पर्यावरण चेतना के बुनियादी आधार
आजकल विश्व भर में पर्यावरण और इसके संतुलन की बहुत चर्चा है। पर्यावरण क्या है, इसके संतुलन का क्या अर्थ है, यह संतुलन क्यों नहीं है, ये प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं, लेकिन आज इन प्रश्नों का महत्व बढ़ गया है, क्योंकि वर्तमान में पर्यावरण विघटन की समस्याओं ने ऐसा विकराल रुप धारण कर लिया है कि पृथ्वी पर प्राणी मात्र के अस्तित्व को लेकर भय मिश्रित आशंकाएं पैदा होने लगी हैं।
पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मानव के इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु उसी के उपयोग के लिए है। प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता तथा उसकी दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा और उसकी इसी संकीर्णता प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन व स्थिति भयावह हो चुकी है। प्रकृति साथ अनेक वर्षों से की जा रही छेड़छाड़ पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने लिए अब दूर जाने की जरुरत नहीं है ।
विश्व में बढ़ते बंजर इलाके फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त हो पेड़-पौधे और जीव जंतु, प्रदूषणों दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहरा गंदी हवा, हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हम अपनी धरती, अपने पर्यावरण की ठीक देखभाल नहीं की और इससे होने वा संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राण मात्र पर समान रूप से पड़ा है।
आज पर्यावरण संतुलन के दो बिंदु सहज रूप से प्रकट होते हैं। पहला प्राकृतिक औदार्य का उचित लाभ उठाया जाए एवं दूसरा प्रकृति में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाए। इसके लिए भौतिकवादी विकास के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा । थोड़ा अतीत में देखें तो पता चलता है कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई इसके बाद जनसंख्या वृद्धि के साथ ही नई कृषि तकनीक एवं औद्योगिकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में बदलाव आया।
दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ बढ़ गई. इनकी पूर्ति के लिए साधन जुटाए जाने लगे । विकास की गति तीव्र हो गई और इसका पैमाना हो गया अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन । इसने एक नई औद्योगिक संस्कृति को जन्म दिया। आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं। सुख की असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रगति के शोषण को बढ़ावा दिया है। पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है, जिसका सामना सरकारों तथा जागरुक जनमत द्वारा किया जाना है। हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी आज खतरे में हैं।
सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है। कि लोगों को सांस संबंधी बीमारिया आम बात हो गई है।
हमारे लिए हवा के बाद जरूरी है। जल । इन दिनों जलसंकट बहुआयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। एक सर्वेक्षण में कहा गया है। कि हमारे देश में सतह के जल का 70 प्रतिशत भाग बुरी तरह से प्रदूषित है और भू-जल का स्तर निरंतर नीचे जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि शहरीकरण और नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है।
हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिए अभियान चलाना पड़ रहा है। गंगा ही क्यों सभी नदियों की हालत उत्तम नहीं कही जा सकती है। हम रोजाना भारत माता का जयघोष करते हैं। हमारी भारत माता का स्वास्थ्य सबसे ज्यादा खराब हो रहा है। हमारी पहली वन नीति में यह लक्ष्य रखा गया था कि देश का कुल एक तिहाई क्षेत्र वनाच्छादित रहेगा, कहा जाता है कि इन दिनों हमारे यहाँ बहुत कम वन आवरण शेष रह गया है। इसके साथ ही अतिशय चराई और निरंतर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बह-बह कर समुद्र में जा रही है। इसी के कारण बांधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट बढ़ता है। यह तो हमारे देश की कुछ बातों की ओर संकेत किया, संक्षेप में कहें तो आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृति के सम्मुख चुनौती खड़ी कर दी है।
आज दुनियाभर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराया जाए, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाए और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गंभीरता से किए जा सके। भारत के संदर्भ में यह सुखद बात है कि पर्यावरण के प्रति सामाजिक चेतना का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से रहा है। हमारे यहाँ अणु में, जड़ में, चेतन में सभी के प्रति समानता और प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव सामाजिक संस्कारों का आधार बिंदु रहा है । हमारी मान्यता रही है। कि संपूर्ण मानवता के कल्याण की दृष्टि से कार्य करने पर ही पर्यावरण की सुरक्षा संभव है। प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों में युक्तियुक्त उपयोग द्वारा ही पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है, जब हम अपनी नदियां, पर्वत, पेड़, पशु- पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सके। इसके लिए सामान्यजन को अपने आसपास हवा पानी, वनस्पति जगत परिवर्तन करने होंगे स्थानीय परिस्थितियों के माध्यम से भौतिकी, रसायन एवं जीव विज्ञान विषय पढ़ाया जा सकता है। एक पर्यावरण जीव विज्ञान होना चाहिए, जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपने पर्यावरण को बेहतर ढंग से समझ सके। विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों पर भी समुचित ध्यान देना होगा।
इसके साथ ही प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करनी होगी। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिए एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ स्तर तक पहल करनी होगी। इतना ही नहीं विश्व के सारे देशों में पर्यावरण एवं सरकारी विकास नीतियों में संतुलन आए, इसके लिए सघन एवं प्रेरणादायक अभियान भी शुरु होना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण मुक्ति के इस सामाजिक यज्ञ में हर व्यक्ति अपने हिस्से की समिधा समर्पित करने में कोई कमी नहीं रखेगा । तभी वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते है। जन समाज पर्यावरण शुद्धता बनाए रखने में सहभागी बनेंगे, इसी से प्रदूषण से त्रस्त समाज के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा ।
आज दुनियाभर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराया जाए, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाए और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गंभीरता से किए जा सके। भारत के संदर्भ में यह सुखद बात है कि पर्यावरण के प्रति सामाजिक चेतना का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से रहा है। हमारे यहाँ अणु में, जड़ में, चेतन में सभी के प्रति समानता और प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव सामाजिक संस्कारों का आधार बिंदु रहा है। हमारी मान्यता रही है कि संपूर्ण मानवता के कल्याण की दृष्टि से कार्य करने पर ही पर्यावरण की सुरक्षा संभव है। प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों में युक्तियुक्त उपयोग द्वारा ही पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।