डॉ. खुशालसिंह पुरोहित से आशीष दशोत्तर की पर्यावरण पर बातचीत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित से आशीष दशोत्तर की पर्यावरण पर बातचीत

सभी लोग पानी-पर्यावरण के लिए कार्य करें

आइये, मानव जीवन प्रकृति पर कैसे निर्भर है और इसका संरक्षण क्यों जरुरी है इस विषय पर चर्चा करें | Let us discuss how human life is dependent on nature and why its conservation is important.
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वरिष्ठ लेखक, पत्रकार एवं पर्यावरणविद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित पर्यावरण डाइजेस्ट के सम्पादक हैं। आपने मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के निर्देशन में पीएच.डी. की उपाधि के बाद पर्यावरण विषय में नीदरलैण्ड से डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की है। एक पत्रकार के रूप में स्वदेश इन्दौर, दैनिक वीर अर्जुन और हिन्दुस्तान समाचार एजेंसी के रतलाम जिला संवाददाता के रूप में कार्य किया। बाद में दैनिक स्वदेश इंदौर में सह-संपादक भी रहे। पर्यावरणीय पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व एवं सफल योगदान के लिए आपको अब तक अनेक सम्मान, पुरस्कार मिले हैं। पर्यावरण डाइजेस्ट आज देश की सबसे पुरानी और निरंतर प्रकाशित होने वाली पर्यावरण पत्रिका बनी हुई है । यह सुखद है कि पूरी दुनिया में इस वक़्त जब पर्यावरण पर चिंता की जा रही है और परिवेशगत समस्याओं को लेकर विमर्श जारी है, ऐसे में पर्यावरण डाइजेस्ट अपने प्रकाशन के 37 वर्ष पूर्ण कर रही है। पर्यावरण के लंबे अनुभव और इस क्षेत्र में लिए किए गए महत्वपूर्ण प्रयासों पर पिछले दिनों डॉ. खुशालसिंह पुरोहित से की गई लम्बी चर्चा में कई महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर सामने आए।

आशीष दशोत्तर- ऐसा कहा - जाता है कि पर्यावरण और डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित एक दूसरे के पूरक हैं। इसे संघर्षों से मिली सफलता कहें या संकल्प के साकार होने का प्रतिफल ? डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - आशीष भाई । सबसे पहले तो मैं इसे आपका स्नेह कहूंगा।

यह सच है कि पर्यावरण के क्षेत्र में पिछले 50 वर्षों के दौरान जल, जंगल, ज़मीन ही नहीं, पर्यावरण चेतना से जुड़े रहने का अवसर मिला। पर्यावरण डाइजेस्ट के प्रकाशन और उसके पूर्व से ही मैं पर्यावरणीय गतिविधियों में संलन रहा हूँ। मन में एक कसक थी कि जिस प्रकृति ने हमें इतना सब कुछ दिया है, उस प्रकृति के प्रति हम असंवेदनशील कैसे हो सकते हैं? इसी भावना ने मुझे प्रकृति की तरफ मोड़ा। यह मेरा सौभाग्य रहा कि प्रकृति ने भी मुझे अपने साथ जोड़ा और यह गठबंधन निरंतर आगे बढ़ता रहा। मैं प्रकृति को समझता रहा और प्रकृति भी मुझे अपने अनुसार ढालती रही।

आज तक मेरा और पानी-पर्यावरण का यह मैत्रीभाव निरंतर प्रगाढ़ होता जा रहा है। सफलता मिलना, न मिलना कोई मायने नहीं रखता, हमें आत्मसंतोष होना चाहिए । मुझे संतोष है कि मैंने प्रकृति के लिए जो कुछ करने का जो प्रयास किया उसे समाज ने स्वीकारा और मुझे इसमें समाज के हर वर्ग से सम्मान और समर्थन भी मिला।

आशीष दशोत्तर - पर्यावरण संबंधित कार्यों को अमूमन समाज में मान्यता नहीं मिलती है। आपका क्या अनुभव रहा है?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - इस मायने में मैं बहुत सौभाग्यशाली रहा। पर्यावरण से जुड़े जिन मुद्दों को मैंने उठाया उनमें मुझे समाज के सभी वर्गो का स्नेह, सहयोग और समर्थन मिला। अनेक संस्थाओं ने पुरस्कृत और सम्मानित किया, इन सबसे मुझे अपने अभियान में निरंतर सक्रिय रहने की शक्ति मिली। इस बात को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि जनसामान्य का पर्यावरण डाइजेस्ट को जो प्यार मिला है, वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है।

पर्यावरण डाइजेस्ट देश की एकमात्र ऐसी पत्रिका है जो पिछले 37 वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रही है। यह ऐसी पत्रिका है जो विज्ञापन केन्द्रित नहीं है। पत्रिका में पहले पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक पर्यावरण और प्रकृति ही मौजूद रहती है, इसलिए यह पत्रिका सभी की प्रिय बनी हुई है और हर वर्ग का इसे निरंतर स्नेह मिल रहा है।

आशीष दशोत्तर - पर्यावरण को लेकर आम लोगों में आज जागरूकता तो बढ़ी है, लेकिन लेखन के क्षेत्र में आज भी पर्यावरण के प्रति इतनी चेतना नहीं है। विज्ञान, पर्यावरण और तकनीक विषयों को लेकर लिखने वाले लोग कम हैं । आपका क्या अनुभव रहा ?

डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित – यह सही है कि इन क्षेत्रों में लिखने वाले लोग कम हैं लेकिन यह भी सुखद है कि जो लोग इस क्षेत्र में निरंतर लेखन कार्य कर रहे हैं वे पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता के साथ अपने दायित्व को समझते हुए लेखन कर रहे हैं। आशीष भाई, हमें यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इन विषयों पर लिखना आसान कार्य नहीं है। इसके लिए विषय का पूरा ज्ञान और सभी संदर्भ लेखक के सामने होना चाहिए। आज का युग इतनी मेहनत का युग नहीं है, इसीलिए इस तरह के लेखन में कुछ कमी नज़र आती है, फिर भी इस क्षेत्र में स्थिति काफी संतोषजनक है।

यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगा कि पर्यावरण डाइजेस्ट ऐसी पत्रिका है जिसने कभी उधार लेखक नहीं लिए, हमने अपना लेखक वर्ग स्वयं तैयार किया। विषय केंद्रित लेख महत्वपूर्ण लेखकों से लिखवाए, देश के प्रमुख पर्यावरणविदों को पत्रिका में स्थान दिया। आज पर्यावरण डाइजेस्ट के पास अपने ऐसे लेखकों का बहुत बड़ा वर्ग उपलब्ध है जो इस पत्रिका से प्रेरित होकर पर्यावरण के क्षेत्र में निरंतर लेखन कर रहे हैं।

आशीष दशोत्तर - पर्यावरण - डाइजेस्ट को अपने जिस संकल्प के साथ प्रारंभ किया था, क्या वह आज तक कायम है ?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - इस मायने में मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं और संतुष्ट भी कि जिन उद्देश्यों को लेकर यह यात्रा प्रारंभ की थी उसमें मैं बहुत हद तक सफल रहा हूं। मनुष्य अगर संकल्प कर ले तो क्या नहीं हो सकता ? पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका की शुरुआत ही हमने एक संकल्प के साथ की थी कि इस पत्रिका को सदैव जीवित रखेंगे। हमारा
उद्देश्य पवित्र और संकल्प दृढ़ था, इसीलिए हम इस अभियान में सफल रहे।

सभी का स्नेह मिलता रहा और यह पत्रिका आज भी आपके सामने देश की सबसे पुरानी पर्यावरण पत्रिका बनी हुई है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, हर क्षेत्र में परिवर्तन हो रहे हैं। निश्चित रूप से समय अनुसार पर्यावरण डाइजेस्ट ने भी अपने आप को परिष्कृत और परिमार्जित किया है। समय के साथ इसके स्वरूप में निरंतर परिवर्तन हुआ है, आज पत्रिका डिजिटली भी उपलब्ध है।

आशीष दशोत्तर - क्या आप इस बात को महसूस करते हैं कि तमाम प्रयासों के बाद भी हम प्राकृतिक समृद्धि की ओर अग्रसर नहीं हो रहे हैं ? लोग चेतना संपन्न नहीं बन रहे हैं ? पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है ?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - देखिए, पर्यावरण ऐसा विषय है जिस पर कोई - अकेला व्यक्ति, अकेला समाज या अकेला वर्ग काम करे यह संभव नहीं है। पर्यावरण हमारे जीवन से जुड़ा है, मानवता के भविष्य से जुड़ा हुआ है। इसकी चिंता सामूहिक रूप से ही करना होगी। जब तक हम सब मिलकर इस दिशा में काम नहीं करेंगे, सुखद परिणाम प्राप्त नहीं होंगे। मनुष्य कई तरह की विसंगतियां बढ़ने में लगा हुआ है। हमारी कई आवश्यकताएं हैं जिन्हें पूरा करने के लिए हम पानी-पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। विकास की दौड़ के नाम पर हम प्राकृतिक संसाधनों का अमर्यादित खनन कर रहे हैं। प्राकृतिक स्थलों पर हो रही घटनाएं निरंतर हमें सचेत कर रही हैं। फिर भी हम नहीं चेत रहे हैं। सभी मिलकर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य करेंगे तो निश्चित ही सफलता मिलेगी। परिवर्तन के दौर में बहुत से संकट सामने आते हैं लेकिन प्रकृति में इतनी शक्ति है कि वह इन सब संकटों से हमें बाहर निकाल सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि हम उसे गहरी संवेदनशीलता से अनुभव करें, अपनी भूमिका और अपने संकल्प के साथ पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में जुट जाएँ।

आशीष दशोत्तर - पर्यावरण को लेकर शिक्षा आवश्यक है या इसे यूं कहा जाए कि पर्यावरण में शिक्षा पद्धति का क्या योगदान होना चाहिए। इस पर आप क्या सोचते हैं?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - यह बहुत जरूरी प्रश्न है। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि पर्यावरण सिर्फ़ वक्तव्य और नीतियों तक ही सीमित न रहे। हमारी रीति में और हमारी प्रीति में भी पर्यावरण शामिल होना चाहिए। इसके लिए हर स्तर पर पर्यावरण की शिक्षा बहुत जरूरी है। समाज और सरकार सभी को समाज निर्माण के लिए शिक्षकों से अपेक्षा रहती है। शिक्षा की ज्योति समुचित देश और समाज को आलोकित करने में समर्थ है। शिक्षा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो निरंतर सृजन का शंखनाद करती है। पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से यदि एक विद्यार्थी पर्यावरण के प्रति सचेत होता है तो वह अपनी पूरी पीढ़ी को पर्यावरण चेतना संपन्न बनाता है।

आशीष दशोत्तर - इस शिक्षा व्यवस्था में 'पर्यावरण डाइजेस्ट' जैसी पत्रिका की भी अपनी भूमिका होना चाहिए । क्या पत्रिका ने पर्यावरण शिक्षा को लेकर या नई पीढ़ी को पर्यावरण से जोड़ने को लेकर कोई विशेष प्रयास किए?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न किया है आपने। मेरा ऐसा मानना है कि आपका कोई भी प्रयास जब तक अपने साथ नई पीढ़ी नहीं जोड़ता है तब तक वह सफल नहीं हो सकता। हमारा उद्देश्य यही होना चाहिए कि हमारे प्रत्येक कार्य से हमारा विद्यार्थी वर्ग और युवा पीढ़ी आगे बढ़े। हमने पत्रिका के माध्यम से विद्यार्थियों को जोड़ने के लिए कई आयोजन किए। युवा वर्ग के लेखकों को अपनी पत्रिका में स्थान देकर उनके भावों को सामने लाने का प्रयत्न किया। पत्रिका के कई ऐसे अंक भी प्रकाशित हुए, जिसमें युवाओं को अपनी बात रखने का अवसर मिला। इस तरह हमने पत्रिका के माध्यम से विद्यार्थियों और युवाओं में प्रकृति के प्रति नई चेतना का संचार करने का प्रयास किया। छात्रों के लिए 'पर्यावरण डाइजेस्ट' ने कई वर्षों तक महत्वपूर्ण प्रतियोगिताएं आयोजित की, शिक्षकों के लिए पर्यावरण प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया, अंचल के विद्यालयों तक पहुंच कर विद्यार्थियों और शिक्षकों को जागरूक किया। आज विद्यालयों में इको क्लब और अन्य संगठन कार्य कर रहे हैं, इन कार्यों में पर्यावरण डाइजेस्ट द्वारा पूर्व में किए गए प्रयासों की प्रेरणा भी शामिल है।

आशीष दशोत्तर – जब भी किसी पत्रिका का प्रकाशन होता है तो एक संपादक किसी न किसी विचार के प्रति प्रतिबद्ध रहता है। आपने इस पत्रिका की शुरुआत से लेकर अब तक किस विचार के प्रति अपना समर्पण रखा ?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - पर्यावरण डाइजेस्ट ने कभी किसी सरकार, संस्थान या आन्दोलन का मुखपत्र बनने का प्रयास नहीं किया, पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव सामान्य पाठक के प्रति रही है। मेरा यह मानना रहा है कि सम्पादक की विचारधारा उसके पाठकों पर थोपी नहीं जानी चाहिए। एक पत्रिका का संपादक निजी विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है, परन्तु उसे संपादक के रूप में समूचे समाज का हित ध्यान में रखते हुए अपना दायित्व निभाना चाहिए। हिंदी के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'पत्रकारिता हड़बड़ी में लिखा गया साहित्य है'। साहित्य में लोकमंगल की भावना की प्रधानता होती हैं, इसलिए पत्रिका की प्रतिबद्धता के केंद्र में सदैव सामान्यजन ही व्यक्तियों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं ने इन कार्यों की सराहना की तो हमारे संकल्पों में दृढ़ता आयी। पत्रिका के दशकपूर्ति (1997) के अवसर पर मध्यप्रदेश शासन के जनसम्पर्क विभाग ने अपनी विज्ञप्ति में उल्लेख भी किया था कि - पर्यावरण डाइजेस्ट एक अव्यावसायिक प्रकाशन है, जो पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के लिये पिछले एक दशक से सक्रिय है।

पत्रिका के सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित पर्यावरण संरक्षण पर विगत् कई वर्षों से सक्रिय हैं तथा इस विषय पर अपनी आक्रामक शैली के लेखन के कारण अपनी अलग पहचान रखते हैं। यही कारण है कि पर्यावरण में जिस विचार को डाइजेस्ट करना मुश्किल समझा जाता है, पत्रिका उसका सरलीकरण करने में सफल हुई हैं। इसमें आलेखों की सारगर्भिता, संक्षिप्तता और भाषा की प्रवाहमयता अपने आप में अनूठी है। पर्यावरण से जुड़े हर पहलू का स्पर्श इसमें शामिल होता है। यह पत्रिका की जनसरोकारी विचारधारा का ही प्रमाण है।

आशीष दशोत्तर - मालवा को - प्राकृतिक दृष्टि से बहुत संपन्न माना जाता रहा है। यह कहावत भी प्रसिद्ध है, 'मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर' परंतु मालवा का मिज़ाज निरंतर बिगड़ रहा हैं। इसे लेकर आपने क्या विशेष कार्य किए हैं।

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित -आज भी मालवा के पर्यावरण पर विचार करते समय कबीर का स्मरण आना स्वाभाविक है, छह शताब्दी पूर्व जनकवि कबीर ने इन शब्दों में मालवा की गौरवशाली प्राकृतिक विरासत का वर्णन किया था। मालवा में पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप पर हमारा विशेष ध्यान रहा, समय-समय पर इसके लिए आवश्यक प्रयास भी किए। हमने
मालवा के  पर्यावरण की पहली नागरिक रिपोर्ट के लिए सघन सर्वेक्षण हेतु वर्ष 1991 में मालवा क्षेत्र की दस हजार कि.मी. की यात्रा की थी।

इस रिपोर्ट का प्रकाशन पुस्तकाकार रूप में हुआ, इस पुस्तक का लोकार्पण 28 जनवरी 1993 को युगमनीषी डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने रतलाम में किया था। अपने सम्बोधन में डॉ. सुमन ने कहा था - रतलाम पर्यावरण के लिए सहज भाव से सारे म.प्र. का केन्द्र हो गया है, इसके लिये मैं खुशालसिंह को बधाई देता हूं। यहां के कार्य से प्रेरणा लेकर प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों में भी इस प्रकार का कार्य होगा। मेरी राय में बंकिम चंद्र जी का जो गान है, सुजलाम्, सुफलाम् अब उसमें रतलाम भी जुड़ गया है। मैं समझता हूं, सुमन जी द्वारा कहे गए ये शब्द हमारे प्रयासों का प्रतिफल और हमारे सामाजिक सरोकारों की प्रमाणिकता का प्रमाणपत्र है।

मालवा को लेकर विशेष लगाव मेरे मन में हमेशा रहा है इसकी झलक पश्चिमी म.प्र. में फैले पर्यावरण जागरूकता के विविध आयामी प्रयासों के रूप में दिखाई देती है। रतलाम शहर के पेयजल के प्रमुख स्त्रोत धोलावाड़ बांध के जलग्रहण क्षेत्र में एक रासायनिक उद्योग द्वारा प्रदूषण फैलाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में लोकहित याचिका लगाने जैसे विशिष्ट प्रयासों का कारण मालवी मन से मिली ताक़त ही रही है।

आशीष दशोत्तर - आपको पत्रकारिता के गहन अनुभव रहे हैं। क्या आप समझते हैं कि बीते दशकों के दौरान कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बदलाव रहे जिन्होंने हमारे जीवन शैली को ही बदल दिया ?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - आज से चार दशक पूर्व और आज की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। न सिर्फ़ जीवन मूल्य बदले बल्कि नैतिक मूल्य और सामाजिक चरित्र में भी परिवर्तन आया है, व्यक्ति की सोच के साथ ही इसका स्तर भी बदलता है। ऐसे में प्रकृति से हमारे रिश्ते भी दरकने लगे हैं, आपसी संबंध टूट रहे हैं और बढ़ती तकनीकी सुविधाओं से घर परिवार का सामाजिक पर्यावरण बिगड़ रहा है।

दरअसल देखा जाए तो अस्सी का दशक वैश्विक रूप से काफी परिवर्तन वाला रहा। संचार क्रांति को लेकर पूरी दुनिया में एक नया वातावरण तैयार हो रहा था, विकास के नए प्रयोग निरंतर चल रहे थे। इसके साथ पर्यावरण के प्रति भी लोगों में जागरूकता बढ़ने लगी थी। यह वह समय था जब लोगों को अनुभव होने लगा था कि प्राकृतिक संसाधनों से मनुष्य ने जो छेड़छाड़ की है उसके प्रतिकूल परिणाम शीघ्र ही सामने आयेंगे।

भारत की दृष्टि से यह राजनीतिक उथल-पुथल वाला समय भी था, कई सारे नए वैचारिक परिदृश्य भी सामने आने लगे थे। मध्य प्रदेश की दृष्टि से इस दशक के अंत में पर्यावरण को लेकर नई पहल की आवश्यकता महसूस की जा रही थी।

इसी आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए एक ऐसी पत्रिका प्रारंभ करने का विचार मन में आया जो हमें हमारी प्रकृति के निकट ले जाए। प्रकृति में हो रहे उन परिवर्तनों से जनसामान्य को अवगत कराते हुए उन्हें प्रकृति से जोड़े। हमारी पत्रिका का ध्येय वाक्य ‘प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिवः’ हमने महाकवि कालिदास रचित अभिज्ञान शाकुंतलम से लिया है जिसका सरल अर्थ है कि सभी लोग प्रकृति के लिए कार्य करें। पत्रिका का ही नहीं यह हमारे सभी प्रयासों का ध्येय वाक्य है।

आशीष दशोत्तर - बार-बार यह कहा जा रहा है कि प्रिंट टेक्नोलॉजी पर गंभीर संकट हैं। अख़बारों, पुस्तकों और पत्रिकाओं पर संकट है। लोगों की पढने में रूचि घट रही है। आपके साथ भी क्या यही स्थिति है ?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित – मेरा मानना है कि छपे हुए शब्दों की गरिमा और महत्व किसी भी युग में कम नहीं हो सकता है। मैंने जब अपनी पत्रिका की शुरुआत की तो कई सारे संकट सामने थे। किसी भी कार्य की शुरुआत कठिनाई भरी ही होती है। अगर यह कठिनाई न हो, चुनौतियां सामने न खड़ी हों तो उसे कार्य को करने में आनंद भी नहीं आता है। फिर प्रकृति और पर्यावरण को लेकर कोई काम करना हो तो उसके लिए तो चुनौतियां आज भी हमारे सामने खड़ी हैं। पत्रिका की शुरुआत करते समय चुनौतियों का सामना करने का साहस भी पैदा हो गया।

मैं समझता हूं कि आप प्रकृति की चिंता करते हैं तो प्रकृति भी आपकी चिंता करती है। इसलिए उन चुनौतियों को मैं चुनौतियां न मानकर इस कार्य में अनिवार्य तत्व मानता रहा, यही कारण रहा की पत्रिका प्रकाशन का स्वप्न धरातल पर उभर कर आ सका। इस पत्रिका की निरंतरता इस बात को रेखांकित करती है कि छपे हुए शब्द आज भी कायम हैं और इनका महत्व आने वाले समय में भी बना रहेगा।

आशीष दशोत्तर - एक विचार बार-बार यह भी सामने आता है कि विकास अगर होगा तो प्रकृति तो प्रभावित होगी ही। आपका क्या सोचना है?

डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित - यह सच है कि हम विकसित होते हैं तो हमारा बहुत कुछ पीछे छूट जाता है। इसी प्रकार हमारी प्रकृति भी अगर प्रभावित हो रही है तो इसमें कहीं न कहीं निरंतर हो रहे विकास की भूमिका है। मेरा यह मानना है कि कोई भी विकास, विनाश की शर्त पर नहीं होना चाहिए। हम प्रगति करें लेकिन अपने जीवन मूल्यों का न छोड़ें। हमारा वैभव बड़े लेकिन हम अपनी परंपराओं से न करें। यदि ऐसा विकास होगा तभी हम अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर पाएंगे। हमारा सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक परिवर्तन और राजनीतिक परिवर्तन प्रकृति से किसी तरह जुदा नहीं है। इन सभी पर प्रकृति का प्रभाव पड़ता है, और इन सभी का प्रकृति पर भी प्रभाव पड़ता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नित नए प्रयोग हुए तो हमें पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने के नए आयाम भी मिले। किस तरह नई सूचना क्रांति पर्यावरण के प्रति घातक है। नई क्रांति से प्रकृति का कितना भला होगा ? मनुष्य का जीवन कितना प्रभावित होगा ? जीव जंतुओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आदि ऐसे कई विषय रहे जो हमारे पर्यावरण की चिंता के साथ इसमें शामिल होते रहे। इसी प्रकार आर्थिक परिदृश्य के नए स्वरूप में आने से भी काफी सहायता मिली। समाजार्थिक व्यवस्था के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रकृति के विनाश के तरफ बढ़ते कदम जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों को हमने पत्रिका के माध्यम से उभारा। इन सब की चिंताएं हमें विकास के साथ करनी चाहिए। 

आशीष दशोत्तर - आज के समय में वे कौन से मुद्दे हैं जिन पर हम सभी को मिलकर विचार करना बहुत आवश्यक है?

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित - हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा हमारे पर्यावरण को बचाने का ही होना चाहिए। आज हम देख रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण का असंतुलित होना चिंता का मुख्य विषय बना हुआ है। पूरी दुनिया इस बात पर चिंतन कर रही है कि कैसे बिगड़ते पर्यावरण को बचाया जाए। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए तरह-तरह की कोशिशें की जा रही हैं। हमारे अपने देश में ही हम देखें तो दिल्ली में लोगों का रहना मुश्किल हो रहा है। इतना प्रदूषण बढ़ गया है कि मनुष्य ठीक से श्वांस भी नहीं ले पा रहा है। अन्य प्रदेशों में भी बढ़ते वाहनों और घटते वनों की परिस्थिति में काफी नुकसान हो रहा है, इन मुद्दों के लिये हम सभी को मिलकर विचार करना चाहिए। प्रकृति के साथ हमने बहुत छेड़छाड़ कर ली है, अब प्रकृति को सहेजना होगा। प्रकृति मित्र जीवनशैली को हमने भुला दिया है उसे फिर से अपनाना होगा। जब तक हम अपनी प्रकृति के क़रीब नहीं आएंगे, उससे जुड़ेंगे नहीं, न हमारा भला होगा और न हमारी आने वाली पीढ़ियों का भला होगा। आने वाली पीढ़ी के सामने कैसे-कैसे संकट आने वाले हैं इसकी, आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमारे चिंतन में हमारे विमर्श में इन सब बिंदुओं का समावेश अगर होगा तो हम बेहतर कल की तरफ बढ़ सकेंगे।

आशीष दशोत्तर - पुरोहित जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने अपने इस लंबे सफर में कुछ लम्हे हमारे साथ बिताए और अपने पर्यावरण से हमारे पर्यावरण को हरा-भरा किया।

डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित - आपका भी धन्यवाद आशीष भाई । इस तरह की बातें इस तरह का विमर्श और इस तरह का चिंतन समाज में निरंतर चलते रहना चाहिए।

पर्यावरण डाइजेस्ट ने कभी किसी सरकार, संस्थान या आन्दोलन का मुखपत्र बनने का प्रयास नहीं किया, पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव सामान्य पाठक के प्रति रही है। मेरा यह मानना रहा है कि सम्पादक की विचारधारा उसके पाठकों पर थोपी नहीं जानी चाहिए। एक पत्रिका का संपादक निजी विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु उसे संपादक के रूप में समूचे समाज का हित ध्यान में रखते हुए अपना दायित्व निभाना चाहिए। हिंदी के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'पत्रकारिता हड़बड़ी में लिखा गया साहित्य है'। साहित्य में लोकमंगल की भावना की प्रधानता होती हैं, इसलिए पत्रिका की प्रतिबद्धता के केंद्र में सदैव सामान्यजन ही रहा है।

हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा हमारे पर्यावरण को बचाने का ही होना चाहिए। आज हम देख रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण का असंतुलित होना चिंता का मुख्य विषय बना हुआ है। पूरी दुनिया इस बात पर चिंतन कर रही है कि कैसे बिगड़ते पर्यावरण को बचाया जाए। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए तरह- तरह की कोशिशें की जा रही हैं। हमारे अपने देश में ही हम देखें तो दिल्ली में लोगों का रहना मुश्किल हो रहा है। इतना प्रदूषण बढ़ गया है कि मनुष्य ठीक से श्वांस भी नहीं ले पा रहा है। अन्य प्रदेशों में भी बढ़ते वाहनों और घटते वनों की परिस्थिति में काफी नुकसान हो रहा है, इन मुद्दों के लिये हम सभी को मिलकर विचार करना चाहिए। प्रकृति के साथ हमने बहुत छेड़छाड़ कर ली है, अब प्रकृति को सहेजना होगा। प्रकृति मित्र जीवनशैली को हमने भुला दिया है उसे फिर से अपनाना होगा। जब तक हम अपनी प्रकृति के क़रीब नहीं आएंगे, उससे जुड़ेंगे नहीं, न हमारा भला होगा और न हमारी आने वाली पीढ़ियों का भला होगा। आने वाली पीढ़ी के सामने कैसे-कैसे संकट आने वाले हैं इसकी, आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमारे चिंतन में, हमारे विमर्श में इन सब बिंदुओं का समावेश अगर होगा तो हम बेहतर कल की तरफ बढ़ सकेंगे।

ई-मेल - paryavaran.digest@gmail.com,kspurohitrtm@gmail.com
स्रोत - पर्यावरण डाइजेस्ट ,वर्ष 38. अंक 01 जनवरी 2024

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