पश्चिमी हिमालय क्षेत्रों में अपरदन नियंत्रण हेतु वानस्पतिक अवरोध
- पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में कृषि संबंधी गतिविधियाँ अधिकतर पर्वतीय ढलानों पर की जाती हैं, जहाँ पर क्षरण हानियाँ अत्यधिक हैं।
- यद्यपि, मृदा एवं जल संरक्षण हेतु बांध निर्माण एक प्रभावशाली उपाय है किन्तु यह एक महंगा उपचार है और हर समय रखरखाव मांगता है। इसलिए समोच्चों पर स्थायी पट्टियों में बहुत कम अंतरालों पर उगाई गई घासों के वानस्पतिक अवरोध, बांध निर्माण के प्रभावशाली विकल्प के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं।
- एक वानस्पतिक अवरोध, पृष्ठ एवं अवनालिका अपरदन-क्षणिक गली अपरदन कम करने, जल बहाव को नियमित करने, तीव्र ढलानों को स्थापित करने, अवसाद को रोकने एवं अन्य उत्पादों जैसे चारा, हरी खाद आदि उपलब्ध कराने में सहायक हैं।
वानस्पतिक अवरोध प्रौद्योगिकी उत्तर पश्चिमी हिमालय के 2-8% वाले हल्के ढालू क्षेत्रों के लिए विकसित की गई थी जीनिया, खसखस एवं भाभर घास की जड़युक्त प्ररोहों को एक मीटर अंतराल पर बिखरे हुए तरीके से समोच्च के साथ लगाया गया ( फोटो 1), जो कि 2, 4 एवं 8% ढलानों पर क्रमश: 50, 25 और 12.5 मी0 के क्षैतिज अंतराल की समरूपता को दर्शाता था। घास प्रजातियों की उपलब्धता के आधार पर किसान इनमें से कोई भी घास प्रजाति अपना सकते हैं। इस प्रौद्योगिकी में भूमि बांध की लागत का केवल एक चौथाई खर्च आता है।
वानस्पतिक अवरोधों हेतु आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण घासों का चुनाव करना चाहिए जो घना एवं बारहमासी आवरण उपलब्ध कराती हों। स्थानीय रूप से उपलब्ध चासें जैसे पेनिक्कम मैग्जिमम (जीनिया घास), पेटिपेरा जिजानिओड्स (खसखस ) एवं यूलेलियोप्सिस बिनाटा (भाभर) शिवालिक एवं निचले हिमालय क्षेत्र के लिए उपयुक्त पाई गई हैं प्रभावी ढंग से अपरदन एवं अवसाद नियंत्रण हेतु निम्नलिखित कारणों से इन तीनों प्रजातियों को प्रयोग किया जाता है:-
- सीधी खड़ी, स्थिर एवं एक समान सघन बाड़ निर्मित करती हैं जो कि सतही बहाव के विरुद्ध अपनी जड़ों की सहायता से उच्च प्रतिरोध प्रदान करती हैं। अवरोध के निकट मृदा को जकड़कर अवनालिका अपरदन एवं कटाव को रोकती हैं।
- नमी एवं पोषक तत्वों की कमी को झेलने में सक्षम हैं तथा वर्षा के उपरांत ऊपरी आच्छादन को बहुत तेज़ी से पुनस्थापित करती हैं।
- फसल पैदावार को बहुत कम हानि पहुँचाती हैं तथा खरपतवार की तरह नहीं फैलती, नमी, पोषकों एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्द्धा नहीं करती तथा कीटों और बीमारियों को आश्रय प्रदान नहीं करती एवं किसानों को आर्थिक मूल्य के उत्पाद उपलब्ध कराती हैं।
- भाभर घास, रस्सी, बान एवं चटाई बनाने के लिए प्रयोग की जाती है, छोटी कोपलों को चारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है।
- जीनिया घास पोषक, स्वादिष्ट एवं ऑक्सेलिक तेज़ाब रहित हैं।
- इस घास में उपस्थित कच्ची प्रोटीन एवं कच्चे रेशे का अंश क्रमशः 8 से 14% एवं 28 से 36% के बीच पाया जाता है।
- खसखस भी हस्तशिल्प, छप्पर, मशरूम उत्पादन, जानवरों के चारे, खाद्य पदार्थं एवं जड़ी बूटियों हेतु प्रयोग की जाती है।
- वानस्पतिक अवरोध अपवाहित जल के मार्ग में गतिरोध उत्पन्न करते हैं। अपवाह के साथ प्रवाहित गाद अवरोध के पीछे जमा हो जाता है (चित्र 1) गाद निक्षेप से 3-4 वर्षों के अन्दर सीढ़ीनुमा वेदिकाएं निर्मित हो जाती हैं।
- सभी घासें गर्म आई गौराम में भली-भाँति विकसित होने वाली हैं। ये समुद्र तल से 1800 मी0 की ऊँचाई तक उगाई जा सकती हैं। ये 15 से 38° सेन्टीग्रेड के बीच के तापमान में तेजी से विकसित होती हैं। ये तीनों घासें विभिन्न प्रकार की मृदाओं के लिए उपयुक्त हैं। यद्यपि रेतीली दोमट व दोमट भूमियाँ इनके लिए अच्छी होती है, तथापि इनको समुचित जल निकास एवं हल्के गठन वाली भूमियों में भी सफलता पूर्ण उगाया जा सकता है।
- तीनों घासों में से किसी के लिए भी कोई विशेष भूमि तैयारी की आवश्यकता नहीं है। चुनी हुई घास को दो या तीन बार हल चलाकर एवं एक बार समतलीकृत करके फसलों के साथ-साथ लगा दिया जाता है। भूमि सभी प्रकार के खरपतवार से मुक्त होनी चाहिए तथा इसके लिए उर्वरक प्रयोग भी अन्य फसलों के अनुरूप ही है।
- रोपण सामग्री के रूप में बीजों और घासों की प्ररोहों (slips) का प्रयोग किया जा सकता है। शीघ्र आच्छादन प्राप्त करने के लिए जड़युक्त प्ररोहों को बीजों की तुलना में वरीयता दी जानी चाहिए। जड़युक्त प्ररोह निकट स्थानों पर उपलब्ध पौधसामग्री या मान्यता प्राप्त संसाधनों से प्राप्त की जा सकती है। रोपण हेतु प्ररोह प्राप्त करने के लिए पुराने पुंजों को उखाड़कर जड़युक्त प्ररोहों को अलग किया जाता है। जड़युक्त प्ररोहों को उखाड़कर लगाने की प्रक्रिया एक ही दिन में पूरी होनी चाहिए। एक पुंज (3 से 4 वर्ष पुराना ) 3 से 5 जड़युक्त प्ररोह उपलब्ध कराता है। 100 मी0 लम्बाई में एक अवरोध स्थापना हेतु जोड़ा पंक्तियों के लिए लगभग 2000-3000 जड़युक्त प्ररोहों की आवश्यकता पड़ती है। सभी घास के लिए पंक्ति से पंक्ति के बीच 75 सेमी0 एवं पौधे के बीच 20 सेमी अंतर की संस्तुति की जाती है (सारणी 1)।
- सर्वप्रथम उपचार किए जाने वाले क्षेत्र का ढाल निर्धारित किया जाना चाहिए तथा वानस्पतिक अवरोधों की जोड़ा पंक्तियों के बीच का ऊर्ध्व अंतराल 1 मी0 बनाए रखने के लिए 2, 4 और 8% ढलानों युक्त भूमि धरातल पर क्रमश: 50, 25 एवं 12.5 मी0 के क्षैतिज अंतराल पर समोच्च रेखाएं बनाई जानी चाहिए।
- जोड़ा पंक्तियों में प्रत्येक समोच्च रेखा के साथ 75 सेमी अंतराल पर देसी हल या छोटे कृषि यंत्र का प्रयोग करते हुए 10 सेमी चौड़ाई और 20 सेमी0 गहराई का एक खुला कूड़ बनाया जाना चाहिए।
- जोड़ा पंक्तियों के कूड़ों में 2-3 शाखाओं वाली जड़युक्त पौधा प्ररोहों को 20 सेमी अंतराल पर रोपना चाहिए। वानस्पतिक अवरोधों की एक जोड़ा पंक्ति को पर्याप्त स्थान प्रदान करने के लिए, रोपण बिखरा कर करना चाहिए। सभी घासों की रोपाई जुलाई के प्रथम सप्ताह से दूसरे सप्ताह (मानसून प्रारंभ) के बीच की जाती है।
- समोच्च कूड़ों से खोदी गई मृदा का बंध निर्मित करने के लिए निचली और ढेर लगा दिया जाता है।
- जड़युक्त प्ररोहों के साथ अच्छी मृदा पकड़ के लिए बालटी द्वारा जल देकर सिंचाई की जानी चाहिए।
- खेत के ढाल एवं लम्बाई (ढाल के साथ) को मापें।
- अवरोधों के बीच क्षैतिज ( धरातलीय) अंतराल । = खेत की लम्बाई (मी0)/ढाल (%), उदाहरणार्थ, यदि खेत की लम्बाई 100 मी0 एवं ढाल 4% है, तो अवरोधों का क्षैतिज अंतराल 25 मी0 होगा।
- अवरोधों की संख्या= ढलानयुक्त खेत की लम्बाई (मी०)/ दो अवरोधों के बीच क्षैतिज ( धरातलीय) दूरी ( मी०), उदाहरणार्थ, 100 / 25-4 संख्या (प्रत्येक जोड़ा पंक्तियाँ, सारणी 2 ) ।
नीचे बताए गए अनुसार 2, 4 एवं 8% ढलानों पर अवरोध रोपण के विभिन्न उपकरणों की लागत क्रमश: रू0 2,480 / हेक्टे0 रु04,960 / हेक्टे0 एवं रु0 9920/हेक्टे0 आती है, जो कि समान ढलानों पर समोच्च बंध निर्माण लागत की तुलना में लगभग एक तिहाई है।
- प्रथम रोपाई के पश्चात् अवरोध के पूर्णरूप से स्थापित होने तक खाली स्थान की भराई करना आवश्यक है।
- सभी प्रकार की घास प्रजातियों को वर्ष में कम से कम दो कटाई की आवश्यकता होती है। पौधों के फैलाव के लिए प्रथम कटाई की आवश्यकता मई/जून में मानसून प्रारंभ होने के तुरंत पहले पड़ती है तथा द्वितीय कटाई की आवश्यकता अक्तूबर / नवम्बर में।
- एक प्रभावशाली अवरोध के लिए प्रत्येक कटाई के समय पंक्तियों के बीच में गुड़ाई के साथ 15-30 सेमी0 की ऊँचाई पर वार्षिक छंटाई की संस्तुति की जाती है। बीच में उगी अन्य झाड़ियां एवं घासें समय-समय पर निकाली जानी चाहिए।
- संरक्षण उपायों से संबंधित अन्य अदृश्य लाभों के अतिरिक्त वानस्पतिक अवरोध के लाभ रोपाई के तीन से चार वर्षों के पश्चात् दिखाई देने लगते हैं।
- सामान्यतः 2-8% तक के ढलानों पर वानस्पतिक अवरोध अपवाह एवं मृदा हानि को क्रमश: 18-21% एवं 23-68% तक कम कर सकते हैं। संरक्षित नमी द्वारा मक्का एवं गेहूँ की फसल में क्रमश: 23-40% एवं 10-20% की बढ़ोत्तरी होती है। इस प्रणाली से मक्का की फसल (दाना + कडवी) के अतिरिक्त, अवरोध से चारे के रूप में लगभग 6-17 क्वि0 / हेक्टे0 / वर्ष सूखे घास की प्राप्ति होती है (सारणी 3)।
- घास प्रजातियों से रु0 750-850 / हेक्टे0 / वर्ष जैवभार के रूप में प्राप्ति होती है। विभिन्न ढलानों पर वानस्पतिक अवरोधों के साथ मक्का गेहूँ फसल चक्र से कुल प्राप्ति रु07,000 से 21,500/हेक्टे / वर्ष के बीच रहती है ( सारणी 4)।
- 2, 4 एवं 8% ढलानों वाली ढालू भूमियों पर वानस्पतिक अवरोधों को अपनाए जाने के कारण पारंपरिक विधियों की तुलना में क्रमश: रु० 8,030, 5,660 एवं 3,130 / हेक्टे0 / वर्ष की अतिरिक्त प्राप्ति देखी गई है।
- अपरदन एवं मृदा निक्षेप कम करने में भाभर की तुलना में जीनिया एवं खसखस घास अधिक प्रभावशाली हैं।
बिना मक्का एवं गेहूँ की फसलों को गंवाए विशेषकर सर्दी के मौसम में चारा उपलब्धि एक अतिरिक्त लाभ है।
- रोपण सामग्री समय से पूर्व ही निकट स्थानों से प्राप्त कर एकत्रित कर लेनी चाहिए।
- मानसून आने से पूर्व ही कार्यस्थल का नक्शा तैयार कर तैयारी पूरी कर लेनी चाहिए। )
- वानस्पतिक अवरोध हेतु रोपण सामग्री की लागत कम करने के लिए किसान प्रथम वर्ष में केवल रू0 620/- खर्च करके 100 मी0 चालू लम्बाई (एक पंक्ति) की रोपाई कर सकते हैं। एक बार जब यह स्थापित हो जाए तो आने वाले वर्षों में जड़युक्त प्ररोहों की लागत प्रायः शून्य हो जाती है। इस के प्रकार वानस्पतिक अवरोध, समोच्च बंधो की तुलना में अत्यधिक सस्ते रहेंगे।
- चारे के उद्देश्य से खसखस घास की तुलना में जिनिया एवं भाभर घास की संस्तुति की जाती है।
- वानस्पतिक अवरोध, उत्तर पश्चिमी हिमालयी राज्यों (उत्तराखंड, हि०प्र० एवं जम्मू और काश्मीर) के विशेष रूप से शिवालिक एवं निचले हिमालय के 2-8% ढलान युक्त अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों हेतु एक उपयुक्त प्रौद्योगिकी है। संसाधनहीन किसानों के लिए यह बहुत सस्ती और आसानी से अपनाई जा सकने योग्य विधि है।