1. जल ईश्वर है
हिन्दू मान्यता के अनुसार आदि पितृ यानी जीवन का मूल स्रोत तो सूर्य, सविता हैं किंतु इस धरती पर जीवित और अजीवित तत्त्व का मूल अंतर जल का प्रधानत्व है। जो भी जलयुक्त है, वही जीवित है। स्थूल रूप में यह स्वतः स्पष्ट है कि जीव, जीवाणु और अन्य पदार्थों का फर्क जल की प्रधानता से ही निर्मित होता है। जीवित तत्त्व अथवा जीव का निर्माण उसी क्षण प्रारंभ होता है, जब सूर्य, वायु, पृथ्वी और आकाश ये सभी जल में निजी आहूति करते हैं।
कबीर जनवादी दार्शनिक हैं। उन्होंने दार्शनिक गूढ़ तत्त्वों को भी सहज कवित्त में इसीलिए कह दिया कि आम आदमी अपने दर्शन से अलग-विलग न हो और उसका जीवन-दर्शन उसकी स्मृति में अंकित होगा तो वह आवश्यकता पड़ने पर अंतःकरण की बात को सहज जान भी लेगा।
माया महा ठगिनी मैं जानी,
केशव के कमला बनु बैठी,
शिव के भवन भवानी ।
पण्डा की मूरत बन बैठी, तीरथ में भई पानी ।
कबीर की इस बानी से यह सरल बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि सृष्टि में समस्त माया पानी की है, ईश्वर के सभी रूप जल के सदृश हैं और जल की तीर्थ या तारनहार प्रवृत्ति ही ईश्वर रूप में पूजनीय है। ईश्वर जल की तरह अलग-अलग रुपों और रूपकों में हमारे समक्ष प्रत्यक्ष होता रहता है और आदमी ईश्वरीय तत्त्व जल से निर्मित स्वयं ईश्वर का रूप है। भारत में न तो कोई एक मात्र दर्शन शास्त्र है, न हमारी लोक परंपरा किसी एक ही दर्शन के प्रति समग्र निष्ठा रखती है। भारतीय समाज सभी दर्शनों से उपयोगी अंशों को अपनी समझ तथा जरूरत के अनुसार स्वीकृत, व्याख्यायित और आत्मसात करता है और उसके अनुसार जीवन जीने के मापदंड बनाता है।
इसे विविधता पूर्ण तथा व्यापक दृष्टि से देखें तो जल के संबंध में भारतीय लोक परंपरा के निम्नलिखित मुख्य आधारभूत सिद्धांत मिलते हैं-
पूर्वोक्त मूल भूत दृष्टि व्यापक रूप में विकसित होते हुए भारतीय लोक परंपरा में 'घट-घट तीरथ, क्षण-क्षण अवतार' जैसे सिद्धांत का रूप ले लेती है। यह सिद्धांत हिन्दू सांस्कृतिक बहुलता, व्यक्ति की निजता के संतुलन एवं उसके ईश्वरत्व का विज्ञान है। प्रत्येक व्यक्ति जन्मना ईश्वर का अवतार है, उसी तरह जैसे मिट्टी का कण-कण और जल की बूंद-बूंद ईश्वर के रूप हैं। तीर्थ परंपरा और सांस्कृतिक वैविध्य का सिद्धांत पर्यावरण आधारित जीवन की वैज्ञानिक पद्धति भी है। प्राकृतिक पर्यावरण से लयबद्ध जीवन ही यज्ञ व्यवस्था या वैदिक जीवन प्रणाली का मौलिक आधार है। गौ पूजा वास्तव में जिजमानी / यजमानी (यज्ञमानी) प्रथा के सर्वोत्तम प्रतीक की पूजा है। जितने कुनबे, उतने कुल देवता और उनके अनेक पितृ देवता। जितने गांव, उतने लोक देवता और ऐसा प्रत्येक स्थान जहां पशु, पक्षी, बटोही के वास्ते जल और आश्रय है, वहीं तीर्थ है। सृष्टि में जितने जीव उतने देवी देवताओं के रूप।
पर्यावरण और जलवायु में स्थानीय परिवर्तन या भिन्नता प्राकृतिक अनिवार्यता है। भिन्नता प्रकृति का निजी सुरक्षा कवच है। प्रकृति की इस भिन्नता से लोकधर्मी सामंजस्य का नाम 'वैविध्य' है। जिसका वैदिक/हिन्दू मूर्त रूप 33 कोटि देवी-देवता हैं। ऐसे पर्यावरणवादी विज्ञान को मानने वाले के लिए 33 कोटि देवी-देवता और असंख्य तीर्थ गर्व का विषय हैं, जातीय ग्लानि का नहीं।
मारवाड़ में अकाल सर्वेक्षण के दौरान सोलंकिया तला गांव में एक शाम पूनाराम भगत के साथ जनजीवन से लेकर भगत-भोपा आदि के आचरण तक पर चर्चा हो रही थी। अचानक ही मेरे साथी आचार्य सुधीर चन्द्र ने पूनाराम जी से सवाल कर दिया कि भगवान क्या है? सवाल सुन कर पूनाराम जी मौन और निर्विकार हो गये और मैं अवाक् रह गया। मन ही मन अपने को कोसने लगा कि इन पढ़े-लिखे लोगों को मैं गांव क्यों ले आता हूं?
लेकिन पूनाराम जी ने चन्द क्षणों में ही अपना मौन तोड़ कर स्पष्ट घोषणा कर दी कि मिट्टी (पृथ्वी), पानी और वनस्पति ही ईश्वर के तात्त्विक एवं मूर्त स्वरूप हैं। विश्लेषण की लौकिकता में ऐसी दार्शनिकता का पुट था कि आचार्य सुधीर चन्द्र को पूनाराम जी से दूसरा सवाल ही नहीं करना पड़ा। पूनाराम जी ने कहा "मिट्टी कभी गंदी नहीं होती, कभी अपवित्र नहीं होती, हम उसे प्रतिदिन, प्रतिक्षण दूषित करते हैं किंतु वह हर गंदगी को अपने जैसा, बिल्कुल अपने अनुरूप बनाने में लीन रहती है और बना लेती है फिर शुद्ध होकर हमें प्राप्त होती रहती है। जिस इंसान में यह गुण आ जाये कि वह हर विष और प्रदूषण को अपने में आत्मसात कर अपने जैसा निर्मल बना ले और स्वयं निर्मल बना रहे वही ईश्वर है।
ठीक यही स्वरूप पानी का है। हम निरंतर जल को दूषित करते रहते हैं लेकिन पानी स्वतः निर्मल होने और अन्य दूषित सामग्री को निर्मल बनाने की प्रक्रिया में नित लीन है। इस नित निर्माल्य प्रवृत्ति का नाम ही ईश्वर है। खेजड़ी के पेड़ में हम पत्थर मारते हैं तो उत्तर में वृक्ष से हमें फल और पत्ते प्राप्त होते हैं। वृक्ष लौट कर पत्थर नहीं मारता, गाली नहीं देता। पेड़ पर हम ईंधन और चारे के लिए कुल्हाड़ी चलाते हैं तो पेड़ क्षुब्ध होकर उगना या प्रस्फुटित होना बंद नहीं कर देता। पूनाराम जी का कहना था कि जो भी जल की तरह गतिशील हो जाता है और स्वतः निर्मलीकरण की प्रकृति प्राप्त कर लेता है, वही भगवान के सदृश हो जाता है। मिट्टी, पानी और वनस्पति की सहज प्रवृत्ति ही ईश्वर का पर्याय है।
कच्छ क्षेत्र के छछला गांव में अकाल सर्वेक्षण के दौरान एक दिन वहां के निवासी कासिम खां ने समझाया 'तुम शहरी बाबू न कुदरत (कासिम खां ने यह स्पष्ट किया कि कुदरत माने खुदा) की बात समझते हो न किताब की बात जानते हो, और न आंख से देखकर सीख सकते हो। फिर यहां आकर क्यूं हमारा समय बर्बाद करते हो? सरकार क्यूं संस्थाओं को पैसा बर्बाद करने के लिए देती है?' मैने बीच में टोकने का प्रयास किया तो कासिम खां का गुस्सा और तेज हो गया। वे बोले- 'बाबू बात सुन और समझ, बीच में टोक मत। तुझे मालूम है, कुदरत का हुकुम था कि दूध नहीं बेचना, दूध बेचना पूत बेचने के बराबर गुनाह था। खुदा का कानून इसलिए बना था कि सब कोई अपने घर में गाय पालेंगे, जानवर की सेवा करेंगे, घर के बच्चे, बूढ़े, औरत सभी को दूध और छाछ मिलेगा। घर पर घी बनाकर बेचने से गुजारे में मदद भी हो जाएगी।
'खुदा का कानून किसने तोड़ा ? सरकार ने इस कानून को तुड़वाया, शहरी बाबू तुम्हारे वास्ते ही तुड़वाया। यह जो अधर्म बढ़ गया, इसी से अकाल पड़ता है। पुराने वक्त में कच्छ के 'बनी' क्षेत्र में कम बारिश होने पर भी बहुत चारा होता था। कच्छ में पानी की कमी तो होती थी किंतु चारे का कभी अभाव नहीं होता था।' बाबू यह सर्वे का काम बंद कर, इससे गांव में बदअमनी फैलती है, अपनी छोकरियों को यहां से लेकर जा।'
इस प्रकार सब कुछ ईश्वर, उसकी माया और उसके बनाये कानून से संतुलित होती है और उसे तोड़ने पर दंड भी मिलता है। यह केवल भौतिक या शारीरिक रूप तक ही नहीं है बल्कि तन एवं मन दोनों को घेरे हुई है इसलिये तीर्थ भी भूमि तीर्थ और मानस तीर्थ दोंनों प्रकार के हैं।
स्रोत
- प्रकाशक : दक्षिण एशियाई हरित स्वराज संवाद 2015 (साउथ एशियन डॉयलॉग्स ऑन इकोलोजिकल डेमोक्रेसी) सीमेनपू फाउंडेशन, फिनलैंड का वित्तीय सहयोग एवं वसुधैव कुटुम्बकम् प्रा. लि. का प्रबंधकीय सहयोग मुनिरका, नई दिल्ली 110067,मुनिरका, नई दिल्ली 110067डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक पेशे से कालेज में पढ़ाते हैं।