Access to clean water for good health and productivity is a fundamental right of every citizen.
बेहतर स्वास्थ्य और उत्पादन के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता हर नागरिक का अधिकार है।छवि स्रोत: मोहिनी सिंह, Pixabay

क्या है जल सुरक्षा: भारत की चुनौतियां और समाधान

किसी भी देश की सुरक्षा सिर्फ़ उसकी सीमाओं से संबंधित कारकों पर ही निर्भर नहीं होती। पानी जैसे संसाधनों की स्थिति भी सुरक्षा को प्रभावित करती है।
Published on
9 min read

सुरक्षा एक संवेदनशील अवधारणा है। सुरक्षा का अर्थ है किसी भी तरह के खतरे या आक्रमण से बचे रहने की स्थिति। विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विद्वान रिचर्ड उलमैन ने साल 1983 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा को एक नई दिशा देते हुए, पर्यावरण से जुड़े खतरों, बीमारियों, प्राकृतिक आपदाओं और जनसंख्या वृद्धि को सुरक्षा से जोड़ा। उन्होंने अपने प्रसिद्ध लेख ‘रीडिफ़ाइनिंग सीक्युरिटी’ में लिखा, “गैर-सैनिक कार्यों को पूरा करना कहीं ज़्यादा मुश्किल होने जा रहा है, और इन्हें नज़रअंदाज़ करना कहीं ज़्यादा खतरनाक.”

संयुक्त राष्ट्र ने साल 1983 में  वैश्विक पर्यावरण और विकास को ध्यान में रखते हुए ब्रंटलैंड आयोग बनाया। साल 1987 में इस आयोग ने विश्व को सतत विकास की अवधारणा दी। नब्बे के दशक में जब पर्यावरण पर वैश्विक चर्चा ने ज़ोर पकड़ा तो विशेषज्ञों ने पाया कि पानी को लेकर अलग-अलग देशों की सरकारों में तालमेल की ज़रूरत थी। तब पानी पर केंद्रित संगठन बनने शुरू हुए.

साल 1996 में पानी से जुड़े मुद्दों पर काम करने के लिए वर्ल्ड वाटर काउंसिल नाम का एक थिंक-टैंक बनाया गया। इसी साल, कई अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषक संगठनों ने मिलकर ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप नाम का संगठन बनाया। इसका का था विकासशील देशों में एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के लिए सहायता उपलब्ध कराना।

21वीं सदी के लिए जल सुरक्षा के प्रयास 

वर्ल्ड वाटर काउंसिल ने हर तीन साल के अंतर पर वर्ल्ड वाटर फ़ोरम कॉन्फ़्रेंस कराना शुरू किया। 21वीं सदी की शुरुआत यानी मार्च 2000 में हेग में आयोजित दूसरे वर्ल्ड वाटर फ़ोरम में पहली बार जल सुरक्षा पर स्पष्ट बातचीत की गई। फ़ोरम ने मिनिस्टेरियल डिक्लेरेशन ऑफ़ द हेग ऑन वाटर सीक्युरिटी इन 21स्ट सेंचुरी जारी कि

इसमें कहा गया, “पानी, नागरिकों और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है और यह किसी भी देश के विकास की मूलभूत आवश्यकता है। लेकिन दुनिया भर में महिलाएं, पुरुष और बच्चे अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए सुरक्षित और ज़रूरत-भर पानी से वंचित हैं। जल संसाधनों और उनसे संबंधित पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रदूषण, ज़मीन के इस्तेमाल में आ रहे बदलाव, जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों के साथ-साथ उनके विवेकहीन इस्तेमाल से भी खतरा है, जो उनके अस्तित्व को सतत नहीं रहने देगा।"

"इन खतरों का गरीबी से स्पष्ट संबंध है, क्योंकि इनका पहला और सबसे ज़्यादा असर गरीबों पर होता है। इससे एक बात तो तय है कि अब तक जो चलता आया है उसे चलने देने का विकल्प हमारे पास नहीं है। दुनिया भर में अलग-अलग जगहों की ज़रूरतों और परिस्थितियों में बहुत अंतर है, पर हमारे सामने एक संयुक्त लक्ष्य है–21वीं शताब्दी में जल सुरक्षा उपलब्ध कराना। इसका अर्थ है कि मीठे पानी और तटवर्ती इलाकों से संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षा दी जाए और उन्हें बेहतर किया जाए। सतत विकास और राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा दिया जाए। हर व्यक्ति को उचित कीमत पर सुरक्षित जल उपलब्ध हो, ताकि वह स्वस्थ जीवन जिए और उत्पादन में सहयोग करे। पानी से संबंधित खतरों से असुरक्षित लोगों को सुरक्षा मिले।” 

आज 21वीं शताब्दी का एक चौथाई हिस्सा बीत जाने के बाद देखा जाए, तो हेग डिक्लेरेशन में जिन ज़रूरतों की बात की गई वे आज और ज़्यादा मौजूं मालूम होती हैं।

जल सुरक्षा को कैसे समझा जाए

जल और स्वच्छता पर संयुक्त राष्ट्र के कामों को मज़बूती देने के लिए साल 2003 में यूएन-वाटर का गठन किया गया। मार्च 2013 यूएन-वाटर ने वाटर सीक्युरिटी एंड ग्लोबल वाटर एजेंडा नाम से एक दस्तावेज जारी किया, जिसमें जल सुरक्षा की परिभाषा दी गई थी। इसमें यह भी चर्चा की गई कि जल का मानव सुरक्षा से क्या संबंध है। 

यूएन-वॉटर के मुताबिक जल सुरक्षा का अर्थ है कि किसी भी जनसंख्या के लिए स्वीकार्य गुणवत्ता वाला पानी सतत रूप से और ज़रूरत भर उपलब्ध हो, ताकि उसके लिए सतत जीविका के अवसर बने रहें, मानव स्वास्थ्य बेहतर हो, सामाजिक और आर्थिक विकास हो, उसे जल प्रदूषण और जल संबंधित आपदाओं का सामना न करना पड़े, और वह शांति और राजनीतिक स्थिरता के वातावरण में पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण कर सके।

यह संस्था जल सुरक्षा को संयुक्त राष्टर की सुरक्षा समीति के एजेंडा में शामिल करने का समर्थन करती है। 

भारत के संदर्भ में 

भारत के पास धरती का 2.4 फीसद हिस्सा है, और यह विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या का घर है। जबकि, हमारे पास विश्व के कुल स्वच्छ मीठे पानी का महज 4 प्रतिशत ही है। हमारे लिए पानी के दो मुख्य स्रोत हैं, हिमालय के ग्लेशियर और मानसून। 

साल 2011 की जनगणना के बाद भारत उन देशों में शामिल हो गया जो पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। अगर किसी देश में पानी की प्रति नागरिक उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष से कम हो, तो उसे जल संकट से ग्रसित माना जाता है। 2010 के दशक की शुरुआत में यह उपलब्धता घट कर 1500 क्यूबिक मीटर रह गई (सेन, 2018)। नीति आयोग की कंपोज़िट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स, 2018 (CWMI, 2018) के मुताबिक भारत के 12 नदी बेसिनों में रहने वाले 82 करोड़ लोगों के पास यह उपलब्धता मात्र 1000 क्यूबिक मीटर ही है। जबकि साल 2050 तक देश के लिए औसत आंकड़ा 1140 क्यूबिक मीटर रह जाएगा।

इंडेक्स के मुताबिक भारत गंभीर जल संकट से ग्रसित है, जिसके कारण आर्थिक विकास, जीविका, मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिक स्थिरता खतरे में है। देश में पानी हर साल 690 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM)  सतही जल और 447 BCM भूजल का इस्तेमाल होता है। भारत के कुल सतही जल का 70 फीसद हिस्सा प्रदूषित है। हरित क्रांति ने भारत की पैदावार ज़रूर बढ़ाई, लेकिन यह पूरी क्रांति भूजल के इस्तेमाल पर आधारित थी।

जल शक्ति मंत्रालय के केंद्रीय भूमिजल बोर्ड की साल 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में भूजल दोहन 249.69 बीसीएम रहा, जो कि 2018 के मुकाबले काफ़ी कम है। साथ ही, भूजल पुनर्भरण के प्रयासों के चलते हालांकि, जिन 6746 इकाइयों (ब्लॉक/मंडलय/तालुका) में भूजल का आकलन किया गया उनमें से 750 यानी 11.12% इकाइयों को ‘अति-दोहित’ माना गया। इसका मतलब हुआ कि इन इकाइयों में भूजल दोहन की दर, देश में भूजल पुनर्भरण की औसत दर से ज़्यादा थी। इसके अलावा, साल 2024 में बोर्ड की जल गुणवत्ता रिपोर्ट में बताया गया कि भूजल के करीब 20,000 नमूनों में से 20% नमूनों में नाइट्रेट, 9.04% में फ़्लोराइड और 3.35% में आर्सेनिक की स्वीकृत से अधिक मात्रा पाई गई।

In 2017, the national average of groundwater was 432 BCM, which increased to 446.9 BCM in 2024. Additionally, groundwater extraction decreased from 249 BCM in 2017 to 245.64 BCM
साल 2017 में भूजल का राष्ट्रीय औसत जहां 432 BCM था, वहीं 2024 में यह बढ़कर 446.9 BCM हो गया। इसके अलावा, भूजल दोहन 2017 के 249 BCM से घटकर 2024 में 245.64 BCM पर आ गया।इलस्ट्रेशन: जल शक्ति मंत्रालय

चुनौतियां और समाधान

भारत के सामने जल संकट की चुनौतियां बड़ी हैं, पर राहत की बात यह है कि इनके समाधान की दिशा में काम शुरू हो चुका है। साल 2021 में नई जल नीति का ड्राफ़्ट पेश किया गया जिसमें पानी की आपूर्ति बढ़ाने की बजाय मांग को प्रबंधित करने, भूजल दोहन में कमी लाने के लिए फसलों में विविधता लाने, उपचारित जल का दोबारा इस्तेमाल करने आदि जैसे विकल्पों पर ज़ोर दिया गया है। इसके बावजूद नीचे कुछ ऐसी चुनौतियों का ज़िक्र किया गया है जिनसे पार पाए बिना भारत के सभी नागरिकों को जल सुरक्षा उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा।

सीमित संसाधन, बढ़ती मांग, प्रभावित उपलब्धता

भूजल के इस्तेमाल में भारत दुनिया में सबसे आगे है। केंद्रीय जल आयोग की साल 2000 की रिपोर्ट के मुताबिक (सेन, 2018) भारत में पानी के कुल इस्तेमाल का 85.3 फीसद खेती पर होता है। 2025 तक इसके 83.3% हो जाने का अनुमान लगाया गया था। जल शक्ति मंत्रालय ने साल 2023 में बताया गया कि धरती से निकाले गए कुल पानी का 87 फीसदी इस्तेमाल खेती में हुआ। ऐसे में यदि भूजल का स्तर लगातार गिरता है, तो भूजल आधारित खेती करने वाले राज्यों और किसानों की पैदावर पर सीधा असर होगा।

पानी की कमी के लिए मुख्य रूप से जल संसाधनों का गलत प्रबंधन, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और बदलता मानसून, भूजल का ज़रूरत से ज़्यादा दोहन, बिना उचित योजना के बढ़ता शहरीकरण और आधारभूत संरचना की कमी ज़िम्मेदार है। बीते दशकों में शहरों में पानी का संकट बढ़ा है। दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद और बैंगलोर सहित कुल 21 शहरों में जल आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए CWMI, 2018 में अनुमान लगाया गया था कि साल 2025 इनका भूजल पूरी तरह खत्म हो जाएगा। हलांकि, भूजल पुनर्भरण के लिए अटल भूजल योजना और कैच द रेन जैसे अभियान उम्मीद पैदा करते हैं।

प्रदूषण से स्वास्थ्य पर खतरा

CWMI 2018 के मुताबिक हर साल लगभग दो लाख लोग सुरक्षित पानी और स्वच्छता की कमी के चलते मारे जाते हैं। हर साल भारत में डायरिया के कारण 5 लाख बच्चों की मौत होती है (यूनिसेफ़, 2000)। इसके अलावा, भूजल में नाइट्रेट, फ़्लोराइड और आर्सेनिक प्रदूषण के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर होता है और उन्हें मेथेमोग्लोबिनीमिया (ब्लू बेबी सिंड्रोम), फ़्लोरोसिस और कैंसर जैसी बीमारियां हो जाती हैं। एक अनुमान के मुतबाकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर इन बीमारियों का बोझ 47,000 से 61,000 करोड़ रुपए तक तक होता है। 

हालांकि, जल जीवन मिशन के तहत अब तक कुल 80.74 घरों में पाइप लाइन के ज़रिए पानी पहुंचाया जा चुका है। इससे न सिर्फ़ पानी भरने जाने पर खर्च होने वाला समय बचेगा, सफ़ाई और पीने के लिए सुरक्षित पानी भी उपलब्ध होगा। 

अक्षम प्रबंधन से अर्थव्यवस्था पर असर

भूजल का दूसरा सबसे बड़ा उपयोग उद्योगों में होता है। सेंटर फ़ॉर एनवायर्नमेंट एजूकेशन की रिपोर्ट वाटर सिक्युरिटी इन इंडिया रिव्यू एंड रिकमंडेशन फ़ॉर पॉलिसी एंड प्रैक्टिस के मुताबिक (जैसा कि CWMI, 2018 में कहा गया) भारत के 27 में से 16 राज्यों में जल प्रबंधन की स्थिति संतोषजनक नहीं है। इन राज्यों में देश की 48% जनसंख्या रहती है और ये देश को 40% कृषि उपज और 35% आर्थिक उत्पादन देते हैं।

जल प्रबंधन का मतलब है नागरिकों, खेती, उद्योगों और पर्यावरण की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए, जल संसाधनों के सतत प्रयोग व विकास के लिए उचित योजना बनाना और लागू करना। इसके अलावा, पानी की कमी, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और आधारभूत ढांचा बनाने जैसी चुनौतियों से समय पर निपटना। पानी के 10 सबसे खराब प्रबंधकों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, केरल, और दिल्ली शामिल हैं। खराब जल प्रबंधन अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमा और रोज़गार व जीविका के अवसरों को कम करता है। खेती के दस सबसे बड़े उत्पादक राज्यों में से आठ में जल प्रबंधन की स्थिति खराब होने के कारण देश की खाद्यान्न सुरक्षा भी खतरे की ज़द में आ जाती है।

साल 2019 में चेन्नई जल संकट के दौरान कई उद्योगों को या तो अपना उत्पादन रोकना पड़ा या महंगे वाटर टैंकरों पर निर्भर होना पड़ा, जिससे उनकी संचालन लागत 10-20% फीसदी बढ़ गई। मुंबई की भूराजनीतिक सलाहकार संगठन कुबेरनिन इनिशिएटिव के एक वर्किंग पेपर के मुताबिक पानी का संकट उद्योगों के लिए खतरों को कई गुना बढ़ाकर खाद्यान्न, ऊर्जा और स्वास्थ्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है, जिससे शहरों में आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा।
Sardar Sarovar Dam
सरदार सरोवर बांधछवि स्रोत: हिमांशु पांड्या, गुजरात पर्यटन

भारत में बनने वाली बिजली का 12% पनबिजली से आता है, जिसपर पानी की कमी का असर हो सकता है। साल 2020 में गुजरात में सरदार सरोवर बांध में कम जलस्तर के चलते बिजली उत्पादन में 30% की गिरावट देखने को मिली। ऐसी घटनाएं कोयले और डीजल से बनने वाली महंगी बिजली पर निर्भरता बढ़ा सकती हैं। सरप्लस पानी वाली नदियों को कम पानी वाली नदियों को जोड़ने के लिए बनाई गई राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना जैसे उपाय हालांकि अति-महात्वाकांक्षी हो सकते हैं, पर नदियों में जलस्तर बनाए रखना जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेहद ज़रूरी है।

राजनीतिक स्थिरता पर असर

राजनीतिक नज़रिए से भारत में जल सुरक्षा को राज्यों के बीच जल-विवाद, चुनावी वादों और राजनीतिक नैरेटिव से जोड़कर देखा जा सकता है। पानी भारत में राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। ऐसे में राज्यों के बीच पानी के बंटवारे को लेकर विवाद सामने आते रहे हैं। इनमें, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल-विवाद और पंजाब व हरियाणा के बीच सतलज-यमुना लिंक नहर विवाद अकसर चर्चा में बने रहते हैं।

साल 2016 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक को कावेरी का पानी तमिलनाडु के साथ साझा करने का आदेश दिया, तो इसके विरोध में बैंगलोर में हुए दंगे हुए। व्यापार और कामकाज बंद रहने और दंगों में हुई हिंसा से संपत्ति के नुकसान के कारण कर्नाटक को करीब 25,000 करोड़ रुपए का नुकसान भुगतना पड़ा। इसी तरह, 2019 के चेन्नई जल संकट और 2016 के मराठवाड़ा के सूखे के कारण भी राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी। चेन्नई में जहां नागरिकों विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया, वहीं मराठवाड़ा में 1,000 से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। इससे राज्य में बीजेप-शिवसेना का गठबंधन टूटने के कगार पर पहुंच गया।

इसके अलावा, पड़ोसी देशों के साथ किए गए जल समझौते (पाकिस्तान के साथ किया गया सिंधु जल समझौता और बांग्लादेश के साथ किया गया गंगा जल समझौता) भी भारत की राजनीतिक स्थिरता पर अपना असर रखते है।

जल सुरक्षा सुनिश्चित करने पर केंद्र सरकार के बढ़ते ज़ोर को बजट के आईने में भी देखा जा सकता है। पिछले दस सालों में गृह मंत्रालय के पेयजल और स्वच्छता विभाग को आवंटित किए गए बजट में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिलती है। खासकर साल 2021-22 में पिछले साल की तुलना में सीधे 335% का उछाल आया और आवंटन 21,518 करोड़ से बढ़ाकर 60,030 करोड़ कर दिया गया। हालांकि, योजनाओं के क्रियान्वन के लिए पैसे से इतर चुनौतियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org