अब पछताये होत क्या

Published on
4 min read


भारत गाँवों का देश है; बात गाँवों से ही शुरू होती है। आज से कुछ दशकों पूर्व तक हमारे गाँव बाग-बगीचों, कुओं, तालाबों, आहरों, पोखरों से भरे पड़े थे। मुझे अपने बचपन की बातें याद हैं प्रत्येक किसान का एक बगीचा अवश्य होता था, उसमें इनारा, पोखरा होते थे जोकि गर्मी के दिनों में बगीचा के पटवन एवं पशु-पक्षियों को पीने के तालाब का काम देते थे तथा गाँव आच्छादित थे। आज उन जगहों पर बड़े-बड़े भवन खड़े हैं और ताले लटके हुए हैं।

आज पानी की समस्या भयंकर रूप धारण करती जा रही है ऐसी परिस्थितियों के कारक हम स्वयं हैं। आजादी के छः दशकों के बीत जाने के बाद भी ‘बैताल उसी डाल पे’ है। सूखा, बाढ़, भू-स्खलन… जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिये अहम एवं ठोस पहल की आवश्यकता है। भारत गाँवों का देश है; बात गाँवों से ही शुरू होती है। आज से कुछ दशकों पूर्व तक हमारे गाँव बाग-बगीचों, कुओं, तालाबों, आहरों, पोखरों से भरे पड़े थे। मुझे अपने बचपन की बातें याद हैं प्रत्येक किसान का एक बगीचा अवश्य होता था, उसमें इनारा, पोखरा होते थे जोकि गर्मी के दिनों में बगीचा के पटवन एवं पशु-पक्षियों को पीने के तालाब का काम देते थे तथा गाँव आच्छादित थे। आज उन जगहों पर बड़े-बड़े भवन खड़े हैं और ताले लटके हुए हैं।

आज आवश्यकता संतुलित जल व्यवस्था की है; जिसे नजर-अंदाज किया जा रहा है। संतुलित जल-व्यवस्था से बहुत हद तक हम बाढ़ और सूखा दोनों से निजात पा सकते हैं। धरती के जलस्रोतों के सूखने के मुख्य कारण मिट्टी का दुरुपयोग है क्योंकि माटी, पानी और वनों-वृक्षों को विलग करके नहीं आंका जा सकता। ना माटी के बिना पानी रह सकता है ना ही माटी एवं पानी के बिना वृक्ष रह सकते हैं। वनों एवं वृक्षों की सुरक्षा एवं संरक्षण ही मूलरूप से वर्षा के कारक हैं। वनों एवं वृक्षों से निकली हुई नमी के कारण वायुमंडल का तापमान सम होकर आर्द्र बन जाता है, जिससे वर्षा होती है तथा मृदा संरक्षण से जल का अधिकतम बचाव सम्भव है। वर्षा के जल को संरक्षित करके तथा उचित दिशा प्रदान कर हम पानी की समस्या से निजात पा सकते हैं। निचले इलाकों को बाढ़ के पानी एवं पानी के बहाव को मद्धिम करके वन, मृदा एवं जल तथा पर्यावरण की रक्षा सम्भव है।

भूमि-क्षरण से भारत की करोड़ों एकड़ भूमि की क्षति हो रही है। गंगा आदि नदियों के साथ ही उनकी अन्य सहायक नदियाँ जलक्षरण के कारण प्रतिवर्ष करोड़ों टन मिट्टी ले जाकर बंगाल की खाड़ी में डालती हैं। वनों एवं वृक्षों की अल्पता के चलते मिट्टी के साथ ही गंगा के पानी का सदुपयोग नहीं हो पाता।

राष्ट्रीय वन-नीति का माकूल-पालन आज तक नहीं हो पाया है। पहाड़ियों के ढाल पे तथा ऊँचे-नीचे क्षेत्रों में बहते हुए जल को संग्रह करने के लिये जलाशयों का निर्माण करके जल का बचाव किया जा सकता है। वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा चतुर्दिश वन-वृक्ष रोपण माटी-पानी को बचा सकते हैं तथा इससे हम भी संरक्षित रह सकेंगे।

हमारे धर्म-शास्त्रों में भी आया है कि जो व्यक्ति पोखरा खुदवाता है, वृक्ष और बाग लगाता है, वह ‘नरक’ में नहीं जाता। वट वृक्ष के सम्बन्ध में उल्लेख है कि :-

“वट मूले स्थितों ब्रह्मा, वट मध्येजन्मर्दनः।
वटाग्रेतू शिवों देवः सावित्रि वटसंरिता।।”

अर्थात वट-वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास होता है। इसलिये वनों एवं वृक्षों को काटना एवं उन्हें क्षति पहुँचाना धार्मिक दृष्टिकोण से ही महापाप नहीं बल्कि यह विपत्ति को भी आमंत्रित करता है। “अभी हाल में घटी केदारनाथ (उत्तराखंड) की रोंगटे खड़े करने वाली घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है तथा संकेत देती है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़, धरती का संतुलन बिगाड़ सकती है।” मृदा क्षरण को Creeping Death (क्रीपिंग डेथ) या रेंगती मृत्यु की संज्ञा दी गई है। मृदा संरक्षण से धरती की उर्वरा-शक्ति बनी रहती है और बढ़ती जाती है। वन सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करते हैं तथा धरती एवं आकाश की प्रदूषित गैसों का अवशोषण कर वातावरण को शुद्ध करते हैं; इससे पानी प्रदूषित होने से बच जाता है। घने वनों में कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े तथा छोटे-छोटे जीव-जन्तु निवास करते हैं, जिन पर बड़े जीव निर्भर रहते हैं। प्रो. माहेश्वरी के शब्दों में:- “हम इस धरती पर पेड़ों के अतिथि हैं।” मसलन वृक्षा-रोपण एवं वनादि संरक्षण का दायित्व हम सब पर है। वृक्ष की छाया किसी श्रेष्ठ जन के आशीर्वाद जैसी नहीं लगती है क्या? एक बूँद जल का महत्त्व तब पता चलता है, जब स्वरतंत्र के नोक पर पोस्ता का दाना भी अटक जाता है।

ब्राइट नेल्सन ने लिखा है:- “वे लोग जो वृक्षों को सहेजकर नहीं रखेंगे, जल्द ही ऐसी परिस्थिति में पहुँच जाएँगें जो उन्हें सहेजकर नहीं रखेगी।”

कारण स्पष्ट है-वृक्षों में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया से पर्यावरण में CO2 एवं O2 जैसे गैसों के बीच संतुलन बना रहता है तथा विभिन्न माध्यमों से निकलने वाली CO2 का भरपूर उपयोग हो जाता है। साथ ही प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा ऑक्सीजन तथा ग्लूकोज जैसे उपयोगी रासायनिक पदार्थों का सृजन होता है। ऑक्सीजन, सूर्य के पराबैंगनी किरणों से अभिक्रिया करके O3 गैस का निर्माण करती है। इसी गैस (ओजोन) की परत पृथ्वी की रक्षा कवच के रूप में अम्बर और वसुंधरा की रखवाली करती है।

बाग लगाओ, वृक्ष लगाओ पक्षियों (गौरेयों) की जान बचाओ जल-जीवन है, मृदा ही धन है नित नव-नव उद्यान बढ़ाओ गाँव-गाँव में आहर-पोखर और इनारा तथा जलाशय यही हमारा नारा है।

सारतः, पानी के लिये माटी, वृक्ष, वन एवं पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण मात्र आवश्यकता नहीं, हमारी बाध्यता भी है। हमें वन, वन्य-जीव संरक्षण के प्रति तथा जल-संरक्षण हेतु सचेत हो जाना चाहिए अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब स्थिति भयावह हो जाएगी और तब हाथ मलकर कहना पड़ेगा-

अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत…

सम्पर्क करें:
हर्षनाथ पाण्डेय, एडवोकेट, सिविल कोर्ट, सासाराम, जिला-रोहतास (सासाराम) बिहार-821115, मो.नं.-8002155218

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org