प्राकृतिक संसाधनों और आजीविका को सतत बनाए रखने के लिए किसान समुदायों के साथ भागीदारी के तीन दशकों की यात्रा को 'सिल्वर स्प्रिंग्स ऑफ़ सस्टेनेबिलिटी' किताब के माध्यम से लोकार्पित करती टीम डीएससी व अतिथि गण।
प्राकृतिक संसाधनों और आजीविका को सतत बनाए रखने के लिए किसान समुदायों के साथ भागीदारी के तीन दशकों की यात्रा को 'सिल्वर स्प्रिंग्स ऑफ़ सस्टेनेबिलिटी' किताब के माध्यम से लोकार्पित करती टीम डीएससी व अतिथि गण।छाया स्रोत: डेवलपमेंट सपोर्ट सेंटर (डीएससी)

डीएससी के तीन दशक: सिंचाई प्रबंधन में जन-भागीदारी से बढ़ी किसानों की आय

डीएससी ने पिछले तीस सालों में पश्चिमी भारत के कम जोत वाले किसान समुदायों को जानकारी, शिक्षा व संवाद आधारित सहयोग उपलब्ध कराकर सतत जन सरोकार की एक बेहतरीन मिसाल पेश की है।
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पिछले साल यानी 2024 में गुजरात के अहमदाबाद स्थित गैर-लाभकारी संस्था डेवलपमेंट सपोर्ट सेंटर (डीएससी) ने अपनी स्थापना के तीस साल पूरे किए। मुख्य रूप से सीमांत और छोटे किसानों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम करने वाली इस संस्था के मुख्य उपकरण रहे हैं—जानकारी, शिक्षा और संवाद (IEC)। इन तीन दशकों के काम को समझने और साझा करने के लिए डीएससी ने एक किताब जारी की, जिसे संस्था के पूर्व कार्यकारी निदेशक सचिन ओझा और रिसर्चर डॉ. अस्ताद पस्तकिया ने लिखा है। यह लेख इसी किताब से ली गई जानकारी पर आधारित है।

गुजरात के गांवों में भी अन्य प्रदेशों की तरह नहर के पानी के इस्‍तेमाल की देखरेख का ज़िम्‍मा पूरी तरह से सिंचाई विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों के हाथों में था। पर आज राज्‍य के एक बड़े हिस्से में सरकार, समाज और किसान मिल-जुलकर तय करते हैं कि नहर का पानी कब, कितना और किसके खेतों में पहुंचेगा। 

सिंचाई व्यवस्था में जन-भागीदारी को बढ़ावा देने वाले इस बदलाव की नींव डीएससी ने करीब तीन दशक पहले रखी। डीएससी ने पार्टिसिपेटरी इरिगेशन मैनेजमेंट (पीआईएम) को केवल सिंचाई के मॉडल के तौर पर नहीं, बल्कि एक जीवंत सामाजिक प्रक्रिया के रूप में विकसित किया। 

पिछले तीन दशकों में डीएससी ने साबित किया कि जब किसान संगठित होकर खुद ज़िम्‍मेदारी संभाल लेते हैं, तो सिंचाई पानी की आपूर्ति का मसला नहीं रह जाती, बल्कि यह समानता, जल-न्याय और ग्रामीण सशक्‍तीकरण का माध्यम बन जाती है।

साल 1994 से शुरू हुई बदलाव की कहानी 

डीएससी ने साल 1994 में अपनी स्थापना के तुरंत बाद से ही सिंचाई को अपने प्रमुख मुद्दों में शामिल किया। संस्था की पहल से गुजरात के सिंचाई तंत्र और नहरों के प्रबंधन की दिशा ही बदल गई। 

उस समय राज्य की सिंचाई प्रणाली केंद्रीकृत ढांचे पर आधारित थी। सरकार योजनाएं बनाती थीं और सिंचाई विभाग उन्हें लागू करता था। किसान केवल इंतज़ार करते थे कि पानी कब उनके खेतों तक पहुंचेगा। 

यह व्यवस्था कुछ क्षेत्रों में सफल रही, लेकिन जैसे-जैसे नहरों की लंबाई बढ़ी, वैसे-वैसे अंतिम छोर (टेल एरिया) तक पानी पहुंचाने में समस्याएं आने लगीं। इसके अलावा, पानी की अनियमितता भी एक बड़ी चुनौती थी। कई बार जब फसल को पानी की सबसे अधिक ज़रूरत होती थी, तब वह उपलब्ध नहीं होता था।

इन ज़मीनी अनुभवों ने डीएससी को यह सोचने पर मजबूर किया कि यदि किसान केवल पानी के उपभोक्ता न रहकर जल प्रबंधन के साझेदार बनें, तो कैसा रहेगा। इस विचार पर काम करना शुरू किया गया कि अगर किसान स्वयं तय करें कि नहर के पानी को कब और कैसे बांटना है, तो व्यवस्था अधिक व्यावहारिक, न्यायसंगत और टिकाऊ हो सकती है। 

इसी सोच के आधार पर पीआईएम यानी सरकार, समुदाय और संस्थागत साझेदारी के एक समावेशी प्रयोग की शुरुआत हुई।

सिंचाई प्रबंधन में भागीदारी क्यों ज़रूरी है? 

भारत में सिंचाई की संरचना मुख्य रूप से 'टॉप-डाउन' रही है। इसमें राज्य सरकारें सिंचाई परियोजनाएं बनाती हैं और पानी के वितरण की जिम्मेदारी सिंचाई विभागों की होती है। लेकिन, इसमें कुछ इस तरह की व्यावहारिक समस्याएं देखने को मिलती हैं- 

  • जल वितरण असमान होता है, मुख्य नहरों के पास के खेतों को ज़्यादा पानी मिलता है जबकि टेल एरिया के किसान अक्सर पानी से वंचित रह जाते हैं।

  • किसानों को न तो पानी के आने का समय पता होता है और न ही मात्रा की कोई पूर्व सूचना होती है।

  • सरकारी अमला सीमित होता है, जिसके चलते पूरे कमांड एरिया में निगरानी की उचित व्यवस्था नहीं हो पाती।

इन्हीं दिक्कतों को देखते हुए पार्टिसिपेटरी इरिगेशन मैनेजमेंट की अवधारणा सामने आई, जिसमें किसान स्वयं सिंचाई जल के वितरण और उपयोग की योजना बनाते हैं और उसमें पारदर्शिता रखते हैं।

इस तरह धरातल पर उतरा पीआईएम का ख्वाब

गुजरात की उकाई और माही नदियों के किनारे बसे गांवों में पहले खेत सूखे रह जाते थे, क्योंकि यहां खेतों में पानी लाने के लिए लिफ्ट सिंचाई योजना नहीं थी। ऐसे में, किसान नहर में पानी आने की प्रतीक्षा ही करते रह जाते थे। डीएससी के प्रयासों से इस स्थिति में एक बड़ा बदलाव आया। 

संस्था ने उकाई और माही के कमांड एरिया में जल वितरण में भागीदारी के लिए कैपेसिटी बिल्डिंग की। किसानों और स्थानीय संस्थाओं और किसानों को जल वितरण की योजना बनाने, सिंचाई शेड्यूल तय करने, जल कर वसूली और विवाद समाधान जैसे कामों के लिए प्रशिक्षण देकर सिंचाई विभाग और वॉटर यूजर्स एसोसिएशन (डब्लूयूए) की सहायता की। 

धीरे-धीरे प्रदेश की सीमाओं से आगे महाराष्ट्र के नंदुरबार, पुणे और मध्य प्रदेश के मान जोबट में भी पीआईएम के इसी मॉडल पर डीएससी ने काम शुरू कर दिया। 

धरोई, गुहाई और मज़ूम सिंचाई परियोजनाएं डीएससी के लिए प्रयोग का मैदान साबित हुईं। डीएससी की टीम गांव-गांव जाकर किसानों से पूछने लगी कि यदि नहर का पानी उनके हाथ में हो, तो वे इसे कैसे बांटेंगे? शुरुआत में किसानों को शंका थी कि यह संभव होगा या नहीं। 

हालांकि, जब किसानों को संगठित कर वॉटर यूज़र्स एसोसिएशन यानी जल उपभोक्ता संस्थाएं बनाई गईं और उन्हें अधिकार तथा प्रशिक्षण दिया गया, तब तस्वीर धीरे-धीरे बदलने लगी। इसी अवधारणा का बड़ा प्रयोग स्थल बना धरोई।

धरोई मॉडल: जहां हर बूंद का है हिसाब, हर खेत तक पहुंचता है पानी

धरोई सिंचाई परियोजना की स्थिति ऐसी थी कि नहर के शुरुआती हिस्सों में पानी लबालब बहता था, लेकिन टेल एरिया के किसान पानी के लिए तरसते रहते थे। जब डीएससी ने यहां पीआईएम मॉडल लागू किया, तो तस्वीर बदल गई। 

अब खेतों की मेड़ पर बैठकर किसान स्वयं तय करने लगे कि पानी कब और किस दिशा में बहेगा। इसके लिए डब्लूयूए के सदस्यों को तकनीकी प्रशिक्षण दिया गया। इससे धरोई साझा जल-प्रबंधन की एक जीती-जागती मिसाल बन गया।

धरोई की सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि यहां पानी को सामाजिक न्याय की तरह बांटा गया। चाहे नहर का शुरुआती हिस्सा (हेड एरिया) हो या अंतिम हिस्सा (टेल एरिया), हर किसान को समान रूप से पानी मिला। पारदर्शिता, समानता और स्थानीय नेतृत्व के सिद्धांतों पर आधारित इस मॉडल से टेल एरिया तक समय पर पानी पहुंचने लगा, और जल विवादों में उल्लेखनीय कमी आई। धरोई मॉडल आज राष्ट्रीय स्तर पर सराहा जाने वाला, सिंचाई का एक उत्कृष्ट उदाहरण बन चुका है।

नौ जिलों की 613,056 हेक्टेयर ज़मीन पीआईएम के दायरे में

पीआईएम के प्रयोग का क्षेत्र काफी बड़ा है। डीएससी ने 9 जिलों में कुल 613,056 हेक्टेयर कृषि भूमि में पीआईएम के तहत कार्य किया। इसमें से लगभग 60,000 हेक्टेयर भूमि के सिंचाई प्रबंधन में डीएससी ने प्रत्यक्ष भूमिका निभाई। 

बाकी इलाकों में डीएससी ने सीधे हस्तक्षेप न करते हुए किसानों को प्रशिक्षण दिया कि वे स्वयं योजना कैसे बनाएं और निर्णय कैसे लें। इसके लिए संस्था ने कैपेसिटी बिल्डिंग करते हुए किसानों में जल बजट की समझ विकसित की तथा नीति से लेकर निगरानी तक उनकी क्षमताओं को बढ़ाया। 

यह प्रत्यक्ष एक्शन और व्यापक परामर्श का दोहरा मॉडल था। 

डब्लूयूए से सशक्‍त हुईं गांवों की जल पंचायतें

गुजरात के गांवों में एक किसान के हाथ में रजिस्टर और नहर की ज़िम्मेदारी होना केवल सिंचाई की देखरेख का कार्य नहीं, बल्कि एक बड़ा बदलाव है। डीएससी ने 290 वॉटर यूज़र्स एसोसिएशन (डब्लूयूए) का गठन कर गांवों को ‘जल पंचायत’ दी, ताकि किसान न केवल पानी की मांग करें, बल्कि नहरी पानी के वितरण की योजना भी स्वयं बनाएं। 

इन डब्लूयूए के ज़रिए खेत-खेत यह तय होता है कि कब, कितना और किस फसल के लिए पानी दिया जाएगा। इसके अलावा, डीएससी ने 198 डब्लूयूए को विशेष प्रशिक्षण देकर उन्हें नेतृत्व, जल बजट, अकाउंटिंग और मरम्मत जैसे विषयों में दक्ष बनाया। आज स्थिति यह है कि नहर की मरम्मत में 10 फीसदी की भागीदारी किसानों की रहती है। यह केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि सामुदायिक स्वामित्व और आत्मनिर्भरता का भी अभ्यास है।

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नीति निर्माण में भागीदारी और राष्ट्रीय प्रभाव

साल 2000 के आसपास जब गुजरात सरकार सिंचाई प्रबंधन में सुधार के उपाय तलाश रही थी, तब डीएससी ने अपने ज़मीनी अनुभवों के साथ नीति-निर्माण में भागीदारी की। इसके लिए संस्था ने पीआईएम के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने में सहयोग दिया और सिंचाई अधिनियम में संशोधन के ज़रिए डब्लूयूए को कानूनी अधिकार दिलवाए। इस तरह, डीएससी ने शासन और समुदाय के बीच एक सेतु का कार्य किया और नीतियों को ज़मीन से जोड़ा।

सहभागिता आधारित सिंचाई मॉडल के अपने सफल प्रयोगों के ज़रिये डीएससी ने गुजरात के अलावा राष्ट्रीय स्‍तर पर भी प्रभाव डाला। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय, नीति आयोग और अन्य केंद्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर डीएससी ने भागीदारी आधारित जल प्रबंधन के अनुभव साझा किए। 

डीएससी ने दिखाया कि डब्लूयूए, जल लेखा प्रणाली और सामुदायिक निगरानी जैसे मॉडल देशभर में जल प्रबंधन को अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी बना सकते हैं। नतीजतन, डीएससी को आज एक प्रभावी ‘पॉलिसी इनफ्लुएंसर’ के रूप में भी जाना जाता है।

भूजल प्रबंधन का मार्वी (MARVI) मॉडल

डीएससी की पहल के परिणामस्वरूप गांव की महिलाएं अब मोबाइल और माप यंत्र जैसी डिवाइस से लैस होकर ‘भूजल सखियां’ बन चुकी हैं। उदाहरण के लिए, डीएससी द्वारा विकसित MARVI मॉडल (मैनेजिंग एक्विफर रिचार्ज एंड सस्टेनिंग ग्राउंडवॉटर यूज़ थ्रू विलेज-लेवल इंटरवेंशन) ने गांवों में भूजल को लेकर जागरूकता पैदा की है। 

इस मॉडल के तहत समुदाय स्वयं तय करता है कि उनके क्षेत्र में भूजल की स्थिति क्या है और कितना पानी निकालना उचित होगा। वैज्ञानिक प्रशिक्षण के बाद यहां के किसान अब केवल पानी के उपभोक्‍ता न रह कर ‘भूजल मित्र’ और ‘भूजल सखी’ के रूप में जल नीति के सहभागी बन चुके हैं।

संस्था की मदद से तकनीक, पारंपरिक ज्ञान और सहभागिता के संगम ने गांवों में जल बजट की संस्कृति शुरू की है, जिसमें यह भी तय होता है कि कब कौन-सी फसल लेनी है, कितना पानी खर्च करना है और कहां भूजल का पुनर्भरण करना है।

सहभागिता आधारित सिंचाई प्रबंधन का आर्थिक प्रभाव

डीएससी की मदद से लागू किए गए पीआईएम मॉडल ने यह दिखाया कि इससे सिंचाई दक्षता और फसल उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। गेहूं, कपास, ज्वार और मक्का जैसी प्रमुख फसलों की उत्पादकता में 20 से 70 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जिससे प्रति हेक्टेयर ₹7,000 से ₹10,000 तक की अतिरिक्त आय संभव हुई। इसके अलावा, पीआईएम प्लस कार्यक्रमों के माध्यम से किसानों को औसतन ₹19,000 प्रति हेक्टेयर अतिरिक्त आय हुई है, जिससे कुल मिलाकर प्रति हेक्टेयर अतिरिक्त लाभ ₹29,000 तक पहुंच गया।

धरोई ज़िले में हुए अध्ययन के अनुसार, पीआईएम लागू करने से लागत-लाभ अनुपात (बेनीफिट-कॉस्ट रेशियो) प्रमुख क्षेत्रों में 4.5 तक रहा, जबकि अंतिम छोर (टेल एरिया) में यह अनुपात 1.3 दर्ज किया गया। जल की समय पर और समान रूप से उपलब्धता से खरीफ और रबी दोनों मौसमों में बेहतर उत्पादन संभव हुआ, जिससे न केवल खाद्य सुरक्षा बढ़ी, बल्कि ग्रामीण आजीविका भी सुदृढ़ हुई है।

नई ऊर्जा और पुनरुद्धार की ज़रूरत

लंबे सफर के बाद कुछ थकान स्वाभाविक है। साल 2023 में डीएससी ने माना कि पीआईएम को अब नई ऊर्जा के संचार की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए, कई वॉटर यूज़र एसोसिएशन निष्क्रिय हो चुके हैं। गवर्नेंस का मॉडल प्रभावित हुआ है और किसानों का विश्वास भी डगमगाया है।

डीएससी ने इसे केवल संस्थागत नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्जागरण की चुनौती माना। इसके लिए संस्था ने पुनः प्रशिक्षण, तकनीकी सहयोग और नीतिगत समीक्षा के साथ-साथ डिजिटल उपकरणों और सामुदायिक जल बजट जैसे नवाचारों को अपनाने की सिफारिश की, ताकि पीआईएम को 21वीं सदी की ज़रूरतों के अनुरूप ढाला जा सके।

टिकाऊ भविष्य की ओर बढ़ते कदम

सुखद बात यह है कि पिछले 30 वर्षों में डीएससी ने अपने सतत प्रयासों से साबित किया कि जब किसानों को संगठित किया जाता है, उन्हें जल प्रबंधन की तकनीकी समझ दी जाती है और निर्णय लेने का अधिकार सौंपा जाता है, तब एक बड़ा परिवर्तन होता है। किसानों की भागीदारी सिंचाई को प्रशासनिक योजना से आगे ले जाकर सामूहिक सहभागिता की सामाजिक प्रक्रिया बना सकती है।

आज जब भारत जलवायु परिवर्तन, घटते जल स्रोतों और कृषि संकट से जूझ रहा है, तब पीआईएम जैसे सहभागिता मॉडल को राष्ट्रीय नीति के रूप में अपनाना समय की मांग है। 

जब नहर के पानी का अधिकार खुद किसानों के हाथ में होता है, तो उसका बहाव केवल खेतों तक नहीं, बल्कि विश्वास, समृद्धि और न्याय की ओर भी होता है। टिकाऊ कृषि, ग्रामीण समृद्धि और जल समानता की ओर बढ़ते भारत के लिए पीआईएम परिवर्तन का माध्यम ही नहीं, बल्कि एक विवेकपूर्ण विकल्प है।

(यह लेख डीएससी के अनुभवों और पॉलिसी डॉक्यूमेंट पर आधारित है। अधिक जानकारी के लिए, dscindia.org पर जाएं)

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