छपरा सारण के लोग आर्सेनिक युक्त जहरीला पानी पीने को अभिशप्त

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विकास का क्षितिज छू लेने के होड़ में जल संचय व संरक्षण की प्राचीन व्यवस्था सारण के इस गंगा तटीय क्षेत्र में लगभग समाप्त सी हो गयी। पोखर सूख गये और चंवरों से नदी तक जाने वाले पईन व नाले नक्शे से गायब हो गये। नालों पर मकान खड़ा कर दिया गया और पोखर खेत बन गये। लोगों को जल संरक्षण का भान नहीं रहा और भूमिगत जल में गिरावट होती चली गयी। आज जब पीने के पानी की समस्या खड़ी हुई है तो यहां के लोगों को पोखर व जल संरक्षण का महत्व समझ में आने लगा है।छपरा सारण के गंगा तटीय निवासी बिन पानी की मछली की तरह तड़प रहे हैं। परम्परागत जल स्त्रोत की उपेक्षा व भूमिगत जल के दोहन का कुप्रभाव यहां दिखने लगा है। संग्रहीत जल स्त्रोत में गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। लोकनायक जयप्रकाश की जन्म स्थली से लेकर सारण के पूर्वी छोर पहलेजाघाट तक गंगा नदी की 10 किमी के क्षेत्रफल की एक बड़ी आबादी आर्सेनिक युक्त जहरीला जल पीने को अभिशप्त है। हद यह कि इस तटीय क्षेत्र में फैले बालू व्यवसाय में लगे करीब 40 हजार मजदूर व यहां के गांवों के लाखों लोग नदी का प्रदूषित पानी पीते हैं।

इस गंगा तटीय क्षेत्र में बोरिंग या चापाकल लगवाना दुष्कर कार्य है। रिविलगंज, छपरा सदर, दिघवारा व सोनपुर प्रखंड के करीब चार दर्जन से उपर गांव ऐसे हैं जहां के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा आवश्यकता से अधिक है। पीएचईडी विभाग ने इन गांवों के 60 फीसदी चापाकलों को चिह्नित कर इन पर लाल रंग का निशान लगा दिया है। जिनके पानी नही पीने की हिदायत ग्रामीणों को पांच-छह वर्ष पूर्व ही दी जा चुकी है। प्रारम्भ में एक-दो वर्ष तक इन चिह्नित चापाकलों का पानी लोगों ने पीने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन अब लाल चिह्न भी उन कलों से मिट गया है और विकल्प नहीं होने के कारण लोगों ने वही आर्सेनिक युक्त पानी पीना शुरू कर दिया है। चिकित्सकों की मानें तो आर्सेनिक युक्त जल पीने से तत्काल कुछ नहीं होता लेकिन लगातार प्रयोग दस-पन्द्रह वर्षो में अपना रंग दिखाने लगता है। बदन पर कुछ अजीब तरह के निशान बनने लगते हैं और वह व्यक्ति कैंसर व अन्य असाध्य रोगों का शिकार बन जाता है।

सदर प्रखंड के चिरांद नोनिया टोली निवासी शंकर महतो, सिपाही महतो, कुर्मी टोला निवासी योगेन्द्र मिस्त्री, गुप्तेश्वर नाथ पांडे, गोरेया टोला निवासी जजन राय, मुन्शी राय आदि ने बताया कि उनके गांव में चापाकल लगाना कठिन कार्य है। 270 से 325 फीट के लेयर पर यहां पानी मिलता है। जिसमें करीब 50 हजार रुपये की लागत आती है। इतनी बड़ी राशि पेयजल स्त्रोत पर व्यय करना आम लोगों के लिए सम्भव नही है। वह भी तब जब यह गारंटी नहीं कि गाड़े जाने वाले चापाकल में आर्सेनिक न निकलेगा। ऐसे में वे और उनके गांव के लोग कुआं या आर्सेनिक जल वाले चापाकल का पानी पीते हैं। जब इनके भी जलस्त्रोत सूख जाते है तो ग्रामीण गंगा जल पीते हैं।इस बाबत जब पीएचईडी के अधीक्षण अभियंता विनोद कुमार सिंह से पूछा गया तो उनका कहना था सेन्ट्रल वाटर कमिशन ने सिताबदियारा में एक बोरिंग कराया है। जिसका जल आर्सेनिक विहीन निकला है। इस बोरिंग पर एक करोड़ रुपये की लागत से रूलर पाइप लाइन वाटर सप्लाई स्कीम शुरू की जायेगी। दिघवारा प्रखंड के दूधिया गांव में 44 लाख रुपये की लागत से पायलट प्रोजेक्ट के रूप में आर्सेनिक विहीन पानी ग्रामीणों को पिलाने की योजना पर काम शुरू होने जा रहा है। जिले के अन्य आर्सेनिक जल क्षेत्र में भी पीने के शुद्ध जल की व्यवस्था की योजना बन रही है। लेकिन कब तक का उनके पास कोई उत्तर नही है। जल जांच के लिए पंचायतों को उपलब्ध कराये गये उपकरण व हर पंचायत में पांच लोग को दिये गये प्रशिक्षण बेकार चले गये। नवार्ड के सहयोग से जिला मुख्यालय में स्थापित होने जा रहा प्रयोगशाला व पानी की जांच को शुरू होने वाले कवायत से आशा की एक किरण जगी है।

आधुनिकता व विकास का क्षितिज छू लेने के होड़ में जल संचय व संरक्षण की प्राचीन व्यवस्था सारण के इस गंगा तटीय क्षेत्र में लगभग समाप्त सी हो गयी। पोखर सूख गये और चंवरों से नदी तक जाने वाले पईन व नाले नक्शे से गायब हो गये। नालों पर मकान खड़ा कर दिया गया और पोखर खेत बन गये। लोगों को जल संरक्षण का भान नहीं रहा और भूमिगत जल में गिरावट होती चली गयी। आज जब पीने के पानी की समस्या खड़ी हुई है तो यहां के लोगों को पोखर व जल संरक्षण का महत्व समझ में आने लगा है। पूर्वजों की व्यवस्था को ध्वस्त करने पर उन्हें अफसोस होने लगा है। लेकिन अब पछताये क्या होत, जब चिड़िया चुंग गई खेत..।
 

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