संयुक्‍त राष्‍ट्र के सहयोग से भारतीय स्‍कूलों में आयोजित जलदूत कार्यक्रम के तहत विद्यार्थियों को एक सीमित संसाधन के रूप में पानी के महत्‍व के बारे में समझाया गया।
संयुक्‍त राष्‍ट्र के सहयोग से भारतीय स्‍कूलों में आयोजित जलदूत कार्यक्रम के तहत विद्यार्थियों को एक सीमित संसाधन के रूप में पानी के महत्‍व के बारे में समझाया गया। स्रोत : यूएन ओआरजी

क्यों ज़रूरी है स्कूली जल शिक्षा को ‘जल ही जीवन है’ से आगे व्यावहारिक बनाना

भारत में जल शिक्षा अन्य विषयों जैसे भूगोल, विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान में एक पाठ तक सीमित है। इंडिया वाटर पोर्टल के इस लेख में जानें नई पीढ़ी को इस बारे में अधिक सचेत और जागरूक करना क्यों ज़रूरी है।
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एक शाम मैं पड़ोस की आंटी के यहां किसी काम से गई तो देखा उनकी छोटी सी बेटी रंग-बिरंगे स्केच पेन से एक चार्ट पेपर सजा रही थी। मेरे पूछने पर उसने बड़े उत्साह से बताया, “जल पर प्रोजेक्ट है। देखो, जल है तो कल है! भी लिखा है।" मैंने फिर पूछा, “तो बताओ, जल को कैसे बचा सकते हैं?” वह काफ़ी देर सोचकर बोली, “मैडम ने कहा, बिना पानी सब मर जाएंगे।”

उसकी बात सुनकर मैं ठिठक गई। जब मैं उसकी उम्र की थी, तब भी हम यही नारे दोहराते थे कि जल ही जीवन है, पानी बचाओ, जीवन बचाओ। लगभग सात बरस बीत गए, पर भारत में स्कूली जल शिक्षा अब भी नारेबाज़ी और सतही चेतना पर ही टिकी हुई है। आज भी स्कूलों की दीवारों पर वही पुराने नारे लिखे हैं, बच्चे स्लोगन प्रतियोगिताओं में वही पंक्तियां दोहराते हैं। विश्व जल दिवस पर रैलियां निकलती हैं। 

लेकिन इन सबके बीच यह सवाल कहीं खो जाता है कि बच्चे वास्तव में जल संकट को कितना समझते हैं। क्या वे समझ पाते हैं कि पानी की कमी क्यों होती है, यह उनके अपने जीवन को कैसे प्रभावित करती है और वे खुद इसे बदलने में क्या भूमिका निभा सकते हैं?

कक्षा में मल्‍टीमीडिया के ज़रिये ऑडियो-विजुअल कंटेंट की प्रस्‍तुति बच्‍चों को पानी का महत्‍व समझाने में काफ़ी कारगर साबित होती है।
कक्षा में मल्‍टीमीडिया के ज़रिये ऑडियो-विजुअल कंटेंट की प्रस्‍तुति बच्‍चों को पानी का महत्‍व समझाने में काफ़ी कारगर साबित होती है। स्रोत : यूएन ओआरजी

भारत में जल शिक्षा की वर्तमान स्थिति

भारतीय शिक्षा में जल शिक्षा अन्य विषयों जैसे भूगोल, विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान में एक पाठ तक सीमित है। भारत जब वर्तमान में भारी जल संकट का सामना कर रहा है, ऐसे में नई पीढ़ी को इस बारे में अधिक सचेत और जागरूक कर जल संरक्षण में सबसे आगे की जानी चाहिए लेकिन यह शिक्षा रैलियों, कागज़ों, चित्रों से आगे नहीं बढ़ सकी है। 

भारत में विभिन्न जल संबंधी प्रोग्राम, योजनाएं चलती रही हैं, जैसे जल क्रांति अभियान, नेशनल वॉटर मिशन, जल शक्ति अभियान एवं अन्य। ये सभी योजनाएं नागरिकों को सीमित भूमिका में प्रतिभागिता का अवसर देती हैं, लेकिन मुख्य तौर पर सिर्फ बच्चों के लिए ऐसी कोई योजना वर्तमान में नहीं है। कुछ कार्यक्रम लाए भी गए तो सीमित समय, सतही टारगेट के साथ। 

उदाहरण के लिए, पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने देश के सभी स्कूली छात्रों के बीच जल संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए 9 अगस्त 2019 को 'समग्र शिक्षा-जल सुरक्षा' अभियान शुरू किया था। इसका मुख्य उद्देश्य प्रत्येक छात्र को प्रतिदिन कम से कम एक लीटर पानी बचाने में मदद करना था। यह एक मिशन आधारित दृष्टिकोण वाला समयबद्ध अभियान था। पर एक लीटर पानी बचाने के ‘वादे’ से बड़ा बदलाव मुश्किल है।

जुलाई 2021 में यूनेस्को ने भारत में नेशनल मिशन फ़ॉर क्लीन गंगा एवं अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर इनिशिएटिव H2Ooooh! -  वाटरवाइज़ प्रोग्राम फॉर द चिल्ड्रन ऑफ़ इंडिया लॉन्च किया। यूनेस्को, नई दिल्ली के निदेशक एरिक फाल्ट ने अपने संबोधन में कहा, "एसडीजी 6 (जल एवं स्वच्छता) को प्राप्त करने के लिए युवाओं के ज्ञान और कौशल को बढ़ावा देना अत्यंत आवश्यक है ताकि वे भविष्य में बेहतर जल संसाधन प्रबंधन के लिए जल-दूत बन सकें।” 

इस पहल का मकसद कक्षा एक से लेकर कक्षा आठ तक के बच्चों में जल की सीमति उपलब्धता, सतत उपयोग, जल संरक्षण और जल दोहन के बारे में जागरूक करना था। इसे तीन चरण में पूरा किया गया।

पहले चरण (जुलाई से अगस्त 2021) के दौरान, भाग लेने वाले स्कूलों ने विभिन्न जल मुद्दों पर यूनेस्को द्वारा निर्मित 27 फ़िल्में बच्चों को दिखाईं। दूसरे चरण में, 200 छात्रों ने पटकथा लेखन, चरित्र चित्रण और एनीमेशन का 2 सप्ताह का ऑनलाइन प्रशिक्षण लिया और बाद में तीसरे चरण के दौरान एक प्रतियोगिता में अपनी कहानियां प्रस्तुत कीं। जिनमें से चयनित कहानियों पर एनिमेटेड फ़िल्में बनाई गईं।

अंत में यह भी चित्र और एनिमेटेड फ़िल्म बनाने के लिए विचार साझा करने तक रह गया। बच्चों को इसे ही जल शिक्षा को लेकर जागरूक होना बताया और दर्शाया गया। 

स्कूलों में विज्ञान प्रदर्शनियों में जल संचयन के लिए जल छाजन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) के मॉडल बच्चों द्वारा बनाए जाते हैं।लेकिन कितने बच्चों के घरों में, पड़ोस में यह देखने मिलता है? या कितने बच्चे जब बड़े होकर अपने घर बनाते हैं तब इस मॉडल को अपनाते हैं? इस सबका कोई डेटा हमारे पास मौजूद नहीं है। 

उत्तर प्रदेश के 75 ज़िलों में से 63 जिलों में पानी में फ्लोराइड का स्तर सामान्य से ज़्यादा है। इन ज़िलों के बच्चों को इस बारे में ज़रूरी जानकारी होगी यह ज़रूरी नहीं है, जबकि यह उनके जीवन से जुड़ा सबसे आवश्यक पहलू है। इस संदर्भ में वर्ल्ड वॉटर मॉनिटरिंग डे (विश्व जल निगरानी दिवस) इनिशिएटिव का इस्तेमाल बहुत अच्छे से किया जा सकता है। 

यह एक अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक और जनजागरूकता कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य लोगों में जल संसाधनों की सुरक्षा के प्रति समझ और ज़िम्मेदारी बढ़ाना है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत लोगों को अपने आस-पास की जल निकायों (जैसे तालाब, नदी, झील आदि) की बुनियादी निगरानी करने और उनके परिणामों को एक वैश्विक डेटाबेस में साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

भारत को अपनी जल शिक्षा नीति में बड़े बदलाव लाने की ज़रूरत है। वैश्विक स्तर पर हमारे पास ऐसे देशों के मॉडल मौजूद हैं, जिन्होंने अपने यहां जल के स्तर और ज्ञान दोनों में इज़ाफ़ा किया है। भारत इन मॉडल्स से और सीख सकता है। ऑस्ट्रेलिया और मेक्सिको के मॉडल इसमें मददगार साबित हो सकते हैं।
जल शिक्षा को बेहतर बनाने में शिक्षकों और वॉलेंटियर्स की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है।
जल शिक्षा को बेहतर बनाने में शिक्षकों और वॉलेंटियर्स की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है। स्रोत : यूएन ओआरजी

ऑस्ट्रेलिया का वाटर वाइज़ एजुकेशन प्रोग्राम बच्चों को जल संरक्षण में कर रहा है सक्रिय

ऑस्ट्रेलिया, विशेषकर पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, एक सूखा-प्रवण क्षेत्र है, जहां जल प्रबंधन एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता है। इसी चुनौती से निपटने के लिए वहाँ की सरकार और वाटर कॉर्पोरेशन ने मिलकर साल 1995 में "वाटरवाइज़ स्कूल एजुकेशन प्रोग्राम" की शुरुआत की। यह एक दूरदर्शी, व्यावहारिक और डेटा-संचालित मॉडल है। 

यह कार्यक्रम केवल बच्चों को जल के महत्व के बारे में जानकारी देने तक सीमित नहीं है बल्कि उन्हें जल प्रबंधन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल करता है। यानी यह एक भागीदारी सुनिश्चित करने वाला मॉडल है। इस कार्यक्रम की सबसे खास बात यह है कि यह स्कूलों को उनके पानी के उपयोग से संबंधित सटीक डेटा उपलब्ध कराता है, जिसे वॉटर ऑडिट कहते हैं।

स्कूल परिसरों में विशेष मीटर और डेटा लॉगर लगाए जाते हैं, जो पानी की खपत की वास्तविक समय में निगरानी करते हैं। यह डेटा एक ऑनलाइन पोर्टल पर शिक्षकों और छात्रों के साथ साझा किया जाता है। छात्र इन आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं, खपत के रुझानों को समझते हैं, और पानी की बर्बादी के स्रोतों की पहचान करते हैं। इससे वे केवल ‘जल बचाओ’ जैसे नारों तक सीमित नहीं रहते बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समस्या का विश्लेषण करना सीखते हैं। 

उदाहरण के तौर पर, बेलिंगेन शायर काउंसिल के ओरामा प्राइमरी स्कूल के बच्चे अपने वाटरवाइज़ सर्टिफिकेट के एक हिस्से के रूप में वाटर ऑडिट करते हैं, लीक की पहचान करते हैं और पानी बचाते हैं। उनके द्वारा किए हुए ऑडिट से दो टपकते नल और एक 'खराब फ्लश बटन' की पहचान हुई, जिससे सालाना लगभग 10,512 लीटर पानी की बचत हुई। यह साबित करता है कि छोटे-छोटे कदम भी बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं।

यह कार्यक्रम स्कूल पाठ्यक्रम से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। यह केवल एक सह-पाठ्यक्रम गतिविधि नहीं है, बल्कि इसमें विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में जल से संबंधित पाठों को एकीकृत किया गया है। छात्र स्कूल के पानी के बिल का विश्लेषण करते हैं, जल चक्र, भूजल और वर्षा जल संचयन जैसे वैज्ञानिक विषयों को समझते हैं और जल संकट के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर भी चर्चा करते हैं। यह बहु-विषयक दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि जल शिक्षा एक अलग इकाई न रहे बल्कि समग्र और व्यावहारिक शिक्षा का हिस्सा बननी चाहिए। 

इस प्रकार, "वाटरवाइज़ स्कूल एजुकेशन प्रोग्राम" बच्चों को जल संरक्षण के प्रति जागरूक बनाता है और उन्हें वैज्ञानिक रूप से सोचने, विश्लेषण करने और समाधान निकालने के लिए प्रेरित करता है। यह एक ऐसा मॉडल है जो जल शिक्षा को व्यवहारिक ज्ञान से जोड़ते हुए भविष्य की पीढ़ियों को जिम्मेदार जल नागरिक बनने की दिशा में अग्रसर करता है।

मैक्सिको का अध्ययन दर्शाता है क्यों ज़रूरी है बच्चों में जल का क्षेत्रीय और व्यावहारिक ज्ञान

“प्राथमिक विद्यालयों में जल संरक्षण शिक्षा: नेनेत्ज़िंगो नदी जलग्रहण क्षेत्र, मेक्सिको का मामला”  नामक यह अध्ययन मैक्सिको के ग्रामीण क्षेत्र के दो समुदायों में स्थित प्राथमिक विद्यालयों में दस वर्ष की आयु के छात्रों पर केंद्रित था। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि क्या एक सुव्यवस्थित पर्यावरणीय शिक्षा कार्यक्रम बच्चों के जल संरक्षण से जुड़े ज्ञान, दृष्टिकोण और व्यवहार को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है या नहीं। 

यह अध्ययन तीन चरणों: निदान, शिक्षा और मूल्यांकन में विभाजित था। पहले चरण में शोधकर्ताओं ने छात्रों का प्रारंभिक परीक्षण किया, ताकि यह जाना जा सके कि उनके पास जल संरक्षण से जुड़ी कितनी और कैसी जानकारी है। इस जांच में यह सामने आया कि बच्चों को अपने रोज़मर्रा के अनुभवों के कारण पानी की कमी और रिसाव जैसी समस्याओं की समझ थी, लेकिन उन्हें जल चक्र, सतत उपयोग और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पानी के महत्व के बारे में बहुत सीमित जानकारी थी। उनके पास व्यवहारिक जागरूकता तो थी, पर पर्यावरणीय और तकनीकी समझ का अभाव था।

इसके बाद शिक्षा चरण में छात्रों के लिए एक संरचनात्मक और स्थानीय सन्दर्भ से जुड़ा पाठ्यक्रम तैयार किया गया। इसमें छात्रों को पानी की गुणवत्ता, जल स्रोत, हाइड्रोलॉजिकल चक्र, मानव हस्तक्षेप के प्रभाव और जल बचत के सरल उपायों के बारे में पढ़ाया गया। शिक्षण प्रक्रिया में कहानियों, चित्रों, समूह चर्चाओं और स्कूल व समुदाय आधारित पर्यवेक्षण गतिविधियों का उपयोग किया गया ताकि बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान मिल सके और वे विषय से जुड़ाव महसूस कर सकें। 

तीसरे और अंतिम चरण में उन्हीं छात्रों का पुनः मूल्यांकन किया गया। इस मूल्यांकन से यह स्पष्ट हुआ कि छात्रों की जानकारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। उनके दृष्टिकोण में भी सकारात्मक बदलाव आया और उनमें पानी को सामूहिक और सीमित संसाधन के रूप में समझने की प्रवृत्ति विकसित हुई। उन्होंने पानी के संरक्षण को केवल एक अच्छी आदत नहीं बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में अपनाना शुरू किया। घर और स्कूल दोनों जगह वे जल-संरक्षण के लिए व्यवहार में बदलाव लाने लगे। 

यह अध्ययन यह दर्शाता है कि यदि बच्चों को स्थानीय संदर्भ और व्यावहारिक अनुभवों के साथ पर्यावरणीय शिक्षा दी जाए, तो न केवल उनका ज्ञान बढ़ता है बल्कि उनका दृष्टिकोण और क्रियाशीलता भी बदलती है। भारत जैसे देश में, जहाँ हर क्षेत्र की जल समस्या भिन्न है, इस प्रकार के स्थानीय, वैज्ञानिक और समुदाय-आधारित शैक्षिक मॉडल को अपनाकर बच्चों को जल संरक्षण की दिशा में सशक्त रूप से तैयार किया जा सकता है। यह मॉडल ग्रामीण विद्यालयों में खासतौर पर प्रभावी सिद्ध हो सकता है, जहां बच्चों की सीखने-सिखाने की प्रक्रिया सीधे उनके परिवेश से जुड़ी होती है।

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रैलियों के ज़रिये भी स्‍कूली विद्यार्थियों को पानी का सोच-समझ कर इस्‍तेमाल करने को लेकर जागरूक करने की कोशिशें बीते दिनों की गईं। स्रोत : यूएन ओआरजी

भारत, ऑस्ट्रेलिया और मेक्सिको से क्या सीख सकता है

भारत, ऑस्ट्रेलिया और मैक्सिको के मॉडलों से महत्वपूर्ण सबक सीख सकता है और उन्हें अपनी परिस्थितियों के अनुसार ढाल सकता है। यहां हम कुछ ऐसे ही सबकों के बारे में चर्चा कर रहे हैं:

व्यावहारिक और भागीदारी-आधारित शिक्षा: व्यावहारिक और भागीदारी-आधारित शिक्षा बच्चों को केवल “जल संकट” के बारे में जानकारी नहीं देती, बल्कि उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव और जवाबदेही से जोड़ती है। जब छात्र स्कूल स्तर पर जल ऑडिट करते हैं, स्थानीय जल स्रोतों का अध्ययन करते हैं या जल संरक्षण प्रोजेक्ट्स में भाग लेते हैं, तो वे पानी को एक अमूर्त अवधारणा नहीं बल्कि जीवन से जुड़ा संसाधन मानने लगते हैं। यह दृष्टिकोण उन्हें न केवल जल बचाने की आदत सिखाता है, बल्कि सामुदायिक स्तर पर जिम्मेदारी निभाने की प्रेरणा भी देता है। 

भारत में अशोका ट्रस्ट फ़ॉर रीसर्च इन ईकोलॉजी एंड द एनवायर्नमेंट (ATREE) ने अपने हैंड्स ऑन प्लेस बेस्ड एजुकेशन (HOPE) मॉडल में पाया कि जब छात्रों को स्थानीय जल स्रोतों और उनके उपयोग का अध्ययन कराया गया, तो उनकी समझ और व्यवहार दोनों में बदलाव आया। बच्चे घर और स्कूल में पानी बचाने के ठोस कदम उठाने लगे। ये संभव हुआ ATREE के शिक्षकों और छात्रों के लिए संदर्भानुकूल, प्रासंगिक और आयु-उपयुक्त शैक्षिक संसाधनों के निर्माण की वजह से। 

ये संसाधन बच्चों को प्रकृति से जुड़ने में सक्षम बनाते हैं, और शिक्षक इन्हें आसानी से पाठ्यक्रम में शामिल कर सकते हैं। इन संसाधनों में चित्रात्मक फ़ील्ड गाइड, दृश्यात्मक पोस्टर, फ्लैशकार्ड, कॉमिक स्ट्रिप, न्यूज़लेटर और इंटरैक्टिव खेल शामिल हैं, जिन्हें ATREE के शोध के आधार पर विकसित किया गया है।

पानी और स्वच्छता के बीच का अंतर्संबंध समझाना: पानी केवल पीने या नहाने का साधन नहीं है। यह स्वास्थ्य, शिक्षा और गरिमा से जुड़ा हुआ है। स्कूलों में जब बच्चों को यह सिखाया जाता है कि हाथ धोने, टॉयलेट की सफाई और पीने के पानी की गुणवत्ता, सीधे उनके स्वास्थ्य से जुड़ी है, तो वे पानी को एक कीमती संसाधन मानने लगते हैं। 

यूनिसेफ और डबल्यूएचओ की रिपोर्टों के अनुसार, सुरक्षित पानी, साबुन और साफ़ टॉयलेट की उपलब्धता से बच्चों की बीमारियों में कमी आती है और स्कूल में उपस्थिति बढ़ती है। वॉश (जल, स्वच्छता और हाइजीन) शिक्षा से बच्चे घर और समुदाय में भी स्वच्छता और जल बचत की आदतों को बढ़ावा देते हैं। 

उदाहरण के लिए भारत में रेडिंगटन फाउंडेशन ने कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) पहल के अंतर्गत रेडिंगटन वॉश प्रोजेक्ट शुरू किया। इसमें स्कूलों में साफ़ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करना, टॉयलेट और हैंडवॉश स्टेशनों का निर्माण और मरम्मत करना शामिल था। सबसे ज़रूरी बात, छात्रों को हाइजीन व्यवहार सिखाने के लिए कार्यशालाएं और गतिविधियां भी कराई गईं और शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया गया, ताकि वे बच्चों को नियमित रूप से स्वच्छता के बारे में जागरूक कर सकें। 

इसका असर यह हुआ कि  31 स्कूलों में बच्चों के पास सौ प्रतिशत स्वच्छ जल उपलब्ध हुआ और शिक्षकों व बच्चों के बीच हाइजीन की आदतें सुधरीं। 

स्थानीयकरण और सामुदायिक जुड़ाव: भारत में, जल संकट का स्वरूप हर गांव और शहर में अलग है। इसलिए जल शिक्षा को भी स्थानीय बनाना होगा। जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रों को अपने गांव के तालाबों, कुओं और नदियों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। वे जल गुणवत्ता परीक्षण कर सकते हैं, जल स्रोतों की सफ़ाई में भाग ले सकते हैं, और अपने घरों में वर्षा जल संचयन के सरल तरीक़े अपना सकते हैं। 

क्योंकि गांवों में महिलाएं पानी संकट से अधिक परेशान रहती हैं, इसलिए यह उनके लिए भी लाभकारी साबित हो सकता है। महादेव मैत्री के ग्रामीण भारत में जल संरक्षण: सतत समाधान के लिए समुदाय-नेतृत्वित पहलों (वाटर कंज़र्वेशन इन रूरल इंडिया: कम्युनिटी-लेड इनीशिएटिव्स फ़ॉर सस्टेनेबल सॉल्यूशंस) के अनुसार, बच्चों को जल संरक्षण के बारे में शिक्षित करना दीर्घकालिक प्रभाव डालता है, क्योंकि वे इन शिक्षाओं को वयस्क जीवन में भी अपनाते हैं। स्कूलों को अपने पाठ्यक्रम में जल संरक्षण गतिविधियाँ शामिल करनी चाहिए, जैसे जल ऑडिट, सामुदायिक सफाई अभियान, और वर्षा जल संचयन परियोजनाएं। 

शिक्षकों को प्रशिक्षण: शिक्षक बच्चों के लिए ज्ञान और व्यवहार के बीच की कड़ी होते हैं। यदि उन्हें जल संरक्षण की शिक्षा देने के लिए सही प्रशिक्षण मिले, तो वे इसे केवल एक पाठ्य विषय नहीं, बल्कि जीवन से जुड़ी जिम्मेदारी के रूप में पढ़ा सकते हैं। हैंड्स-ऑन वर्कशॉप्स, तकनीक आधारित शिक्षा, पाठ्यक्रम में एकीकरण जैसे तरीके प्रशिक्षण को मज़बूती देकर बच्चों में जल, स्वच्छता पर समझ बनाई जा सकती है। 

ग्रीन लिविंग बज़ के अनुसार, प्रशिक्षण की मदद से शिक्षक आत्मविश्वास के साथ जल संरक्षण पर चर्चा करते हैं, उन्हें सटीक जानकारी और व्यावहारिक उपकरण मिलते हैं और वे बच्चों को स्थानीय संदर्भ से जोड़कर जल संकट को समझाने में सक्षम बनते हैं। कैप नेट वर्चुअल कैंपस पर, यूनेस्को के साथ मिलकर स्थिरता और वैश्विक नागरिकता के लिए जल शिक्षा नाम से एक ऑनलाइन कोर्स मौजूद है। यहां  शिक्षक, जल संबंधी काम कर रहे कार्यकर्ता आदि जल शिक्षा को लेकर खुद को बेहतर बना सकते हैं। 

शिक्षा को सतत विकास लक्ष्य 6 से जोड़ना: इसके अलावा, भारत में स्कूली जल शिक्षा को सतत विकास लक्ष्य 6 से भी जोड़ने की ज़रूरत है। यह लक्ष्य केवल नीति-निर्माताओं की ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि स्कूली शिक्षा में भी इसकी झलक होनी चाहिए। यदि बच्चे यह जानेंगे कि स्वच्छ जल और स्वच्छता वैश्विक एजेंडा का हिस्सा है, और वे स्वयं उसमें योगदान कर सकते हैं, तो उनमें एक वैश्विक नागरिक बनने की भावना विकसित होगी। स्कूलों में एक ‘सतत विकास लक्ष्य कॉर्नर’ बनाकर इस दिशा में छोटी लेकिन असरदार शुरुआत की जा सकती है।

भारत में जल शिक्षा को एक क्रांतिकारी बदलाव की ज़रूरत है। "जल ही जीवन है" जैसे नारे प्रेरणादायक हो सकते हैं, लेकिन वे जल संकट का समाधान नहीं कर सकते। ऑस्ट्रेलिया और मैक्सिको के मॉडल दिखाते हैं कि जब शिक्षा को वास्तविक समस्याओं से जोड़ा जाता है तो यह केवल ज्ञान नहीं बल्कि एक शक्तिशाली सामाजिक बदलाव का साधन बन जाती है।

यदि हम अपने स्कूलों को जल संरक्षण के केंद्र बनाते हैं और बच्चों को समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने के लिए सशक्त बनाते हैं तो हम न केवल अगली पीढ़ी को जल-समझदार नागरिक बना सकते हैं बल्कि एक जल-सुरक्षित भारत की नींव भी रख सकते हैं। यह कोई छोटा काम नहीं है लेकिन भारत की युवा शक्ति और संसाधनों को सही दिशा में सक्रिय करके इसे हासिल किया जा सकता है।

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