अंधकार की ओर जाती सभ्यता
अंधकार की ओर जाती सभ्यता

प्रलय की ओर उन्मुख सभ्यता 

चरक संहिता में जनपदोऽध्वंसनीय विमान नामक अध्याय है, जो पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न एक बीमारी को दर्शाता है। इसका कारण भ्रष्ट सत्ता और पूंजी की सांठ-गांठ बताया गया है। महर्षि ने समझाया कि मानव प्रकृति के आठ तत्व हैं: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश का प्रदूषण जनपदोऽध्वंसनीय की ओर ले जाएगा।
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जनपदोऽध्वंसनीय संदर्भ

चरक संहिता में एक अध्याय है जनपदोऽध्वंसनीय विमान अर्थात ऐसी बीमारी जिसमें देश के देश उजड़ जाते हैं। यह बीमारी पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न बतायी गयी है और उसका कारण भी बताया है, भ्रष्ट सत्ता तथा पूंजी की सांठ-गांठ। संयोग से महर्षि आत्रेय ने अपने शिष्य अग्निवेश को यह अध्याय उत्तर प्रदेश के ही फर्रुखाबाद जिले में गंगा किनारे स्थित वनों में घूमते हुए पढ़ाया था। 

अग्निवेश का प्रश्न था कि अलग-अलग स्वभाव, खान-पान और आचरण के लोगों को एक साथ एक ही जैसी बीमारी क्यों हो रही है? महर्षि आत्रेय ने शिष्य अग्निवेश को जो उत्तर दिया उसका मर्म समझने के लिए हमें संक्षिप्त विषयातंर, सृष्टि रचना और मनुष्य की उत्पत्ति का कम समझना अनिवार्य है। श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय सात श्लोक चार में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानव की प्रकृति इस प्रकार बतायी है- भूमिरापोडनलो वायुः खं मनो बुद्विरेवच। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (इन पांच महाभूतों से निर्मित शरीर) और मन, बुद्धि तथा अहंकार मानव प्रकृति के यह कुल आठ तत्व हैं। इस तरह इनमें से पहले पांच तत्व सभी मनुष्यों में समान और बाद के तीन भिन्न-भिन्न समझे जा सकते हैं। 

सृष्टि रचना

सृष्टि रचना का भेद उपनिषदों और पुराणों में विस्तार से कहा गया है। मत्स्यपुराण में कहा है कि प्रलय के बाद सबसे पहले जल की रचना हुई। उसमें बीज डाला गया जो एक हजार वर्ष बीतने पर सुवर्ण एवं रजतमय अंडे के रूप में परिणत हो गया। उस अंडे के भीतर से सर्वप्रथम सूर्य उत्पन्न हुए। यह सूर्य ही ब्रह्मा कहलाये। उन्होंने अंडे को दो भागों में बांटकर स्वर्गलोक और भूतल की रचना की। उन दोनों लोकों के बीच में सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश का निर्माण किया। उसी अंडे के जरायु भाग से सातों पर्वत प्रकट हुए, जो गर्भाशय था वह मेघमंडल के रूप में परिणत हुआ तथा उसी अंडे से नदियां, पितृगण और मनु समुदाय उत्पन्न हुए। इस अंडे के अंतः स्थित जल से सातों समुद्र उत्पन्न हुए। इसके बाद ब्रह्मा के नौ पुत्र एक पुत्री मन, बुद्धि, अहंकार, कर्मेन्द्रियां और दसों इंद्रियों की उत्पत्ति हुई। ऐसी मान्यता है कि आज जो युग चल रहा है वह मन्वंतर अर्थात प्रलय के बाद मनु की सृष्टि ही है। भारतीय वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों में यह बात भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतिपादित की गयी है। यह रहस्य हर औसत हिन्दुस्तानी की जबान पर रहता है। तुलसी के शब्दों में "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।" 

प्रश्नोपनिषद् के प्रश्न-उत्तर

प्रश्नोपनिषद् में भार्गव ऋषि के प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि पिहलाद ने बताया कि "सबका आधार तो वैसे आकाशरूप देवता ही हैं, परंतु उससे उत्पन्न होने वाले वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये चारों महाभूत भी शरीर को धारण किये रहते हैं। यह स्थूल शरीर इन्हीं तत्वों से बना है, इसलिए ये धारक देवता हैं।" सबसे पहले अम्भ, मरीचि, मर और जल इन लोकों की रचना हुई। फिर जल से ही हिरण्यगर्भरूप पुरुष को निकालकर उसे मूर्तिमान बनाया गया और जल आदि पांच महाभूतों को तपाकर अन्न पैदा किया गया।

तैत्तरीयेपनिषद ने जरा भिन्न प्रक्रिया बतायी है। इस मत के अनुसार सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। पृथ्वी से औषधियां, उनसे अन्न और तत्पश्चात पुरुष। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीम्योडत्रम। अन्नात्पुरुषः।" मुण्डकोपनिषद सबसे पहले अग्नि तत्व की उत्पत्ति मानता है- तस्मादग्निः। उससे चंद्रमा, चंद्रमा से मेघ, उनकी वर्षा से पृथ्वी में नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न हुई। उन औषधियों के भक्षण से उत्पन्न हुए हुए वीर्य को जब पुरूष अपनी जाति की स्त्री में सिंचन करता है, तब उससे संतान उत्पन्न होती है। इस उपनिषद के अनुसार इन्हीं परम तत्व से समस्त समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए तथा इन्हीं से निकलकर अनेक आकार वाली नदियां बह रही हैं। 

निम्नगाः शिराः

विराट पुरूष (ईश्वर) और प्रकृति की एकात्मता बताते हुए महाभारत के मोक्षधर्म पर्व में कहा है-" समुद्रास्तस्य रुधिरम" अर्थात समुद्र उस परमेश्वर का रक्त है और "निम्नगाः शिराः" अर्थात् नदियां रक्तशिराएं। 

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे ये प्राचीन धर्मग्रन्थ अलग-अलग वैज्ञानिक स्कूलों के शोध प्रबंध हैं। यह वैज्ञानिक ज्ञान जन-जन तक सरल और बोधगम्य भाषा में पहुंचे, इसलिए उन्हें कथानक का रूप दे दिया गया। 

यह लोक संग्रह की अद्भुत क्षमता और परिपक्व कला है कि हर औसत निरक्षर भारतीय भी इन मौलिक बातों को अच्छी तरह समझता है। बीसवीं सदी की संचार कांति के बावजूद यदि आज के वैज्ञानिक अपनी बात आम लोगों को नहीं समझा पाते हैं तो उन्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। इस तरह इस सृष्टि का पर्यावरण के ये पांच महाभूत मूल आधार हैं। भारतीय धर्मग्रंथों ने जीवन के इन आधारभूत तत्वों को ही देवता की संज्ञा दी। इनका संतुलन बनाये रखना ही धर्म, पुण्य और ईश्वरीय नियम माना गया और उनमें बाधा डालना पाप। पाप यानि ऐसे कर्म जो समाज के लिए अहितकर हैं। 

अपने ईश्वर की व्याख्या करते हुए गांधी जी ने कहा, "हर एक प्राणी और प्रत्येक वस्तु पर शासन करने वाला एक अटल नियम है। और वह कोई अन्धा नियम नहीं हैं, क्योंकि सजीव प्राणियों के आचरण को नियुक्ति करने वाला कोई नियम अन्धा नहीं हो सकता। सब चेतन पदार्थों का शासन करने वाला यह नियम ही ईश्वर है।"

आगे इस लेखमाला में धर्म शब्द का उपयोग कई जगह आयेगा, इसलिए संक्षेप में उसका अर्थ भी। यह एक विडंबना है कि धर्म शब्द उपासना पद्धति का बोध कराने वाले सम्प्रदाय के अर्थ में रूढ़ होता गया, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। आज जिन्हें हम कानून, नियम और अधिनियम कहते हैं समाज को संचालित करने वाले वही शाश्वत कानून पहले धर्म कहे जाते थे। धारणाद् धर्म इत्यादः अर्थात जो नियम समाज को धारण करते हैं वह धर्म है। यतो अभ्युदयों निःत्रेयसः सिद्धिः स धर्मः अर्थात् जिस आचार-विचार और पदार्थ से सर्वत्र और सर्वदा अखंड आनंद की प्राप्ति हो वही धर्म है। 

धर्म के दस लक्षण माने गये हैं। धृतिः क्षमा दमाडस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर विद्या सत्यमक्रोधोदशकम् धर्म लक्षणम् ।। 

भारतीय सृष्टि विज्ञान की इस पृष्ठभूमि में ही महर्षि आत्रेय द्वारा अग्निवेश को दिया गया उत्तर समझा जा सकता है। ऋषि आत्रेय के अनुसार मनुष्यों के प्रवृति स्वभाव आदि भिन्न होते हुए भी सब शरीरों में पाये जाने वाले समान भावों के गुण विकृत हो जाने से एक ही समय और एक लक्षण वाले रोग उत्पन्न होकर देश का नाश कर देते हैं। ये भाव हैं- "वायुरूदकं देशः काल इति" अर्थात वायु, जल, देश (पृथ्वी का क्षेत्र विशेष) और काल अर्थात ऋतु चक।

महर्षि आत्रेय पर्यावरण विषय

महर्षि आत्रेय ने पर्यावरण प्रदूषण की जिस स्थिति का वर्णन उस समय किया था, वही परिस्थिति आज पुनः उत्पन्न हो रही है। पंचाल क्षेत्र के जनपद मण्डल की काम्पिल्य नामक राजधानी में अग्निवेश को संबोधित करते हुए। महर्षि आत्रेय ने कहा- दृश्यंते हि खलु सौम्य। नक्षत्र ग्रह चन्द्र सूर्यानिलानलानां दिशां च प्रकृति भूतानामृतु वैकारिका भावाः, अचिरादितो भूरपि च न यथावद्रसवीर्य विपाक प्रभावमोषधीनां प्रतिविधास्यति- अर्थात स्वाभाविक अवस्था में स्थित नक्षत्र, ग्रह, चन्द्र, सूर्य, वायु, अग्नि और दिशाओं के ऋतु में विकार करने वाले भाव उत्पन्न हो गये हैं। अब जल्दी ही पृथ्वी भी औषधियों के इस वीर्यविपाक तथा प्रभाव पहले की तरह उत्पन्न नहीं करेगी। और ऐसी स्थिति में रोग होना अवश्यंभावी है। अतः जनपद (देश) विनाश और भूमि के रस रहित होने से पूर्व औषधियों को उखाड़कर संग्रह कर लो, ताकि समय पर काम आयें।

अध्ययन का संदर्भ जल प्रदूषण

मेरा यह अध्ययन मुख्यतः जल प्रदूषण का मछली और मछुवारों पर दुष्प्रभाव का अध्ययन करने के लिए प्रारंभ हुआ था। किन्तु लखनऊ, उन्नाव, कानपुर, आगरा, मथुरा, बुलंदशहर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, मोदीनगर, नोएडा, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, पीलीभीत, खीरी, हरदोई, सीतापुर, बाराबंकी आदि जिलों में प्रदूषित नदियों के किनारे बसे दर्जनों नगरों और हजारों गांवों में तरह-तरह की बीमारियां और कष्टों से सारा जनसमुदाय पीड़ित है। 

प्रदूषण से मछली और मछुवारें तो संकटग्रस्त हुए ही तमाम अन्य जीव जन्तु और इन इलाकों के पशु-पक्षी तथा मानवीय आबादी भी भयंकर कष्ट भोग रही है। इन समस्याओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और विधान सभा तथा विधान परिषद में भी उठाया गया, पर शासक वर्ग का खेल यथावत् जारी है। समस्या की इस विकरालता ही इस विषय को विस्तार देकर इस हद तक ले गयी कि उसमें विषयांतर का दोष भी देखा जा सकता है।

प्रारंभ में यह अध्ययन केवल जल प्रदूषण तक सीमित था, किन्तु ज्यों-ज्यों खोज आगे बढ़ी, यह भ्रम टूटता गया कि जल प्रदूषण एक अलग अथवा विशिष्ट समस्या है। दरअसल जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, पृथ्वी प्रदूषण, सूर्य और चंद्र प्रदूषण, वनस्पति तथा अन्य प्रदूषण, यह सब एक दूसरे से उसी तरह जुड़े हैं। जैसे सृष्टि की रचना में आकाश, अध्ययन अवैज्ञानिक होगा, क्योंकि ये महाभूत रूप परिवर्तित करके एक दूसरे में मिलते रहते हैं। एकांगी और अवैज्ञानिक सोच का ही नतीजा है कि आज के वैज्ञानिक उद्योगों का प्रदूषण दूर करने के लिए जो बायोगैस आधारित संयंत्र लगवाते हैं, या वायु प्रदूषण रोकने के नाम पर चिमनियों को ऊंचा उठवाते हैं, आकाश में गैस और धुएं के रूप में पहुंचा यह प्रदूषण एक ओर सूर्य किरणों का मार्ग अवरुद्ध कर जल, वायु और पृथ्वी के प्रदूषण की प्राकृतिक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है, दूसरी ओर वर्षा के समय वही प्रदूषण एक साथ आकर जलचर, मछलियों और मनुष्यों तथा अन्न और वनस्पतियों को पहले से भी अधिक क्षति पहुंचाता है। आज की स्थिति कितनी भयावह है यह बताने के लिए दो उद्धरण पर्याप्त हैं।

इन तीन विद्वानों का कहना है कि भारत विज्ञान और तकनीकी, औद्योगीकरण, शहरीकरण, यातायात के साधन, नागरिक सुविधाओं और प्राकृतिक स्रोतों के दोहन की 20वीं सदी की तथाकथित प्रगति दौड़ से अछूता नहीं रहा। आज देश की वायु, धुंवा, सीवेज, स्लज, औद्योगिक दुष्प्रवाह और शहर के कूड़ा-कचरा से वह विकृत भी हो गये हैं। जल, वायु, तथा पृथ्वी के भौतिक एवं रासायनिक प्रदूषण से स्वास्थ्य के लिए खतरे की समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं। हम अंतरिक्ष और नदी जल को निरंतर प्रदूषित कर रहे हैं, जिसकी परिणति वर्तमान पर्यावरण संकट के रूप में हुई है। 

दि इंडियन जर्नल आफ पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन (जनवरी, मार्च 1984 अंक) में ओ० पी० द्विवेदी, बी० एन० तिवारी और आर० एन० त्रिपाठी के संयुक्त लेख में कहा गया है- 

"The 20th Century race of so called advancement in science and technology, industrilization and urbanization, means of transportation, civic amenities and esploitation of natural resources did not leave India unaffected. Currently, the nation's air, water and land is not only overused but is also degraded due to dust, smoke, sewage, silages, industrial discharges and city refuse. The chemical and physical contamination of water, air and soil has contributed problems of health hazards. We have been constantly polluting the atmosphere, river waters and cutting the forests which has resulted in the present crisis of the environment.

इन विद्वानों ने आज देश में पर्यावरण संकट की जो स्थिति बतायी है उससे ऐसा ही लगता है मानो "जनपदोऽध्वंस" अर्थात् देश के उजड़ जाने का खतरा सन्निकट आता जा रहा है।

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