लाॅकडाउनः गंगा में 47 प्रतिशत कम हुआ मानव मल
भारत की 40 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गंगा के जल पर ही निर्भर है। इस आधार पर कहा जा सकता है, कि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में गंगा के तट पर बसे शहरों का वजूद और लोगों की आजीविका को बचाने के लिए गंगा नदी का अस्तित्व बचाना बेहद जरूरी है। तो वहीं हिंदू धर्म के विभिन्न धार्मिक कर्मकांड और पर्व-त्योहार व मेले गंगा के जल के बिना अधूरे हैं। इसके बावजूद भी उत्तराखंड के गोमुख से निकलकर गंगा नदी का जल उत्तरकाशी की सीमा से बाहर निकलते ही प्रदूषित होने लगता है। ऋषिकेश और हरिद्वार में आते ही गंगा जल पीने योग्य नहीं रह जाता। यहां से आगे बढ़ते-बढ़ते जब गंगा नदी कानुपर पहुंचती है, तो ये नदी लगती ही नहीं। औद्योगिक कचरे के कारण यहां नदी का पानी काला पड़ जाता है। यही हाल यमुना नदी का है। यमुनोत्री से शुरु होकर यमुना नदी दिल्ली वज़ीराबाद बैराज के बाद दिल्ली में प्रवेश करते ही, दम तोड़ने लगती है।
गंगा नदी को साफ करने के लिए कई योजनाए बनाई गई। गंगा की स्वच्छता के लिए 14 जनवरी 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी। योजना के 496.90 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया गया। सीवरेज के पानी को ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर खेती के उपयोग में लाने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन आज 34 साल बाद गंगा पहले की अपेक्षा काफी ज्यादा प्रदूषित है। वर्ष 2000 में आई कैग की रिपोर्ट बताती है कि 15 वर्षो में ‘गंगा एक्शन प्लान’ में लगभग 902 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे, लेकिन इसके बाद भी गंगा नदी का जल आचमन योग्य नहीं बन पाया। ऐसा ही कुछ हाल 2014 में 20 हजार करोड़ रुपये की लागत से शुरु की गई ‘नमामि गंगे’ योजना का भी है। इसी प्रकार यमुना एक्शन प्लान पर भी करीब 1656 करोड़ रुपये खर्च किए गए, लेकिन दिल्ली के अंदर यमुना 'नदी' बनने के बजाए पूर्ण ‘नाला’ बन गई। जिससे आसपास के इलाकों में बदबू फैली रहती है और विभिन्न प्रकार की बीमारियों का जन्म हो रहा है।
हरिद्वार में साफ होने के बाद कुछ इस तरह दिख रहा है गंगा नदी का जल। फोटो -Twitter
गंगा और युमना नदी को साफ करने के लिए आज भी करोड़ों रुपयों की योजनाओं के माध्यम से कार्य किया जा रहा है, लेकिन जो कार्य योजनाएं नहीं कर पाई लाॅकडाउन ने बिना किसी योजना और धन के कर दिया। अभी तक हर कोई देखता और सुनता आ रहा था कि लाॅकडाउन के कारण गंगा नदी का जल साफ हो गया है, जिसमें आराम से नहाया जा सकता है। तो वहीं कई वैज्ञानिक दावा कर रहे थे कि गंगा नदी का जल आचमन योग्य तक हो गया है। उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला के समीप मानव मल जिसे अंग्रेजी में फ़ीकल काॅलिफोर्म कहा जाता है, की मात्रा 47 प्रतिशत तक कम हुई है। ऋषिकेशल बैराज के आगे गंगा जल में मानव मल में 46 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, जबकि हरिद्वार में बिंदुघाट के पास 25 प्रतिशत और हरकी पैड़ी पर मानव मल 34 प्रतिशत तक कम हो गया है। इसन सभी के आधार पर वैज्ञानिक गंगा जल को पीने योग्य होने का दावा कर रहे हैं।
गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए कार्य कर रही संस्था मातृसदन के परमाध्यक्ष स्वामी शिवानंद सरस्वती का कहना है कि गंगा और यमुना जैसी विभिन्न नदियों में खुद को साफ करने की क्षमता है। इन्हें साफ करने के लिए किसी भी प्रकार की योजनाओं की जरूरत नहीं, लेकिन गंगा की अविरल धारा पर बांध बनाकर उसके रोका गया है। औद्योगिक कचरे और सीवरेज ने नदी को प्रदूषित कर दिया है। वे कहते हैं कि लाॅकडाउन के कारण बेशक नदी का जल साफ हुआ है, लेकिन इतना भी साफ नहीं हुआ है कि उसे पीया जा सके। जो वैज्ञानिक पीने योग्य होने का दावा कर रहे हैं, वें खुद गंगा के पानी को पीकर दिखाएं। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफेसर और भारतीय पर्यावरण विज्ञान अकादमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ. बीडी जोशी का कहना है कि ‘‘लाॅकडाउन के कारण गंगा की स्थिति एकदम बदल गई है। पहले के मुकाबले जल काफी स्वच्छ नजर आ रहा है। इसका मुख्य कारण तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की आवाजाही बंद होने के साथ ही, उद्योगों का पूरी तरह से बंद होना है। उन्होंने बताया कि यदि प्रदूषण पर अंकुश लगा दी जाए, तो गंगा पहले की तरह की निर्मल हो सकती है।’’ खैर अब देखना ये होगा कि लाॅकडाउन के बाद सरकार किसी प्रकार गंगा को स्वच्छ रखने की योजना तैयार करती है।
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