संकट में भारत का भूमिगत जल

संकट में भारत का भूमिगत जल

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इसे भारत की कुछ अनजानी विडंबनाओं में से एक कह सकते हैं। पिछले कुछ सालों में भारतीय राज्य ने सार्वजनिक सिंचाई एजेंसियों के माध्यम से सतही जल प्रणाली का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया है। इसने सिंचाई प्रणालियों-बांध, तालाब, नहर आदि के निर्माण, इनके रख-रखाव और पानी की आपूर्ति का काम संभाल लिया है। इसका अर्थ यह है कि इसने पिछले कुछ सालों में जल संसाधनों को ग्रामीण समुदायों से लेकर अपने पास रख लिया है। विडंबना यह है कि राज्य ने यह अधिकार ले लिया है, फिर भी लोगों ने पानी अपने नियंत्रण में रखा है। हर व्यक्ति के ज़मीन के नीचे का पानी, उसके अधीन है और देश में ज्यादातर ज़मीन पर सिंचाई उसी पानी से होती है। इसका अर्थ है कि सरकार का नियंत्रण एक भ्रम मात्र है।

फिलहाल अपने देश के सिंचित इलाके के तीन-चौथाई क्षेत्र में भूमिगत जल से सिंचाई होती है, सतही जल से नहीं। इस जल से सिंचाई का बुनियादी ढाँचा किसी भी तरह से कर्ज के माध्यम से धन जुटा-कर (धनी और गरीब) सभी किसानों ने बना लिया है। इससे यह बहस तो हो सकती है कि राज्य की ओर से संस्थागत मदद न मिलने के कारण साहूकारों या कर्जदाता एजेंसियों के चंगुल में फंसे हुए हैं और उनकी गरीबी बरकरार है। लेकिन हकीक़त यह भी है कि हाल में हुए तीसरे लघु सिंचाई जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि इस समय देश में एक करोड़ 90 लाख कुएँ और गहरे ट्यूबवेल हैं।

लेकिन पानी के शासन को समझने के लिए हमें अनिवार्य रुप से यह समझना होगा कि क्यों सिंचाई का अर्थशास्त्र मौजूद तकनीक की सीमाओं से जुड़ा हुआ है। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि यहाँ इसका असर दूसरे क्षेत्रों मसलन ऊर्जा उत्पादन, बिजली आपूर्ति आदि में भी देखने को मिलता है। यह मान लिया गया है कि पानी के लिए बुनियादी ढांचे के बढ़ते खर्च और राज्य के निवेश में आने वाली कमी की वजह से संदिग्ध हो गया है। 10वीं योजना की मध्यावधि समीक्षा में बताया गया है कि सिंचाई की सुविधा के विस्तार का पूंजीगत खर्च प्रति हेक्टेयर 40 हजार रुपए से बढ़ कर ढाई लाख रुपए हो गया है और भंडारण की सुविधा की जरूरत पिछले एक दशक में दोगुनी हो गई है। इसमें विस्थापितों के पुनर्वास और जैव विविधता के क्षरण की भरपाई में खर्च होने वाली रकम को नहीं जोड़ा गया है।

जैसे-जैसे सिंचाई के बुनियादी ढांचे के निर्माण का खर्च बढ़ता गया, किसानों से इसके लागत खर्च और इसके रख-रखाव के खर्च की वसूली संभव नहीं रही। ज्यादातर राज्यों में सिंचाई के काम देखने वाली एजेंसियाँ पिछले साल रख-रखाव के खर्च का महज 30 फीसदी ही किसानों से वसूल पाईं। इसकी वजह से उनका क्षरण होने लगा। आज स्थिति यह है कि भूमिगत जल से संचालित नहरों की हालत खराब है और उनकी मरम्मत की बेहद सख्त जरूरत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि सिंचाई के बुनियादी ढाँचे की क्षमता और इसके वास्तविक इस्तेमाल के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। यह सिमट कर एक करोड़ 40 लाख हेक्टेयर रह गया है, जो कुल क्षमता का महज 20 फीसदी है। दूसरी ओर सतही जल से सिंचाई के सिस्टम में पानी ढोकर काफी दूर ले जाना होता है वह भी घाटे में हैं और अक्षम साबित हो चुका है। एक अनुमान के मुताबिक सतही सिंचाई प्रणाली 35-40 फीसदी क्षमता से काम कर रही है।

चूंकि पूँजी और संसाधनों की कमी है इसलिए सभी तक सुविधा पहुंचाना संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि 45 फीसदी खाद्यान्न का उत्पादन उन इलाकों में होता है, जहां बारिश के पानी से सिंचाई होती है। ग़रीबों का जीवन इसी उत्पादन से चलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सतही सिंचाई प्रणाली में किए गए निवेश ने समृद्धि के चंद टापू तैयार किए, लेकिन स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में बहुत कम योगदान किया।

पारंपरिक प्रणालियों में वर्षा के पानी को रोकने के हजारों माध्यम होते थे और विभिन्न किस्म की संरचनाएं होती थीं, जो अब विलुप्त प्राय है। स्पष्ट है कि हमें इसके अर्थशास्त्र को समझने के लिए तकनीक की राजनीति को समझना होगा।

इसी वजह से भूमिगत सिंचाई की प्रणाली शुरू हुई। यह सफल रही क्योंकि यह लोगों के हाथ में था। वे अपनी जरूरत के समय इसका इस्तेमाल कर सकते थे। अगर उनके टयूबवेल चलाने के लिए बिजली नहीं है तो वे डीजल से मशीन चलाते हैं या भाड़े पर जेनरेटर ले आते हैं और ज़मीन से पानी खींचते हैं। यह जानी हुई हकीक़त है कि जो जितना सक्षम किसान है वह भूमिगत जल का उतना ही आसानी से इस्तेमाल करता है। इसका खर्च बहुत कम है क्योंकि यह आपस में मिलजुल कर इस्तेमाल करता है। इसका खर्च बहुत कम है क्योंकि यह आसानी से स्थानीय स्तर पर उपलब्ध है। कई मायने में भूमिगत जल के जरिए होने वाली सिंचाई सबसे बेहतर विवरण का विकेंद्रित विकल्प है, लेकिन इसकी शर्त यह है कि इसका प्रबंध समझदारी से हो। इस संसाधन के सघन इस्तेमाल का अनिवार्य नतीजा यह हुआ कि पूरे देश में भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिरा है। तकनीक ने ज्यादा से ज्यादा गहराई से पानी खींचने की सुविधा दी है और सब्सिडी से मिलने वाली ऊर्जा ने उन्हें ज्यादा पानी खींचने के लिए प्रेरित किया है। अध्ययन बताते हैं कि जहां सस्ती बिजली उपलब्ध है, वहां हर फसल के लिए दोगुना पानी खींचा गया है, उन जगहों के मुकाबले जहां डीजल के इस्तेमाल से पानी खींचा जाता है।

हम कानून बना कर इस इस्तेमाल को नियंत्रित कर सकते हैं। एक करोड़ 90 लाख उपभोक्ताओं को नियंत्रित करना मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं है। हमें यह समझना होगा कि भूमिगत जल एक सीमित संसाधन है और इसके लिए कुओं को रीचार्ज करने की जरूरत होती है इसलिए इसे एक स्थायी संसाधन बनाए रखने के लिए इसका सालाना इस्तेमाल सीमित करना होगा। दूसरे शब्दों में हमें भूमिगत जल का इस्तेमाल बैंक की तरह करना होगा यानी इसका ब्याज इस्तेमाल करें और मूल धन को बचाए रखें।

लेकिन यहां विडंबना दोहरी हो जाती है। एक तरफ सिंचाई की सतही प्रणाली की जगह भूमिगत जल की प्रणाली ने ले ली है और दूसरी ओर सिंचाई के अन्य साधन जैसे कुएँ, तालाब और समुदाय आधारित विकेंद्रित वाटर-हार्वेस्टिंग सिस्टम में गिरावट आई है। जबकि हकीक़त यह है कि ये साधन भूमिगत जल को रीचार्ज करने में भी काफी मददगार होते हैं। इसका मतलब है कि हम जमीन के नीचे से ज्यादा से ज्यादा पानी खींच रहे हैं और उसे कम से कम रीचार्ज कर रहे हैं। अगर अपनी पारंपरिक प्रणालियों का सम्मान नहीं करेंगे, तो हमारे पानी का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। पारंपरिक प्रणालियों में वर्षा के पानी को रोकने के हजारों माध्यम होते थे और विभिन्न किस्म की संरचनाएं होती थीं, जो अब विलुप्त प्राय है। स्पष्ट है कि हमें इसके अर्थशास्त्र को समझने के लिए तकनीक की राजनीति को समझना होगा।

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