। मगर यह जिला आज एक अलग ही तरह की बढ़ती हुई मांग का गवाह बन गया है और वह चीज है वाटर टैंकर। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार मई के पहले सप्ताह से जून के तीसरे सप्ताह तक जिले में वॉटर टैंकर की मांग दोगुनी हो गई है। इस दौरान वर्ष 2018 में 3934 टैंकर जल की जरूरत पड़ी थी और वर्ष 2019 में 7830 टैंकर खप गए। वर्ष 2018-19 में अगर मुंबई को छोड़ दीजिए तो महाराष्ट्र में पानी की सर्वाधिक मांग औरंगाबाद जिले में ही थी। यहां जहां एक ओर निजी संपत्ति की बढ़त के समाचार हैं तो वहीं दूसरी ओर पारिस्थितिकीय संकट के गहराने की कथा है। यह सूचक है कि व्यापक भारतीय विकास कैसे हो रहा है। यह आर्थिक विकास और पर्यावरण विनाश के बीच का संघर्ष है। जिसमें जल का अभाव एक महत्वपूर्ण पक्ष है। ऐसा तो होगा ही यह मान लिया गया है।
विश्व बैंक के आंकड़ों का इस्तेमाल करके अगर हम चीन से तुलना करें तो यह बात प्रमाणित हो जाती है। वर्ष 1962 में भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (वर्ष 2010 के डॉलर मूल्य के आधार पर) चीन से दो गुना ज्यादा था। साफ जल की बात करें तो भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता चीन की तुलना में 75 प्रतिशत थी। वर्ष 2014 के तक आते हैं तो उपलब्धता चीन की तुलना में 54 प्रतिशत हो गई। गौर कीजिए कि वर्ष 2014 में चीन का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद भारत से 3.7 गुना ज्यादा हो चुका था। यह आंकड़े स्पष्ट रूप से बताते हैं कि विगत वर्षों में भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगातार घट रही है। वार्षिक आधार पर देखें तो 1980 के दशक तक भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता प्रतिवर्ष दो प्रतिशत से भी ज्यादा के दर से घट रही थी। वर्ष 2012-14 के बीच सुधारकर 1.2 प्रतिशत हुई, लेकिन इस मोर्चे पर भी चीन बहुत अच्छा कर रहा है। चीन इस सदी के प्रारंभ से ही प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता की प्रति वर्ष कमी दर को 1 प्रतिशत से भी कम कर रख पा रहा है। ऐसा करते हुए भी वह आज भारत से ज्यादा तेज गति से अपने प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद दर में वृद्धि कर पा रहा है।
वर्ष 2015-16 में किए गए चौथे राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार आज भी पेयजल ज्यादातर भारतीयों के लिए विलासिता बना हुआ है। केवल 30 प्रतिशत भारतीयों तक पेयजल पाइप द्वारा पहुंचता है। ग्रामीण इलाकों में तो 20 प्रतिशत लोगों तक भी जलापूर्ति सुविधा नहीं पहुंची है। सर्वेक्षण के अनुसार 51 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ट्यूबवेल और बोरवेल के जरिए ही पेयजल उपलब्ध होता है। स्थिति और भी चिंताजनक तब हो जाती है, जब घर में पहुंचाए जा रहे पेयजल पर भी लोग विश्वास नहीं करते और इस वजह से भी जल की बड़ी बर्बादी होती है।
जल खर्च ज्यादा उत्पाद कम
दोनों देशों के बीच आर्थिक विकास और जल उपयोग का यह अंतर क्या बताता है ? आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में रहने वाला जल संकट हमारा ध्यान खींचता है, जबकि भारत और अन्य देशों में भी बड़ी मात्रा में जल का उपयोग कृषि क्षेत्र में होता है। इस संदर्भ में जो पिछले आंकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार वर्ष 2010 में भारत में शुद्ध जल का 90 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्य में इस्तेमाल हुआ था। यहां तक कि चीन में भी जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी भारत की तुलना में आधी है। वहां भी 64 प्रतिशत शुद्ध जल का इस्तेमाल कृषि में हुआ था। ऐसे में यह अपेक्षित ही है कि देश के जल संसाधन में हृास की गति कृषि उत्पादन में जल के कुशल प्रयोग पर बहुत हद तक निर्भर है। कृषि क्षेत्र में जल का सदुपयोग नहीं हो रहा है। यह भारत में बढ़ते जल संकट का मुख्य कारण है। एक साधारण गणित से इस बात को समझा जा सकता है। विश्व बैंक के आंकड़े हमें किसी देश के लिए प्रति लीटर जल से कृषि उत्पाद को आंकने की सुविधा प्रदान करते हैं
भारत में वर्ष 2010 में कृषि क्षेत्र में प्रति लीटर शुद्ध जल उपयोग से कृषि के सकल घरेलू उत्पाद का 0.5 डॉलर का उत्पादन हुआ, जबकि चीन में 2007 में 1.4 डॉलर और 2012 में 1.6 डाॅलर का उत्पादन हुआ था। जल के सदुपयोग के मामले में सफल देश के रूप में देखे जाने वाले इजराइल ने इतने ही पानी से 3.9 डॉलर का उत्पादन किया। यह बात ज्यादा चिंताजनक है कि पिछले 3 दशकों में भारत में प्रति यूनिट जल से कृषि उत्पादन में वास्तव में कोई वृद्धि नहीं हुई है। भारत कृषि में जल्द अक्षमता को विगत तीन दशकों में ट्यूबवेल उपयोग के विस्तार से भी समझा जा सकता है। वर्ष 1960-61 में ट्यूबवेल द्वारा सिंचित क्षेत्र का हिस्सा मात्र 0.5 प्रतिशत था। 1969-70 में यह हिस्सा बढ़कर 10 प्रतिशत और 2014-15 में बढ़कर 13 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया। ट्यूबवेल के इस्तेमाल के साथ ही जल का दुरुपयोग व अपव्यय भी बढ़ा है। ट्यूबवेल के ज्यादा इस्तेमाल से दो अन्य मोर्चों पर भी नुकसान हुआ है। एक तो इससे भूजल स्तर बहुत गिर गया है। दूसरा इसने किसानों को ऐसी फसलों के लिए भी प्रेरित किया है, जो आमतौर पर परिवेश के अनुकूल नहीं मानी जाती। नतीजा यह कि मिट्टी में लवणता की मात्रा बढ़ रही है। दूरगामी रूप से इस तरह की खेती नुकसानदायक ही सिद्ध हो रही है। इसके अलावा किसान ट्यूबवेल पंप चलाने के लिए सब्सिडी वाली बिजली का इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर राज्य विद्युत बोर्ड भारी घाटे में चल रहे हैं। जिससे राज्य सरकारों का राजस्व घाटा बढ़ रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि भारतीय राज्यों ने दूसरे देशों की तुलना में फसलों के उत्पादन में ज्यादा जल खर्च किया है। सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि ज्यादा जल खर्च से उत्पादित कृषि वस्तुओं का निर्यात कर दिया जाता है। यह वास्तव में जल का निर्यात है।
नदियों के किनारे भी शुद्ध जल का अभाव
भारत में तो नदी क्षेत्र वाले इलाकों में भी जल का अभाव देखा जा रहा है। साल के ज्यादातर महीनों में जल की मांग और जल की आपूर्ति में बड़ा अंतर कायम रहता है। कुल मिलाकर भारत में जल संकट नई बड़ी घटना नहीं है। हालांकि इस वर्ष चीजें ज्यादा बिगड़ी हैं। जब देश के ज्यादातर इलाकों में मानसून आ चुका था, तब भी बारिश में अच्छी खासी कमी दर्ज की जा रही है। अभी तक कमजोर बारिश की जो स्थिति है, आने वाले समय में देश के अनेक इलाकों में जल संकट बढ़ा सकती है। महाराष्ट्र के गांवों से लेकर चेन्नई जैसे शहरों की बड़ी जनसंख्या तक पेयजल उपलब्ध कराना अब एक चुनौती बन गया है। कृषि से जल संकट का केंद्रीय महत्व है, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में जल की मांग को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वर्ष 2015-16 में किए गए चौथे राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार आज भी पेयजल ज्यादातर भारतीयों के लिए विलासिता बना हुआ है। केवल 30 प्रतिशत भारतीयों तक पेयजल पाइप द्वारा पहुंचता है। ग्रामीण इलाकों में तो 20 प्रतिशत लोगों तक भी जलापूर्ति सुविधा नहीं पहुंची है। सर्वेक्षण के अनुसार 51 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ट्यूबवेल और बोरवेल के जरिए ही पेयजल उपलब्ध होता है। स्थिति और भी चिंताजनक तब हो जाती है, जब घर में पहुंचाए जा रहे पेयजल पर भी लोग विश्वास नहीं करते और इस वजह से भी जल की बड़ी बर्बादी होती है। आरओ वाटर फिल्टर का इस्तेमाल बढ़ रहा है। आरओ मात्र एक चौथाई पानी को ही पीने के लिए उपलब्ध कराता है। बाकी पानी बहाकर बर्बाद कर देता है। यदि भारतीय घरों में शुद्ध जल की आपूर्ति होती और लोग उस पर विश्वास करते हैं, जैसे कि तमाम विकसित देशों में होता है, तो पेयजल की खपत में भी भारी कमी आ जाती। ट्यूबवेल या आरओ का बढ़ता इस्तेमाल संकेत करता है कि भारतीय राज्य व्यवस्था विश्वसनीय जल वितरण प्रबंध विकसित करने में नाकाम रही है। यह सच है कि गुरुग्राम और नोएडा जैसे अनेक बाहरी शहरों में जलापूर्ति के सामुदायिक तंत्र के बिना ही कालोनियां विकसित होने दी जा रही है। भूजल पर निर्भरता बढ़ रही है, जिससे जल संकट लगातार बढ़ रहा है। किसानों और अन्य लोगों पर ट्यूबवेल प्रयोग रोकने और कृषि में जल के अपव्यय रोकने के लिए कोई राजनीतिक पार्टी दबाव डालेगी ऐसी कल्पना भी मुश्किल है। निसंदेह जल संकट से उबरने के लिए व्यवहार में बदलाव लाना होगा। नीति आयोग के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2030 तक आपूर्ति की तुलना में जल की मांग दोगुनी ज्यादा हो जाएगी। इसकी वजह से भयानक जल संकट और आर्थिक नुकसान होगा। कहना न होगा, यदि स्थितियों को और बिगड़ने से रोकने के लिए तत्काल व कारगर कदम नहीं उठाए गए तो संकट आगामी दिनों में और बढ़ जाएगा।
जल शक्ति अभियान
नरेंद्र मोदी की नई सरकार ने अपने चुनावी वादे के अनुरूप 1 जून को जल शक्ति मंत्रालय का गठन किया और 1 जुलाई को जल संरक्षण के लिए एक अभियान की शुरुआत हुई है। जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के अनुसार देश के 256 जिलों के 1592 प्रभावित ब्लॉकों में जल संरक्षण अभियान चलाया जाएगा। यह अभियान 5 घटकों पर फोकस करेगा। पहला जल संरक्षण और वर्षा जल संरक्षण। दूसरा पारंपरिक और अन्य जल स्रोतों का पुनरोद्धार। तीसरा जल का पुनः उपयोग और जल संरचनाओं को फिर से चार्ज करना। चौथा जल भंडार विकास तथा पांचवा गहन वनीकरण। यह अभियान नागरिकों के सहयोग से ही चलाया जाएगा। पहला चरण 1 जुलाई से 15 जुलाई तक मानसून के दौरान चलेगा। दूसरा चरण 1 अक्टूबर से 30 नवंबर तक चलेगा।
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