गुणवत्ता-जल की बेहद जरूरत,PC-Shutterstock
गुणवत्ता-जल की बेहद जरूरत,PC-Shutterstock

जल की गुणवत्ता अति आवश्यक

भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards-BIS) द्वारा जल की गुणवत्ता पर प्रकाशित रिपोर्ट में यह बताया गया है कि स्वच्छ जल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है तथा बेहतर पारिस्थितिकी के निर्माण में इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट में दर्शाए गए आँकड़ों ने एक बार पुनः जल के गुणवत्ता सम्बंधी प्रश्न को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
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अधिकांश सभ्यताओं का उदय नदियों के तट पर हुआ है जो इस बात को इंगित करता है कि जल, जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए अनिवार्य ही नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण संसाधन भी है। विगत कई दशकों में तीव्र नगरीकरण, आबादी में निरंतर वृद्धि, पेयजल आपूर्ति तथा सिंचाई हेतु जल की मांग में वृद्धि के साथ ही औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार ने जल-संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है। एक ओर जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु सतही एवं भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन के कारण भूजल स्तर में गिरावट होती जा रही है तो दूसरी ओर प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जल की गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आती जा रही है। अनियमित वर्षा, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाओं ने भूमिगत जल पुनर्भरण को अत्यधिक प्रभावित किया है। 

आज विकास की अंधी दौड़ में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार एवं तीव्र नगरीकरण ने देश की प्रमुख नदियों विशेष रूप से गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा एवं कृष्णा को प्रदूषित कर दिया है। जल की गुणवत्ता में गिरावट का एक प्रमुख कारण बढ़ता जल प्रदूषण भी है। 

नवंबर 2022 में भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards - BIS) द्वारा जल की गुणवत्ता पर प्रकाशित रिपोर्ट में यह बताया गया है कि स्वच्छ जल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है तथा बेहतर पारिस्थितिकी के निर्माण में इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट में दर्शाए गए आंकड़ों ने एक बार पुनः जल के गुणवत्ता सम्बंधी प्रश्न को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

नगरों, खेतों और उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थ बहकर नदियों में जा मिलते हैं। खनन के दौरान निकला मलबा जल स्रोतों में डाल दिया जाता है। चूँकि जल एक अच्छा विलायक है और आसानी से हर पदार्थ इसमें घुल जाते हैं, इसलिए यह बहुत आसानी से प्रदूषित हो जाता है। खेतों में डाले गये उर्वरक और कीटनाशक पदार्थ रिसकर भूगर्भीय जल को प्रदूषित कर देते हैं। इन सभी प्रदूषकों को अकार्बनिक पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ और सूक्ष्म जीवों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अकार्बनिक पदार्थों में भारी धातुएँ (Cd, Hg, Pb, As), हैलाइड, ऑक्सी ऋणायन व धनायन और रेडियो एक्टिव पदार्थ शामिल हैं। ये अकार्बनिक पदार्थ जैव अपघटनीय नहीं होने के कारण लम्बे समय तक जल में बने रहते हैं। भारी धातुएं और उनके लवण (आर्सेनिक, नाइट्रेट, फ्लोराइड) स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक और कैंसरकारी हैं। 

कार्बनिक प्रदूषकों में औषधियाँ, माइक्रो-प्लास्टिक, सक्रियक (Surfactant), व पॉली फ्लोरोएल्किस पदार्थ, व्यक्तिगत देखभाल के लिए काम में लिए जाने वाले मुख्य पदार्थ और कीटनाशक हैं। इनमें कीटनाशकों की सर्वाधिक मात्रा भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त भूमिगत जल में पायी गयी है। जल प्रदूषक सूक्ष्म जीवों में वायरस (अधिकांश नॉन-एनवेलप्ड), जीवाणुओं (ई. कोली, सालमोनेला, कैम्पाइलोवैक्टर आदि अनेक प्रजातियाँ) और प्रोटोजोआ की विभिन्न जातियाँ पायी गयी हैं। ये रोगाणु मुख्य रूप से मनुष्य में आन्त्रिय और श्वसनीय रोग उत्पन्न करते हैं। कई बार ये सभी प्रदूषक (अकार्बनिक, कार्बनिक, सजीव और मृत पदार्थ) परस्पर मिलकर जल की सतह पर या पानी के पाइपों में एक बायो-फिल्म का निर्माण करते हैं। 

पेयजल में कई बार पाई जाने वाली यह बायो-फिल्म मानव स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। यह समस्या पाइपों के भीतर कोलीफॉर्म जीवाणुओं की वृद्धि के कारण उत्पन्न होती है। जल प्रदूषण पर निगरानी रखने की पारंपरिक तकनीकें प्रयोगशालाओं और प्रशिक्षित स्टाफ पर निर्भर हैं। ये तकनीकें महंगी और श्रम साध्य तो हैं ही, साथ ही इनमें मानवीय त्रुटि की भी संभावना रहती है। वर्तमान में शोध संस्थानों द्वारा स्वचालित जिओटेग्ड (विभिन्न मीडिया से जुड़ी हुई भौगोलिक जानकारी) और रियल टाइम गतिशील संवेदकों द्वारा नदियों में पिन प्वॉइंट प्रदूषण पर निगरानी की जा रही है। इन उच्च रिजोल्यूशन आंकड़ों का मशीन लर्निंग द्वारा विश्लेषण कर जल की गुणवत्ता का आंकलन किया जा सकता है। 

वर्तमान में भारत में गंगा, यमुना जैसी नदियों के जल की गुणवत्ता को जांचने के लिए इस विधि का उपयोग किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त स्थानीय तापमान, वर्षा, आस-पास स्थित उद्योग और कृषि भूमि की जानकारी जल की गुणवत्ता को जांचने में सहायक होती है। आज से 20-25 वर्ष पूर्व सामान्य फिल्ट्रेशन और क्लोरीनीकरण विधियों द्वारा जल शोधन किया जाता था। समय के साथ जल शोधन की नवीन तकनीकों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। जल शोधन की प्राचीन तकनीकों के प्रचलन से बाहर होने के तीन प्रमुख कारणों में पहला जल में नवीन और दुर्लभ प्रदूषकों की खोज, दूसरा, जल की शुद्धता व गुणवत्ता के नवीन मानदंड और तीसरा उसकी लागत प्रमुख हैं। 

जल शोधन की नवीन तकनीकों को बेहतर सिद्ध करने के लिए उनमें पारंपरिक तकनीकों की तुलना में कुछ विशेषताएं जैसे उनके संचालन और रख-रखाव की कम लागत और उच्च कुशलता आदि होनी चाहिये, जब हम किसी नवीन तकनीक को वृहत स्तर पर उपयोग में लेने की बात सोचते हैं तो वहाँ लागत बहुत महत्वपूर्ण होती है। प्रयोगशाला में बेहतर प्रदर्शन करने वाली तकनीकें कई बार अधिक लागत के कारण व्यावहारिक रूप से असफल हो जाती हैं। 

नीचे वर्णित जल शोधन की कुछ तकनीकें उनके विकास से लेकर अब तक निरंतर परिष्कृत हुई हैं। वर्तमान में कीटाणु-विज्ञान, जैव रसायन और नैनो प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधानों ने जल शोधन के क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया है। 

मेम्ब्रेन फिल्ट्रेशन तकनीक दाब आधारित मेम्ब्रेन फिल्ट्रेशन 

जल-शोधन के लिए काम में ली जाने वाली मेम्ब्रेन एक प्रकार की महीन छिद्रित या पारगम्य झिल्लियाँ होती हैं जिसमें दाब के साथ जल प्रवाहित करने पर अशुद्धियाँ और सूक्ष्म जीव पृथक हो जाते हैं। इस विधि में किसी प्रकार के रसायनों की आवश्यकता नहीं होती। यह विधि पेयजल को शुद्ध करने और वृहत्त स्तर पर अनुपयोगी जल के उपचार दोनों ही कार्यों के लिए उपयोग में लाई जा रही है। समय के साथ इनकी निर्माण विधि में काफी परिवर्तन आया है और लागत भी कम हुई है।

इस तकनीक को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

  • 1 - निम्न दाब मेम्ब्रेन सिस्टम और 

  • 2 - उच्च दाब मेम्ब्रेन सिस्टम।

इनमें 10-30 चेप (पौंड प्रति वर्ग इंच) दाब प्रयुक्त किया जाता है, वहीं उच्च दाब मेम्ब्रेन सिस्टम' (नैनोफिल्ट्रेशन और विपरीत परासरण (RO) में 75 से 250 चेप दाब प्रयुक्त किया जाता है।  निम्न दाब मेम्ब्रेन सिस्टम  MF मेम्ब्रेन में छिद्रों का आकार 0.1 माइक्रोन और UF मेम्ब्रेन में छिद्रों का आकार 0.01 माइक्रोन कणीय अशुद्धियों (गंदलापन) और सूक्ष्म जीवों को पृथक करने में सक्षम है। ये झिल्लियाँ जीवाणुओं, सूक्ष्म शैवाल, गिअर्डिया सिस्ट और क्रिप्टोस्पोरीडियम ऊसिस्ट (परजीवी प्रोटोजोआ) के लिए बेहतरीन अवरोधक हैं। UF मेम्ब्रेन कुछ वायरसों को भी पृथक कर सकती है लेकिन ये झिल्लियाँ जल में विलेय कार्बनिक अशुद्धियों को पृथक करने में सक्षम नहीं हैं जो कि जल के रंग, गंध और स्वाद को प्रभावित करते हैं। जल की एक समान गुणवत्ता बनाये रखने में ये झिल्लियाँ प्रभावी हैं किन्तु कुछ समय बाद इनके अवरुद्ध होने की समस्या रहती है।  उच्च दाब मेम्ब्रेन सिस्टम  इसमें नैनोफिल्ट्रेशन और RO आते हैं। नैनोफिल्ट्रेशन में छिद्रों का आकार 0.001 माइक्रोन होता है। यह सिस्टम सभी जीवाणुओं, रोगजनक प्रोटोजोआ, वायरसों और जैव पदार्थों को पृथक करने में सक्षम है। यह जल की क्षारीयता और कठोरता को भी दूर कर सकता है। RO सिस्टम सभी अशुद्धियों और सूक्ष्मजीवों सहित जल में घुले हुए अकार्बनिक तत्वों और आयनों को भी अलग कर सकता है। इस सिस्टम की लागत ज्यादा है। झिल्लियों के अवरोधन की समस्या इसमें भी आती है। इस पद्धति में बहुत अधिक मात्रा में अनुपयोगी जल उत्पन्न होता है।  माइक्रो और अल्ट्राफिल्ट्रेशन झिल्लियाँ सामान्यतः सिंथेटिक कार्बनिक पॉलीमर्स की बनी होती हैं जैसे पॉलीसल्फोन और सेल्यूलोस एसीटेट। इनके निर्माण के लिए सेरेमिक पदार्थ और स्टील जैसे अकार्बनिक पदार्थ भी उपयोग में लाए जा सकते हैं। हालाँकि सेरेमिक झिल्लियाँ ताप सह्य और अक्रिय होती हैं लेकिन उच्च लागत और नाजुक होने की वजह से अधिक प्रचलन में नहीं हैं। इनमें नैनो स्तर पर कार्यशील झिल्लियाँ सबसे नवीनतम हैं। ये सिल्वर नैनो कणयुक्त पॉलीमर पदार्थों से निर्मित होती हैं। इनकी खासियत यह है कि जैव अवरोध द्वारा इनके छिद्रों के बंद होने की समस्या नहीं रहती ।  जल शोधन संयंत्रों में 4 प्रमुख प्रकार के मोड्यूल होते हैं-प्लेट और फ्रेम, ट्यूबलर, स्पाइरल वाउंड और होलो फाइबर। इनमें सबसे सरल प्रकार के मॉड्यूल प्लेट और फ्रेम हैं, जिसमें दो अंतरालकों (फीड और प्रोडक्ट अंतरालक) के मध्य फिल्ट्रेशन मेम्ब्रेन होती है। वर्तमान में यह मोड्यूल उपयोग में नहीं है।  ट्यूबलर मोड्यूल में मेम्ब्रेन (अर्ध पारगम्य झिल्ली) एक छिद्रित स्टील या फाइबर ग्लास ट्यूब के भीतर आस्तरित होती है। जिसके भीतर दाब से जल को प्रवाहित किया जाता है। शुद्ध जल छन कर ट्यूब के छिद्रों से बाहर आ जाता है। वर्तमान में सबसे लोकप्रिय नैनो फिल्ट्रेशन और RO में स्पाइरल वाउंड मोड्यूल प्रयोग में लिया जाता है। इसमें केन्द्रीय छिद्रित ट्यूब के चारों ओर फिल्ट्रेशन मेम्ब्रेन की कई परतें और अपारगम्य अंतरालक उच्च दाब पर पैक्ड होते हैं। लिपटी हुई झिल्लियों पर जल प्रवाहित किया जाता है। शुद्ध जल झिल्लियों से रिसकर ट्यूब में एकत्रित हो जाता है।  होलो फाइबर मोड्यूल समुद्री जल के अलवणीकरण के लिए उपयोग में लिए जाते हैं। वृहत्त स्तर पर अनुपयोगी जल के शोधन और मेम्ब्रेन बायोरिएक्टर्स में भी इनका उपयोग किया जाता है।

फॉरवर्ड ओसमोसिस (FO) 

यह सामान्य परासरण की प्रक्रिया है। फीड वाटर FS (अपशिष्ट जल) और एक अधिक सांद्रता के घोल (DS) को अर्धपारगम्य झिल्ली से पृथक कर परासरण द्वारा जल के अणुओं को अलग किया जाता है। DS सामान्यतः नमक या मैग्नीशियम क्लोराइड का सान्द्र घोल होता है। बाद में किसी अन्य विधि द्वारा इस घोल (ड्रा सोल्यूशन DS) से जल की पुनः प्राप्ति की जाती है। यह DS की प्रकृति पर निर्भर करता है कि जल कैसे पृथक किया जाए। इस विधि में ऊर्जा की खपत कम होती है। इस विधि द्वारा नगरीय अपशिष्ट जल से 70% तक शुद्ध जल प्राप्त किया जा सकता है।  इलेक्ट्रो-डायलिसिस (ED) और इलेक्ट्रो-डायलिसिस रिवर्सल (EDR) इन दोनों विधियों में विद्युत धारा और आयन पारगम्य झिल्लियों का उपयोग किया जाता है। एक तनु विलयन से सान्द्र विलयन में विद्युत विभव की सहायता से 'आयन पारगम्य’ झिल्लियां प्रयोग में ली जाती हैं -धनायन पारगम्य और ऋणायन पारगम्य।  संयंत्र में एक तरफ से तनु विलयन (फीड सोल्यूशन) प्रवाहित किया जाता है। धनायन कैथोड, ऋणायन एनोड की ओर गति करते हैं। ऋणावेशित 'धनायन एक्सचेंज झिल्लियाँ' धनावेश को आकर्षित करती हैं,  धनावेशित 'ऋणायन एक्सचेंज झिल्लियाँ' (EM) ऋणावेश को आकर्षित करती हैं। इस प्रकार आयन झिल्लियों से गति करते हुए, सांद्रित विलयन में पहुँचते रहते हैं। ईडीआर प्रक्रिया में इलेक्ट्रोड क्रमिक रूप से एक्सचेंज होते हैं। इस विधि में झिल्लियां अवरुद्ध नहीं होतीं, इन दोनों ही विधियों द्वारा आयनिक अशुद्धियों अनुपयोगी जल से दूर किया जाता है।   रिवर्स ओस्मोसिस प्रौद्योगिकी (आरओ) आधारित वाटर प्यूरीफिकेशन रिवर्स ओस्मोसिस प्रौद्योगिकी (आरओ) आधारित वाटर प्यूरीफिकेशन पेयजल में टीडीएस स्तर कम करने की सर्वाधिक मान्य विधि है। फिर भी इस प्रौद्योगिकी के अपने फायदे और नुकसान हैं जिन पर RO वाटर प्यूरीफायर खरीदने से पहले विचार कर लेना चाहिए।  यह सत्य होते हुए भी कैसी विडम्बना है कि पृथ्वी की 70 प्रतिशत सतह जल से ढकी हुई है और फिर भी इस जल को बिना शुद्ध किये पिया नहीं जा सकता। पृथ्वी में उपलब्ध जल का 1% से भी कम जल पेयजल के रूप में प्रयुक्त होता है और वह भी लगातार प्रदूषित होता जा रहा है। देश के कई भागों में शुद्ध जल प्राकृतिक रूप से प्राप्त होना अब बीती बात हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार 80 प्रतिशत बीमारियां जलजनित होती हैं। आपके नल से प्राप्त होने वाला जल भौतिक रासायनिक और जैविक अशुद्धियों से प्रदूषित हो सकता है और उच्च पूर्ण घुलनशील ठोस TDS स्तर का हो सकता है। 

लेखक संपर्क -संजय गोस्वामी, यमुना जी-13, अणुशक्तिनगर, मुम्बई (महाराष्ट्र)

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