पानी की संगठित बर्बादी पर बुंदेलखंड के 'वॉटर हीरो' सरपंच के सवाल
लोक-लुभावन राजनीति (Politics of Populism) के दौर में तर्क के लिए जगह नहीं होती। इस दौर में राजनेताओं द्वारा ऐसे नारे दिए अथवा घोषणाएं की जाती हैं, जो सुनने में तो बहुत आकर्षित लगती हैं लेकिन उनका परिणाम बहुत दूरगामी और भयावह होता है। ऐसी ही एक घोषणा घरों में 24 घंटे पेयजल आपूर्ति करने की है। इस तरह की राजनीति के सहारे आगे बढ़ने वाले नेता या नीति-निर्माता ऐसी घोषणाएं करते समय बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहते कि क्या वास्तव में 24 घंटे पानी देने की ज़रूरत भी है? इस नीति के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं?
नालियों में दिन रात बहता साफ़ पानी
बीते साल अपनी पंचायत के एक गांव में कुछ नालियों के निर्माण कार्य के दौरान हमने पाया कि दोपहर एक बजे, दो बजे, तीन बजे नालियों में लगातार ‘साफ़ पानी’ बह रहा है। निर्माण के दौरान नालियों में पानी नहीं बहना चाहिए। दरअसल जब कहीं भी नालियों पर काम कराया जाता है, तो उस समय या तो कुछ समय के लिए बांध जैसी संरचना बनाकर पानी को रोक दिया जाता है या मुख्य नाली के समानांतर एक अस्थायी नाली खोद दी जाती है।
मुझे और साथियों को आश्चर्य हुआ कि नालियों में ऐसे बेसमय/असमय साफ़ पानी बहने का क्या कारण है? हमने यह भी पाया कि जब बिजली चली जाती थी तो पानी बहना बंद हो जाता था।
यह गांवों के घरों में नल तक आने वाला पानी था। पानी की यह आपूर्ति पड़ोसी गांव में लगे ट्यूबवेल/बोरवेल से होती है। इसमें लगे पंप 200-250 फीट नीचे से ग्राउंड-वॉटर खींचकर सप्लाई करते हैं। हमारा यह गांव मलकपुरा, बुंदेलखंड इलाके के जालौन जनपद में पड़ता है।
पानी आपूर्ति जारी और नलों में टोंटियां गायब
इसके तुरंत बाद मैंने अपने गांव में एक सर्वे कराया कि जिन घरों में आपूर्ति का पानी आता है, उनमें कितने नलों में टोंटियां लगी हैं? परिणाम देखकर हमें फिर आश्चर्य हुआ कि पूरे गांव में जिन घरों में पाइप से पानी आता है, उनमें से लगभग 65% में टोंटियां ही नहीं थीं। इनके अलावा, जिन घरों में टोंटियां थीं, उनमें से अधिकतर घरों में, वे खुली ही रहती थीं। ऐसा लापरवाही और पानी के महत्व को न समझने के कारण था।
परिणाम यह कि सुबह लगभग 6 बजे से रात 9-10 बजे तक लगभग 15-16 घंटे, बिजली आने पर पानी यूं ही बर्बाद होता रहता। कुछ ग्रामीणों ने बताया कि कई बार तो पूरी-पूरी रात पानी की सप्लाई चालू रहती है। सर्वे के बाद पानी की इस बर्बादी को रोकने के लिए पंचायत की ओर से नलों में टोंटियां लगवाने की कई अपीलें की गईं लेकिन 9-10 माह बाद भी स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है।
एक दफ़ा मैंने पंचायत की ओर से मुफ्त में टोंटियां बंटवाने की योजना भी बनाई लेकिन मेरे सहयोगी और पंचायत सचिव ने मुझे आगाह किया कि इस तरह की लापरवाही को आखिर कब तक प्रश्रय दिया जा सकता है या किस सीमा तक पंचायत के संसाधन खर्च करके इसे ठीक करवाने की कोशिश ही की जा सकती है? प्राकृतिक संसाधनों की बचत आखिर हर नागरिक का मूल कर्तव्य है।सचिव के प्रश्न वाजिब थे। कोई राज्य आखिर किस सीमा तक अपने नागरिकों के गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार को ठीक कर सकता है?
आपूर्ति के पाइपों में जगह-जगह लीकेज
हमारे गांव में मुख्य पाइप-लाइन में 8-10 जगह लीकेज बना ही रहता है। अक्सर यह लीकेज किसी खेत में, किसी सड़क पर, सड़क के किनारे अथवा किसी नाली में होता है। नाली में जो लीकेज़ होते हैं, उन्हें खोजना बहुत मुश्किल होता है। जानकारी होने पर इन्हें ठीक करने की जिम्मेदारी संबंधित विभाग की होती है।
कुछ इसी तरह की कहानी हमें जालौन नगर में देखने को मिली। यहां पूरे नगर में कम से कम 100 से ज़्यादा स्थानों पर पाइप लाइन से रिसाव होता है। ध्यान रखिए यह संख्या कम से कम है। इनमें से कम से कम 15-18 स्थानों पर लीकेज की शिकायत मैं बीते साल 2024 के अगस्त माह से कर रहा हूँ। इन्हें ठीक कराने की मांग से साथ मेरा पूरा ज़ोर इस बात पर भी रहता है कि आखिर 24 घंटे पानी क्यों दिया जाता है? लगातार रिमाइंडर्स भेजने के बाद भी संबंधित विभाग इनमें से अधिकतर लीकेज को ठीक नहीं कर पाया है और न ही उसके पास 24 घंटे पानी की सप्लाई के पीछे कोई ठोस उत्तर है।
कहीं-कहीं तो ये लीकेज इतने बड़े हैं कि मिनटों में हजारों लीटर पानी यूं ही बह जाता है। ये तो उन लीकेज की बात है, जो दिख जाते हैं। इनके अलावा सैकड़ों जगह ऐसे लीकेज हैं, जिन्हें आसानी से नहीं देखा जा सकता। इसके अलावा, नगर में भी बहुत बड़ी संख्या में घरों में ज़रूरी टोंटियां नहीं हैं और पानी यूं ही बर्बाद बहता जाता है।
पानी की 24 घंटे आपूर्ति गैरज़रूरी
इसके बावजूद जालौन जनपद में ‘अघोषित’ रूप से 24 घंटे पानी आपूर्ति की नीति जारी रही है। अघोषित रूप से इसलिए क्योंकि जनपद मुख्यालय में बैठे उच्चाधिकारी ऐसी नीति से इनकार कर देते हैं लेकिन उनके अधीनस्थ इसे ऑफ़-द-रिकॉर्ड स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि पानी 24 सप्लाई होता है।
कोई भी यह सवाल उठा सकता है कि आखिर रात 8-9 बजे के बाद से सुबह 5-6 बजे के बीच पानी का क्या काम है? आखिर 24 घंटे पानी सप्लाई की जरूरत किसे हो सकती है? इसे और साफ़ तौर पर समझने के लिए रात में 12 बजे, 1 बजे, 2 बजे, 3 बजे पानी की आपूर्ति जारी रहने को कैसे सही ठहराया जा सकता है?
घरों में औसतन सुबह 6 बजे से 9-10 बजे और शाम में 5 बजे से 7-8 बजे तक पानी से संबंधित सभी काम खत्म कर लिए जाते हैं। अधिकतर घरों में जो भी पानी स्टोर करना होता है, वह इसी समय में कर लिया जाता है। जहां इतने बड़े पैमाने पर लीकेज होता हो और इतनी बड़ी संख्या में घरों में टोंटियां न हों वहां 24 घंटे पानी देना सिर्फ़ पानी की संगठित बर्बादी ही है।
आवश्यकता से अधिक पानी से नाकाम वाटर ट्रीटमेंट प्लांट
पानी जब इस तरह बर्बाद होता है तो वह अन्य समस्याओं को भी जन्मता है। जैसे, हमारे गांव में एक तिहाई आबादी के ग्रे और ब्लैक वॉटर को ट्रीट करने के लिए एक ट्रीटमेंट सिस्टम बनवाया गया। यह प्रयोगात्मक (एक छोटा सा STP कह सकते हैं) सिस्टम साइंस के सेडीमेंटेशन के सिद्धांत पर काम करते हुए गंदे पानी को तालाब में जाने से पहले ट्रीट करता है। लेकिन क्षमता से अधिक पानी आने पर यह सिस्टम फेल हो जाता है। यह वही अधिक पानी है जो घरों में ज़रुरी टोंटियां न होने और जगह-जगह लीकेज से आता है।
आवश्यकता से अधिक पानी आने पर तालाब जल्दी भर जाते हैं, वे हमेशा गंदे रहते हैं। पानी भरा रहने के कारण नालियों की भी सफाई नहीं हो पाती। बाकी जगहों पर भी पानी भरा रहने की समस्या आती है? अंत में ये सभी कारण गंदगी और बीमारी फैलाने वाले होते हैं।
सेडीमेंटेशन वाले इस प्रयोग के लिए मुझे भारत सरकार के जलशक्ति मंत्रालय द्वारा वॉटर-हीरो के रूप में चुना गया। पुरस्कार के बाद तत्कालीन ज़िलाधिकारी जालौन ने इसकी रिपोर्ट मुख्यमंत्री कार्यालय भी भेजी थी। ज़िले से लेकर प्रदेश स्तर पर इस पहल को खूब प्रशंसा भी मिली लेकिन उसके बाद भी इस 24 घंटे गैर ज़रूरी आपूर्ति की इस समस्या की कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। गांव से लेकर नगर तक कई महीनों और सालों से ग्राउंड-वॉटर यूं ही बर्बाद हो रहा है और मैं सिर्फ़ लिख पा रहा हूँ। कोई सुनने और कार्रवाई करने वाला नहीं है।
शिकायत करने पर भी नहीं होती सुनवाई
ऐसा नहीं है कि मैंने इन समस्याओं की सही जगह शिकायत नहीं की। पिछले साल अगस्त माह से कई बार जल विभाग के रजिस्टर में लिख कर शिकायत दर्ज कराई, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सरपंच होने के कारण मैं कई संबंधित अधिकारियों से व्हाट्सऐप के ज़रिए भी जुड़ा हुआ हूँ। मैंने उस चैनल के ज़रिए भी अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की। अधिकारियों ने लीकेज वाली जगहों की लोकेशन भी मांगी मगर कुछ खास बदलाव नहीं आया।
लीकेज के दस लोकेशन बताने पर कभी-कभार दो-चार महीने में कोई एक-दो पर काम हो भी जाता है, तो यह काफ़ी नहीं है। ये तो लीकेज की बात है, 24 घंटे आने वाले पानी पर कोई कार्रवाई करने को तैयार ही नहीं। हाल में मैंने इंट्रीग्रेटेड ग्रीवांस रिड्रेसल सिस्टम (IGRS), जिसे आम बोलचाल में मुख्यमंत्री पोर्टल भी कहा जाता है, पर भी शिकायत की है। मुझे बहुत उम्मीद नहीं है।
एक ओर पीएम मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों से Mission Life का आह्वान करके पानी सहित दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की अपील करते हैं, तो वहीं ज़मीन पर पानी की ऐसी संगठित बर्बादी जारी रहती है।
आंकड़े दे रहे हैं चेतावनी
एक गांव और एक नगर के इन दो उदाहरणों को शायद अकादमिक या प्रशासनिक स्तर पर स्माल-सैंपल-साइज़ कहकर नकार दिया जाए। संभव है, समाज में जागरूकता लाने की सलाह भी दी जाए। लेकिन यहां निष्कर्ष निकालने या जागरूकता की बात करने से पहले नीति आयोग की एक रिपोर्ट देखना जरूरी हो जाता है।
नीति आयोग द्वारा जारी समग्र जल प्रबंधन सूचकांक 2.0 के अनुसार शहरी क्षेत्रों में पीने एवं स्वच्छता के लिए होने वाली पानी की आपूर्ति में लगभग 40-45% पानी बर्बाद हो जाता है। नीति आयोग की इसी रिपोर्ट में 2030 तक पानी की उपलब्धता पर संकट की संभावना बताई गई है।
एक ओर हमारी सरकारें जल संरक्षण पर इतना जोर देती हैं कि सब्जी धोने के बाद बचे हुए पानी को इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है, टोंटियों से टपकती एक-एक बूंद का महत्व बताया जाता है। दूसरी ओर जालौन जैसी नीतियों से एक झटके में लाखों लीटर पानी यूं ही बर्बाद होने को छोड़ दिया जाता है। यह पानी नदी-नालों से होते हुए समुद्र तक की यात्रा करता है।
बुंदेलखंड में भूजल पुनर्भरण पहले ही मुश्किल प्रक्रिया है
आगे बढ़ने से पहले हमें एक सिद्धांत पर गौर करना चाहिए कि जिस गति से ग्राउंड वॉटर निकाला जाता है, उस गति से रिचार्जिंग की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती। फिर बुंदेलखंड इलाके की स्थिति इसे और बुरा बना देती है। भारत सरकार के केंद्रीय भूगर्भ जल बोर्ड की 2021 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार यहां के चार-पांच ज़िले सूखा-संभावित (Drought-Prone) जिलों में आते हैं, जिसमें जालौन जनपद भी शामिल है। इन इलाकों में ग्राउड-वॉटर रिचार्जिंग बहुत मुश्किल से होता है। भूगर्भिक चट्टानों की अपारगम्यता के कारण यहां बारिश भी इस समस्या को हल नहीं कर पाती और बारिश का ज़्यादातर पानी नदियों में बह जाता है।
नीति आयोग की ही एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड के लगभग सभी ज़िलों में भूजल का स्तर नीचे जा रहा है। भूजल के नीचे जाने से मिट्टी में ह्यूमस कम हो रहा है। इससे, न सिर्फ कृषि उत्पादन कम होता है बल्कि पेड़-पौधों का बचे रहना भी मुश्किल हो जाता है। इस तरह भूजल का नीचे जाना एक कुचक्र को जन्म देता है।
निश्चित तौर पर भूजल के नीचे जाने के दूसरे अन्य कारण भी हो सकते हैं, लेकिन 24 घंटे ज़मीन से पानी खींचने और इसके अधिकतर हिस्से की बर्बादी को पोषित करने वाली जलापूर्ति की नीतियां भी प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार हैं।
पानी की तुलना बिजली की आपूर्ति से नहीं की जा सकती, जिसका उपयोग 24 घंटे हो सकता है और होता है। यह एकदम अलग मसला है। इसकी 24 घंटे सप्लाई नहीं होनी चाहिए। ये जीवन देने वाला प्राकृतिक संसाधन है। ऐसी अतार्किक नीतियां इसे अनुपलब्धता की ओर ले जा सकती हैं और यही अनुपलब्धता जीवन समाप्त करने वाली भी बन सकती है।
अमित इस समय ग्राम मलकपुरा, ज़िला जालौन के ग्राम प्रधान (सरपंच) हैं। इससे पहले ये कई वर्षों तक एनडीटीवी आदि संस्थानों में कार्यरत रहकर पत्रकारिता कर चुके हैं।