वन, पर्यावरण और मानव का अटूट संबंध है। मानव अपनी सभी उमंगों का आनंद वन और पर्यावरण के संग ही पा सकता है। प्रकृति की हरियाली और शीतल वायु सभी का मन मोह लेती है, यहाँ आ कर मनुष्य अपनी सारी थकावट और मानसिक तनाव से मुक्त हो जाता है। प्रकृति की गोद में पर्यावरण के संग रहना ऐसा सुखद लगता है जिसका वर्णन शब्दों में करना बहुत कठिन है। वनों और संतुलित पर्यावरण से ही हमारा अस्तित्व है, वनों का विनाश मानव जाति का विनाश है। वन हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों के संरक्षक हैं। कहा जाता है कि मनुष्य अपनी प्रारंभिक बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग करें लेकिन इस निर्ममता के साथ नहीं कि प्राकृतिक संतुलन ही बिगड़ जाए। आधुनिकता और औद्योगीकरण के नाम पर उसने प्रकृति से ऐसा खिलवाड़ किया कि वनों का विनाश दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। हमारी राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश में 33.3 प्रतिशत भू भाग में वन होने चाहिए जबकि हमारे यहां केवल 8 से 9 प्रतिशत क्षेत्र में ही सघन वन रह गए हैं।
प्रतिवर्ष बढ़ते शहरीकरण, सड़क निर्माण और खनन आदि के कारण कई लाख हैक्टेयर भूमि हाथ से निकल रही है। इसके फल स्वरुप आज हमें सूखे और बाढ़, पानी और चारे आदि की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह हमारे देश की वन संपदा ही थी जिससे 'भारत के लोग हष्ट पुष्ट और स्वस्थ रहते थे। वन धरती को रेगिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। हरे वृक्ष वातावरण और भूमि को नम बनाए रखते हैं जिससे धरती में नमी होने से भूमि बंजर नहीं हो पाती है परंतु कुछ क्षेत्रों में वृक्षों की कमी के कारण स्थिति गंभीर होती जा रही है। घटते वनों और बढ़ती जनसंख्या के कारणआज हमें नई-नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो हमारी ही गलती के कारण पैदा होती जा रही है। पर्यावरण का बिगड़ा संतुलन आज एक अंतरराष्ट्रीय समस्या बन चुका है। पिछले कुछ वर्षों से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु में भारी परिवर्तन देखा जा रहा है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है, जलस्तर घट रहा है, अकालसूखा, भूकंप और अम्लीय वर्षा की घटनाएं बढ़ रही है। वायुमंडल में नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, और सल्फर डाइऑक्साइड आदि अनेक जहरीली गैसों की मात्रा बढ़ रही है। प्रदूषण से मानव जीवन संत्रस्त है तो प्राकृतिक संपदाओं के विनाश और पशु पक्षियों के भावी जीवन के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है।प्रदूषण ग्रस्त होकर हमारा जीवन अस्तित्व विहीन होता जा रहा है, अतः पर्यावरण चेतना एवं प्रदूषण निवारण के हिमालयी संकल्प और भागीरथी प्रयास आज के समय की मांग है।
व्यवहारिक कानून बनाकर पर्यावरण संरक्षण कानूनों को समसामयिक एवं कठोर बनाकर पर्यावरण के प्रति हर एक को प्रतिबद्ध होना आज समय की महती आवश्यकता है। धरती के साथ हमारे संबंध आज और भी खराब हो रहे हैं। परंपरागत रूप से धरती और मानव का संबंध माता और संतान जैसा है, धरती मां अपनी संतानों का पोषण माता की तरह प्रेम, भोजन और स्नेहरूपी दूध से उनके शरीर और मन को पुष्ट बनाती है। लेकिन प्रकृति और मानव के बीच प्रेम और सहयोग के संबंध को धरती के बेटों ने अपनी विकृत मानसिकता से नष्ट कर दिया है। अब वह अपनी माता का दुग्धपान करने के स्थान पर उसका खून पीकर विनाश की तैयारी कर रहा है।
धरती ने अपनी संतानों के लिए जो सुविधाएं विकसित की थी उसे मानव जंगल और जल स्रोतों का अपव्यय कर समाप्त करने पर तुला हुआ है। औद्योगिक उत्पादन के द्वारा अपनी उपभोग की कभी नहीं बुझने वाली प्यास को संतुष्ट करने के प्रयास में विकास के आधुनिक रास्ते ने उसे जलवायु, ध्वनि प्रदूषण तथा हरित गृह प्रभाव एवं ओजोन संकट जैसी व्याधियां दी है, जिनके कारण आज स्वयं मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
संस्कृति के पतन से पूर्व देश वृक्ष रहित और मानव संस्कार रहित हो जाता है, भारत के संदर्भ में यह युक्ति अधिक सटीक प्रतीत होती है। आज पर्यावरण रक्षा का नारा नहीं जब तक जीवन दर्शन नहीं बन जाता तब तक धर्म, संस्कृति, दर्शन और साहित्य की श्रेष्ठता की केवल बातों से काम नहीं चलेगा। पर्यावरण की चेतना देशज अस्मिता तथा देशवासियों की दुर्दशा के मूल कारणों को समझ कर ही जगायी जा सकती है। बढ़ते हुए औद्योगिकरण, मशीनीकरण, नवीनीकरण एवं आधुनिकीकरण के फल स्वरुप भारतीय वातावरण अधिक दूषित होता जा रहा है और पर्यावरण में असंतुलन आ रहा है।
एक नए प्रदूषण मुक्त और पर्यावरण समृद्ध भारत के निर्माण हेतु हमें सामुहिक प्रयास सामाजिक संकल्प के साथ करने होंगे। इस दिशा में अभी मीलो लंबा सफर तय करना है। नई तकनीकी का विकास अधिक लोगों को ज्ञान तथा पर्यावरण संतुलन संबंधित समस्याओं को मिटाकर ही हम जीवन में उमंगों को पर्यावरण के संग प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा बढ़ता प्रदूषण एवं पर्यावरणीय असंतुलन हमें ऐसी पटखनी देगा कि पता ही नहीं चल सकेगा।
अतः भविष्य की सुखी और समृद्ध दुनिया को एक नई दृष्टि के साथ मानवता को उसके मौजूदा और अभूतपूर्व पर्यावरण संकटों से मुक्ति दिलाने के लिए परिस्थितिकीय समाधान खोजना आज के समय की आवश्यकता है जिसमें प्रत्येक मानव का समुचित योगदान उसके पर्यावरणीय नागरिक दिशा बोध का स्वयं साक्षी बनेगा।
प्रतिवर्ष बढ़ते शहरीकरण, सड़क निर्माण और खनन आदि के कारण कई लाख हैक्टेयर भूमि हाथ से निकल रही है। इसके फल स्वरूप आज हमें सूखे और बाद, पानी और चारे आदि की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह हमारे देश की वन संपदा ही थी जिससे भारत के लोग हष्ट पुष्ट और स्वस्थ रहते थे। वन धरती को रेगिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। हरे वृक्ष वातावरण और भूमि को नम बनाए रखते हैं जिससे धरती में नमी होने से भूमि बंजर नहीं हो पाती है परंतु कुछ क्षेत्रों में वृक्षों की कमी के कारण स्थिति गंभीर होती जा रही है। घटते वनों और बढ़ती जनसंख्या के कारण आज हमें नई-नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो हमारी ही गलती के कारण पैदा होती जा रही है।
स्रोत- पर्यावरण डाइजेस्ट