आर्सेनिक से बचाव के लिए जरूरी है कुएँ का पानी
आर्सेनिक ग्रसित इलाके बलिया और भोजपुर में वैज्ञानिक पीने योग्य पानी के लिए पारंपरिक कुओं की ओर लौटने की सलाह दे रहे हैं। गैर-सरकारी संगठन ‘इनर वॉयस फ़ाउंडेशन’ और 95 वर्षीय धनिकराम वर्मा की पहल से कुओं को साफ किया जा रहा है। बलिया नगरपालिका ने भी शहर के 25 कुओं का जीर्णोंद्धार करने की घोषणा की है। उत्तर प्रदेश का बलिया और बिहार का भोजपुर जिला आर्सेनिक की चपेट में है। आर्सेनिक युक्त पानी पीने से यहां के लोग पहले मेलानोसिस (शरीर के विभिन्न अंगों पर काले धब्बे पड़ना), फिर केटोसिस (काले धब्बों का गांठ में तब्दील होना और उसमें मवाद भर जाना) और अंततः कैंसर से पीड़ित होकर मरने को विवश हैं। कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कूल ऑफ एन्वायरमेंटल स्टडीज के निदेशक प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती ने ‘शुक्रवार’ को बताया, ‘बलिया और भोजपुर का शाहपुर इलाक़ा एशिया के सर्वाधिक आर्सेनिक ग्रस्त इलाकों में से एक है।’ पिछले दो दशकों के दौरान इस इलाके में कम-से-कम 2000 लोगों की मौत आर्सेनिक युक्त पानी पीने से हो चुकी है।
दरअसल 1990 के दशक में केंद्र और राज्य सरकारों ने पूरे देश में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पीने योग्य पानी पहुंचाने के लिए हैंडपंप (नलकूप) लगवाने शुरू कर दिए। डॉक्टरों ने भी अपने मरीज़ों को कुएँ का पानी नहीं पीने और साफ पानी के लिए नलकूप का पानी इस्तेमाल करने के लिए कहना शुरू कर दिया।लगभग एक दशक बीत जाने के बाद पता चला कि नलकूप के पानी में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्थिति को पार कर चुकी है। कई शोध हुए तो पता लगा कि कुएँ का पानी सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है। नलकूप में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा क्यों होती है और कुएँ का पानी सेहत के लिए क्यों अच्छा है, इस सवाल के जवाब में दीपांकर कहते हैं कि कुएँ का पानी खुला होने की वजह से धूप और हवा (ऑक्सीजन) के संपर्क में रहता है। दूसरी बात यह है कि कुएँ के पानी में मौजूद आयरन (लौह तत्व) के संपर्क में आकर आर्सेनिक नीचे चला जाता है।
यही वजह है कि हम लोग नलकूप की बजाए कुएँ का पानी पीने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। ग़ौरतलब है कि दीपांकर इस इलाके में कुआं सहेजने के काम में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता सौरभ सिंह के बुलावे पर आते हैं और गांव-गांव घूमकर लोगों से पारंपरिक कुएँ को जिंदा करने की अपील करते हैं। पारंपरिक कुएँ को जिंदा करने की इस कहानी में 95 साल के धनिकराम वर्मा भी शामिल हैं। कुएँ की साफ-सफाई के काम में धनिक के बेटे कुमार वर्मा भी जी-जान से जुटे रहते हैं। धनिक अपने 12 सदस्यीय दल द्वारा कुएँ की सफाई कर लेने के बाद खुद कुएँ में उतरते हैं और सफाई का काम ठीक तरह से हुआ है या नहीं, इसे प्रमाणित करते हैं।
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (एनएचआरएम) के एक दल ने बलिया का दौरा किया था और वहां के नलकूप के पानी में आर्सेनिक का स्तर खतरनाक स्थिति में पहुंचा हुआ पाया। एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश सरकार से बलिया जिले के गाँवों में आर्सेनिक की वजह से जहरीले हो चुके पानी के पीने से बड़ी संख्या में लोगों के मरने के बारे में एक महीने के भीतर रिपोर्ट सौंपने को कहा है। एनएचआरसी के अनुसार, ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए नेशनल लेवल मॉनिटर ने भी आर्सेनिक से होने वाली मौतों पर एक रिपोर्ट तैयार करके 20 महीने पहले उत्तर प्रदेश सरकार को भेजी थी लेकिन सूबे की सरकार ने इस दिशा में कोई सक्रियता नहीं दिखाई थी, लेकिन 15 जून को बलिया नगरपालिका के अधिशासी अधिकारी संतोष मिश्र ने शहर के 25 कुओं का जीर्णोंद्धार कराने की घोषणा की है। वहीं दूसरी ओर बिहार सरकार की दिलचस्पी कुओं को जिंदा करने की बजाए पानी के बड़े-बड़े संयंत्र लगाने में है।
बिहार के भोजपुर में 2009-10 में करोड़ों रुपए की लागत से पाइप से जलापूर्ति की योजना शुरू की गई थी। इस योजना के तहत बिहार के भोजपुर जिले के अलावा बक्सर, पटना, वैशाली और भागलपुर जिले के सैकड़ों गाँवों में पाइप से पानी पहुंचाने की योजना है। वैशाली के बिदुपुर गांव में पानी की आठ टंकियों का निर्माण भी किया जा चुका है। बिहार के जन स्वास्थ्य व अभियांत्रिकी विकास (पीएचईडी) मंत्रालय की ओर से जारी किए गए बयान में कहा गया कि भूजल में आर्सेनिक कहां-कहां है, इसका पता लगाना मुश्किल है। यही वजह है कि पाइप से गंगा किनारे बड़ी आबादी को पीने योग्य पानी पहुँचाए जाने की योजना बनाई गई है।
बलिया में कुएँ को जिंदा करने के सस्ते और देसी उपायों के बारे में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है कि जब चार-पांच हजार रुपए खर्च करके पीने का पानी मिल रहा हो तब करोड़ों और अरबों के उपाय किए जाएं तो मन में शंका का उठना लाजमी है। एक गैर-सरकारी इनर वॉयस फ़ाउंडेशन संगठन द्वारा तैयार किए गए एक आंकड़े के अनुसार बलिया में 5000 और शाहपुर इलाके में 7000 कुएँ हैं। एक कुएँ के निर्माण में छह लाख रुपए का खर्च आता है और इस हिसाब से उत्तर प्रदेश सरकार के पास कुएँ के निर्माण के लिये तीन अरब रुपए की संपत्ति है और इसे सहेजने का खर्च दो करोड़ आएगा। बिहार सरकार के पास सिर्फ शाहपुर इलाके में कुएँ के बतौर 4.20 अरब रुपए की पारंपरिक संपत्ति है और इसे सहेजने का खर्च 2.8 करोड़ रुपए आएगा। दोनों राज्यों की सरकारें आर्सेनिक से मुक्ति पाने के लिए अगर कुआं बचाने में कुछ करोड़ खर्च कर दें तो इन इलाकों के लोगों की सेहत फिर से खिलखिला उठेगी।