पर्यावरण संरक्षण का उत्सव,फोटो क्रेडिट:Wikipedia
पर्यावरण संरक्षण का उत्सव,फोटो क्रेडिट:Wikipedia

पर्यावरण संरक्षण का उत्सव

सरकारी तंत्र प्रतिवर्ष वृक्षारोपण अभियान आयोजित करता है। इस कार्यक्रम के पीछे भाव अच्छा है परंतु धरती पर हरियाली फैलने से अधिक ये आंकड़ों का खेल बनकर रह गया है। हमें अपने लिए स्वच्छ वायु चाहिए, हमारे ही द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण का निराकरण चाहिए, वातावरण के बढ़ रहे तापमान पर नियंत्रण चाहिए।
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सरकारी तंत्र प्रतिवर्ष वृक्षारोपण अभियान आयोजित करता है। इस कार्यक्रम के पीछे भाव अच्छा है परंतु धरती पर हरियाली फैलने से अधिक ये आंकड़ों का खेल बनकर रह गया है। हमें अपने लिए स्वच्छ वायु चाहिए, हमारे ही द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण का निराकरण चाहिए, वातावरण के बढ़ रहे तापमान पर नियंत्रण चाहिए, वर्षा जल का भू संचयन चाहिए, वायुमंडल की आद्रता में वृद्धि चाहिए, वर्षा के लिए अनुकूल वातावरण चाहिए, जैव विविधता का संरक्षण एवं संवर्धन चाहिए..... तो ये काम हमें ही करना होगा।

हरियाली का नाम लेते ही हमारे मन में एक हरे भरे वृक्षों से आच्छादित धरती का मनमोहक स्वरूप सामने आ जाता है। वृक्षों के महत्व से हम सभी परिचित हैं। हम सभी विगत 4-5 वर्षों  में कोरोना की विभीशिका से गुजरे हैं। कोरोना काल में हम प्राणवायु ऑक्सीजन के महत्त्व से भलीभांति परिचित हुए हैं। इस धरा पर ऑक्सीजन का एकमात्र स्रोत वृक्ष हैं, इस सत्यता के नाते वृक्षों का महत्व हमारे जीवन में और भी बढ़ जाता है। वृक्षों के आर्थिक पक्ष पर ज्यादा बात न करके इसके पर्यावरणीय महत्व पर हम विचार करें तो भले ही हम वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत प्रगति कर चुके हैं, फिर भी ऑक्सीजन के उत्पादक के रूप में वृक्ष ही एकमात्र स्रोत हमारे बीच उपलब्ध पाते हैं, जो हमारी विशाल जनसंख्या को ऑक्सीजन प्राणवायु के रूप में उपलब्ध करा रहे हैं। इसका अभी कोई विकल्प भी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है।  पौधा रोपने से पूर्व यह जानना बहुत आवश्यक है कि कौन सा पौधा रोपा जाए, पर्यावरण के लिए इसका क्या महत्त्व है। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है ताकि वर्षा ऋतु आने से पूर्व आप मन बना ले एवं स्थान तय कर लें। 
हरिशंकरी- वृक्षायुर्वेद के अनुसार ये ब्रम्हा, विष्णु एवं महेश के प्रतिनिधि पौधे हैं, ये तीनों पौधे एक ही थाले में एक साल लगाए जाते हैं  

पीपल भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है, यह साधना का वृक्ष है। महात्मा बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे बोधि (ज्ञान) प्राप्त हुआ था, इसीलिए इसे बोधि वृक्ष भी कहते हैं। पीपल सर्वाधिक ऑक्सीजन देने तथा जीव जंतुओं को वर्ष भर भोजन उपलब्ध कराने वाला पौधा है।

भगवान शिव के साक्षात स्वरूप, बरगद को कभी क्षय न होने वाला अक्षय वट भी कहते हैं। अक्षय गुण के कारण भारतीय सनातन संस्कृति का भी प्रतीक है। इसमें अपार जल  संधारण  तथा जीव जंतुओं को आश्रय एवं निरंतर भोजन उपलब्ध कराने की क्षमता है।

संस्कृत में इसे प्लक्ष कहते हैं। इसे घर से उत्तर दिशा में लगाना बहुत शुभ माना गया है। घनी छाया, वर्षा जल संचयन, जीव जंतुओं को आश्रय एवं भोजन उपलब्ध कराने वाला पौधा है। इसके अलावा वृक्षारोपण की दृष्टि से पंचवटी का भी विशेष महत्व है।

इसमें वे पांच आरोग्य पौधे शामिल हैं। जिनका भगवान राम ने वनवास अवधि में आश्रय एवं साधना हेतु उपयोग किया था। ये पांच पौधे हैं- पीपल, बरगद, बेल, आंवला एवं अशोक पीपल और बरगद महत्व और उपयोगिता को उपर वर्णित किया जा चुका है। इसी तरह बेल को पेट रोगों की महाऔषधि एवं शिव आराधना का प्रमुख अंग माना जाता है। आंवला को आयुर्वेद का चिकित्सक कहा गया है। इसे अमृत रसायन, मस्तिष्क, नेत्र एवं चिरयौवन औषधि माना जाता है। अशोक की पहचान शोक हरने वाले, सदैव हरा रहने वाले वृक्ष की है।

इसके अतिरिक्त वृक्षों का एक वर्ग ऐसा भी है जिन्हें हम पंच पल्लव के नाम से जानते हैं। इसमें ऐसे वृक्ष शामिल हैं जिन्हें अपनी जड़ों में जल संग्रहण एवं संधारण करने वाला माना जाता है। इसमें पीपल, बरगद एवं पाकड़ के अलावा गुलर, जिसे सर्वाधिक जल संधारक एवं पशु-पक्षियों को आहार प्रदान करने वाला माना जाता है, शामिल है। इसके अलावा इस वर्ग में आम भी शामिल है जिसे फलों का राजा और खाद्य सुरक्षा का महत्त्वपूर्ण विकल्प माना जाता है। आम के पत्ते और लकड़ी का उपयोग यज्ञ-हवन एवं पूजन में भी किया जाता है।

आरोग्यत्रयी वृक्षों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे हम आरोग्यत्रयी के रूप में जानते हैं। इसमें आरोग्य की दृष्टि से चयनित तीन महत्वपूर्ण पौधे शामिल हैं। जिनमें त्वचा एवं रक्तविकार नाशी नीम, मधुमेह नाशी जामुन तथा पोशक तत्वों से भरपूर सहजन शामिल हैं। कोरोना काल में ऑक्सीजन की किल्लत का सामना करने पर प्राणवायु प्रदान करने वाले ऑक्सीजन उत्पादक वृक्षों की खूब चर्चा हुई थी।जगह-जगह ऑक्सीजन वृक्षों को लगाये जाने के लिए योजनाएं बनीं एवं कहीं-कहीं पर ऑक्सीजन बैंक के रूप में इन वृक्षों के रोपण को प्रोत्साहित भी किया गया।

इसी सोच को पुख्ता करने के लिए लोक भारती ने गतवर्श हरिशंकरी वृक्षारोपण को विकल्प के रूप में देखा एवं इसे एक अभियान का रूप दिया। आज उत्तर प्रदेश में हरिशंकरी वृक्षारोपण लोक भारती की पहचान बन गया है। हरिशंकरी वृक्षारोपण या हरिशंकरी वृक्ष अपने में कोई प्रजाति नहीं है, बल्कि हरिशंकरी वृक्ष के रूप में सर्वाधिक आक्सीजन उत्पादक पेड़ पीपल, पाकड़ एवं बरगद को एक साथ रोपित कर इसे एक नई पहचान 'हरिशंकरी वृक्ष' के रूप में किया गया। हरिशंकरी वृक्ष भारत भूमि के लिए नया नहीं है, बल्कि इन वृक्षों का वर्णन हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भी बहुतायत मिलता है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश के द्योतक के रूप में पीपल, पाकड़, बरगद को एक साथ रोपित किये जाने का जिक्र  मिलता है।

उत्तर में - बरगद
पूरब में - पीपल 
पश्चिम में - पाकड़

हरिशंकरी वृक्षारोपण के अन्तर्गत एक मीटर व्यास के एक मीटर गहरे गढ्ढे का सृजन कर इसके तीनों कोनों, उत्तर, पूरब एवं पश्चिम पर क्रमशः बरगद, पीपल एवं पाकड़ के पौधे रोपित किये जाते हैं। पौधारोपण एक अच्छे भाव से किया जाने वाला कार्य है, इसलिए इन पवित्र पौधों को अच्छे मन से रोपित किया जाना चाहिये।

हरिशंकरी वृक्षारोपण के प्रति लोगों का रुझान मात्र इस वजह से ही नहीं रहा है कि इनके पर्यावरणीय गुण हैं अर्थात् इसमें रोपित की जाने वाले प्रजातियाँ ऑक्सीजन उत्पादक वृक्ष हैं, बल्कि इस वजह से भी इसके प्रति लोगों का जुड़ाव रहा कि हरिशंकरी वृक्ष कहीं न कहीं हमारे धार्मिक कार्यक्रम, अनुष्ठानों से भी जुड़े हुए हैं। हम सबकी पहले से भी यह मान्यता रही है कि पीपल में शिवजी का वास होता है। इन धार्मिक कारणों से भी पीपल सदृष्य वृक्षों को सुरक्षित रहने की ज्यादा सम्भावना रहती है। विगत कई वर्षों से हम लोगों ने देखा है कि व्यक्तिगत एवं राजकीय प्रयासों से लाखों की संख्या में प्रत्येक वर्ष पौधे रोपित किये जाते हैं, किन्तु इनकी सुरक्षा के परिणाम को लेकर हम सशंकित रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में यदि हम इस तरह के पौराणिक वृक्षों के रोपण को बढ़ावा देंगे तो इनके सुरक्षित रहने की पूर्ण सम्भावना रहेगी।

लोकभारती ने इस वर्ष गुरु पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक मंगल वाटिका रोपण अभियान हरियाली माह मनाना तय किया है, इस कार्यक्रम का हिस्सा बने।

मुँह से मास्क हटाना है तो वृक्ष लगाना ही होगा। सूखी नदियां फिर वह निकले, बीज उगाना ही होगा। लुप्त हो रही बुलबुल कोयल इसे बचाना ही होगा। इनके रहने-खाने का इंतजाम बनाना ही होगा। मुँह से मास्क हटाना है तो वृक्ष लगाना ही होगा। पौधारोपण जैसे पुण्य कार्य हेतु किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह क्षण स्वयं में एक शुभ मुहूर्त हो जाता है। परंतु एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि क्या इस रोपित पौधे की सुरक्षा और जल आदि का प्रबंध है? यदि हाँ तो फिर पूरे वर्ष यह कार्य किया जा सकता है। यदि नहीं तो... इस दृष्टि से हमें पौधरोपण के लिए उपयुक्त समय चुनने की आवश्यकता है। विशेष रूप से तब जब हम सामूहिक रूप से बड़े स्तर पर इस कार्य में लगते है। इस प्रकार तापमान एवं अन्य जलवायु परिस्थितियों के अनुसार 5 जून को मनाया जाने वाला पर्यावरण दिवस जिस दिन देश में बड़ी संख्या पौधारोपण होता है, हमारे अनुकूल नहीं है। हमारे लिए रोपित पौधे का पोषण अधिक महत्वपूर्ण है न कि विश्व समुदाय द्वारा तय तिथि का अनुपालन।

लोक भारती से सम्बद्ध पर्यावरण विज्ञानी, मौसम विज्ञानी एवं अन्य प्रबुद्ध वर्ग ने चर्चा कर तय किया और यह विचार दिया कि पौधारोपण का कार्य श्रावण मास में हरियाली माह को मनाते हुए करें। हरियाली माह में रोपित पौधों के जीवित रहने की सर्वाधिक संभावना है। इसके साथ ही इस माह में अनेक स्थानों पर स्वतः उग आए पौधों की उपलब्धता भी है जिनका उचित स्थानों पर रोपण अथवा अगले रोपण के लिए संरक्षण किया जा सकता है।

वर्ष में एक दिन पर्यावरण के कार्य को समर्पित करने वाले बंधुओं को यह प्रस्ताव अटपटा लग सकता है किंतु यदि विचार करेंगे तो यह तथ्यपरक ही लगेगा और आप हरियाली माह को एक पर्यावरण पर्व के रूप में मनाने का मन बना सकेंगे। यदि 5 जून को ही पर्यावरण दिवस मनाने का बहुत मन अथवा बाध्यता ही हो तो इस दिन पौधरोपण की बजाय अन्य कार्य जैसे इस विषय पर जागरूकता कार्यक्रम, हरियाली माह में वृक्षारोपण के स्थान चयन एवं अन्य तैयारी आदि करें। सरकारी स्तर पर पर्यावरण दिवस मनाने की तैयारी में बड़ी संख्या में पौधे वितरित किए जाते हैं। इनके रोपण का कार्य भी श्रावण मास में किया जाए इस विषय पर विचार होना चाहिए। -लेखक लोक भारती के राष्ट्रीय सम्पर्क प्रमुख सह उ.प्र. कृषक समृद्धि आयोग के सदस्य हैं।

सोर्स- लोक सम्मान 

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