उत्तराखंड में जल संरक्षण एवं संवर्धन की प्रासंगिकता
जल प्रकृति का अनुपम उपहार है। मान्यता है कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति जल से ही हुई। जीवनदाता जल की मानव ही नहीं अपितु समस्त जीव-जंतु, वनस्पतियों के लिये कितनी अधिक उपयोगिता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है, तभी तो कहते हैं- "जल ही जीवन है"। जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती, जल और जीवन का अटूट सम्बन्ध है। जल तत्व वाष्प और बादल के रूप में आकाश में विद्यमान रहता है, वे बादल बरसकर पृथ्वी पर झरनों, नदियों में मिलकर गतिशील तथा तालाबों, कुओं, समुद्र आदि में संचित होकर अनेक प्रकार से प्राणी मात्र ही नहीं अपितु प्रकृति का भी कल्याण करता है, इसीलिये वेदों में देवता मानकर जल की स्तुति की गई है-
या आपो दिव्या उत्त वा सवन्ति, खनित्रिमाउत वा या स्वयंजाः । समुद्रायाः याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।।
ऋग्वेद-(7/49/2)
किसी भी राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक समृद्धि के लिये घरेलू उपयोग के समान ही स्वच्छ जल जरूरी होता है, तभी उसका समुचित लाभ मिल पाता है। जहां तक उत्तराखण्ड राज्य की बात है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि एक समय था जब यहां अनेक प्राकृतिक जल स्रोत उपलब्ध थे, नदियां, गाड़-गधेरे, धारे, कुंए, नीले, झरने चाल-खाल, झील, ताल आदि बहुतायत से उपलब्ध थे, इन प्राकृतिक जल संसाधनों की अधिकता एवं बहुत बड़े भू भाग में फैले सघन वन क्षेत्र को मध्यनजर रखते हुये लकड़ी और पानी की कमी की कल्पना तक भी नहीं की जाती थी, तभी तो गढ़वाली जनमानस में एक लोकोक्ति प्रचलित थी कि "हौर घाँणि का त गरीब ह्वया-ह्वया पर लाखहु-पाणि का भि गरीब ह्वया"। अर्थात अन्य वस्तुओं की कमी (गरीबी) तो सम्भव है लेकिन लकड़ी और पानी की भी गरीबी हो सकती है? असम्भव ।।
तात्पर्य यह हैं कि नौ नवम्बर 2000 में बना भारत का सत्ताईसवां तथा ग्यारहवां हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड जो मध्य हिमालय नाम से भी जाना जाता है अतीत काल में बन एवम् जल संसाधनों से भरपूर था, लेकिन वर्तमान में स्थिति ठीक विपरीत है। वृक्षों का अनेक प्रकार एवम् उद्देश्यों से जहां बुरी तरह से दोहन होने के फलस्वरूप वन क्षेत्र सीमित हो गये हैं वहीं दूसरी तरफ वर्षा का वार्षिक औसत घटने, औद्योगिक क्रान्ति, जनसंख्या वृद्धि, खेती विस्तार, शहरीकरण, पर्यावरण प्रदूषण, वन-विनाश, जल संरक्षण, संवर्द्धन के प्रत्ति उदासीनता, जल प्रबन्धन के प्रति लापरवाही, भूकम्प आदि कारणों से प्राकृतिक जल स्रोत लुप्त प्रायः होते जा रहे हैं, जो भविष्य के लिये शुभ संकेत नहीं है।
यह बात तो स्पष्ट ही है कि जल संकट की जो स्थिति पैदा हुई उसमें प्राकृक्तिक कारणों की अपेक्षा मानवकृत कारण जैसे आगजनी, सड़कों-भवनों का निर्माण, कंकरीट के जंगलों का विस्तार, चीड़ प्रजाति के वृक्षों का रोपण जिनकी जड़े छोटी होने के कारण कम जल संग्रहण क्षमता रखती हैं तथा पर्यावरणीय दृष्टि से अनुपयोगी होने के साथ ही आग लगने का भी खतरा अधिक रहता है, वर्षा जल संग्रहण शक्ति से भरपूर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों का कटान, नैसर्गिक जलस्रोतों के जीर्णोद्वार के प्रति उदासीनता, वर्षाती जल का संग्रह न करना आदि-आदि की भूमिका महत्वपूर्ण है।
एक कहावत है- "जल है तो कल है"। ऐसा इसीलिये कहा गया है कि हमारे सारे क्रियाकलाप इसी के द्वारा संचालित होते हैं, पीना, नहाना, भोजन बनाना, खेती किसानी आदि सब कुछ। यदि यह तत्व नष्ट हो जाए तो कत्ल कोई नहीं देख पाएगा। शास्त्रों में तो जल को चिकित्सकीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बतलाकर देवरूप में स्तुति का विधान निर्धारित किया है-
आप इद्धा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः आपः सर्वस्य भेषजीस्ता स्तकृण्वन्तु भेषजम् ।।
ऋग्वेद-10/139/6
अन्यत्र भी वैदिक ग्रन्थों में यह प्रसंग मिलते हैं जिसमें जल की शुद्धता पर प्रकाश डालते हुये कहा है कि शुद्ध जल मनुष्यों के साथ ही पशुओं के लिये भी जरूरी है वे भी जिस प्रकार के जल का सेवन करते हैं उनके शरीर में उसी के अनुरूप तत्व विकसित होते हैं। जिससे जन्य भी प्रभावित हुये बिना नहीं रहते। उदाहरण के तौर पर एक दुधारू गाय-भैंस जैसा जल ग्रहण करेगी उसी के अनुसार उसके दूध में तत्व बनेंगे और जब हम उस दूध का सेवन करेंगे तो उसका अच्छा या बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ेगा, इसलिये शुद्ध जल हर एक प्राणी के लिये जरूरी है।
अब प्रश्न यह उठता है शुद्ध और अशुद्ध जल क्या, कहाँ और कैसा है? यह कहना उचित होगा कि वैसे तो सामान्यतः सभी जल शुद्ध ही होते हैं, मानव अपने कुकृत्यों, लापरवाही या जाने-अनजाने में उसे अमृत से जहर बना डालता है, जो हमारे लिये हीघातक सिद्ध होता है। मनुष्य की इस बुरी आदत पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हमारी भारतीय संस्कृति में जल को देवरूप में पूजने तथा उसकी जीवनदायनी शक्ति को यथावत रखने हेतु जल जलस्रोतों को दूषित न करने का संदेश दिया गया है-
नाप्सु मूत्रं पुरीषं वाष्टी वनं समुत्सृजेत् ।
अभेव्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा ।।
-मनुस्मृति-4-56
प्रदूषित होने पर जीवन देने वाला जल जीवन लेने वाला बन जाता है, इसलिये इस सन्देश को जन-जन तक पहुंचाने के लिये विश्व जल दिवस, पृथ्वी दिवस, विश्व पर्यावरण दिवस, गोष्ठियों, सेमिनारों एवम् अन्य कार्यक्रमों का सहारा लिया जाना चाहिये ताकि जन जागृति आ सके।
यह कहना अत्युक्ति न होगा कि जल हमारे जीवन, जीविकोपार्जन, खाद्यान्न-फल-फूल उत्पादन चिकित्सा, ऊर्जा उत्पादन, सतत विकास, पापों का क्षय करने आदि की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है, इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जल प्रबन्धन/संरक्षण/ संवर्द्धन की नितांत आवश्यकता है, जिसके लिये ठोस सुनियोजित जल नीति बनाकर तद्नुसार कार्य करना होगा, अन्यथा भयावह स्थिति से जूझना पड़गा।
उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में यह बात अत्यन्त चिन्तनीय है कि जहां एक ओर कम बर्फबारी होने से ग्लेशियर सिमटते जा रहे हैं, वर्षा औसत से कम एवं अनियमित हो रही है, प्राकृतिक जल स्रोत सूखते जा रहे हैं, जल से लबालब रहने वाली नदियों का जल स्तर घटता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, घरेलु खपत में वृद्धि, उद्योगों का विस्तार, कृषि कार्य में अधिक उपयोग, निर्माण कार्यों में वृद्धि जैसे अनेक कारणों से पानी की खपत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जिससे जल संकट की स्थिति पैदा हो रही है, ऐसी स्थिति में जल संरक्षण संवर्द्धन आवश्यक हो गया है।
पृथ्वी में जो जल है उसे मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं भू-जल और सत्तही जल। पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जो जल स्रोत होते हैं. जैसे नदियां, झरने, झीलें, तालाब, धारे आदि इन्हें सतही जत कहते हैं, इनमें वर्षाती जल एवम् बर्फ पिघलने से अक्सर जल आता है। भू-जल या भूमिगत जल उसे कहते हैं जो वर्षा वा बर्फ पिघलने के फलस्वरूप रिस-रिस कर कुंओं, बावड़ियों या धरती के अन्दर समा जाता है, जिसका उपयोग ट्यूबेल, नलकूप, हैण्डपम्प आदि के द्वारा पीने एवम् खेती-बाड़ी, निर्माण कार्य आदि के लिये किया जाता है।
भू-जल सस्ता एवं भरोसेमंद स्रोत है जो किसानों की आमदनी बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिन इलाकों में अन्य जलस्रोतों की कमी होती है वहां के लिये यह वरदान सिद्ध होता है।
यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जो वर्षा, जल का प्राथमिक स्वरूप और स्रोत होती है, भूजल तथा सतही जल जिस पर निर्भर रहता है, जल चक्र को नियमित रखती है, भौगोलिक एवम् मानव कृत्यों द्वारा उत्तराखण्ड में आए दिन कम होती जा रही है, जो यहां के जनमानस के लिये शुभ शकुन नहीं। वर्षा की अल्पता से जल प्रपात, धारे - नष्ट प्रायः हो गये हैं, चाल-खाल सूख चुके हैं, उन नदियों-नालों और गाड़-गदेरों में जलराशि अत्यधिक कम हो गयी है जो हिमाच्छादित पर्वतों से - निकलकर अपने में औषधीय • वनस्पतियों के तत्वों को समाहित कर - प्राणीमात्र के रोग, शोक, पापों को दूर - करते हैं। इस बात की पुष्टि वैदिक - ग्रन्थों के अवलोकन करने से होती है-
हिमवतः प्रसवन्ति सिच्ची समूह संगमः ।
- आपो ह महां तद् देवीर्ददन हृदघात भेषजम् ।।
अवर्ववेद-6/24/1
उत्तराखण्ड के लोग बड़े - भाग्यशाली हैं क्योंकि पतित पावनी - गंगा, यमुना, सरयू जैसी अनेक नदियां, • नैनीताल, भीमताल, चोरवाड़ी ताल, देवरियाताल आदि झीलें, अनेक ग्लेसियर, झरने इसी प्रदेश में विद्यमान हैं, लेकिन "जल बिच मीन प्यासी" उक्ति चरितार्थ होती है लोग जल संकट से संर्वषरत रहते हैं, खेती-बाड़ी निर्माण कार्य तो रहे दूर दैनिक दिनचर्या पीना, नहाना, कपड़े धोने के लिये भी पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं हो पाता। आखिर क्यों? इसके पीछे अनेक कारण हैं- इस प्रदेश के टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग, नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि जिले पहाड़ी हैं जहां की जमीन ढालदार है, बस्तियां ऊंचे स्थानों में भी विद्यमान हैं, नदियां, गाड़-गधेरे गहरी घाटियों में से होकर वर्षाती जल, ग्लेशियरों की पिघली हुई बरफ को अपने में मिलाकर मैदानी क्षेत्र की ओर बढ़ जाती हैं, इनका समुचित लाभ स्थानीय जनमानस को नहीं मिल पाता। जमीन के समतल न होने, वृक्षों के दोहन, भूमि पर सीमेण्ट के बिछने के परिणाम स्वरूप चाल-खाल आदि के साथ ही भू-जल स्तर को भी वर्षाती जल का आंशिक लाभ ही मिल पाता है जो ना के बराबर होता है। इस समस्या से निजात पाने के उद्देश्य से ही तो पहले हिमालय क्षेत्र के लोग वर्षा काल में क्यारियों का निर्माण कर उनमें पानी इकट्ठा करते थे, उसमें नमक डालकर जैविक कचरे से उन्हें ढक लेते थे, तापमान गिरने पर वह पानी बर्फ बन जाता था, तब लोग लम्बे समय तक उसका उपयोग कर पाते थे, वर्तमान में यह विधि उपयोगी जान पड़ती है।
नदियों के प्रदेश उत्तराखण्ड में जल की जो भयावह स्थिति मुंह बाए खड़ी है उससे मुक्ति पाने के लिये जल की एक-एक बूंद को बचाने का प्रयास किया जाना चाहिए, दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे कुछ भी असम्भव नहीं, जिसे व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास से साकार रूप न दिया जा सकता ही।
वर्तमान स्थिति को देखते हुये यह आवश्यक प्रतीत होता है कि पारम्परिक प्राकृतिक जल स्रोतों को बचाने, पुनर्जीवित करने के साथ ही नये जलाशयों को भी बनाया जाना चाहिये। यह कहने में संकोच नहीं कि जल संकट का समाधान जल सरंक्षण संवर्द्धन जल स्रोतों के उचित देख-रेख, प्रबन्धन और विस्तारीकरण में निहित है। विषम भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर पर्वतीय राज्यों के लिये पृथक जलनीति भी बनाई जानी चाहिए। साथ ही जल के प्रति जनमानस का जागरूक होना भी जरूरी है, मात्र नीति बना देना ही पर्याप्त नहीं उसका सही क्रियान्वयन भी आवश्यक है। प्राचीन और नवीन जल संरक्षण संवर्द्धन पद्धतियों को संयुक्त रूप में परिमार्जित रूप में अपनाकर लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
वर्षा के रूप में प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल का संरक्षण और भंडारण बहुत जरूरी है, जिसके लिये घर-घर में वर्षाती टैंक बनाये जाने चाहिये। इसके लिये घर के आस-पास या फर्श के नीचे कच्चा या पक्का टैंक बनाकर दैनिक कार्यों में अनेक प्रकार से उपयोग में ला सकते हैं, साथ ही कच्चे टैंक द्वारा भूजल स्तर में भी वृद्धि होगी। जिसका उपयोग हम बैंक में जमा धनराशि की तरह इच्छानुसार कर सकते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड जैसे पर्वतीय राज्यों में जल संकट की स्थिति पारम्परिक जलस्रोतों के सूखने के फलस्वरूप पैदा हुई, जिसके पीछे अवैज्ञानिक विकास कार्य मुख्य कारण है, अतः फिर से इस दिशा में सकारात्मक कार्य करने होंगे ऊंचे स्थानों से लेकर खाली पड़ी जमीन पर सघन वृक्षारोपण किया जाना चाहिये, विशेषकर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों का ताकि वर्षात के जो तीन-चार महीने हैं जब मूसलाधार वर्षा होती है, उसका पानी सीधे नीचे बहकर न जाय अपितु धीरे-धीरे रिसकर धरती में समाकर भू-जल में बढ़ोत्तरी कर संकट में सहायक हो सके। जो पारम्परिक चाल-खाल निर्माण कार्य द्वारा पाट दिवे गये थे, गाद भर जाने के कारण सूख गये थे, उनकी गाद निकाल कर पुनर्भरण के साथ ही नये चाल-खाल, तालाब खोदकर भूमि की सतह पर बह रहे वर्षाती जल को उनमें रोककर भू-जल और सतही जल बढ़ाने का कार्य करना होगा, इससे सूख चुके कुंए और बावड़ियां मी पुनर्जीवित हो जायेंगी। इन कच्चे पक्के जलाशयों के निर्माण के साथ ही रखरखाव पर भी विशेष ध्यान देना होगा।
यह बात सर्वविदित है कि उत्तराखण्ड में प्राकृतिक रूप से चाल-खाल, तालाब के लिये उपयुक्त स्थान हैं उनका चौड़ीकरण, गहरीकरण द्वारा जो विस्तारीकरण होगा उससे मनुष्य, जीव-जन्तु के साथ ही वनस्पतियों को भी पर्याप्त जल प्राप्त होगा, साथ ही कृषि, मत्स्यपालन, परिवहन, ऊर्जा उत्पादन, उद्योग-धन्धों के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इस दिशा में एक कदम वह भी उठाना होगा कि लोगों की प्राकृतिक जलस्रोतों के प्रति जो उदासीनता एवं उपेक्षाभाव है उसे नष्ट करने के साथ ही भूमि के अतिक्रमण, अवैध निर्माण पर रोक लगानी होगी ताकि वनभूमि, पारम्परिक प्राकृतिक जलस्रोत समाप्त होने से बच सके।
टपक सिंचाई पद्धति को अपनाकर भी जल संग्रहण संवर्द्धन में वृद्धि की जा सकती है। इसमें सीधे पाइप द्वारा पानी को फसलों की जड़ तक पहुंचाया जाता है, जिससे जल की बबांदी नहीं हो पाती। जिन स्थानों में अधिक जल संकट हो वहां इस विधि को अधिक अपनाया जाना चाहिये।
जिन स्थानों में जल पर्याप्त मात्रा से भी अधिक हो वहां से कम जल वाले स्थानों में जल का स्थानान्तरण कर समस्या का समाधान किया जा सकता है। शासन-प्रशासन को सख्त कानून बनाकर अनिवार्य रूप से प्रत्येक सदस्य से पौधा रोपण करवाया जाय ताकि वृक्ष, वर्षा वाले बादलों को अपनी ओर खींचकर जल संकट से मुक्ति दिलाने में सहायक बन सकें और भूक्षरण में भी कमी आ सके।
वर्षाती जल हो या अन्य जल वह व्यर्थ में नीचे न बहकर धरती में समाकर भूजल में वृद्धि करे उसके लिये यह जरूरी है कि लोग अपने घर के आंगन, आस-पास, गलियों, मार्गों में सीमेंट कंक्रीट का उपयोग न कर कच्चा ही रखें और अनिवार्य रूप से - घरों में सोख्ता टैंक बनायें।
वर्तमान परिस्थिति को देखते हुये भू-जल दोहन पर नियंत्रण लगाने के साथ ही उसके पुनर्भरण की व्यवस्था भी आवश्यक जान पड़ती है, इसमे बांधों के निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, साथ ही चैक डैमो की भी।
यद्यपि इस दिशा में केन्द्रीय भू-जल बोर्ड, केन्द्रीय जल आयोग, राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान जैसी संस्थाओं का गठन कर केन्द्र सरकार एवं प्रदेश सरकार भी अनेक योजनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रयासरत हैं, लेकिन हर जनमानस का सहयोग अपेक्षित है। इस दिशा में बच्चों को भी संस्कारवान बनाकर नये प्रयास भी करने होंगे ताकि जल संकट की समस्या से मुक्ति मिल सके।