पहाड़ का कूड़ा गंगा में

Published on
3 min read


कुछ दिन पहले शाम के वक्त मैं जोशीमठ आ रहा था कि चुंगी के सड़क के किनारे एक बड़े से काले भालू को नीचे उतरने की तैयारी में देखा। इस साल भालू ने जोशीमठ में कई लोगों को हमला कर घायल किया है। मैंने भालू को देखने की बात और लोगों को भी बताई। तब बातचीत में पता चला कि रात को अक्सर भालू वहाँ खड़ा मिलता है। उस स्थान के नीचे की ढलान पर नगरपालिका शहर का कूड़ा डालती है। उसमें भालू खाने के लिए कई चीज़ें पा लेता है, जिसके लिये वह उस ढलान पर उतरता है। नगरपालिका ने शहर भर में जगह-जगह लोहे के कूड़ेदान लगा रखे हैं। दिन में एक बार इन सब का कूड़ा एक बड़े ट्र्क में इकट्ठा कर उसे लगभग तीन किलोमीटर नीचे इस ढलान पर ले जा फेंक दिया जाता है। तीखी ढलान के ठीक नीचे अलकनंदा गंगा बहती है जो उसे बहा ले जाती है।

हरिद्वार से बदरीनाथ तीर्थ जाने वाले 300 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर जितने भी गाँव, कस्बे, नगर पड़ते हैं वे सब अपने कूड़े का निस्तारण इसी गंगा में करते है। बदरीनाथ, जहाँ 10,000 यात्री तक प्रतिदिन पहुँच जाते हैं, के होटलों, धर्मशालाओं, निवासों की गंदगी पहले से ही गंगा के किनारे पड़ी रहती थी। अब उनका मल ले जाने एक नाली बनाई गई है, जो उसे शहर से बाहर कुछ दूर तक ले जाकर एक कोठरी में जमा कर देती है। वहाँ उसे शुद्ध करने का एक संयंत्र लगने वाला था, जो कई साल बीत जाने के बाद भी अब तक नहीं लगा है। यह मल भी रिस कर गंगा में ही जाता है।

गंगा को निर्मल रखने का अभियान 1986 से चल रहा है। केन्द्र सरकार ने तब से लगभग 2,000 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, किन्तु गंगा पहले से भी अधिक प्रदूषित हो गई है। बदरीनाथ की भाँति ठेकेदार नालियाँ तथा सीवेज शुद्धीकरण के स्थान तो बना देते हैं, किन्तु उनमें से कोई काम नहीं करता। यह सही है कि गंगा पहाड़ों में मैदानी जितनी प्रदूषित नहीं है। उसकी वास्तविक दुर्गति हरिद्वार से आरम्भ होती है। पहाड़ों में जनसंख्या कम होने तथा कारखाने न होने के कारण प्रदूषक पदार्थ कम होते हैं तथा वे सब गंगा में नहीं पहुँचते। गाँवों से फेंका गया कूड़ा, जो अधिकांशतः जैविक होता है, ढलानों पर ही सड़-गल कर समाप्त हो जाता है। गरीब पहाड़ी अधिक रासायनिक खाद नहीं खरीद पाते और भूमि को उतना विषाक्त नहीं बनाते।

पहाड़ में नदियाँ चट्टानों तथा तीखी ढलानों से होकर बहती हैं। उनका पानी पहाड़ों-चट्टानों पर थपेड़े खाते रहने से एक तो शुद्ध होता रहता है और साथ ही हवा से ऑक्सीजन लेता है। फिर ये नदियाँ पेड-पौधों, घास तथा जड़ी-बूटियों के ढलानों से अनेक कीटाणुनाशक शक्तियाँ प्राप्त कर पानी को औषधि जैसा बना देती हैं। जो भी हो, गंगा की सफाई पहाड़ों से ही होनी चाहिए। इसके लिये कस्बों-नगरों का कूड़ा उसमें डालना और उसके रेतीले किनारों पर मल-निस्तारण करना बंद होना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा जब लोगों को इसके बारे में लगातार शिक्षा दी जाये। मल त्यागने के बाद मल-द्वार नदी में ही धोया जाता है और उसके बाद हाथ-मुँह भी उसी में। सारे पहाड़ों पर श्मशान भी नदी किनारे ही होते हैं। अक्सर जलाने की लकड़ी पूरी नहीं होती और अधजले शव नदी में बहा दिये जाते हैं। यदि पशु मरते हैं तो उनके शव भी किनारों पर फेंक दिये जाते हैं, जहाँ जब तक चील-कौवों, सियार तथा जंगली जानवरों द्वारा खाये जाने तक वे वहीं सड़ते रहते हैं।

पिछले कुछ सालों से प्रदूषण का एक नया कारण उपस्थित हो गया है। पहाड़ की अन्य नदियों का पानी सुरंगों में डाल कर जल विद्युत परियोजनायें बनाई जा रही हैं। इसके लिये पहाड़ियों में विस्फोट किया जाता है। इनसे निकलने वाला लाखों टन मलबा या तो नदी में प्रवाहित किया जा रहा है, या नदियों के किनारे जमा किया जा रहा है, जो कालांतर में नदी में ही जगह पाएगा। इस मलबे से नदियों का स्तर उठ रहा है और बरसात में बाढ़ का खतरा पैदा कर रहा है। नदियों के किनारे की जमीन उपजाऊ खेती होती है, नदी उसे प्लावित करने लगेगी। जल विद्युत परियोजनाओं से यह एक और खतरा है।
 

सम्बंधित कहानिया

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org