कैसे कश्मीर की नदियों में बढ़ता खनन किसानों और पारिस्थितिकी को खतरे में डाल रहा है
अवैध खनन न केवल 'धरती का स्वर्ग' कहे जाने वाले कश्मीर की नदियों के तल को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि यहां के जल-स्रोतों और ग्राउंड वाटर रीचार्ज में भी बाधक बन रहा है। इसके चलते कश्मीर की मशहूर ट्राउट मछलियों के प्राकृतिक आवास भी नष्ट हो रहे हैं। कुल मिलाकर खनन गतिविधियां कश्मीर के समूचे हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक बड़ा संकट बन गई हैं।
श्रीनगर के बाहरी इलाके लासजान में, मुहम्मद अशरफ़ हिमालय की गोद में सिमटे अपने धान के खेत को देख कर अकसर फ़िक्रमंद हो जाते हैं। आसपास के इलाकों में अवैध खनन के चलते ज़मीन में जहां-तहां दरारें उभर आई हैं और उनके खेत की मिट्टी फटी-फटी सी नज़र आने लगी है। खेत के पास से गुज़रती नहर, जो कभी झेलम का पानी उनके खेतों तक लाकर उन्हें सींचती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है। निराशा भरे स्वर में वे कहते हैं, "इस साल तो धान की बुवाई के लिए पानी ही नहीं नहीं मिल पाया। जो खेत सितंबर में फसल से भरे-पूरे और कटाई के लिए तैयार होने चाहिए थे, वहां बंजर ज़मीन दिखाई दे रही है।”
ये कहानी केवल अशरफ़ की नहीं है। कश्मीर घाटी में, पुलवामा से लेकर शोपियां तक, किसानों को कमोबेश इन्ही हालात का सामना करना पड़ रहा है। खेती पर सूखे की मार लगातार पड़ रही है। बारिश कम होती जा रही है। पिछले साल (2024) तो पांच दशकों का सबसे सूखा साल रहा, जिसमें फसल में 30 फीसद तक की गिरावट देखने को मिली। यह सामान्य से कम बारिश का लगातार 50वां साल था।
ऊपरी तौर पर यह दुनिया भर में हो रहे जलवायु परिवर्तन का असर लग सकता है, पर कश्मीर में इसकी मुख्य वजह कुछ और ही है। कश्मीर के किसान बताते हैं कि सिर्फ़ बदलती जलवायु ही उनकी आजीविका के लिए खतरा नहीं है। पूरे राज्य में अवैध तरीके से किया जा रहा अनियंत्रित रेत खनन उनकी समस्या का मुख्य कारण है। माइनिंग करने वालों ने कश्मीर की नदियों के तलों को इतना गहरा खोद दिया है कि अब उनसे जुड़ी नहरों में पानी जा ही नहीं पाता। नहरों के सूखने से खेतों को पानी देने वाली जीवन-रेखा ही नष्ट हो गई है।
नदियों में अब नहीं रहा वह बहाव
बर्फ़ से ढके पहाड़ों से घिरी होकर भी कश्मीर घाटी की सरज़मीं अगर उपजाऊ है, तो यह यहां बहने वाली नदियों की देन है। झेलम और उसकी सहायक नदियां वेशव, सिंध, रामबियारा और रोमशी कश्मीर की रगों में जीवन का रस दौड़ाने वाली धमनियों जैसी हैं। यह नदियां कश्मीर के अनगिनत झरनों को रीचार्ज करने के साथ ही धान के खेतों की सिंचाई करती हैं। इनसे हर साल पांच लाख मीट्रिक टन चावल का उत्पादन होता है।
सेब के बागों को भी इन्हीं से पानी मिलता है, तो 20 लाख मीट्रिक टन से ज़्यादा सेब देश-विदेश के लोगों को खाने को मिलते हैं। अकेले सेब उद्योग ही सालाना लगभग 8,000 करोड़ रुपये का उत्पादन करता है, जो इस पर्वतीय राज्य की अर्थव्यवस्था और आजीविका का एक बड़ा हिस्सा है।
कश्मीर में चावल उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र पुलवामा है, पर माइनिंग के चलते अब चावल के किसानों के लिए खेती मुश्किल होती जा रही है। यहां के लेथपोरा में चावल की खेती करने वाले काश्तकार मुज़फ़्फ़र रशीद भट कहते हैं, "उन्होंने झेलम को इतना गहरा खोद दिया है कि अब रामबियारा जैसी स्थानीय नहरों से पानी हम तक नहीं पहुंच पाता।"
राज्य में खनन गतिविधियों की खोज-खबर और इसपर नकेल कसने को लेकर सुस्ती का आलम यह है कि पुलवामा ज़िले की आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध सबसे ताज़ा सर्वेक्षण रिपोर्ट 2018 की है। इसमें बताया गया है कि कहां खनन की अनुमति है और किस सीमा तक। हालांकि, किसानों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि हकीकत इससे बिल्कुल अलग है, क्योंकि नदियों और नालों से किया जा रहा बालू का अंधाधुंध खनन राज्य के सिंचाई चैनलों को काफ़ी हद तक बाधित कर चुका है। इससे धान की फ़सल के लिए पानी मिल पाना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है।
पुलवामा में सिंचाई विभाग के कार्यकारी अभियंता पीर मंज़ूर पानी के कम बहाव के लिए जलवायु परिवर्तन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि, यह भी स्वीकार किया कि झेलम में रेत खनन जारी है। उन्होंने कहा, "हम सिंचाई योजनाओं के पास रेत खनन की अनुमति नहीं देते।" फिर भी पुलवामा और उसके पड़ोसी ज़िलों के किसान रेत खनन जारी रहने की शिकायत करते हैं, क्योंकि इससे उनकी सिंचाई और खेती बाधित हो रही है।
खनन का पैमाना और पानी पर उसका असर
कश्मीर में रेत का खनन कोई नई बात नहीं है, लेकिन इसका वर्तमान पैमाना चौंका देने वाला है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में, सालाना 50 अरब टन तक रेत और बजरी निकाली जाती है। कश्मीर इस उछाल का हिस्सा बन गया है। ससेक्स यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख के अनुसार कश्मीर में खुदाई अकसर 50 फीट तक गहरी की जाती है, जो कानूनी सीमा तीन फीट से भी ज़्यादा है। इसका असर विनाशकारी है। दक्षिण कश्मीर में जलभृतों (एक्विफ़र) में छेद हो गए हैं, झरने सूख गए हैं, और लोगों को पानी देने वाले स्रोत गुम होते जा रहे हैं।
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली-कटरा मोटरवे जैसे इन्फ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के कारण रेत और अन्य खनिजों का उत्खनन 2021-22 में जहां 4.74 लाख मीट्रिक टन था, वहीं 2022-23 में दोगुने से भी ज़्यादा 11.42 लाख हो गया है। दक्षिण कश्मीर की रंबियारा और रोमशी उप-घाटियों में खुदाई ने उथले जलभृतों में छेद कर दिया है, जिससे भूजल का स्तर घट गया है और झरने व कुएं सूख गए हैं। इससे लोगों को पानी मिलने में दिक्कत हो रही है।
एक हालिया रिपोर्ट में इस क्षेत्र में संचालित 453 पत्थर और हॉट-वैट मिक्स प्लांट (सड़क बनाने के लिए कंक्रीट-डामर मिलाने वाला संयंत्र) और 113 लाइसेंस प्राप्त लघु खनिज इकाइयों के संचालन की जानकारी दी गई है। झेलम नदी के किनारे उत्तरी कश्मीर के बारामूला ज़िले में, इनमें से एक दर्ज़न इकाइयां लचीपोरा वन्यजीव अभयारण्य के सिर्फ़ एक किलोमीटर के दायरे में संचालित हो रही हैं, जो लुप्तप्राय मारखोर, एशियाई काले भालू और अन्य नाज़ुक हिमालयी प्रजातियों का घर है।
इसके परिणामस्वरूप वन्य जीवन को नुकसान हो रहा है, क्योंकि इससे होने वाले शोर, धूल और प्रदूषित अपवाह से मिट्टी के पीएच में बदलाव जैसे प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। ये खनन संबंधी गतिविधियां खेती के अलावा, पहले से संकटग्रस्त पारिस्थितिक तंत्र को भी नुकसान पहुंचा रही हैं।
रिपल इफ़ेक्ट : मछुआरों और किसानों को झटका
खनन से होने वाला नुकसान केवल खेती तक सीमित नहीं है। वेशव नदी, जो कभी ट्राउट मछलियों के लिए प्रसिद्ध थी, अब गाद और पत्थर तोड़ने वाली मशीनों के प्रदूषण से भर गई है। नदी से रेत और बजरी हटा दिए जाने के कारण ट्राउट के प्रजनन स्थल खत्म हो रहे हैं।
कश्मीर के मत्स्य पालन क्षेत्र के एक अनुभवी ज़हूर अहमद शाह कहते हैं, "मछलियों की संख्या घट रही है। आप मछली पालने के लिए खेत पर नदी जैसी स्थितियां नहीं पैदा कर सकते।" जेके पॉलिसी इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर में 93,000 से ज़्यादा लोग मत्स्य पालन पर निर्भर हैं और सालाना 20,000 टन मछली पकड़ते हैं। मत्स्य विभाग 534 ट्राउट इकाइयों का संचालन करता है और 17,000 से ज़्यादा परिवारों को सहायता प्रदान करता है। फिर भी, ट्राउट का भंडार घट रहा है।
जलविज्ञानी डॉ. सारा काज़ी चेतावनी देती हैं: "अगर हम रीचार्ज ज़ोन की रक्षा नहीं करते, तो हम अगली पीढ़ी के लिए एक टूटी हुई व्यवस्था छोड़ जाएंगे।" किसान और मछुआरे, हालांकि अलग-अलग व्यवसायों में हैं, पर दोनों एक ही खतरे से जूझ रहे हैं, वह है पानी का गायब होना।
नियमों को कागज़ों में कैद कर हो रहा नदियों का सौदा
2016 में उच्च न्यायालय ने नदी तटों से तीन मीटर से ज़्यादा गहराई पर या 25 मीटर से कम दूरी पर खनन पर प्रतिबंध लगा दिया था। कागज़ों पर, दंड के कड़े प्रावधान हैं। कानून में खनिजों के साथ-साथ अवैध उत्खनन में इस्तेमाल किए गए उपकरणों और वाहनों को भी ज़ब्त करने की भी बात है। उल्लंघनकर्ता केवल खनिज की कीमत, रॉयल्टी शुल्क और न्यूनतम ₹10,000 का जुर्माना अदा करने के बाद ही उन्हें वापस ले सकते हैं।
जून 2024 में सरकार ने 6,219 ज़ब्तियां कर कुल 16.79 करोड़ रुपये के जुर्माना वसूला। इसके बावज़ूद ज़मीनी स्तर पर, अवैध खनन में कमी आने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने उल्लंघनों पर लगाम लगाने में विफल रहने के लिए 2022 में जम्मू-कश्मीर सरकार पर 1 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था।
कोरेल गांव, जहां 253 लगभग 1,100 लोग रहते हैं, झेलम की एक सहायक नदी, वेशव से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिन में यह कश्मीर की किसी भी अन्य शांत बस्ती जैसा दिखता है। लेकिन रात में नदी का तल खनन क्षेत्र में बदल जाता है। भारी मशीनें ज़मीन में गहरी खुदाई करती हैं, नियमों की धज्जियां उड़ाती हैं।
यहां तक कि सरकारी अधिकारी भी मानते हैं कि उल्लंघन बड़े पैमाने पर हो रहे हैं, लेकिन कमज़ोर प्रवर्तन के लिए "उच्च अधिकारियों के दबाव" का हवाला देते हैं। भूविज्ञान और खनन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "यह जानबूझकर की जा रही तबाही है।"
खनन पर रोक से कई परिवारों को रोज़ी-रोटी का संकट
जहां खनन से खेती और पर्यावरण से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं, वहीं खनन पर लगे प्रतिबंध ने भी कई इलाकों में तनाव पैदा कर दिया है। मध्य कश्मीर के गांदरबल ज़िले में, हाल ही में महिलाओं ने सिंध नदी पर रेत निकासी पर अधिकारियों द्वारा रोक लगाए जाने के खिलाफ़ प्रदर्शन किया।
इस प्रदर्शन में शामिल तीन बच्चों की मां सलीमा कहती हैं, "हमें भीख नहीं चाहिए। हमने कर्ज़ लिया है, टिपर खरीदे हैं और सालों तक कड़ी मेहनत की है। अब उन्होंने हमें कोई विकल्प दिए बिना ही सब कुछ अचानक से बंद कर दिया है। हमें काम करने दो। हमें अपने बच्चों का पेट भरने दो।" रेत उत्खनन के उपकरण और वाहन खरीदने वाले कई परिवारों को खनन पर रोक लगने से आमदनी बंद हो जाने पर अब मोटे ब्याज पर लिए कर्ज़ को चुकाने में मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों से मुलाकात की और उच्च अधिकारियों के समक्ष उनकी चिंताओं को उठाने का वादा किया।
मशीनों के बिना हाथों से खनन पर निर्भर कई परिवारों के भी रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। हालांकि इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता खनन भले कई परिवारों को कुछ समय के लिए आमदनी दे रहा है, पर इससे कृषि और बागों और जल पर निर्भर कश्मीर की समूची अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। अरबल नाग और बुलबुल नाग जैसे झरने, जो कभी सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाते थे, अब सूख रहे हैं। हज़ारों करोड़ रुपये के सेब और धान की फसलों को इसकी अंतिम कीमत चुकानी पड़ सकती है।
कश्मीर का खनन राजस्व पिछले पांच वर्षों में बढ़कर 181.04 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, लेकिन इसके लिए पर्यावरण को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। खनन से अल्पकालिक आय तो होती है, लेकिन इससे हर साल हज़ारों करोड़ रुपये की कृषि का नुकसान भी हो रहा है।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि संतुलन बनाना होगा। भारत सरकार के सतत रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश (2016) भूजल रीचार्ज क्षेत्रों में नदी तल खनन को एक मीटर तक ही सीमित रखने की सिफ़ारिश करते हैं। साथ ही, जल प्रणालियों को बहाल करने के लिए वर्षा जल संचयन, चेकडैम और वनरोपण कार्यक्रमों की भी सिफ़ारिश करते हैं।
ज़रूरी कार्रवाई न करके, कश्मीर अपने जल संसाधनों और उनसे जुड़े समुदायों, दोनों को खोने का जोखिम उठा रहा है। कश्मीरी ट्राउट मछलियों की आबादी पहले से ही दबाव में हैं, बेलगाम खनन गतिविधियां इनके अस्तित्व को ख़तरे में डाल सकती हैं। इसका ख़ामियाज़ा न केवल नदियों को, बल्कि उनसे जुड़े मछुआरों की आजीविका और खेती के नुकसान के रूप में खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डाल सकता है।
जिला खनिज अधिकारी ने कई बार कॉल करने पर भी कोई जवाब नहीं दिया। अगर कोई जवाब मिलता है, तो इस खबर को अपडेट कर दिया जाएगा।
यह रिपोर्ट इंडिया वाटर पोर्टल क्षेत्रीय पत्रकारिता फ़ेलोशिप 2025 के तहत तैयार की गई है, जिसका अनुवाद कौस्तुभ उपाध्याय ने किया है।