राजनीतिक उपेक्षा के तटबंधों के बीच: नीतियों की ऐतिहासिक विफलता की नज़ीर है कोसी
कोसी को बिहार का शोक कहा जाता है, क्योंकि हर साल कोसी में आने वाली बाढ़ लाखों लोगों के जीवन में असुरक्षा और अनिश्चितता बनाए रखती है। बाढ़ के कारण मानसून के महीनों में लोगों की ज़िंदगी, स्वास्थ्य, आश्रय, रोज़गार, शिक्षा और यहां तक कि संचार जैसी रोज़मर्रा की ज़रूरतों का पूरा होना भी दूर का सपना हो जाता है। पर क्या वाकई इस आपदा से हर साल प्रभावित होने वाले लाखों लोगों के जीवन में कुछ नहीं बदला जा सकता?
सवाल यह भी है कि आखिर आज़ादी के 79 सालों में सरकारों ने इस आपदा से निपटने के लिए क्या किया है? इस रिपोर्ट में कोसी के तटबंधों के बीच बसे गांवों की सालाना त्रासदी और उनकी अनिश्चित ज़िंदगी के लिए ज़िम्मेदार राजनीतिक उदासीनता को समझाने का प्रयास किया गया है।
कोसी नदी: सरकारी और वैज्ञानिक समझ दो अलहदा किनारे
कोसी नदी तिब्बत में करीब 7000 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय से निकलती है, नेपाल के रास्ते होते हुए गंगा के मैदान में आकर बिहार में गंगा से मिल जाती है। करीब 720 किमी लंबी का अपवाह क्षेत्र 74,500 वर्ग किमी है। नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 74,030 वर्ग किलोमीटर है। इस माप में इसकी दो बड़ी सहायक नदियों, कमला (7,232 वर्ग किमी) और बागमती (14,384 वर्ग किमी) का जलग्रहण क्षेत्र शामिल नहीं हैं।
कोसी के कुल जलग्रहण क्षेत्र में से सिर्फ 11,410 वर्ग किमी भारत में है, बाकी 62,620 वर्ग किमी नेपाल और तिब्बत में आता है। ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में औसतन 1,589 मिमी बारिश होती है, जबकि निचले हिस्सों में 1,323 मिमी। नेपाल के हनुमान नगर से बिहार के सुपौल ज़िले के भीमनगर में घुसने वाली यह नदी हर साल लगभग 92,400 एकड़ फीट गाद (सिल्ट) लेकर आती है।
नदी अपना रास्ता बदलने के लिए जानी जाती है। सरकारी दस्तावेज के मुताबिक, साल 1760 से 1960 के नक्शों की पड़ताल करने पर मालूम हुआ कि कुल मिलाकर नदी पूर्व की ओर खिसकी है और इस खिसकाव का कोई तय पैटर्न नहीं है।
इसके उलट, कोसी पर दशकों से काम कर रहे लोक वैज्ञानिक डॉ. डी के मिश्रा इकनॉमिक पॉलिटिकल वीकली में लिखते हैं,
“इतनी ज़्यादा गाद के वज़न की वजह से कोसी नदी बार-बार धारा बदलती रहती है। साल 1723 से 1948 के बीच इसने लगभग 160 किलोमीटर तक अपना रास्ता बदला। साल 1731 में यह पुर्णिया के पूर्व से बह रही थी और 1950 के दशक में तटबंध बनाए जाने के बाद इसका आखिरी रास्ता सहारसा के पश्चिम और दरभंगा के पूर्व में था। इन दोनों बिंदुओं के बीच ऐसी कोई ज़मीन नहीं है जहाँ से कोसी कभी न बही हो। नदी की 15 ऐसी धाराएँ हैं, जहां तटबंध बनने से पहले इसका पानी बहता था पर अब वे छूट गई हैं।”
सरकारी समझ और विशेषज्ञों के निष्कर्षों में यह अंतर नया नहीं है।
तटबंध हैं बाढ़ की तबाही का बड़ा कारण: इतिहास और वर्तमान
आपदा प्रबंधन पर हुई पांचवी विश्व कॉन्ग्रेस के दूसरे वॉल्यूम में प्रकाशित राहुल कुमार याादुका का पेपर कोसी की बाढ़ को मानविकीय नज़रिए से देखने की कोशिश करता है। इसके मुताबिक कोसी की त्रासदी शुरू होती है ब्रिटिश राज से। उस दौरान एक तरफ़ तो इमारती लकड़ी बाहर भेजने के लिए हुई जंगलों की कटाई ने कोसी इलाके की पारिस्थितिकी को बिगाड़ दिया, दूसरी ओर कॉर्नवालिस के स्थाई बंदोबस्त कानून (परमानेंट सेटलमेंट एक्ट, 1793) ने बिहार को हमेशा के लिए बदल दिया।
हुआ यह कि स्थाई बंदोबस्त में जब ज़मींदारों पर ब्रिटिश राज को कर चुकाने की ज़िम्मेदारी आई, तब उनके लिए अपनी ज़मीनों का माप तय करना ज़रूरी हो गया। कोसी जैसे इलाके में ज़मीन को नदी की बदलती धारा और बाढ़ से बचाने के लिए राज के अफसर नदी को काबू करने के लिए तटबंध बनाने का विचार लेकर आए।
यूरोप की सामान्यत: शांत नदियों के लिए तटबंध काम के हो सकते थे, पर कोसी जैसी हिमालयी नदी के लिए लाया गया यह इंतज़ाम किसी विज्ञान पर आधारित होने की बजाय औपनिवेशिक सोच से निकला था। तटबंध बनाने की किसी केंद्रीय नीति के बिना ही, ज़मींदार अपने अपने इलाकों में अपनी सहूलियत से नदी पर तटबंध बनाने लगे।
नतीजा, मानसून में तटबंधों के बाहर का पानी नदी में जाने की बजाय बाहर ही इकट्ठा होने लगा, जिससे खेती का नुकसान तो हुआ ही, मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैलीं। इसके अलावा, ज़मींदारों में तटबंधों को लेकर विवाद भी बढ़ने लगे।
हालांकि, 19वीं सदी के आखिर तक यह साफ़ हो गया कि नदी को बांधना फ़ायदे का नहीं नुकसान का कारण बन रहा है। साल 1897 की कलकत्ता फ़्लड कॉन्फ़्रेंस, उड़ीसा फ़्लड कमेटी, 1927 और पटना फ़्लड कॉन्फ़्रेंस 1937 में सामने आया कि असली समस्या बाढ़ नहीं, नदी के पानी की निकासी में आने वाली रुकावट (ड्रेनेज कंजेशन) है।
आज़ादी के बाद की सरकारों ने इस समझ को दरकिनार करते हुए, जनता का फौरी समर्थन पाने और राहत देने के लिए, साल 1953 में उत्तर बिहार में आई विनाशकारी बाढ़ की प्रतिक्रिया में एक बार फिर कोसी पर तटबंध बनाने का फैसला किया।
तटबंधों की विफलता पर औपनिवेशिक इंजीनियरों के दस्तावेजों और कोसी में हर साल आती गाद की मात्रा को अनदेखा करके नदी के पूर्वी किनारे पर वीरपुर से कोपड़िया तक 125 किलोमीटर लंबा तटबंध और पश्चिमी किनारे पर नेपाल के भरदह से लेकर सहरसा के घोंघेपुर तक 126 किलोमीटर लंबा तटबंध बनाया गया। यह काम लगभग 1959 तक पूरा हो गया।
तटबंध बनाने के पीछे तर्क यह था कि इनकी मदद से नदी के बहाव को दिशा और गति दी जा सकेगी, जिससे पानी नदी के तल को गहरा करेगा, नदी ज़्यादा पानी को आगे ले जा सकेगी और आस-पास के इलाकों में बाढ़ नहीं आएगी। जबकि हुआ यह कि हर साल आती गाद के कारण नदी का तल गहरा होने की बजाय उथला होता चला गया। तटबंधों के बावजूद हर साल बाढ़ आई। कई बार बाढ़ में तटबंध टूटे और बाढ़ और ज़्यादा विनाशकारी हो गई।
पिछले साल 2024 में दरभंगा में तटबंध टूटा। जल शक्ति राज्य मंत्री राजभूषण चौधरी ने संसद में बताया कि दरभंगा के किरतपुर में भुभौल गांव के पास पश्चिमी कोसी तटबंध टूटने से लगभग 220 मीटर लंबे हिस्से को नुकसान पहुँचा। इस क्षतिग्रस्त हिस्से की मरम्मत पर 40.2235 करोड़ रुपये का खर्च आया।
इससे पहले 2008 में नेपाल के कुसाहा में तटबंध टूटने से हुआ विनाश नदी को बांधने की विफलता का बड़ा उदाहरण है।
राजनीतिक उपेक्षा के तटबंधों के भीतर फंसे लोग
कोसी के तटबंधों के बीच बसे लगभग 380 गांवों में (2011 की जनगणना के अनुसार) 10–12 लाख लोग रहते हैं। अन्य भारतीयों की तरह इन ग्रामीणों के जीवन में कुछ भी स्थिर नहीं है। न खेती, न शिक्षा और स्वास्थ्य, न ही रोज़गार के बाकी साधन। यहां तक कि रहने के लिए घर भी बाढ़ की मेहरबानी पर टिके होते हैं।
1955 में जब पूर्वी और पश्चिमी तटबंधों की आधारशिला रखी गई, तटबंध के भीतर के गांवों ने इसका विरोध किया क्योंकि उनकी सुरक्षा और आजीविका के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं थी। कथित तौर पर 214,000 हेक्टेयर ज़मीन को बाढ़ से बचाने के लिए तटबंधों के भीतर दो लाख लोगों के जीवन को हमेशा के लिए ऐसी स्थिति में धकेल दिया गया जहां उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और आम व्यवस्थित जीवन की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो गई।
ये बात और है कि तटबंध के बाहर के गांवों को जहां फौरी तौर पर फायदा हुआ, पर दो दशक बीतते-बीतते, बरसात का पानी नदी में न जा पाने और तटबंधों से नदी का पानी रिसने के कारण जलभराव की समस्या पैदा हो गई। इन इलाकों में अब छह महीने बाढ़ की हालत रहती है, जो हालांकि, तटबंधों के भीतर के गांवों से अब भी बेहतर है।
तत्कालीन कांग्रेस सरकार के नेता ललित नारायण मिश्रा ने 2 दिसंबर 1954 को पूना लैबोरेट्री का हवाला देते हुए कहा कि नदी में 9 लाख क्यूसेक पानी छोड़े जाने पर तटबंधों के भीतर के गांवों में महज़ चार इंच पानी आएगा। 1956 में केंद्रीय सिंचाई और विद्युत बोर्ड की प्रयोगशाला ने इसी लहज़े में कहा, “तटबंधों के कारण इन गांवों में पानी के स्तर में कोई बढ़ोतरी नहीं पाई गई.” डॉ. मिश्रा के मुताबिक प्रयोगशालाओं के ये निष्कर्ष बहुत जल्द इन ग्रामीणों के लिए एक क्रूर मज़ाक साबित हुए।
साल 1956 में ही गांवों में पानी घुस आया। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री एक तरफ़ जहां तटबंधों की सफलता से हुए चमत्कार के कसीदे पढ़ रहे थे, दूसरी ओर सहरसा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन भूषण गुप्ता की अगुवाई में इकट्ठा हुए लोगों ने पुनर्वास पैकेज की मांग शुरू कर दी। सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी।
पुनर्वास करने का मतलब था, कोसी परियोजना की लागत बढ़ जाना। केंद्रीय जल एवं विद्युत आयोग का कहना था कि इस मामले में लोगों को मुआवज़ा दिया गया, तो आगे हर परियोजना में लोग मुआवज़ा मांगेंगे। क्या आखिर ये परियोजनाएं जन कल्याण के लिए नहीं थीं?
दवाब बढ़ने पर आखिरकार 3 दिसंबर 1958 को बिहार विधानसभा में सरकार ने पुनर्वास के लिए ये पांच इंतज़ाम करने का वादा किया:
ग्रामीणों को रहने के लिए उनके मौजूदा घर के बराबर ज़मीन दी जाएगी, जो कि तटबंध के भीतर मौजूद उनकी खेती की ज़मीन से बहुत दूर नहीं होगी।
स्कूल, सड़क जैसी सामुदायिक सेवाओं के लिए भी ज़मीन दी जाएगी।
पुनर्वास की जगहों पर टंकी, ट्यूबवेल और कुओं के ज़रिए पानी की व्यवस्था की जाएगी।
घर बनाने के लिए अनुदान दिया जाएगा।
तटबंध के भीतर मौजूद खेतों तक आने-जाने के लिए नावें उपलब्ध कराई जाएंगी।
हालांकि, पुनर्वास के ये वादे कभी पूरे नहीं हो सके। केंचुए की चाल से पुनर्वास शुरू किया गया पर सरकारी अनिच्छा और बाकी परेशानियों के चलते यह अधर में लटक गया। पहले तो सभी परिवारों के लिए तटबंधों के आस-पास ज़मीन अधिग्रहण मुश्किल था। दूसरे, जिन्हें ज़मीन मिली उन्हें तटबंध के भीतर खेतों तक जाने के लिए नावें नहीं उपलब्ध कराई जा सकीं। तीसरे, जल्द ही पुनर्वास की ज़मीनों में जलभराव हो गया, जिससे वहां रहना असंभव हो गया।
पुनर्वास के लिए अधिग्रहित की गई कई ज़मीनें खाली पड़ी हैं, जिनकी नीलामी कर सरकार हर साल उन्हें खेती के लिए किराए पर देती है। पर तटबंधों के बीच फंसे लोगों के पुनर्वास की बात आने पर सरकार कहती है कि पुनर्वास का काम पूरा हो चुका है और जो लोग अब भी तटबधों के बीच रह रहे हैं, वे सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं हैं।
अपनी बात नीति-निर्माताओं तक पहुंचाने के लिए ग्रामीणों ने कई बार चुनावों का बहिष्कार करने की कोशिश की है, लेकिन रोज़मर्रा की ज़रूरतों से जूझ रहे ये लोग अकसर टुकड़ों में बंट कर उम्मीदवारों के चुनावी वादों का शिकार हो जाते हैं।
आज भी सबसे बड़ी समस्या है आवागमन
बीती 9 जुलाई को सुपौल में कोसी के तटबंधों के बीच बसे जीवछपुर गाँव में आग के लिए लकड़ी लेने गईं सीता देवी (50) को सांप ने काट लिया। छातापुर प्रखंड का यह गांव उन सैकड़ों गांवों में से एक है जहां आज तक सड़क नहीं बन पाई है। सीता देवी के गांव से छातापुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की दूरी सिर्फ 34 किमी थी लेकिन सड़क न होने के कारण दूरी तय करने में तीन घंटे लग गए। रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई।
इसी तरह, चार जुलाई को सुपौल के सुरजापुर गाँव में भैंस चराने निकले मिथिलेश कुमार (30) को भी सांप ने डस लिया। उन्हें नज़दीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र प्रतापगंज ले जाया गया, जहां ज़रूरी इंजेक्शन उपलब्ध नहीं था। बेहतर इलाज के लिए सब ओर पता करने के बाद आखिर में उन्हें सिमराही मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाया गया, जो घर से 55 किमी दूर था। रास्ते में ही मिथिलेश की भी मौत हो गई। इन दोनों हादसों में अस्पताल पहुंचने में देरी मुख्य वजह रही। ऐसी घटनाएं यहां आए दिन होती हैं।
तटबंधों के भीतर बसे कई गाँवों में सड़कें नहीं हैं और बाहर जाने का मुख्य साधन नाव ही है। ग्रामीण वर्षों से संपर्क सुधारने की मांग करते रहे हैं। बीती मई में कोसी नव-निर्माण मंच ने नौ सूत्रीय मांगपत्र को लेकर प्रदर्शन किया। यह संगठन बाढ़ पीड़ितों को उनके अधिकार दिलाने के लिए बीते दशक भर से बिहार के कोसी-सीमांचल क्षेत्र में सक्रिय है।
इस मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं, “अगले नवंबर तक कोसी तटबंध के भीतर बसे सैकड़ों गाँव मुख्य मार्ग से कटे रहेंगे और नाव ही संपर्क का एकमात्र साधन बचेगा। बाढ़ के समय सरकार हर साल नाविकों को नियुक्त करती है, लेकिन नाविकों का भुगतान अधूरा होता है और नियम तोड़े जाते हैं।”
बाढ़ के दौरान नाव परिचालन के लिए सरकारी प्रावधान हैं। अप्रैल 2023 में बिहार विधान परिषद ने ‘नौकाघाट बंदोबस्ती एवं प्रबंधन विधेयक, 2023’ पारित किया। इसके तहत, नाव मालिकों को नावों का पंजीकरण कराना होता है। इसके लिए ₹50 फीस लेकर नाव की फ़िटनेस जांच की जाती है।
नाव पर चालक का नाम, रजिस्ट्रेशन संख्या और मोबाइल नंबर लिखना ज़रूरी होता है। साथ ही, यात्रियों के लिए नाव पर लाइफ जैकेट रखने का भी नियम है। आम नागरिकों को आवागमन की सुविधा उपलब्ध कराने के अलावा पंजीकृत नावों को प्रशासन बाढ़ या राहत कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है। हालांकि, ये नियम कभी पूरे नहीं किए जाते।
नाव तैनात करने में कमीशनखोरी, नहीं मिलता पूरा मेहनताना
पश्चिमी तटबांध के पास दिघिया चौक के नाविक ओमप्रकाश चक्रवर्ती बताते हैं, “अधिकारी अक्सर पूरा भुगतान नहीं करते। बाढ़ में चार महीने नाव चलाने के बाद भी हमें दो महीने का पैसा मिलता है। नाव का किराया कभी ₹500 तो कभी ₹700 होता है और वह भी रसूखदार लोगों को पहले दे दिया जाता है।
कमीशन देकर रजिस्ट्रेशन कराने वालों को प्राथमिकता मिलती है, इसलिए ज़्यादातर नाविक पंजीकरण से कतराते हैं।” नाव परिचालन में सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही ही नही, बल्कि स्थानीय दबंगों का दबदबा भी एक बड़ी समस्या है।
अनुमंडल अधिकारी को स्थानीय नाव-मालिकों से मिलकर नावों का रजिस्ट्रेशन करवाना, टैगिंग और ‘नि:शुल्क सेवा’ लिखा बोर्ड लगवाना होता है, मगर यह प्रक्रिया काफी ढुलमुल ढंग से होती है। नाविक ओमप्रकाश चक्रवर्ती कहते हैं, “यहाँ कोई बोर्ड नहीं लगाता क्योंकि अधिकारी जांच के लिए तक आते नहीं हैं। लोग भी कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि जब आपका अपना घर डूबने वाला हो, तब कानून से ज़्यादा जीवन बचाना ज़रूरी लगने लगता है।”
बाढ़ में लोगों की नावों पर निर्भरता बढ़ जाती है। इस वर्ष प्रशासन ने निजी नाव मालिकों के साथ अनुबंध करके कुल 115 नावें तैनात की हैं, जिनमें 32 सरकारी और 83 निजी नावें शामिल हैं। प्रशासन का दावा है कि पिछले साल 874 नावें चलवाई गईं।
नई परियोजनाएं, करोड़ों का खर्च, पर नागरिकों के लिए सिर्फ़ धोखा
बिहार में बड़े पैमाने पर सिंचाई, जल परिवहन, बाँध और बैराज जैसी परियोजनाएँ शुरू की गई हैं। अकेले कोसी नदी पर ही सात हजार करोड़ रुपये से अधिक की योजनाएँ चल रही हैं। विडंबना यह है कि इन तमाम परियोजनाओं में न तो नदी में पारिस्थितिकी संरक्षण पर ज़ोर है, और न ही तटबंधों के भीतर रहने वाले लाखों लोगों को प्राथमिकता मिली है।
साल 1959 में कोसी के दोनों किनारों पर तटबंध बनाने के साथ-साथ, सिंचाई के लिए नहरें भी तैयार की गईं थीं। साल 2019 में इन नहरों का विस्तार करते हुए पूर्वी मुख्य नहर को आगे बढ़ाकर कोसी-मेची जोड़ो परियोजना (कुल लागत ₹6,282 करोड़) लाई गई है।
इसके तहत पूर्वी नहर को 41 किमी से बढ़ाकर 117 किमी तक ले जाकर महानंदा की सहायक नदी मेची से जोड़ा जाएगा। दावा है कि इससे सुपौल सहरसा, अररिया, पूर्णिया और किशनगंज में बाढ़ से राहत मिलेगी और लगभग 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई व्यवस्था सुधर जाएगी।
पिछले साल 2024 लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बिहार के ऊर्जा मंत्री बिजेंद्र यादव दावा करते सुनाई दिए कि कोसी-मेची परियोजना बिहार की बाढ़ से मुक्ति दिला देगी। वे कहते हैं कि कोसी के अतिरिक्त पानी को जब मेची में निकासी मिलेगी, तो बाढ़ की समस्या खत्म हो जाएगी।
हालांकि, एक बार फिर स्थानीय नागरिक और नदी विशेषज्ञ इस परियोजना से सहमत नहीं दिखाई देते। कोसी नवनिर्माण मंच के महेंद्र यादव और आईआईटी इंजीनियर एवं कोसी शोधकर्ता राहुल यादुका विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) को पढ़ने के बाद कहते हैं कि परियोजना में बाढ़ से मुक्ति का कोई ज़िक्र नहीं है।
डीपीआर में साफ लिखा है कि यह एक सिंचाई परियोजना है, बहुउद्देश्यीय परियोजना नहीं। यह डायवर्जन के लिए है, भंडारण के लिए नहीं। डीपीआर से बिलकुल साफ़ है कि इससे कोसी की बाढ़ की समस्या पर कोई असर नहीं होगा। सरकार का दावा एक बड़ा झूठ है। डीपीआर के मुताबिक, फिलहाल कोसी नदी से 15,000 क्यूसेक पानी पूर्वी कोसी मुख्य नहर में डाइवर्ट किया जाता है। परियोजना के तहत लिंक नहर बनने के बाद 20,247 क्यूसेक पानी डाइवर्ट किया जाएगा। “इसका मतलब है कि परियोजना पूरी होने के बाद कोसी से नहर में सिर्फ 5,247 क्यूसेक पानी ही डाइवर्ट होगा। इससे क्या बदलेगा?
महेंद्र यादव, कोसी नवनिर्माण मंच
राहुल यादुका कहते हैं, “अगर हम 2024 में कोसी नदी के पानी के आधिकारिक आंकड़े देखें तो 7 जुलाई को यह 3.96 लाख क्यूसेक और 10 जुलाई को 3 लाख क्यूसेक दर्ज किया गया था। ऐसे में अगर यह बहुचर्चित परियोजना कोसी से सिर्फ़ 5,247 क्यूसेक पानी नहर में ले जाती है, तो बाढ़ के दौरान इससे क्या फ़र्क पड़ेगा?” वे बताते हैं कि कि परियोजना की एग्ज़ीक्यूटिव समरी में भी सिर्फ़ आंशिक या आकस्मिक बाढ़ नियंत्रण की संभावना जताई गई है।
“बाढ़ नियंत्रण का दावा सिर्फ़ झूठा प्रचार है और उन लोगों को गुमराह करने की कोशिश है जो सालों से बाढ़ से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं,” वे आगे कहते हैं। डॉ. मिश्रा इस परियोजना के बारे में कहते हैं, “अगर यह नहर बनी तो पश्चिम में सहरसा से पूर्व में कटिहार की तरफ़ जाएगी। ये ज़मीन समतल है, बहुत हल्के ढाल के साथ। पहले से जो नहर है वो लगभग निष्क्रिय है। इतनी गाद आती है हर साल कि 2005 में उस नहर की भी डीसिल्टिंग करनी पड़ी थी। दूसरे, मानसून में नहर के पश्चिमी किनारे पर नेपाल से आने वाला पानी जमा हो जाता है। स्थानीय किसानों को इतनी समस्या होती है कि वे हर साल नहर को काटकर पानी बहाते हैं। इस बात पर हर साल दोनों किनारों पर रहने वालों के बीच लड़ाई होती है। अब इसे और ऊंचा और मज़बूत करेंगे, तो समस्या बढ़ेगी ही। ”
मालवाहक जहाज चलाएंगे, स्थानीय ग्रामीणों के लिए नाव नहीं
साल 2016 में नेशनल इनलैंड वाटरवेज एक्ट के तहत देशभर की 138 नदियों, नालों, बैकवॉटर को वाटरवेज (जलमार्ग) के रूप में विकसित करने की योजना बनाई गई। कहा जा रहा है कि इसमें वाटर मेट्रो भी चलेगी। इनलैंड वॉटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (IWAI) के नियंत्रण में जलमार्गों (वॉटरवेज) का नेटवर्क तैयार किया गया है। इनमें से तीन गंगा (NW-1), गंडक (NW-37) और कोसी (NW-58) प्रमुख जलमार्ग हैं। लेकिन इन पर अब तक सिर्फ ट्रॉयल ही हो सका है।
कोसी पर पीएचडी कर रहे राहुल यादुका का मानना है कि जलमार्ग परियोजनाओं को लागू करने से पहले स्थानीय समुदायों की आवागमन आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। बड़े मालवाहक जहाजों के बजाय ग्रामीण इलाकों में छोटी मोटरबोट सेवाएं उपलब्ध कराई जाएँ। ऐसा करने से कोसी के 10-12 लाख लोगों को तत्काल लाभ मिलेगा।
वे कहते हैं, “कोसी नदी के पारिस्थितिकी को समझे बिना जलमार्ग योजनाएं बेअसर रहेंगी। अगर सच में सरकार इन लोगों की मदद करना चाहती है, तो बड़े जहाजों की बजाय गाँव-गाँव को नावों से जोड़ने पर ध्यान देना चाहिए। इससे न केवल बाढ़ प्रबंधन में सुधार होगा, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवनशैली में भी सकारात्मक बदलाव आ सकता है। रियल टाइम में छोटे नाव-समाचार केंद्र या मोटरबोट क्लीनिक चलाकर जरूरतमंदों तक चिकित्सा पहुंचाई जा सकती है।” कोसी निवनिर्माण मंच जैसे स्थानीय नागरिक संगठन काफ़ी समय से नावों और नाव-क्लीनिकों की मांग कर रहे हैं।
नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्र के मुताबिक, “कोसी नदी में सालाना लगभग 120 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद आती है। यह मात्रा इतनी अधिक है कि यदि इसे 1 मीटर चौड़ी और 1 मीटर ऊँची दीवार बना लें, तो पृथ्वी की भूमध्य रेखा के लगभग 2.5 चक्कर लग जाएँ। दुर्भाग्य से यह सब गाद बिहार में ही जमा हो रही है। सरकार ने कोसी समेत दर्ज़नों नदियों को वाटरवेज़ के रूप में विकसित करने की योजना बनाई है, लेकिन बिना यह समझे कि इस गाद में मालवाहक नावें नहीं चल सकतीं। इसके बजाय स्थानीय लोगों की आवागमन जरूरतों के लिए छोटी नावों की व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए।”
फावडे़-कुदाल-खचिया में है समाधान
कोसी की समस्या का समाधान पूछने पर डॉ. मिश्रा कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के चेयरमैन रहे अब्दुल गफ़ूर साहब को खोजने और उनसे हुई बातचीत का वाकया याद करते हैं।
"तीस साल तक कोसी तटबंध पीड़ितों को नज़रअंदाज़ करने के बाद 1987 में आखिर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार बनाया गया। सहरसा के माहिषी ब्लॉक का एमएलए इस प्राधिकार का चेयरमैन होता है। पर इस व्यक्ति को प्राधिकार के बारे में कुछ पता नहीं। साल 2000 के बाद की बात होगी, मैं प्राधिकार से जानकारी लेने सहरसा आया। शहर के किसी व्यक्ति को नहीं पता था कि ये दफ़्तर है कहां। न डीएम को न ही बाकी लोगों को। डीएम की मदद से आख़िर दफ़्तर ढूंढा गया। वहां दो आदमी टेबल पर सर रखकर ऊंघते मिले। जब उनसे पुनर्वास से जुड़ी जानकारी मांगी गई, तो बोले हम तो दूसरे विभाग से डेपुटेशन पर आए हैं। न तो हमारा कोई एम और ऑब्जेक्टिव है, न कोई बजट।"
यहां से उन्हें चेयरमैन अब्दूल गफ़ूर का पता मिला, जिनका गांव तटबंध के भीतर था। जब उनसे मुलाकात हुई तो उनका कहना था कि मैं चेयरमैन ज़रूर हूँ, पर मुझे इस बारे में पता कुछ नहीं। ज़्यादा पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारा गांव तटबंध के भीतर है और हर साल गांव के ऊपर से पानी बहता है। जब तटबंध टूट जाता है, तो हमें थोड़ी राहत हो जाती है, लेकिन बाहर तबाही आ जाती है।
डॉ. मिश्रा याद करते हैं, "जब उनसे समस्या का समाधान पूछा गया तो वे बोले कि एक काम कर सकते हैं। एक दिन हम लोग सब के सब फ़ावड़ा-कुदाल और खचिया लेकर जाएं और तटबंधों को काट दें। हमारी समस्या का समाधान यही है।" जब डॉ. मिश्रा ने पूछा कि वे इस बात को रिकॉर्ड कर रहे हैं, क्या उन्हें कोई समस्या है। तो, जवाब मिला कि उन्हें यह लिखने की इजाज़त है। यही नहीं, वे चाहें तो अपनी तरफ़ से नमक-मिर्च लगाकर यह बात लिख सिकते है। हम इससे तंग आ चुके हैं पर मजबूर हैं कि कुछ कर नहीं पाते।