बंदरगाह से बाज़ार तक: मुंबई की कोली महिलाओं की ज़िंदगी का एक दिन
भोर होने से पहले ही मुंबई का ऐतिहासिक मछली बाजार, ससून डॉक, चहल-पहल से भर गया। चायवाले की गाड़ी की खनखनाहट समुद्र की लहरों से टकरा रही थी। यह डॉक शहर के समुद्री इतिहास का प्रतीक है।
मछीमार नगर (कोलीवाड़ा) में लीला तांडेल, अंधेरे में एक छोटी-सी आकृति, पहले से जाग चुकी थीं।
कोली महिलाएं, जो अपनी सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए जानी जाती हैं, अपने समुदाय (कोलीवाड़ा) में मछली पकड़ने के पूरे आर्थिक तंत्र को संभालती हैं। लीला का छोटा-सा घर, कोली महिलाओं के रंगीन चित्रों से सजा हुआ था। परिवार अभी सो रहा था, सब शांत था। लेकिन लीला का दिन, समुद्र की लहरों की तरह, इंतज़ार नहीं करता।
सुबह 3 बजे। ज़्यादातर लोगों के लिए बहुत जल्दी, लेकिन लीला जैसी कोली महिलाओं के लिए काम का समय। वह चुपचाप और तेज़ी से चलती रही, शहर के जागने से पहले उठने की आदी। जाने से पहले, उसने चाय बनाई, खुशबूदार भाप छोटे रसोईघर में फैल गई। पानी के छींटे, समुद्र को एक मौन प्रार्थना, और उसने अपनी रंगीन नौ-गज की साड़ी पहन ली। सावधानी से बनाए गए प्लीट्स उसका गर्व हैं, कोली मछुआरनों को पीढ़ियों से मिली वर्दी जो है यह। फिर, सोने के झुमकों का एक स्पर्श, अपने सोते बच्चों पर एक नज़र, और वह दरवाज़े से बाहर निकल गई। नमकीन हवा का ठंडा झोंका उसका स्वागत कर रहा था।
मछीमार नगर की सुबह की शांति ससून डॉक के आने वाले शोर से बिल्कुल अलग थी। संकरी गलियां, जो आमतौर पर दैनिक जीवन से भरी रहती हैं, अभी खामोश थीं। केवल एक मछली पकड़ने वाली नाव की दूर की आवाज़ आने वाली गतिविधि का संकेत दे रही थी। लीला मकसद के साथ चलती रही, उसकी चप्पलों की आवाज़ ज़मीन पर हल्की थी, और दिमाग पहले से ही मछलियों पर अटका हुआ। क्या पर्याप्त पोम्फ्रेट मिलेगा? क्या वह खास बॉम्बे डक ढूंढ पाएगी?
समुद्र, हमेशा की तरह, अपने रहस्यों को छिपाए हुए था। एक ऐसे देश में जहां महिलाएं अक्सर अदृश्य होती हैं, सैकड़ों कोली महिलाएं स्वतंत्रता से व्यापार करती हैं, बड़े सार्वजनिक स्थान पर अपने धन का प्रबंधन करती हैं। यह असामान्य है। वे काम करती हैं और अपने काम को आकार भी देती हैं, पीढ़ियों के कौशल का उपयोग करते हुए। मछली बेचने का लाइसेंस और ज्ञान गर्व के साथ बुज़ुर्ग होती कोली महिलाएं, युवा औरतों को देती हैं, जैसे यह कोई पारिवारिक खजाना हो।
पितृसत्तात्मक समाज में अधिकांश भारतीय महिलाओं के विपरीत, कोली मछुआरनें घर और काम दोनों जगह निर्णय लेती हैं। लेकिन अपने समुदाय के बाहर, उन्हें अभी भी बुनियादी अधिकार नहीं मिले हैं। सुबह 4 बजे तक, ससून डॉक बदल चुका था। यह ऐतिहासिक डॉक, 1875 में बना, मुंबई का पहला बड़ा डॉक और शहर के अतीत की याद दिलाता है। यह व्यवस्थित अराजकता का दृश्य था। नावों और टोकरियों का नृत्य, चीखें और गंधें। मछलियों से भरी नावें, रात के शिकार से लदी हुई, अपनी चमकदार खोज को उतारने में व्यस्त थीं।
नमक और मछली की गंध से भरी हवा ऊर्जा से भरपूर थी। लीला, भीड़ में छोटी-सी, अराजकता के बीच आसानी से आगे बढ़ती रही, जैसे कोई जिसने यह जीवनभर किया हो। उसकी तेज़ नज़रों ने मछलियों के ढेरों को देखा, चमकते पोम्फ्रेट, चांदी जैसी किंगफिश, मोटे झींगे। यह सिर्फ व्यापार नहीं था, यह एक कला थी, पीढ़ियों से चली आ रही कला जिसमें उसे महारत है। पास में, अन्य महिलाएं झींगे साफ करने में व्यस्त थीं, उनके हाथ अभ्यासी चपलता से चल रहे थे।
उसने मछुआरों से मोलभाव किया, उसकी आवाज़ मज़बूत पर सम्मानपूर्ण, उसके अनुभव का हर इशारा स्पष्ट। पैसे बदले गए, और जल्द ही लीला के पास दिन भर की मछलियां थीं। लेकिन असली काम अब शुरू होना था। छंटाई, सफाई, बाजार के लिए मछलियों को तैयार करना। यह कठिन काम था, बुनियादी सुविधाओं की कमी से और भी मुश्किल।
"हम यहां छह घंटे लगातार बैठते हैं, बिना शौचालय या कहीं और गए," लीला ने गंदे पानी की बाल्टी में हाथ धोते हुए, थके स्वर में कहा। "यह थकाऊ है, लेकिन यही हमारी रोज़ी-रोटी है।" जिन मछली बाज़ारों में लीला और उसकी पड़ोसी सुनीता मछलियां बेचती हैं, वे खराब हालात में हैं। "मुझे 8-9 घंटे के काम के लिए सिर्फ ₹500-600 मिलते हैं। न तो शौचालय है, न खड़े होने लायक सही जगह," सुनीता ने उदासी से कहा।
ये महिलाएं मुंबई के मछली व्यवसाय का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, फिर भी वे भयानक परिस्थितियों में काम करती हैं। ऑनलाइन किराना दुकानों ने भी बिक्री को नुकसान पहुंचाया है। "लोग अब सुबह-सुबह मुश्किल से आते हैं," लीला ने कहा। वह सवाल करती हैं, "और ससून डॉक में कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं। न शौचालय, न पीने का पानी। हमें ऐसे काम कैसे करना चाहिए?"
कोली समुदाय के विद्वान कैलाश तांडेल, जिन्होंने आईआईटी बॉम्बे से पीएचडी की है, बताते हैं, "हमारे समुदाय की महिलाएं बाजार में मछली साफ करने और बेचने में लगी हैं। लेकिन बाज़ार टूट चुका है, और उन्हें अभी तक कोई वैकल्पिक जगह नहीं दी गई। मछली साफ करने की जगह नहीं, कोई सुविधाएं नहीं।"
सुबह 5 बजे तक, उसकी साधारण दुकान तैयार थी। बाजार रंगों और आवाज़ों का मेल था—कोली महिलाओं की चमकीली साड़ियां, विक्रेताओं की पुकारें, और मछलियों की फड़फड़ाहट। लीला ने इस शोर में शामिल होकर अपनी मछलियों का ज़ोर-ज़ोर से विज्ञापन किया। लेकिन बाज़ार की सामान्य लय बदल रही है। ऑनलाइन खरीदारी के उदय ने भीड़ को कम किया है और मुनाफे को घटा दिया है। "अब यहां ज़्यादा लोग नहीं आते। वे ऑनलाइन ऑर्डर कर देते हैं," लीला ने चिंतित स्वर में कहा। सुविधा के वादे वाला डिजिटल युग इन पारंपरिक विक्रेताओं के लिए एक नई चुनौती है।
लीला, अपनी साथी मछुआरनों की तरह, ऑनलाइन भुगतान का उपयोग नहीं कर पातीं, डिजिटल लेनदेन के लिए परिवार पर निर्भर रहती हैं। सुबह बीत गई, सूरज ऊपर चढ़ता गया, बाज़ार पर तेज़ धूप पड़ने लगी। सुबह 10 बजे तक, लीला का काम पूरा हो गया। घर जाने से पहले, उन्होंने और उनकी सहेलियों ने चाय की चुस्की और गपशप का एक छोटा सा पल बिताया। लंबी सुबह के बाद थोड़ी राहत। बाज़ार से वापस चलते हुए उसने दिन के बारे में सोचा। कम आमदनी, कम ग्राहक, और शहर का लगातार बढ़ना। "मुझे नहीं पता कि हम कैसे जीवित रहेंगे," उन्होंने चिंता को मुस्कान के पीछे छिपाते हुए कहा।
लीला को जल्दी घर जाना है। उनके बच्चे स्कूल के गेट पर इंतज़ार कर रहे होंगे। लेकिन एक बात वह निश्चित जानती हैं। "हमने हमेशा इस समुद्र को पाला है मैं इससे दूर रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती।" उन्होंने बिना बिकी मछलियां समेटीं, दिन का बोझ उनके कंधों पर था। लेकिन उनका दिन अभी खत्म नहीं हुआ था। घर इंतज़ार कर रहा है। खाना बनाना, बच्चों को स्कूल से लाना, घर संभालना। लीला का जीवन संतुलन बनाने का नाम का है, जहां वे लगातार भूमिकाएं बदलती रहती हैं, कभी मछुआरन, तो कभी पत्नी, कभी बस मां।
उनके पति, गणेश, समुद्र पर थे। उनका जीवन ज्वार-भाटे से नियंत्रित होता है, जैसे लीला का बाज़ार से। "हमारे लिए यह सामान्य है," लीला ने समझाया। "हमारे काम बंटे हुए हैं। वह मछलियां लाते हैं, मैं बेचती हूं। मैं अपने बच्चों के अलावा चार और लोगों की देखभाल करती हूं।" यह साझेदारी आवश्यकता और परंपरा से बनी है, एक-दूसरे पर निर्भरता का नाज़ुक नृत्य। शाम होते-होते, लीला मछिमार नगर के किनारे खड़ी, मछली लेकर लौटती नावों की रोशनी को देख रही थी। गणेश की नाव अभी भी कई दिन दूर थी, लेकिन यह चक्र कल फिर शुरू होगा।
शिवाजी विश्वविद्यालय के डॉ. समीर जाले के शोध के अनुसार, साल 2010 के बाद से उनकी औसत आय में 30% तक की गिरावट आई है, फिर भी भारतीय राज्य उनकी आर्थिक कमज़ोरी को पर्याप्त रूप से स्वीकार नहीं करता। मुंबई की 200,000 कोली आबादी में से दो-तिहाई से अधिक महिलाएं हैं, लेकिन शहर की राजनीतिक प्रक्रियाओं में उनकी आवाज़ शायद ही शामिल होती है। इन चुनौतियों के बावजूद, कोली महिलाएं आज भी आर्थिक और घरेलू रूप से स्वतंत्र हैं। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो पुरुष-प्रधान देश में दुर्लभ है।
"समुद्र देता है और ले लेता है," उसने पीढ़ियों के ज्ञान से भरी आवाज़ में कहा। "लेकिन हम कोली, हम टिके रहते हैं।" मुंबई की ऊंची इमारतें तेज़ी से बदलते शहर का प्रतीक हैं। लीला जैसी कोली महिलाएं यहां मज़बूती से खड़ी हैं, उनकी चमकीली साड़ियां आधुनिक जीवन के बढ़ते समुद्र में परंपरा का एक विद्रोही रंग हैं। वे सिर्फ मछली बेचने वाली औरतें नहीं है, एक विरासत की संरक्षक हैं। उनकी ताकत समुद्र जितनी गहरी और स्थायी है।
शाम को जब शहर की रोशनियां टिमटिमाने लगीं, लीला जानती थी कि कल वह फिर ससून डॉक पर होगी, ज्वार जो कुछ भी लेकर आए, उसका सामना करने को तैयार।

