हिमालय में सूख रहे प्राकृतिक जल स्रोत, PC(Twitter-Anoop Nautiyal)
हिमालय में सूख रहे प्राकृतिक जल स्रोत, PC(Twitter-Anoop Nautiyal)

उत्तर प्रदेश की प्राकृतिक स्थिति और जल-स्रोत

उत्तर प्रदेश की नदियों और जलाशयों की वर्तमान स्थिति, प्रदूषण की समस्या और मछलियों की घटती संख्या पर गहराई से चर्चा। हिमालय से निकलने वाली नदियों का महत्व और पर्यावरणीय चुनौतियां।
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उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा हिमालय पर्वत श्रेणी से लगी हुई, तिब्बत और नेपाल की सीमाओं को छूती हैं, पश्चिमी और दक्षिण पश्चिमी सीमा पर हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, और राजस्थान हैं तथा दक्षिण में मध्यप्रदेश और पूर्वी सीमा बिहार से लगी हुई है।

उत्तर के हिमाचल क्षेत्र में अनेक पर्वत श्रेणियां हैं जो अत्यंत वलित एवं भ्रंशित समुद्री अवसाद द्वारा निर्मित हैं। इनमें से नन्दा देवी, कामेत, बदरीनाथ, त्रिशूल और दूनागिरि सात हजार से भी अधिक ऊंची हैं।

इस क्षेत्र में डेढ़ हजार मीटर की ऊंचाई तक प्रचुर वर्षा होती है। डेढ़ से तीन हजार मीटर तक के स्थानों पर जाड़ों में बर्फ गिरती रहती है। पर्वतों की चोटियों और उनके आस-पास के इलाकों में तो ध्रुव क्षेत्र जैसी ठंड पड़ती है। यह समग्र भू-भाग पूरे वर्ष बर्फ से ढका रहता है। गंगा, यमुना और रामगंगा जैसी बड़ी नदियां इसी क्षेत्र से गिरती हैं।

इसके बाद पश्चिम में सहारनपुर से लेकर पूरब में देवरिया तक की पतली पट्टी भाभर और तराई क्षेत्र के रूप में जानी जाती है। इन क्षेत्रों से भी अनेक नदियां निकली हैं जो आगे चलकर यमुना और सीधे गंगा में मिलती हैं। गंगा व यमुना में मिलने वाली इन अनेक नदियों की भी कई सहायक नदियां हैं।

भाभर और तराई के बाहर, पूरा का पूरा मैदानी क्षेत्र नदियों की लायी हुई मिट्टी से बना है और खूब उपजाऊ है। यमुना पार आगरा और मथुरा जिलों के उन हिस्सों को छोड़कर, जहां अरावली पहाड़ियों के पूर्वी छोर पर अनेक खार और लाल पत्थरों वाली पहाड़ियां मिलती हैं, यह समग्र भू-भाग समतल है। भूगर्भ विज्ञान की दृष्टि से इस क्षेत्र का निर्माण अभिनूतन एवं अतिनूतन युग में नदियों की चोटियों के अदढ़ीभूत से हुआ।

प्रदेश के दक्षिण में पठारी भू-भाग की उत्तरी सीमा यमुना और गंगा नदी द्वारा निर्धारित है। यह क्षेत्र दकन के पठार का ही प्रसारण है। भूगर्भ विज्ञान की दृष्टि से इसका निर्माण अत्यंत प्राचीन युग, सम्भवतः कैम्ब्रियन पूर्वकाल में अतिशुल्क क्षेत्र पर प्रवाहमान समुद्री निक्षेप द्वारा हुआ। बेतवा, केन व बुंदेलखंड की अन्य कई नदियां यमुना में आकर मिलती हैं।

इस प्रकार उत्तर प्रदेश नदियों, झीलों, बड़े तथा छोटे जलाशयों के मामले में काफी समृद्ध है। एक अनुमान के अनुसार प्रदेश में लगभग 11.65 लाख हेक्टेयर जल क्षेत्र है। जिसमें नदियों और शहरों के रूप में 7.20 लाख हेक्टेयर, वृहद जलाशयों और झीलों के रूप में 2.83 लाख हेक्टेयर एवं ग्रामीण अंचल के लघु जलाशयों के रूप में 1.62 लाख हेक्टेयर जल संपत्ति उपलब्ध है। नदियां और नहरें मुख्यतः सिंचाई, वन और राजस्व विभाग के इंतजाम में हैं। मत्स्य विभाग का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है। उसके जिम्मे अन्य जलाशय मात्र हैं।

प्रदेश की नदियां एक समय मछली प्राप्त करने का बड़ा स्रोत थीं, लेकिन पिछले चार दशक में उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई नदी बची हो जो प्रदूषण से मुक्त रह सकी हो। सभी नदियों में मछलियों के मरने की सूचनाएं अखबारों और जन-प्रतिनिधियों से मिलती रही हैं। किन्तु प्रदेश शासन के किसी विभाग में उसका लेखा-जोखा नहीं है।

फिर भी इसका अंदाज मत्स्य विभाग के निदेशक श्री वीके. जौहरी के एक लेख से लगाया जा सकता है। यह लेख तालाबों में मछली पालन हेतु नदियों से मत्स्य बीज एकत्र करने के बारे में है।

इस लेख में बताया गया है कि एक समय तक समस्त नदियां मत्स्य बीज संग्रह करने का समृद्ध स्रोत मानी जाती थीं, किन्तु पिछले दो दशक में इसमें लगातार गिरावट आयी है। वर्ष 1977-78 में उत्तर प्रदेश में नदियों से 13 करोड़ मछलियों के बीज (बच्चे) एकत्र किये गये थे, जो वर्ष 1986-87 में घटकर 90 लाख रह गया।

श्री जौहरी के अनुसार इसका कारण राज्य में नदियों की मछलियों का समुचित प्रबंधन न होना है। श्री जौहरी ने लिखा है कि मछलियों के अनियंत्रित शिकार, उन्हें ठेकेदारों की मर्जी पर नीलाम करने तथा सीवेज और औद्योगिक उत्प्रवाह छोड़ने के कारण यह गिरावट आयी। विभाग ने काली, पांडु और गोमती नदियों में प्रदूषण से मछलियों की मृत्यु का अध्ययन किया है। एक बातचीत में श्री जौहरी ने कहा कि नदियों से मछली के बीज कम मिलना ही इस बात का द्योतक है कि उनमें मछलियां मर रही हैं। मछलियों की सर्वाधिक मौत बरसात के दिनों में होती है, जबकि वे निचले हिस्सों से ऊपर आती हैं और यही उनके प्रजनन का समय होता है। ऐसा इसलिए कि प्रारंभिक बरसात होने पर न केवल आकाश में एकत्र सारा जहरीला प्रदूषण नीचे आता है, वरन खेतों में डाले गये रासायनिक उर्वरक, कीड़े मार दवाइयां तथा शहरी और औद्योगिक कूड़ा-कचरा एक साथ नदियों में पहुंचता है। इसके अलावा जाड़ों में चीनी मिलें चलने और गर्मियों में पानी कम होने पर भी मछलियों की सामूहिक मौत की घटनाएं बढ़ जाती हैं।

अलग-अलग नदियों और शहरों में प्रदूषण की स्थिति का सर्वे करने से पहले पूरे उत्तर प्रदेश के पर्यावरण पर एक सरसरी नज़र डाल लेना उपयोगी होगा। पहाड़ी और मैदानी इलाकों में वनों की अंधाधुंध कटान तथा वर्तमान वृक्षारोपण अभियान के अंतर्गत दीर्घजीवी और मिट्टी की कटान रोकने में सक्षम पेड़ न लगाये जाने के कारण बड़े पैमाने पर भूस्खलन एवं भू-क्षरण से नदियों की तलहटी में मिट्टी बढ़ गयी है और वे उथली भी हो गयी हैं। ज्यादातर शहरों में ध्वनि, वायु और जल प्रदूषण बढ़ रहा है। बड़े ताप विद्युत गृह, सीमेंट कारखाने और औद्योगिक इकाइयां धुआं, धूल एवं विषैले रसायन वातावरण में छोड़ रहे हैं।

राज्य के पर्यावरण निदेशालय ने प्रदेश की सातवीं पंचवर्षीय योजना तैयार होने से पहले काफी मेहनत से एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की रूपरेखा बनायी थी। लेकिन क्रियान्वित न हो पाने के कारण स्थिति उसके बाद बदतर ही हुई। यह दस्तावेज वर्ष 1983-84 में बनाया गया था। इसी तरह मार्च 1984 में प्रदेश के पर्यावरण पर किर्लोस्कर कंसल्टेंट्स लि० पुणे से एक व्यापक सर्वेक्षण कराया था। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों को तो संभवतः इस सर्वे की जानकारी नहीं है और निदेशालय की आलमारियों में यह रिपोर्ट धूल खा रही है

निदेशालय द्वारा तैयार दस्तावेज के अनुसार प्रदेश में एक भी ऐसी नगरपालिका या टाउन एरिया नही है, जिसमें मैला अथवा सीवेज के शुद्धिकरण की व्यवस्था हो।

निदेशालय ने उस समय 252 प्रमुख प्रदूषणकारी उद्योगों की सूची तैयार की थी। इनकी संख्या बढ़ी ही है। इन 252 उद्योगों में से 60 फीसदी चीनी, चमड़ा, शराब, पल्प और कागज इलाकों में जो औद्योगिक आस्थान बनवायें हैं, उनमें भी प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था नहीं है। ज्यादातर शहरों में तमाम छोटे-बड़े उद्योगों एवं रसायनों का इस्तेमाल करने वाली प्रतिष्ठानों का दूषित कचड़ा सीवर लाइनों या नालों के जरिये नदियों में गिरता है। ये उद्योग और शहर नदियों से काफी मात्रा में पानी अपस्ट्रीम में निकालते हैं और अपना कचरा डाउन स्ट्रीम या शहर के बीच डालते हैं। 

सातवीं पंचवर्षीय योजना में प्रदेश में तमाम छोटे-बड़े उद्योग इनमें गैस, पेट्रोलियम तथा केमिकल्स शामिल हैं, उत्तर प्रदेश में लगे हैं और आठवीं पंचवर्षीय योजना में लगने वाले हैं।

दि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की उत्तर प्रदेश इकाई ने प्रदेश की आठवीं योजना की रणनीति पर एक दस्तावेज तैयार कराया है। इस दस्तावेज के उद्योग संबंधी अध्याय का आखिरी पैराग्राफ यहां उल्लेखनीय है-

"The problem of pollution created by industries has now assumed serious proportion in some big industrial towns. Therefore, while proposing new industries environmental factors should be paid due attention.

अर्थात कुछ बड़े औद्योगिक नगरों में उद्योगों द्वारा प्रदूषण की समस्या ने अब गंभीर रूप धारण कर लिया है। इसलिए, नये उद्योग प्रस्तावित करते समय पर्यावरण के पहलू पर समुचित ध्यान देना चाहिए।"

किर्लोस्कर कंसल्टेंट्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश में 11 प्रमुख ताप बिजली घरों सहित 6232 उद्योग और परिवहन के साधन प्रदूषण फैला रहे हैं। वर्ष 1983-84 में प्रदेश में 6,13,175 पंजीकृत वाहन थे। (वर्ष 1986-87 में इनकी संख्या बढ़कर 10,79.751 थी और अब तक दो गुनी हो गयी होगी।) जला-अधजला ईधन और धुंवा छोड़ने के अलावा ये वाहन सीसा भी छोड़ते हैं। इनके अलावा ताप बिजलीघर, केमिकल, फर्टिलाइजर, पेट्रोलियम, सीमेंट और इंजीनियरिंग उद्योग धूल तथा धुएं के अलावा सल्फर ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, कार्बन मोनोऑक्साइड आदि वातावरण में छोड़ रहे हैं। औद्योगिक प्रदूषण की समस्या पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। राज्य के 62.8 फीसदी उद्योग पश्चिमी क्षेत्र में हैं। इनमें भी 52.6 फीसदी तो पश्चिम के आठ ही जिलों में केन्द्रित हैं। मध्य क्षेत्र के शेष उद्योगों में से 20 फीसदी कानपुर और लखनऊ में है।

रिपोर्ट के अनुसार बिना साफ किया औद्योगिक उत्प्रवाह गिराने से औद्योगिक शहरों के किनारे की नदियों के पानी पर प्रतिकूल असर पड़ा है।

इस रिपोर्ट में कीड़ेमार दवाइयों से उत्पन्न प्रदूषण की समस्या पर भी प्रकाश डाला गया है। यह दवाइयां फसल और अन्न की सुरक्षा के अलावा मलेरिया, फाइलेरिया आदि की रोकथाम के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।

रिपोर्ट के अनुसार कीड़ेमार दवाइयों से मिट्टी, जल और खाद्यान्न प्रदूषित होता है। इस प्रकार के जल-प्रदूषण से अनेक प्रकार के जलीय-जंतु मर जाते हैं। यमुना में खासकर डी.डी.टी. की मात्रा अधिक पायी गयी है। इस प्रदूषण का असर पशु, पक्षी और आदमी पर भी देखा गया है। यहां तक कि मां के दूध और गर्भपात पर भी इस प्रदूषण का असर देखा गया है। उत्तर प्रदेश के हरदोई और लखीमपुर जिलों में तमाम मनुष्य इस प्रदूषण से बीमार पाये गये।

कीड़े-मार दवाई डीडीटी. के असर से मछलियों की प्रजनन क्षमता घटती है और उनके अंडों में विकार उत्पन्न हो जाता है।

पर्यावरण विभाग के संयुक्त निदेशक डा० एचएस. रघुवंशी ने (उजाला, जून 1988) अपने एक लेख में बताया है कि "ऐसी मछलियों को खाने से जिनमें कीट रसायन इक‌ट्ठे हो जाते हैं, एन्डेमिक जहरीली बीमारी हो जाती है।"

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कालेज आंफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी में रसायन विभाग के रीडर डा० मोहम्मद अजमल ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि गंगा नदी में कानपुर, इलाहाबाद, नैरोरा, वाराणसी और पटना आदि स्थानों में औद्योगिक प्रदूषण की वजह से क्रोमियम, कैडमियम, कोबाल्ट, कॉपर, लेड, आयरन, मैंगनीज, जिंक और निकिल आदि धातुएं पायी गयीं। इसी तरह उन्होंने यमुना हिंडन और काली नदियों में भी भारी धातुओं का प्रदूषण पाया है। इससे न केवल मानव एवं जलचरों पर प्रतिकूल असर पड़ा, वरन् नदियों की स्वयं शुद्धिकरण प्रक्रिया भी बाधित होती है।

ये रसायन और धातुएं जब नदी में परस्पर मिलते हैं तो उनके संयोग का परिणाम और भी घातक होता है।

हमारे कतिपय प्रशासनिक अधिकारियों को भ्रम है कि शहर के सीवर और खुले नालों की जो गंदगी नदी में गिरती है उससे केवल बी.ओ.डी. (जैविक ऑक्सीजन) मांग बढ़ती है और कुछ दूर बाद पानी शुद्ध हो जाता है।

अमेरिकन पर्यावरण संरक्षण एजेंसी द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका "इनवायरमेंटल पोल्यूशन कंट्रोल आल्टनेटिप्सः म्युनिस्पिल वेस्ट वाटर" में बताया गया है कि शहरी सीवेज से न केवल नदी में घुलित आक्सीजन की मात्रा घट जाती है। (आक्सीजन कम होने से मछलियां मरती है) बल्कि इससे अनावश्यक सीवार बढ़ती है और नदी के निचले हिस्से में पानी का इस्तेमाल करने वालों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसी पुस्तक में यह भी कहा गया है कि शहरी मलजल में मौजूद बैक्टीरिया और वायरस बीमारी फैलाते हैं। जहां पर सीवर लाइन या नाला गिरता है यदि वहां नदी के पानी का इस्तेमाल नहाने अथवा मनोरंजन के लिए होता है तो खतरा और बढ़ जाता है। यह बात 1954 में सिद्ध हो गयी थी कि सीवेज प्रदूषित पेयजल से हैजा होता है। 1955 में दिल्ली में फैली हेपेटाइटिस बीमारी का कारण भी यही पाया गया। सीवेज प्रदूषित पानी से शिकागो में सन् 1933 में अमीबिक डिसेंट्री की बीमारी से 23 लोग मरे थे।

लखनऊ में जल संस्थान के पंपिंग स्टेशन के मुहाने पर ही मलजल युक्त गंदा नाला गिरता है। नगर में हैजा, डायरिया तथा मच्छर और विषाणुजन्य बीमारियां फैलने के बावजूद न प्रशासन को चिन्ता है, न नागरिकों को।

कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि एक समय जीवनदायिनी रही नदियां आज प्रदूषण से खुद मर रही हैं और अब उनके पास जीवन नहीं बचा तो वह अपनी मौत ही हमें भी बांट रही है।

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