हिमालय में सूख रहे प्राकृतिक जल स्रोत
हिमालय अपने जल संसाधनों, वन विविधता, अद्वितीय वन्य जीवन, समृद्ध संस्कृति और पवित्र हिंदू तीर्थस्थल के लिए प्रसिद्ध रहा है। विभिन्न बारहमासी नदियों का निवास स्थान होने के कारण हिमालय को एशिया का जल मीनार माना जाता है। गंगा और यमुना देश की दो सबसे पवित्र नदियाँ हैं इन प्रमुख नदियों के स्रोत गढ़वाल हिमालय (उत्तराखंड) में हैं और इस क्षेत्र को बहुत प्राचीन काल से तीर्थ यात्रा का केंद्र बनाते हैं। इन नदियों को देश की बड़ी आबादी के लिए जीवन माना गया है, जो न केवल उनकी पेयजल और खाद्य सुरक्षा की प्राथमिक जरूरतों को पूरा करती हैं, बल्कि अनुष्ठान, नेविगेशन, ऊर्जा और अन्य विकासात्मक गतिविधियों को करने के साथ उनकी अन्य संबंधित जरूरतों को भी पूरा करती हैं। लेकिन, विडंबना यह है कि जल मीनार माने जाने वाले गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र में निवास करने वाले पहाड़ के लोगों को अक्सर पानी की कमी की स्थिति और पर्वतीय क्षेत्र के लिए सरकार की अपर्याप्त और आप्रकृतिक योजना का सामना करना पड़ता है। पानी जीवन को बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में से एक है,और आने वाले दशकों में इसकी मांग में निरंतर वृद्धि होगी क्योंकि बढ़ती जनसंख्या और देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण इसके गंभीर रूप से दुर्लभ होने की पूरी संभावना है। वही हालही में जल संस्था की रिपोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है।
उत्तराखडं जल संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में लगभग 461 झरनों का पानी जिसे स्थानीय भाषा में "गदेरा" कहा जाता है। वह वर्ष 2018 और 2019 के बीच कम से कम 10% तक सूख चुके है। 2018 में जिन 4,626 प्राकृतिक जल स्रोतों का विश्लेषण किया गया था, उनमें से 461 में 76% में अधिक में सूखा दर्ज किया गया है । जबकि 1,290 में 51 से 75% से अधिक सूख चुके है। लेकिन साल 2019 में यह स्थिति और ख़राब हो गई. और 4,645 जल स्रोतों में से 1,253 51-75% से ऊपर और 403 में 76% से अधिक सूख चुके है । वही अधिकारियों ने इस पूरी स्थिति का जिम्मेदार कम बारिश और मानवीय दखल जैसे प्राकृतिक कारणों को ठहराया है।
गदेरे पहाड़ियों में पाए जाने वाले प्राकृतिक जल स्रोत होते है और इन्हे पर्वतीय इलाकों में पानी का मुख्य स्रोत नौले-धारे भी कहा जाता है । अध्ययन में इन झरनों में पानी के निर्वहन में कमी देखी गई, जिससे कुछ हद तक ग्रामीण जल आपूर्ति भी प्रभावित हुई है। जल संस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हर साल गर्मी को मात देने के लिए पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए फंड मांगा जाता है. इस साल करीब 15 करोड़ रुपये मांगे गए हैं जबकि पिछले साल विभाग ने 10 करोड़ रुपये और पिछले साल आठ करोड़ रुपये मांगे थे।
जल स्त्रोतों को बचाने के लिए उठाये ये कदम
सदियों पहले कश्यप ऋषि ने पानी और जंगलों के बीच सहजीवी संबंधों का निरूपण किया था। इन संसाधनों के लिए समन्वित प्रबंधन की जरूरत होती है। आजकल जल संसाधनों के प्रबंधन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से अभियंताओं की होती है, जिन्हें जीवन पद्धतियों की कोई समझ नहीं होती। उन्हें केवल जल के दोहन का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। अतः कम से कम इतना तो होना चाहिए कि जल प्रबंधन की एजेंसियों को इंजीनियरों के साथ ही फाॅरेस्टर को भी साथ रखना चाहिए।
पूरे राज्य में जलागम क्षेत्रों को पुनः बहाल किया जाना चाहिए। ऊपरी ढलानों पर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों को लगाने के साथ बड़े पैमाने पर वनीकरण किया जाना चाहिए। चीड़ के पेड़ों का वैज्ञानिक आधार पर कटान कर उनके स्थान पर चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए। साथ ही जंगल में वर्षा जल के संचयन के लिए नालियाँ भी खोदी जानी चाहिए और रिसाव रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। परम्परागत जल संचयन के ढाँचों और उनके जलागम क्षेत्र को बहाल किया जाना चाहिए। जल संचयन के ढाँचे और उसके जलागम क्षेत्र को बहाल करने के लिए प्रायः 50,000 रु. ही खर्च करने होते हैं। ऐसे ढाँचों से कम से कम 25 से 50 परिवारों को साल भर पानी मिल सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जल का स्थाई स्रोत पाने के लिए हमें प्रति व्यक्ति 500 रु. से अधिक खर्च नहीं करने होते हैं।
वर्षा जल संचयन के लिए समाज को स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक आगे आना होगा। समाज को सक्रिय करने में भूमिका निभा चुके स्वयंसेवी संगठनों को ऐसे कामों में नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। कई व्यक्तियों, समुदायों और संगठनों ने पहले भी उत्तराखंड में टिकाऊ वर्षा जल संचयन प्रणाली तैयार करने में मार्गदर्शी काम किया है। सच्चिदानन्द भारती के नेतृत्व में दूधातोली लोक विकास संस्थान ने उत्तराखंड में विशाल जल संरक्षण क्षेत्र का निर्माण किया है और सूख चुकी जल धारा को बहाल किया है। बीसियों गाँवों के महिला मंगल दलों ने व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्र के जंगलों के संरक्षण का व्रत लिया है। पिछली गर्मियों में पौड़ी और चमोली जिलों में कई लोगों ने जंगलों की आग बुझाने के प्रयास में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सुरईखेत के एक शिक्षक मोहन चन्द्र काण्डपाल ने कई ग्रामीण समुदायों को अपने जल संचयन ढांचों को और जलागम क्षेत्रों को बनाये रखने के लिए प्रेरित किया है।
वनों का संरक्षण वन विभागों द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए समुदायों की भागीदारी आवश्यक है। परन्तु वन संरक्षण का अर्थ है कि स्थानीय समुदायों के लिए जलावन की लकड़ी और चारे के लिए ज्यादा कठिनाई और जंगल से होकर छोटे रास्तों के बजाय लम्बे रास्तों से आना-जाना तथा अन्य प्रकार की कठिनाइयाँ। पहाड़ के गाँवों में वन संरक्षण को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए कि स्थानीय समुदाय बाकी राष्ट्र को पर्यावरण व परिस्थितिकी सेवा दे रहे हैं। उन्हें इन सेवाओं के बदले में भुगतान मिलना चाहिए। वनों को कार्बन कचराघर के रूप में जाना जाता है। कार्बन ट्रेडिंग को स्थानीय लोगों को अपने वनों के संरक्षण की एवज में पुरस्कृत करने के लिए एक वित्तीय प्रोत्साहन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। यह दिखाने के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि संस्कार, संस्कृति और नीति से उत्तराखंड में परम्परागत रूप से वर्षा जल संरक्षण होता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय स्वायत्तता के कारण ही परम्परा बनी रही। स्थानीय समुदायों को अपने प्रकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल व प्रबंधन में स्वामित्व प्राप्त था। इससे समन्वित संसाधन प्रबंधन संभव हुआ और प्राकृतिक प्रणाली की अधिकतम उत्पादकताएँ सुनिश्चित हो सकीं। आजकल प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन ऐसे अनेक सरकारी विभागों का विशेषाधिकार है जिनके बीच आपस में कोई समन्वय नहीं होता। संसाधन प्रबंधन के समूचे संस्थागत, वैधानिक एवं नीतिगत ढांचे की समीक्षा करने और उसे सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। यह ध्यान में रखी जानी चाहिए कि हमें किसान अनाज देते हैं, कृषि विभाग के अधिकारी नहीं। किसानों को स्वायत्तता प्राप्त है और विभाग उन्हें सुविधाएँ देने का काम करते हैं। उदारीकरण की अवधारणा का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में भी किये जाने की आवश्यकता है।