पर्यावरण संरक्षण में तकनीक का इस्तेमाल ला रहा है बड़े बदलाव
जल, जंगल और पर्यावरण, धरती पर जीवन के मूलभूत आधार हैं। पर अवैध कटाई, अतिक्रमण और प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण इनकी प्रकृति और अस्तित्व बदल रहा है। यह मानव की प्रकृति और अस्तित्व के लिए खतरा है। इस बदलाव की निगरानी के लिए सैटेलाइट्स, ड्रोन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT), स्मार्ट सेंसर, लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LiDAR), डिजिटल मैपिंग, जियोग्राफ़िक इनफार्मेशन सिस्टम (GIS) और बिग डेटा जैसी तकनीकें इन संसाधनों की सशक्त पहरेदार बनकर उभरी हैं।
एक तरफ़ ये तकनीकें जंगलों के क्षेत्रफल, नदियों की धाराओं और हवा की गुणवत्ता को पढ़कर चेतावनी जारी कर रही हैं। दूसरी ओर, ये अवैध गतिविधियों पर नकेल कसने में मदद कर रही हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि ये आधुनिक तकनीकें कैसे पर्यावरण के संरक्षण में काम आ रही हैं।
उपग्रहों के ज़रिए आसमानी निगाह
उपग्रहों ने वनों की निगरानी को नई ‘ऊंचाई’ तक पहुंचाया है। भारत में वन सर्वेक्षण विभाग (एफएसआई) देशभर के वनों की सेहत पर नज़र रखने के लिए उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का सहारा लेता है। इनमें इसरो के 'भुवन' प्लेटफॉर्म को इमेजरी उपलब्ध कराने वाले उपग्रह कार्टोसैट-1, कार्टोसैट-2 और रिसोर्ससैट-1 प्रमुख हैं। दुनिया की बात करें, तो नासा के लैंडसैट और यूरोपीय यूनियन के सेंटिनल जैसे कई उपग्रह पर्यावरण की निगरानी करते हैं।
ये उपग्रह धरती से 100 से 900 किलोमीटर की ऊंचाई पर चक्कर लगाते हुए पूरे जंगलों का 3D नक्शा तैयार करते हैं। इनके ज़रिए पेड़ों की सेहत, अवैध कटाई, जंगल की आग, अतिक्रमण और जलवायु परिवर्तन का सटीक और वैज्ञानिक डेटा एकत्र किया जाता है।
एफएसआई साल 1999 से उपग्रह के डाटा का विश्लेषण कर रहा है, जिससे जंगलों के क्षेत्रफल में आने वाले बदलाव को जाना जा सकता है।। हर दो साल में आने वाली भारत वन स्थिति रिपोर्ट भी उपग्रह से मिले चित्रों और ज़मीनी सर्वेक्षण की मदद से तैयार की जाती है।
उपग्रहों की निगरानी ने वन संरक्षण में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं। 2021 में, जब उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल इलाकों में जंगल की आग फैल रही थी, तब इसरो के रिसोर्ससैट-2 और /यूरोपियन यूनियन के सेंटिनल-2 से मिली जानकारी ने एफएसआई को समय रहते गर्मी और धुएं के संकेत दे दिए। इस पर वन विभाग ने त्वरित कार्रवाई की, और बड़े नुकसान को टाल दिया।
नासा और फ़्रांसीसी अंतरिक्ष एजेंसी के सम्मिलित उपग्रह SWOT ने 2023 से वैश्विक जल निकायों की ऊँचाई और प्रवाह को 2 सेमी के रिज़ोल्यूशन के साथ मापना शुरू किया है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब (NASAJPL) के जलविज्ञानी डॉ. सेड्रिक डेविड बताते हैं कि SWOT मिशन (सतह, जल, महासागर और स्थलाकृति) से नदियों और झीलों को ट्रैक करने में मदद मिलेगी, और समय के साथ-साथ इनमें होने वाले बदलावों की निगरानी की जा सकेगी।
हालांकि, उपग्रहों से निगरानी में कुछ चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं। बरसात के मौसम में बादलों की मोटी चादर उपग्रहों की निगाह को रोक लेती है। कई बार उच्च-रिज़ोल्यूशन डाटा महंगा और सीमित होता है। साथ ही, इन आंकड़ों की सही व्याख्या करने के लिए विशेषज्ञों की ज़रूरत होती है, जिससे यह तकनीक कुछ हद तक सीमित हो जाती है। फिर भी, आसमानी निगाह आज भारत जैसे विशाल और विविध वनसंपदा वाले देश में जंगलों की रक्षा की एक अनिवार्य और प्रभावशाली तकनीक बनी हुई है।
ड्रोन: जंगलों और नदियों के उड़ते प्रहरी
ड्रोनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर जंगलों की निगरानी के लिए किया जा रहा है। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, खासकर उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और असम में। उत्तराखंड में कुमांऊ के पूर्वी तराई वन प्रभाग में साल सितंबर 2019 में उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले में पहली बार ड्रोनों की मदद से हाथी को खेतों से गांवों की ओर लौटने से रोक कर जंगल में वापस भेजने की पहल की गई थी। इससे मन–वन्यजीव संघर्ष को काबू करने में मदद मिली। साल 2017 से उत्तराखंड के इसी इलाके में तीन ड्रोनों की मदद से वनाग्नि की भी निगरानी की जा रही है, जिससे चीड़ के जंगलों में आग लगने की घटनाएं घटीं हैं।
मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में भी जंगल की आग पर नजर रखने के लिए ड्रोनों की मदद ली जा रही है। मोंगाबे के मुताबिक यह पहल काफ़ी कारगर रही है।
2017 में ड्रोन निगरानी लागू होने के बाद मानवीय गतिविधियों से होने वाली जंगल की आग की घटनाएं आधी रह गई हैं। जंगल की आग अक्सर आगजनी और धूम्रपान के कारण लगती है, जबकि दोनों पर प्रतिबंध है। जब लोगों को पता चला कि उन पर नज़र रखी जा रही है, तो ये घटनाएं कम हो गईं।
शशांक सावन, परियोजना इंजीनियर, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), मोंगाबे के साथ बातचीत में
2023 में असम के काजीरंगा में ड्रोन ने मिट्टी के कटाव का पता लगाया, जिससे बाढ़ के बाद बिना किसी देरी के बाद सड़क पुनर्निर्माण किया जा सका। इसके अलावा, ड्रोन नदियों में अतिक्रमण और प्रदूषण पर भी नज़र रख रहे हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक खबर के मुताबिक यमुना में पिछले साल आई बाढ़ के बाद ‘स्वत: संज्ञान’ लेकर नदी के बाढ़ क्षेत्र पर अतिक्रमण को जांचने के दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद यमुना नदी पर ड्रोन-सर्वे में कई अवैध अतिक्रमणों और प्रदूषण स्रोतों की पहचान की गई। कोर्ट ने DDA को उपग्रह और ड्रोन तकनीक का उपयोग करने का निर्देश दिया । इसके बाद ड्रोन सर्वेक्षण में यमुना के बाढ़ क्षेत्र पर कई अवैध अतिक्रमण और प्रदूषण स्रोत स्पष्ट रूप से चिन्हित किए गए।
अतिक्रमण की गंभीरता का अंदाजा DDA की रिपोर्ट से होता है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 9,700 हेक्टेयर बाढ़ क्षेत्र के 75% (7,362.56 हेक्टेयर) हिस्से पर अवैध कब्ज़ा पाया गया। इसके बाद, अदालत ने सभी अतिक्रमण हटाने और ज़मीनी स्तर पर ड्रोन और सैटेलाइट द्वारा नियमित मॉनिटरिंग जारी रखने का आदेश दिया।
आज के ड्रोन उच्च-रिज़ॉल्यूशन कैमरे और थर्मल सेंसर से लैस हैं। अब ड्रोन से नदियों और जलाशयों की मैपिंग और जलाशयों के प्रदूषण को आसानी से मॉनिटर किया जा सकता है। भविष्य में यह तकनीक पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को और मज़बूत करेगी।
सेंसर, AI और IoT: मिलकर कर रहे जंगलों की स्मार्ट निगरानी
स्मार्ट फ़्लो मीटर और वाटर क्वालिटी सेंसर के साथ मिलकर AI, जल संसाधनों की निगरानी में क्रांतिकारी बदलाव ला रही है। ये उन्नत सेंसर pH, घुलित ऑक्सीजन, भारी धातुओं (जैसे, सीसा, 0.01 mg/L तक), और रासायनिक प्रदूषकों का रीयल-टाइम विश्लेषण करने में सक्षम हैं।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने गंगा प्राधिकरण के तहत गंगा बेसिन और उसकी सहायक नदियों में सेंसर लगाए हैं। सीपीसीबी ने गंगा और यमुना में रीयल टाइम जल गुणवत्ता निगरानी प्रणाली (RTWQMS) स्थापित की है। ये RTWQMS स्टेशन गंगा बेसिन की नदियों में प्रदूषण के स्रोतों (जैसे औद्योगिक अपशिष्ट, नगरपालिका सीवेज, कृषि अपवाह) को तुरंत पहचानने में मदद करते हैं। साल 2022 तक, यमुना और गंगा में लगभग 76-113 स्टेशन स्थापित किए गए थे, जो प्रदूषण स्रोतों (औद्योगिक और घरेलू) की निगरानी करते हैं।
मध्य प्रदेश ने भारत का पहला AI-आधारित रीयल-टाइम फॉरेस्ट अलर्ट सिस्टम शुरू किया है, जो Google Earth Engine और मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से उपग्रह चित्रों का विश्लेषण कर अवैध कटाई, अतिक्रमण और वनाग्नि का पता लगाता है। साल 2025 में पांच संवेदनशील वन मंडलों (शिवपुरी, गुना, विदिशा, बुरहानपुर, और खंडवा) में शुरू किए गए इस पायलट प्रोजेक्ट ने 612 वर्ग किमी वन हानि को कम करने में मदद की। इसके तहत, खनन या अवैध कटान आदि से संबंधित 70% अलर्ट के मामलों पर 2-3 दिनों के अंदर कार्रवाई की गई।
तमिलनाडु की 'गाया' परियोजना में IoT-आधारित सेंसर की मदद से मिट्टी की नमी, तापमान और कीट गतिविधि पर नजर रखी जा रही है। नतीजतन, साल 2024 में 20 हेक्टेयर जंगल में मिट्टी की नमी को बढ़ाकर जंगलों के पुनर्जीवन को गति दी गई। सेंसर द्वारा एकत्रित डेटा, क्लाउड पर रीयल-टाइम अपलोड होता है, जिससे अधिकारी त्वरित निर्णय ले पाते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि AI और IoT का एकीकरण पर्यावरण संरक्षण के लिए रियल टाइम निगरानी और डेटा विश्लेषण में मदद करेगा। साथ ही, यह प्रदूषण नियंत्रण के लिए सटीक निर्णय लेने में भी योगदान देगा।
लाइडार: रौशनी के ज़रिए मापे जा रहे हैं संसाधन
लाइडार तकनीक मृदा संरक्षण, जल प्रबंधन और कार्बन उत्सर्जन न्यूनीकरण में अहम भूमिका निभा रही है। भारत में जंगलों और जल संसाधनों के प्रबंधन में लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LiDAR) तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें लेज़र पल्स तकनीक के ज़रिए वनस्पतियों का 90% तक सटीक 3D मॉडल तैयार किया जाता है। इससे पेड़ों की ऊंचाई, घनत्व और कार्बन भंडारण को मापा जा सकता है।
जल और ऊर्जा पर पर परामर्श देने वाली सरकारी एजेंसी WAPCOS ने साल 2021 में झारखंड, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में ₹18.38 करोड़ की लागत से लाइडार सर्वे किया। जिसके परिणामस्वरूप, देश के अलग-अलग हिस्सों में 2,61,897 हेक्टेयर क्षेत्र में जल और चारा उपलब्धता में बढ़ोतरी होने से जंगल के ऊपर निर्भरता कम हुई है। साथ ही, मानव-वन्यजीव संघर्ष में की कमी आई।
झारखंड के रांची ज़िले के ओरमांझी ब्लॉक में लाइडार डेटा की मदद से में भी भूजल रिचार्ज के लिए परकोलेशन टैंक की पहचान की गई। इसी तरह, हिमाचल प्रदेश के शिमला जलग्रहण क्षेत्र में साल 2023 में लाइडार की मदद से वर्षाजल प्रवाह (ड्रेनेज लाइन) का 3D मॉडल तैयार किया गया, जिससे रिचार्ज स्ट्रक्चर बनाने की सही जगह चिन्हित की जा सकी। नतीजतन, अधिक प्रभावी वाटरशेड योजना बनाई जा सकी।
'रिज-टू-वैली' अप्रोच एक समग्र जल प्रबंधन दृष्टिकोण है, जो पहाड़ी क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए रिज (ऊपरी क्षेत्र) से घाटी (निचले क्षेत्र) तक जल और मिट्टी संरक्षण उपायों को लागू करता है। इसे लागू करने के लिए भी लाइडार की मदद से सही ढाल, भूजल रिचार्ज प्वाइंट को सटीक तरीके से चिन्हित किया जाने लगा है।
भविष्य में ड्रोन आधारित लाइडार और क्लाउड प्रोसेसिंग की मदद से डेटा प्रोसेस करने की प्रक्रिया में तेज़ी और लागत में भारी कमी आने की उम्मीद है।
नदियों की डिजिटल मैपिंग
डिजिटल मैपिंग जल प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण, और आपदा रोकथाम के प्रयासों को सशक्त करती है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) के साल 2018 और 2023 के आदेशों ने नदियों की डिजिटल मैपिंग को अनिवार्य किया। सीपीसीबी भी गंगा नदी बेसिन में प्रदूषण के स्रोतों की मैपिंग कर रहा है। बोर्ड की पहल प्रदूषण, सूचीकरण, मूल्यांकन एवं निगरानी (पीआईएएस) के तहत साल 2011 से गंगा व इसके सहायक नदियों में प्रदूषण के स्रोतों की मैपिंग की जा रही है।
इसरो के सैटेलाइट आधारित वेब प्लेटफ़ॉर्म 'भुवन' पर भी 0.5 मीटर रिज़ॉल्यूशन का नदियों की मैपिंग का डेटा उपलब्ध है। इसके अलावा, रिमोट सेंसिंग और GIS तकनीक से भी नदियों के प्रवाह, चौड़ाई, गहराई और अतिक्रमण की सटीक निगरानी हो रही है।
साल 2023 में GIS की मदद से केरल में पेरियार नदी के बाढ़ क्षेत्रों का विश्लेषण कर, बाढ़ आने से पहले ही 25,000 लोगों को सुरक्षित निकाला गया। डिजिटल मैपिंग की तकनीकें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए भी निर्णय लेने में में भी मदद कर रही हैं।
ऐप और पर्यावरण
फ़ॉरेस्ट वॉचर एक एंड्रॉयड/आईओएस मोबाइल ऐप है, जिसे ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच (GFW) ने विकसित किया है। यह ऐप, सैटेलाइट डेटा के ज़रिए रीयल-टाइम डीफॉरेस्ट्रेशन अलर्ट देती है। साल 2018 में इंडोनेशिया में फ़ॉरेस्ट वॉचर और GLAD अलर्ट्स की मदद से अवैध कटाई की 2,400 घटनाओं का दस्तावेजीकरण हुआ है। यह ऐप ऑफलाइन डेटा संग्रह, फोटो अपलोड और जीपीएस ट्रैकिंग की सुविधा देता है, जिससे वन विभाग की निगरानी क्षमता बढ़ी है।
हब नेटवर्क की एक रिपोर्ट के अनुसार मेघालय सरकार की मेघालय फ़ॉरेस्ट फ़ायर इनफ़ॉर्मेशन सिस्टम (MeFFIS) ऐप, नागरिकों को जंगल की आग की तस्वीरें, स्थान और कारण (जैसे झूम खेती या सूखे बांस में आग लगना आदि) अपलोड करने की सुविधा देती है। 2024 में री-भोई ज़िले में इसकी मदद से आग की 50% घटनाओं पर त्वरित कार्रवाई की गई, जिससे 100 वर्ग किमी क्षेत्र को आग से बचा लिया गया।
एयरशिप
फ़िनलैंड की कंपनी Kelluu ने हाइड्रोजन-संचालित एयरशिप विकसित किया है, जो 12 घंटे तक 1000 मीटर ऊंचाई पर उड़कर पेड़ों की सेहत से जुड़ा नॉर्मलाइज़्ड डिफ़रेंस वेजीटेशन इंडेक्स (NDVI) और एनहांस्ड वेजीटेशन इंडेक्स (EVI) डेटा एकत्र करता है और उसका आकलन करता है।
पर्यावरण पर तकनीकी निगरानी की यह यात्रा अभी शुरुआती चरण में है। पर तकनीक के मौजूदा इस्तेमाल और उसके फ़ायदों ने यह तो साफ कर दिया है कि बदलावों से जुड़ा ज़रूरी डेटा उपलब्ध कराकर पर्यावरण संरक्षण को चर्चा की मेज़ से उठाकर ज़मीन पर अधिक सक्षम तरीके से लाया जा सकता है।