संथाल : पहले जंगल सिमटे, अब पहाड़ हो रहे छलनी

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दुमका

लुप्त हो गया कई औषधीय पौधों, जंगली जीव-जंतु

इतिहासकार डॉ सुरेंद्र झा कहते हैं कि संथाल परगना के जंगलों से अश्वगंधा, सर्पगंधा, चिरौंता, कालमेघ सहित कई औषधीय पौधों या तो लुप्त हो चुके हैं या कम हो गए हैं। पहले साल और सखुआ के घने जंगल थे। आसन, सतसल, गम्हार, बेरुन, इमली के पेड़ अब पहले जितने नहीं हैं। घने जंगलों में चीता, भेड़िया, नीलगाय सहित कई जंगली जानवरों थे, जो अब नहीं दिखते। हाथी जरूर यदा-कदा मिलते हैं। एक समय था जब संथाल परगना के जंगलों में हाथियों की संख्या पर्याप्त होती थी।

काठीकुंड के जंगल में अब जड़ी-बूटी नहीं मिलती हैं

काठीकुंड के दलाही गांव के वैद्य बुदन हांसदा जड़ी-बूटी से आदमी और पशुओं का इलाज करते हैं। सुदूर गाँवों से लोग इलाज कराने आते हैं। जड़ी-बूटियों से हड्डी रोग और पशुओं के घेघा रोग का बुदन हांसदा अचूक इलाज करते हैं। वह कहते हैं कि जंगल-पहाड़ नष्ट होने से जड़ी-बूटी मिलने दुर्लभ हो गई है। पहले बड़े आसानी से आसपास के जंगलों में औषधीय पौधे मिल जाते थे। अब काफी तलाश के बाद दूर-दराज से लाना पड़ता है।

जंगल काटने वालों को समुद्री डाकू जनजाति समाज का मानना ​​है कि डाकू

जंगल कटने और पहाड़ नष्ट होने से सामाजिक स्तर पर सबसे अधिक दुखी पहाड़िया आदिम जनजाति समाज हुआ। इस जनजाति के लिए जंगल और पहाड़ ही जीवन का आधार था। पहाड़ पर ही रहना, कंद-मूल खाना, जंगली जानवरों का शिकार करना और झूम खेती करना जीवन शैली का अंग था। अरहर, मकई, बीन और हल्दी की खूब खेती कर पहाड़ियों खुशहाल थे। पहाड़िया समाज जंगल काटने वालों को पर्यावरण के साथ अपने समाज का भी दुश्मन मानता है।

जंगल कटने का दर्द पहाड़ियों की बातचीत और लोकगीत में झलकता है। पहाड़िया गाँवों में एक लोकगीत प्रचलित है, जिसमें जंगल काटने वालों को डाकू कहा गया है और जान देने पर जंगल नहीं कटने देने का भाव है। आज भी यह गीत पहाड़िया गांवों में गाया जाता है। गीत इस प्रकार है -

'जागो जागो जंगल राजा दिन डाकू बोलय छिनी लैबो जंगल राज, जान दिबो जीवन जीवन दिबो नहांय दिबो जंगल राज'

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