आखिर कागज पर क्यों उग रहे हैं असंख्य पेड़
सरकार ने देश भर में पेड़-पौधे लगाकर हरियाली लाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए और करोड़ों रुपए खर्च कर डाले। इससे महज कागज पर असंख्य पेड़ जरूर उग गए किन्तु असलियत में ये आज सीमित संख्या में ही नजर आते हैं। जहां जरूरत थी-चारे, फल, लकड़ी या खाद के लिए काम आने वाले पौधे की, वहां लुगदी और पल्प उद्योग में प्रयुक्त होने वाले पेड़ लगाए गए। वृक्षारोपण में न तो भू-क्षरण पर जोर दिया गया और न ही जल-संरक्षण पर। सवाल यह उठता है कि वृक्षारोपण की इस महती योजना को क्यों अपेक्षित सफलता नहीं मिली ? क्या प्रभावशाली वर्ग के दबाव, बेहिसाब भ्रष्टाचार और विदेशी सहायता के खेल ने हमारी वानिकी को अपने मूल उद्देश्य और सरोकारों से भटका दिया है ? इन्हीं मसलों का विश्लेषण कर रहे हैं भारत डोगरा पेड़ लगाने और उनकी देख-भाल को हमारी परम्परा में बहुत बड़ा कार्य माना गया है, किन्तु वर्तमान में वृक्षारोपण की सरकारी परियोजनाओं और कार्यक्रमों के अध्ययन से लगता है कि ये अपने मूल उद्देश्य से काफी भटक गए हैं।
जहां तक आंकड़ों का सवाल है तो वे सही बताते हैं कि पिछले एक-दो दशक में वनीकरण के कार्यक्रम ने बहुत अधिक प्रगति की है। 1950 से 1980 तक के तीस वर्षों में 35 लाख हेक्टेयर भूमि पर वनीकरण हुआ, पर इसके बाद के मात्र दस वर्षों में, 135 लाख हेक्टेयर भूमि का वनीकरण हुआ। दूसरे शब्दों में,जितनी उपलब्धि पहले तीन वर्षों में हो सकी थी अगले मात्र दस वर्षों में उपलब्धि उससे लगभग चार गुणा अधिक हो गई। किन्तु इन आंकड़ों के पीछे की कहानी क्या है? क्या वास्तव में इतनी हरियाली आ रही है? यह कैसी हरियाली है और इसका लाभ किसे मिल रहा है? क्या वास्तव में इससे पर्यावरण बेहतर हो रहा है या यह कार्य कार्यक्रम सार्थकता की राह से भटक गया है ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें कुछ हद तक सरकार के अपने अध्ययनों या अन्य विशेषज्ञों द्वारा करवाए गए अध्ययनों से प्राप्त हो सकता है।
गांवों में ईंधन की लकड़ी के पेड़ लगाने की योजना का एक अध्ययन कुछ समय पहले राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 'एप्लाइड' आर्थिक अनुसंधान की राष्ट्रीय परिषद से करवाया था। इस अध्ययन से वृक्षारोपण की अनेक कमियां सामने आई जैसे केवल 40 से 50 प्रतिशत पौधों का बचना और जो पौधे बचे हैं, उनकी भी प्रायः हालत अच्छी न होना। इस अध्ययन में बताया गया कि पेड़ लगाने के बाद रख-रखाव अच्छा नहीं था और उसमें निरन्तरता की कमी थी। यह योजना ईंधन की उपलब्धि की थी, पर प्रायः वे पेड़ लगाए गए, जिनसे अच्छा ईंधन नहीं मिलता था। परियोजना के लक्ष्य महत्वाकांक्षी रखे गए, परन्तु इनके अनुकूल तैयारी नहीं की गई। घटिया किस्म के पौधे लगाए गए। इस योजना के क्रियान्वयन में लोगों की उत्साहवर्धक भागीदारी अध्ययन करने वालों को नज़र नहीं आईं जबकि यह वनीकरण के किसी भी कार्यक्रम के लिए आवश्यक है। योजना आयोग के कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन के एक अध्ययन ने भी यही बताया कि सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत किए गए वनीकरण में लोगों की भागीदारी बहुत सीमित थी। ग्रामीण निर्धन वर्ग को चारे और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने के लिए जो पेड़ चाहिए थे, वे पेड़ नहीं लगाए गए व इनके स्थान पर वे पेड़ लगाए गए जो शहरों में लकड़ी की मांग को पूरा करते थे।
विकास अध्ययनों के संस्थान (मद्रास) द्वारा तमिलनाडु में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अध्ययन के अनुसार जहां इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामवासियों की ईंधन, चारे आदि की जरूरतों को पूरा करना था, वहां वास्तविकता में वन विभाग ने यह कार्यक्रम इस तरह से चलाया कि मुख्य रूप से कागज और लुगदी उद्योग की कच्चे माल की आवश्यकताओं को पूरा किया गया। इतना ही नहीं, जितना खर्च 'प्लांटेशन' लगाने में आ रहा था, उससे चार से आठ गुणा सस्ते दाम पर यह लकड़ी इन उद्योगों की बेची गई। उदाहरण के लिए चेंगलपट्टू जिले में एक टन लकड़ी प्राप्त करने पर औसतन 540 रुपए खर्च आया परन्तु इसे उद्योग को 80 रुपए प्रति टन के हिसाब से बेचा गया।
योजना आयोग में ऊर्जा नीति पर वर्किंग ग्रुप के भूतपूर्व सचिव टी. एल. शंकर के अनुसार, "मैंने निर्धन वर्ग के नाम पर आरम्भ किए हुए अनेक कार्यक्रमों में गलत ढंग से बदलाव कर उनका झुकाव उच्च वर्ग की ओर करते हुए देखा है, पर वन-विभाग वाले कभी यह सवाल नहीं पूछते हैं-लकड़ी उत्पादन किसके लिए और क्यों ?"स्पष्ट है कि वानिकी कार्यक्रम में समस्याएं दो स्तर पर आई हैं। पहली तो वे समस्याएं हैं जो स्थानीय स्तर पर दिखाई देती हैं और प्रायः हम उन्हीं में उलझ कर रह जाते हैं। नर्सरी और वृक्षारोपण के कार्य में तरह-तरह का भ्रष्टाचार होता है, वास्तविक कार्य कागजी कार्य से कहीं कम होता है। वृक्षारोपण और नर्सरी के विभिन्न कार्यों में लगे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम पैसा दिया जाता है आदि। इन कारणों से पैसे का बहुत दूरूपयोग होता है, मज़दूरों का शोषण होता है और कार्य के प्रति उत्साह उनमें उत्पन्न नहीं हो पाता है। इन सब समस्याओं का विरोध तो होना ही चाहिए पर यह वानिकी क्षेत्र के भटकाव का केवल एक पक्ष है।
इन स्थानीय समस्याओं से अलग वानिकी के कुछ ऐसे व्यापक पक्ष है जो राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर के दबाबों से प्रभावित हो रहे हैं और उसे मूल उद्देश्यों से भटका रहे हैं।
लुगदी या पल्प उद्योग में होने वाले अत्याधिक प्रदूषण और अपने यहां के वनों के संरक्षण जैसे विभिन्न कारणों से कुछ अमीर देशों ने यह प्रयास किए हैं कि लुगदी के बड़े कारखाने गरीब देशों में लगाकर वहीं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ली जाए। इस कारण उन्होंने विदेशी सहायता की ऐसी परियोजनाएं आरम्भ की जिससे अच्छी लुगदी देने वाले पेड़ों को बहुत बड़े पैमाने पर भारत जैसे देशों के गांवों में उगाया जा सके। अमीर देशों और अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से बहुत-सा पैसा उन पेड़ों के लिए आने लगा, जिनसे अच्छी व सस्ती लुगदी मिल सके या अन्य औद्योगिक महत्व के उत्पादन मिल सकें। आसानी से मिल रहे इस विदेशी पैसे ने ही हमारे वानिकी कार्यक्रम को अपने मूल उद्देश्य से भटका दिया।
हमारे गांव में चारे और फलदार वृक्षों की जरूरत थी। साथ ही ऐसे वृक्षों की जरूरत थी जो पत्तियों की अच्छी प्राकृतिक खाद देते हैं तथा भूमि और जल संरक्षण की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी रहते हैं। इन जरूरतों को बखूबी पूरा करने वाले स्थानीय प्रजातियों के अनेक पेड़ प्रायः देश के सभी भागों में मिल जाते हैं किन्तु इनकी उपेक्षा कर वन-विभाग ने लुगदी या अन्य औद्योगिक उत्पादों में प्रयुक्त होने वाले पेड़ों का प्रसार किया-जैसे युक्लिप्टस और चीड़ आदि। इस कारण ग्रामवासियों की वास्तविक आवश्यकताओं की उपेक्षा होती गई तथा वन-विभाग को उनकी उत्त्साहवर्धक भागीदारी नहीं मिल सकी।
कुछ वर्ष पूर्व जब बस्तर क्षेत्र में प्राकृतिक वनों के स्थान पर चीड़ के पेड़ लगाने का विवाद चला तो मध्य प्रदेश के आदिवासी और हरिजन कल्याण विभाग ने प्राकृतिक वनों के आदिवासी जीवनके महत्व पर एक दस्तावेज़ तैयार किया। इसमें बताया गया था कि इन वनों से आदिवासियों को फल, सब्जी आदि के रूप में अनेक खाद्य-पदार्थ मिलते हैं और वह भी विशेषकर उन महीनों में जब इन वनवासियों को अनाज की कमी रहती है। यहां के पाकृतिक वनों में मिलने वाले 22 तरह के फलों, 8 तरह के फूलों, 14 तरह के पत्तों, 29 तरह के कंदों या जड़ों तथा 11 तरह के ऐसे बीजों का उल्लेख इस दस्तावेज़ में किया गया, जिनसे यहां रहने वाले ग्रामवासी अपनी भूख शान्त करते हैं तथा अच्छा पोषण भी प्राप्त करते हैं। घर बनाने के लिए इन प्राकृतिक वनों से ग्रामवासियों को 21 तरह की लकड़ियां, 12 तरह की घास व 11 अन्य तरह की वन-उपज प्राप्त होती है। कृषि औजारों के लिए उन्हें 9 विशिष्ट तरह की लकड़ी कुदरती वनों से मिलती रही है। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया कि ईंधन-चारे के साथ पूजा-पर्व की सामग्री और यहां तक कि वाद्य-संगीत के अपने यन्त्र भी वे वन-उपज के आधार पर बनाते रहे हैं।
आश्चर्य की बात है कि जिन बड़े-बड़े विशेषज्ञों ने यहां प्राकृतिक वनों को हटाकर एक बड़े क्षेत्र में चीड़ के पेड़ लगाने की योजना तैयार की थी, उन्होंने प्राकृतिक वनवासियों के इतने नजदीकी रिश्ते की अवहेलना कैसे की? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि असरदार जगहों के दबाव और विदेशी सहायता के खेल ने हमारी वानिकी को अपने मूल उद्देश्य और सरोकारों से भटका दिया व उन्होंने गांववासियों की भागीदारी से सब कार्य करने के स्थान पर उन पर अपनी प्राथमिकताओं पर आधारित योजनाओं को थोपना आरम्भ कर दिया।
कुछ स्थानों पर तो इसका इतना व्यापक दुष्परिणाम हुआ कि गांव के लिए जरूरी खाद्यन्न की फसलें छोड़कर कुछ किसानों ने तत्त्क्ताल कुछ आर्थिक लाभ की उम्मीद में अपने खेत में युक्लिप्टस लगाना शुरू कर दिया। आरम्भिक दौर में शायद उन्हें कुछ लाभ मिला हो पर बाद में युक्लिप्टस का दाम गिरने पर कई किसानों को नुकसान हुआ। आवश्यक खाद्यान्न के उत्पादन में कमी आईं। भूमि की उर्वरता व भू-जल उपलब्धि का ह्रास । खेत-मजदूरों के लिए उपलब्ध रोजगार में बहुत कमी आईं। वन-विभाग ने ऐसे अनेक स्थानों पर भी इन 'व्यावसायिक किस्मों' के पेड़ लगाने आरम्भ किए जहां विभिन्न छोटे-बड़े पेड़ों, झाड़ियों, घास आदि के माध्यम से ग्रामवासी पहले अपने चारे और ईंधन की जरूरतों को काफी संतोषजनक ढंग से प्राप्त कर रहे थे। अतः जो कार्यक्रम ग्रामवासियों के चारे और ईंधन के संकट को दूर करने के लिए आया था, उसने कुछ स्थानों पर इस संकट को और बढ़ाने की स्थिति उत्पन्न की।
इतना ही नहीं कुछ स्थानों पर गरीब व विशेषकर आदिवासी किसानों की खेती को उजाड़कर भी 'व्यावसायिक प्रजाति' के पेड़ों के लगाने के प्रयास हुए हैं, जिससे समाज के सबसे गरीब तबके की रोजी-रोटी पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। ऐसे कारणों से वन-विभाग का अनेक जन-आन्दोलनों से टकराव भी हुआ। कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ ज़िले में वनों की रक्षा करने वाले विख्यात अप्पिको आन्दोलन का भारी-भरकम विदेशी सहायता से चलने वाले वनीकरण कार्यक्रम से टकराव हुआ। अप्पिको आन्दोलन के पांडुरंग हेगड़े ने आरोप लगाया है कि अनेक गांवों में कमजोर तबके के लोगों के चारे के संकट को और उग्र किया गया है और उनकी रोजी-रोटी संकट में डाली गई है। परियोजना गांववासियों की भागीदारी की बातें बहुत करती है जबकि व्यापारिक प्रजातियों के पेड़ों को अधिकतम बढ़ावा देकर वास्तव में ग्रामीणों के हितों की उपेक्षा की गई है।
इसी तरह उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल जिले मे हजारोंवृक्ष लगाने के लिए मशहूर, 'वृक्ष मानव' पुरस्कार से सम्मानित वीशेश्वर सकलानी को ही एक बार वन-विभाग ने मुकदमे में फंसा दिया था।
दूसरी ओर यह भी सच है कि वन-विभाग के अनेक अधिकारी वास्तव में हरियाली लाने के लिए बहुत मेहनत करना चाहते हैं परन्तु ऊपर से आई अनुचित नीतियों के कारण उन्हें कठिनाई होती है। अतः नीतिगत सुधार के साथ उन सामाजिक कार्यकर्त्ताओं से सहयोग भी लाभदायक होगा जो मेहनत और लगन से धरती को हरा-भरा करने में लगे हुए हैं। कुछ स्थानों पर, जैसे टिहरी गढ़वाल के जड़धार वन में, गांववासियों ने परस्पर सहयोग से नष्ट हो रहे वन के कुछ भाग को पशुओं के चराव से बचाए रखा। फिर इस भाग को खोल दिया व दूसरे भाग को विश्राम दिया। इस तरह कुछ वर्षों में उन्होंने यहां की हरियाली लौटा दी। हां, मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत अभी बची हुई है, वहां गांववासियों द्वारा आपसी सहयोग से किए गए ऐसे प्रयास हरियाली लौटने का सबसे अच्छा और सस्ता तरीका है। इसमें इस प्रयास में वन-विभाग से कुछ सहायता मिल जाए तो और भी अच्छा होगा।
कुछ अन्य प्रयास जल-संरक्षण और वृक्षारोपण को जोड़कर हो रहे हैं। गांव के जल-संकट को दूर करने के लिए वर्षा के जल को रोकने व संग्रह करने के प्रयास हो रहे हैं तथा उसके साथ ही वनीकरण के प्रयास हो रहे हैं। ये दोनों प्रयास एक-दूसरे के पूरक हैं। वनीकरण से जल-संरक्षण में मदद मिलेगी और जल-संरक्षण से वनीकरण में, इन दोनों के संयुक्त असर से बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में बहुत सहायता मिलेगी।