पानी का अपव्यय खतरे की घंटी

पानी का अपव्यय खतरे की घंटी

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जल ही जीवन है, चाहे बात पेयजल की हो या खेतों में सिंचाई की जरूरत को पूरा करने की हो। सामान्य तौर पर देखने से ऐसा लगता है कि भारत में खेती, पीने के लिये पानी की कमी नहीं है। किन्तु वास्तविकता यह है कि बड़ा क्षेत्र सिंचाई के लिये भूजल पर निर्भर है और भूजल स्तर लगातार तथा तेजी से नीचे गिरते हुए चिन्ताजनक ​स्थिति में पहुँच गया है।

भारतीय भूभाग के 51 फीसदी ज़मीन पर फसलें बोई जाती हैं। वर्तमान में देश में शुद्ध बोया गया क्षेत्र 16.2 करोड़ हेक्टेयर है। देश का समस्त सिंचित क्षेत्र 8 करोड़ हेक्टेयर है लेकिन 4.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है, 56 प्रतिशत कृ​षि योग्य भूमि अभी भी वर्षाजल पर निर्भर है। यह स्थिति तब है ​जब कृषि से 60 फीसदी से अधिक आबादी जुड़ी हुई है।

अमेरिकी अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन नासा के उपग्रह प्रयोग आँकड़ों के मुता​बिक, सिंधु नदी घाटी क्षेत्र से जुड़े भारत और पाकिस्तान के इलाकों में भूजल का काफी दोहन हुआ है और यह नीचे गई है।

जल संसाधन मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, 1993 से 2001 के दौरान भूजल के स्तर में 6 प्रतिशत तक की गिरावट आई और यह 10 मीटर तक​ नीचे गया है। दक्षिण, पश्चिम और मध्य भारत में भूजल स्तर में ज्यादा गिरावट देखी गई है।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अध्ययन के मुताबिक, 2003 से 2012 के दौरान देश में 56 प्रतिशत कुओं में जलस्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई है। 10219 कुओं का अध्ययन किया गया ​जिसमें से 5691 कुओं में जलस्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई। इसमें तमिलनाडु, पंजाब, केरल, कर्नाटक, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली शामिल हैं।

भूजल सिंचाई का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होता है और वह देश की 50% से अधिक सिंचाई की पूर्ति करता है।

कुल सिंचित क्षेत्रफल के आधे से अधिक भाग पर सिंचाई के छोटे साधनों- कुएँ, तालाब, झीलें, जलाशय, बाँध, नलकूप, मिट्टी के कच्चे बाँध, नल तथा जलस्रोतों द्वारा सिंचाई की जाती है। शेष भाग की सिंचाई बड़े साधनों, यथा- नहरों, नालियों आदि के माध्यम से की जाती है।

देश में बढ़ती जनसंख्या, बड़े पैमाने पर शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण आजादी के समय जहाँ देश में प्रति व्यक्ति 5,277 घनमीटर पानी उपलब्ध था वह अब घटकर मात्र 1,869 घनमीटर से भी कम रह गया है। तालाबों और जलाशयों में पानी की निरन्तर हो रही कमी को देखते हुए आने वाले समय में स्थिति और भी गम्भीर हो सकती है।

यह चिन्ताजनक स्थिति है कि स्वतंत्रता के पाँच दशक बाद भी हमारे देश में लगभग 9 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत भाग अर्द्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1,750 लाख हेक्टेयर है जिसकी सिंचाई के लिये 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है।

पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें वर्ष 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी जिसमें उद्योगों के लिये 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिये 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है।

केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने देश भर में 162 ऐसे क्षेत्रों को अधिसूचित किया है जहाँ वार्षिक जल भराव के मुकाबले जल निकासी अधिक है और इसके कारण भूजल स्तर में गिरावट आ रही है।

जल संसाधन राज्य मंत्री सांवर लाल जाट ने आज लोकसभा में बताया था कि इस सूची में 44 क्षेत्रों के साथ पंजाब शीर्ष पर और 34 क्षेत्रों के साथ राजस्थान दूसरे नम्बर पर है। उन्होंने बताया था कि इन 162 अधिसूचित क्षेत्रों में केवल पीने के पानी के अलावा किसी भी अन्य मकसद के लिये मशीन के जरिए जमीन से पानी खींचने की अनुमति नहीं है।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाके में भूजल स्तर प्रतिवर्ष लगभग एक मीटर तक नीचे जा रहा है। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आदि प्रदेश में भी भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है।

भारत में कुल वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है। अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा भी प्रयोग कर लिया जाये तो स्थिति में व्यापक बदलाव आना तय है।

जल संरक्षण, घटते भूजल स्तर को रोकने व जल सरंक्षण को बढ़ावा देने एवं प्रबन्धन को सुदृढ़ बनाने के लिये सरकार ने सभी पक्षकारों को शामिल करते हुए एक व्यापक एवं एकीकृत ‘जल क्रान्ति अभियान’ की योजना बनाई है। इसके तहत देश के 672 जिलों में प्रत्येक में जल की कमी वाले कम-से-कम एक गाँव में जल का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिये ‘जल ग्राम योजना’ शुरू की है।

जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि 2015-16 के दौरान जल संरक्षण एवं प्रबन्धन को सुदृढ़ बनाने के लिये सभी पक्षकारों को शामिल करते हुए एक व्यापक एवं एकीकृत दृष्टिकोण अपनाते हुए जल क्रान्ति अभियान का आयोजन किया जाएगा ताकि यह एक जन आन्दोलन बन सके।

पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें वर्ष 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी जिसमें उद्योगों के लिये 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिये 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है। केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने देश भर में 162 ऐसे क्षेत्रों को अधिसूचित किया है जहाँ वार्षिक जल भराव के मुकाबले जल निकासी अधिक है और इसके कारण भूजल स्तर में गिरावट आ रही है।मंत्रालय के दृष्टि पत्र में कहा गया है कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या तथा तेजी से विकास कर रहे राष्ट्र की बढ़ती आवश्यकताओं के साथ जलवायु परिवर्तन के सम्भावित प्रतिकूल प्रभाव के मद्देनज़र जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता प्रतिवर्ष कम होती जा रही है। जल की तेजी से बढ़ती माँग को देखते हुए अगर समय रहते इसका समाधान नहीं निकाला गया तो जल के विभिन्न प्रयोक्ताओं एवं जल बेसिन राज्यों के बीच जल के लिये विवाद उत्पन्न हो जाएगा।

देश के अनेक शहरों में तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ, झीलें आदि परम्परागत जलस्रोतों की ऐसी समृद्ध विरासत रही है जो सदियों से वर्षाजल को संजोती रही और भूमिगत जलस्तर को रिचार्ज करती रही। अंधाधुंध शहरीकरण और नागरिकों की लापरवाही व प्रशासनिक उपेक्षा ने इन जलस्रोतों के साथ खिलवाड़ किया है। यहाँ तक कि कई स्रोत अब मृतप्राय हो गए हैं।

इन जलस्रोतों को भरकर उन पर निर्माण कार्य हुए, उनके जलग्रहण क्षेत्रों में निर्माण कार्य हुए, जल के आवक–जावक रास्ते निर्माण कार्यों के चलते अवरुद्ध हुए। कई जलस्रोत तो कचरे का गड्ढा मानकर कूड़े से भर दिये गए, कई अवैध कब्जों का शिकार हुए।

मिट्टी-गाद भर जाने से उनकी जल ग्रहण क्षमता समाप्त हो गई और समय के साथ-साथ टूट-फूट गए। इनमें से कई परम्परागत जलस्रोतों को आज पुनर्जीवित किया जा सकता है और वर्षा जल संचय की समृद्ध संस्कृति को सजीव किया जा सकता है।

आधुनिक वर्षाजल संचयन प्रणालियाँ भी विभिन्न शहरों में लगाई जा रही हैं। दिल्ली में जून 2001 में सौ स्क्वॉयर मीटर के क्षेत्रफल वाली इमारतों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त भूमिगत जलस्तर जहाँ बहुत नीचे चला गया है, वहाँ भी वर्षाजल संचयन को सरकार ने अनिवार्य घोषित किया है।

कुछ रिहायशी कॉलोनियाँ स्वयं पहल करके इन्हें अपने घरों, अपार्टमेंटों में लगवा रही हैं। फिर भी अभी इसके व्यापक प्रसार की जरूरत है और इस सन्दर्भ में प्रशासन व आम नागरिकों में जुझारू इच्छाशक्ति व सहयोग विकसित होना चाहिए। साथ ही शहरी विकास में पेड़ों के संरक्षण और वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

जल संचयन के कार्य में जस्ता चढ़े लोहे के तारों के जाल और पॉलीथीन के बोरों का नवीन प्रयोग किया गया है। यह तरीका किफायती है और भारतीय परिस्थितियों में उपयोगी भी।

आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-संरक्षण का एक बड़ा कार्यक्रम चलाया गया है।

नदी अपने जल में भूजल से भी योगदान लेती है साथ ही भूजल को योगदान देती भी है। ताल, झील और बाँधों के इर्द-गिर्द भूजल की सहज सुलभता का कारण यही है कि ये ठहरे हुए जलस्रोत आहिस्ता-आहिस्ता अपना पानी इन भूमिगत प्राकृतिक जल संग्रहालयों को प्रदान करते रहते हैं।

इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर बहने वाले जलस्रोत और भूमिगत जलस्रोत एक दूसरे की सहायता पर निर्भर होते हैं। वर्षा का जल यदि संग्रहित कर चट्टानों तक पहुँचाया जाये तो भूमिगत जलाशयों को भरा जा सकता है।

प्रकृति अपने सामान्य क्रम में यह कार्य करती रहती है, किन्तु आज जब यह समस्या विकराल है तो मनुष्य के लिये अभियान बनाकर यह कार्य करना आवश्यक हो गया है। इस अभियान का प्रमुख उद्देश्य जल को जीवन मानकर बचाया जाना और सरल वैज्ञानिक विधियों द्वारा इसे भूमि के भीतर पहुँचाया जाना है जिसमें हम सभी को जुटना होगा।

जरूरत ऐसी सरकारी नीतियों के ठोस कार्यान्वन और नागरिकों की ऐसी जागरुकता की है जो हर सम्भव तरीके से शहरों को मिलने वाली वर्षाजल की इस अनमोल विरासत को संजोए।

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