अनेक रूपों में मौजूद है बांस
अनेक रूपों में मौजूद है बांस

अनेक रूपों में मौजूद है बांस | Bamboo Characteristics & Uses

जानिए बांस के उपयोग और फायदे के बारे में | Get information on uses and benefits of bamboo
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सदियों पुरानी घास की प्रजाति बांस सिर्फ वंश बढ़ने का आशीर्वाद ही नहीं देता, दूसरे पौधे को कटने से भी बचाता है। मांगलिक कार्यों के गवाह बनने वाले बांस की खेती अब आधुनिक तकनीक के साथ मिलकर कई नए रूपों में सामने आ रही है। बांसुरी तो बजती ही हैं, इस खेती ने रोजगार के कई और राग भी छेड़े हैं।

स्वावलंबन के चलते केंद्र सरकार ने एक प्रशंसनीय पहल की है। सरकार ने निर्णय लिया है कि बांसों के जंगल को फिर से पूरे देश में आबाद किया जाए। केंद्र सरकार ने साल 2017 में बांस को पेड़ की कैटेगरी से हटा दिया था। किसान अब बिना किसी रोक-टोक के बांस की खेती कर सकते हैं। सरकार ने किसानों की कमाई बढ़ाने के लिए मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा, असम, नागालैंड, त्रिपुरा, उत्तराखंड और कर्नाटक में राष्ट्रीय बांस मिशन योजना के तहत बांस के कलस्टर शुरू करने की योजना बनाई, जो स्वागतयोग्य है। विदेशों में भी अब बांस लोकप्रिय होता जा रहा है। बाली के ग्रीन स्कूल में 2021 में तैयार हुआ एक ढांचा देखने लायक है। पहली ही नजर में आकर्षित करने वाली बांस की इस अनोखी बिल्डिंग के बारे में लोगों की राय बनने लगी है कि यह बिल्डिंग मैटेरियल की दुनिया बदल सकता है। एशिया में बिल्डिंग मैटेरियल के काम में बांस का इस्तेमाल का इतिहास काफी पुराना रहा है। मैक्सिको का एक स्कूल कैंपस पूरी तरह बांस से बना है। कोस्तारिका के योगा स्टूडियो तथा फिलिपिंस के ब्रिज और पवेलियन में भी बांस चमकता है। अमेरिका की सबसे बड़ी होम बिल्डर कंपनी कई जगह बैंबू बिल्डिंग विकसित करने की कोशिश कर रही है। पर्यावरण को देखते हुए बांस की उपयोगिता हर जगह स्वीकार की जा रही है।

बांस अब कपड़ों यानी परिधानों में भी अपनी जगह बना रहा है। बांस से तैयार कपड़ों की डिमांड का अंदाजा इससे लग सकता है कि 2004 से 2016 तक इसके बाजार में अकल्पनीय बढ़ोतरी हुई है। बांस से बने कपड़ों के बारे में एक कहावत मशहूर है कि यह इस ग्रह पर सबसे सुरक्षित कपड़ों में से एक है। एक खास किस्म के बांस के गूदे यानी पल्प से सेलुलोज को निकाला जाता है तथा उसे फाइबर की शक्ल दी जाती है। फिर मन मुताबिक रंगों में रंगा जाता है। हमेशा ही नया-नया दिखने वाला बांस का कपड़ा एनवायरमेंट फ्रेंडली होता है। पसीना सोखने में एक्सपर्ट इसका फैब्रिक न ही सिकुड़ता है और न ही रंग छोड़ता है। बैंबू फैब्रिक कॉटन की तुलना में चालीस फीसदी अधिक एब्जॉर्ब करता है और नमी को दूर रखता है। इसमें मौजूद मैक्रोगेब्स फैब्रिक को हवादार बनाता है। इतनी खासियतों के चलते बांस के बने कपड़े तेजी से बाजार में अपनी धाक जमा चुके है। यदि आपको इन कपड़ों को फेंकना भी पड़े तो आप यह जानकर निश्चिंत हो सकते हैं कि यह नियत समय पर खुद ब खुद नष्ट हो जाएगा। सबसे अहम बात यह भी है कि बांस मिट्टी की उर्वरकता खराब नहीं करता।

 भारत पिछले कुछ सालों में अगरबत्ती जैसी शुभ वस्तु की सींकों के लिए चीन ओर छोटे से वियतनाम जैसे देश का मुंह ताकता था। इसके चलते हमारा अगरबत्ती का लगभग पूरे उद्योग पर गहरा असर पड़ रहा था। भारत, चीन और वियतनाम से 35 हजार टन गोल सीकें आयात करता है। जबकि बांस की एक प्रजाति बंबूसा तुलदा अगरबत्ती की सीकें बनाने में काम आती है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस प्रजाति के बांस के कई वन हैं। बांस का उपयोग सदियों से मनुष्य अपने जीवन में करता आ रहा है। इसीलिए कहा जाता है कि प्राचीन समय में गांवों के हर परिवार का अपना एक बांस का बगीचा होता था। लोग बांस पर एक लाल फीता बांधकर रखते थे, उनकी मान्यता थी कि कोई नई खबर जल्दी ही मिलेगी। बांस वस्तुतः एक तरह की घास है। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो यह ग्रेमीनी या पोयसि कुल का पौधा है। इसे वानस्पतिक नाम बम्बूसा एरण्ड नसिया के अलावा स्थानीय भाषाओं में नलबांस, देवबांस, रिंगल, नरी, गोबिया, लतंग, खंग, करेल जैसे कई नामों से इसे नवाजा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण हमेशा अपने पास बांस की बांसुरी रखते थे। बांस के पौधों को भारतीय संस्कृति में उन्नति का पौधा माना जाता है। भारत में विवाह मंडप के पास बांस के पौधे लगाए जाते हैं। बांस का वृक्ष देखने में सीधा होता है, जिसके तने में समान दूरी पर ठोस गांठे पाई जाती हैं। दो गांठों के बीच समान दूरी वाले बांस की रोचक बात यह भी है कि यह सबसे तेज बढ़ने वाला पौधा या कह लो, लंबी घास है। इसके अलावा बांस दूसरे किसी पेड़-पौधे की अपेक्षा 33 फीसदी अधिक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है और 35 फीसदी अधिक ऑक्सीजन देता है। अपने कद, दृढ़ता और मजबूती के कारण बांस प्लास्टिक तथा लोहे के विकल्प को बखूबी पूरा करता है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बांस की लकड़ी स्टील से भी ज्यादा मजबूत होती है।

बांस का उपयोग कई प्रकार के लघु तथा कुटीर उद्योगों में बरसों से होता आ रहा है। बांस की बनी लुगदी कागज उद्योग को नया आधार प्रदान कर रही है। बांस को चीरकर छोटी-छोटी तीलियां, माचिस, अगरबत्ती, पेंसिल, टूथपिक, चॉपस्टिक बनाए जा रहे हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सहित अनेक भागों में बांस के लट्टे का उपयोग नदियों पर पुल बनाने में भी किया जाता है। पर्यावरण का मित्र माना जाने वाला बांस प्लास्टिक, स्टील और सीमेंट के स्थान पर भी उपयोग में लिया जाता है, जिसमें बांस की चादर, जाली, खिड़की, दरवाजे, चौखट, शटर, फ्लोटिंग, पुल, सीढ़ियां जैसे ढेरों आइटम हैं। बांस की प्राकृतिक सुंदरता के कारण इसकी मांग सौंदर्य तथा डिजाइन की दुनिया में तेजी से बढ़ रही है। बाग- बगीचों की खूबसूरती बढ़ाने के लिए भी बांस के पौधे लगाए जाते हैं। बांस की खपच्चियों को तराशकर तरह-तरह की रंग-बिरंगी चटाइयां, कुर्सियां, टेबल, स्टिक्स, चारपाई, डलिया, झूले, मछली पकड़ने का कांटा, लकड़ी के खूबसूरत नक्काशीदार चाकू, पकड़न का काटा, लकड़ा क खूबसूरत नक्काशादार चाकू, चम्मच, खूबसूरत बर्तन, मग, खेती के औजार, ऊन तथा सूत काटने की तकली, बांस की मोहक बांसुरी, तीर-धनुष, भाले के अलावा पुराने समय में बांस की कांटेदार झाड़ियां बनाई जाती थीं, ताकि किलों की रक्षा की जा सके। इसके अलावा जंगलों में जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए ग्रामीण पैनगिस नामक एक तेज धार का औजार बनाते थे, जो दुश्मनों के प्राण भी ले सकता था। इसके अलावा अब तो हिल स्टेशनों पर बांस के छोटे-छोटे झोपड़ीनुमा घर भी बनाने का प्रचलन आ गया है। तिलकामांझी भागलपुर विश्व विद्यालय के अंतर्गत आने वाले तेजनारायण बनैली (टी.एन.बी.) कॉलेज में देश का मशहूर बैंबू टिशू कल्चर लैब है, जहां मीठे बांस के पौधे तैयार हो रहे हैं। एक बार में लगभग दो लाख पौधे तैयार किए जाते हैं। इस मीठे बांस के पौधे को व्यावसायिक रूप में लाने के लिए तैयार किया जा रहा है।

भारत दुनिया में सबसे समृद्ध संपदा वाले देशों में से एक है। बांस एक ऐसी वनस्पति है, जिसके करीब 1500 उपयोग रिकॉर्ड किए जा चुके हैं। राष्ट्रीय बांस मिशन योजना का मुख्य उद्देश्य भी यही है कि 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना किया जाए। इसके लिए किसानों को बांस की खेती तथा उससे जुड़े लघु तथा कुटीर उद्योगों के लिए 50 फीसदी तक अनुदान भी दिया जा रहा है। प्लास्टिक बोतल की जगह बांस की बोतल एक अच्छा विकल्प हो सकता है। बेहतर स्वास्थ्य के अलावा इससे युवाओं को रोजगार का मौका भी मिल सकता है। भारत बांस उत्पादन में अग्रणी होने के बावजूद निर्यात ना के बराबर है। अतः इस मिशन को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने एक 'लोगो' भी बनाया है। इस लोगो के चारो ओर औद्योगिक पहिया है, जो बांस के औद्योगिकीकरण के महत्व को दर्शाता है। इस लोगो में सुनहरे पीले तथा हरे रंग का उपयोग किया है, जो इस बात का प्रतीक है कि वाकई बांस हरा सोना है। उत्साहित करने वाली बात यह भी है कि बांस उत्पादन को वाणिज्यिक स्तर पर बढ़ावा देने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार, तेलगांना सरकार एवं महाराष्ट्र सरकार कई बांस परियोजनाओं पर काम कर रही है। स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए असम सरकार ने एक नायाब मिसाल पेश की है।

भारत के असम में बांस की पैदावार बहुत है। चीन के बाद भारत बांस उत्पादन में दूसरे नंबर पर है। बुद्धिमानी की लकड़ी कहे जाने वाले बांस की खेती से भारत में 70 हजार से ज्यादा किसान जुड़े हैं तथा हर साल 14.6 मिलियन टन का उत्पादन होता है। बांस का जीवन एक से पचास वर्ष का होता है। वैसे तो बांस के फूल नहीं खिलते यदि खिलने लगें तो तभी उन्हें काट-छांटकर अलग कर देना पड़ता है, वरना बांस के पेड़ का जीवन समाप्त हो जाता है। यदि ऐसा होता भी है तो इसे चमत्कार ही कहते हैं कि अगली बारिश के मौसम में जमीन पर गिरे यही फूल वापस खिलने लगते है तथा बांस भी हरा-भरा होने लगता है। ऐसा कहा जाता है एक बांस के पेड़ में 4 से 20 सेर चावल के समान फल लगते हैं, जो बहुत ही सस्ती दर पर बिकते हैं। कहते हैं 1812 ईस्वी में उड़ीसा (अब ओडिशा) में अकाल पड़ा, तब बांस के फल ही गरीब जनता का आहार तथा जीवन रक्षक रहे थे।

शादी का मौसम है। रीति-रिवाज और मांगलिक कार्यों में बार-बार बांस की जरूरत पड़ती है। हिंदू धर्म में बांस से बना मंडप सुखी वैवाहिक जीवन को दर्शाता है। इसलिए मांगलिक कार्यों में बांस से ही मंडप बनाए जाते हैं। बांस से बने मंडप में दुल्हा और दुल्हन सात फेरे लेते हैं और जन्म-जन्म के साथी बन जाते हैं। साथ ही इन सभी के साक्षी देवी-देवता भी होते हैं। बांस लगाने से नवजीवन में खुशियों का संचार होता है और शुभ फलों की भी प्राप्ति होती है।

एक अनुमान के अनुसार रामायण में संजीवनी के रूप में जिस जड़ी का उल्लेख है वह बांस से ही प्राप्त हुई है। वैदिक काल में इसका उपयोग कई बीमारियों को ठीक करने में कारगर माना जाता था। बांस का जूस, निकालना आसान नहीं है, इसके लिए तकनीकी जानकारी का होना आवश्यक है। ढेरों गुणों से भरपूर इस जूस को आकर्षक पैकिंग में चीन, हांगकांग, जापान के रेस्त्राओं में सर्व किया जाता है। भारत के कुछ राज्यों में कई जनजाति द्वारा बांस की कोपलों का इस्तेमाल खाद्य पदार्थ के तौर पर किया जाता है। पूर्वोत्तर राज्यों में मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय आदि में बांस की कोपलों से सिरका बनाने का काम सदियों से होता आया है। मणिपुर में बांस की ताजी कोपलें मछली के साथ पकाकर खाई जाती हैं। सिक्किम में बांस की कढ़ी बनाई जाती है, जिसे टामा के नाम से भी जाना जाता है। बस्तर की जनजाति अधपके बांस से 'आमत' नामक खट्टा सूप बनाते हैं। पोषक तत्वों से भरपूर इस सूप को पीने से सर्दी, खांसी, जुकाम, छाती में संक्रमण तथा अन्य मौसमी बीमारियां कोसों दूर रहती हैं।

भारत में बांस की अत्यधिक उपयोगिता प्राचीन समय से ही समाज में बनी हुई है वर्तमान समय में लोगों ने अपनी आवश्यकता एवं अधिक उपलब्धता के कारण इसके विभिन्न विविध उपयोग ढूंढ लिए है, जिसके कारण वर्तमान में बांस ने बहुत सारी इमारती लकड़ियों की कटाई एवं वनों को कटने से बचाने में समाज को सहयोग किया है। यही वजह है कि बहुत सारे पेड़ों को काटने से बचाया जा सका है। किसान तथा समाज को बंबू के उत्पादन से कई प्रकार के लाभ है। बंबू का उपयोग करके प्राचीन समय से ही टोकरी, चटाई, धनुष, लाठी, कृषि के औजारों के हत्थे, बांसुरी, झोपड़ियों की दीवार, छत बनाने की सामग्री हरी पत्तियां को पशुओं को चारे और पेपर पैकेजिंग में भी इसका उपयोग बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त पारंपरिक रूप से पेड़ों की कटाई करके बनाए जाने वाले फर्नीचर, जिसमें कुर्सियां, मेज, सेंटर टेबल आदि में बांस के उपयोग को बहुत अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है।

वजन के हल्के और ज्यादा टिकाऊ होने से इसे दूरस्थ स्थानों में भेजने में न तो कोई परेशानी होती है और न ही इन्हें कैरी करने में किसी प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ता है। विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार से प्रयोग होने वाले व्यंजनों जैसे अचार, चावल बनाने, मीट को पकाने के लिए बांस के खोखले ट्यूब जैसी रचना का उपयोग करके विभिन्न प्रकार की स्वादिष्ट एवं नएपन के साथ दिखने वाले भोज्य पदार्थ परोसे जा रहे हैं, इसके कारण भी बांस की समाज में ग्राह्यता बढ़ी है। बांस का आयुर्वेदिक दवाइयों के रूप में भी प्राचीन समय से उपयोग होता आ रहा है। प्राचीन समय से अंगों को सीधा रखने तथा हड्डियों को जोड़ने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा है। बांस के रस से जोड़ों पर मालिश करने से अर्थराइटिस (गठिया रोग) में लाभ होता है। इसके रस या सत में विभिन्न एंटीऑक्सीडेंट होने के कारण यह त्वचा के लिए अच्छा प्राकृतिक स्रोत है।

बांस की मुलायम कोपल तथा अंकुरित नए-नए तनों का उपयोग करके बहुत स्वादिष्ट अचार बनाया जाता है। पहाड़ी क्षेत्र तथा टूरिस्ट प्लेस में बहुत अधिक प्रचलित होने से देश के विभिन्न भागों में इसकी मांग बढ़ रही है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं। महिला उद्यमियों का एक नया वर्ग ग्रामीण क्षेत्रों में 'वोकल फार लोकल', और 'एक जिला एक उत्पाद' जैसी सरकारी योजनाओं के द्वारा नए-नए कारीगर एवं उद्यमी बांस के विभिन्न उत्पाद बाजार में उपलब्ध करवा रहे हैं। साथ ही एक नई ग्रामीण अर्थव्यवस्था जो विविधता के कारण स्थाई रूप से बढ़ रही है। बांस के ऐसे विभिन्न उत्पादभारतीयब्रांड के साथविदेश में भीमांगे जा रहे हैं, जिसमें भारत के साथ-साथ पूर्वी एशिया के विभिन्न देश अपने प्रभाव के क्षेत्र देश में इन सामानों को उपलब्ध करने की एक प्रतियोगिता बन रही है, जिसमें चीन, भूटान, थाईलैंड, कंबोडिया, मलेशिया तथा इंडोनेशिया भारत के लिए प्रतिस्पर्धा प्रस्तुत कर रहे हैं।

बांस को उगाने के लिए 5 से 6 मीटर की दूरी पर 30 सेंटीमीटर चौड़े 30 सेंटीमीटर गहरे गड्ढे इस प्रकार बनाए जाते हैं कि उनमें बांस का बीज या राइजोम अथवा बस की कटिंग को बोया जा सके, इसकी जड़ मिट्टी में बहुत गहराई तक जाती है, जिससे यह मिट्टी के होने वाले कटाव को रोककर मृदा संरक्षण का कार्य भी करता है। पर्यावरण संरक्षण में बांस बहुत ज्यादा कार्बन को वायुमंडल से अवशोषित करके शुद्ध ऑक्सीजन का निर्माण करने में बहुत सक्षम पौधा है क्योंकि पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य स्रोत कार्बन डाइऑक्साइड गैस होती है और बांस के पौधे बहुत तेजी के साथ वायुमंडल से इस कार्बन डाइऑक्साइड गैस को सोख कर श्वसन के लिए शुद्ध कर ऑक्सीजन गैस पर्यावरण में भेजने का कार्य लगातार करते रहते हैं। बांस का पर्यावरण संरक्षण में भी महती उपयोग हो रहा है। जिन क्षेत्रों में पानी भरा रहता हो या नमी ज्यादा रहती हो और छायादार स्थान हो वहां बांस किसानों को अतिरिक्त लाभ तथा एक अतिरिक्त मृदा संरक्षण वाली फसल जो पर्यावरण को भी शुद्ध रखती है का विकल्प के तौर पर उपलब्ध कराया जा सकता है।

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