लौट रही महक जिंदगी की
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में प्रदूषण पर काबू पाकर वापी ने सामूहिक प्रयासों की नई इबारत ही लिख डाली है
जब केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश पिछले महीने दक्षिण गुजरात पहुंचे तो सब हैरत में पड़ गए। इसे दक्षिण एशिया के सर्वाधिक प्रदूषित औद्योगिक शहरों में माना जाता था। उन्होंने रासायनिक और रंगसाजी के कारखानों तथा गुजरात सरकार के प्रदूषण घटाने के बेहतरीन प्रयासों की सराहना कर डाली। और कहा कि इससे दूसरों को भी सीख लेनी चाहिए।
पिछले 30 माह में वापी बड़े बदलाव के दौर से गुजरा है। सर्वाधिक प्रदूषित शहर से वह अब जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में सबके लिए मिसाल बनने की राह पर अग्रसर है। इस कहानी से सबक मिलता है कि अगर औद्योगिक इकाइयों, केंद्र और राज्य सरकारों, अदालतों और गैरसरकारी संगठनों समेत समाज के मुख्य अंग किसी मुद्दे को लेकर एक मंच पर आ जाएं तो वे क्या नहीं कर सकते। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन को लेकर भविष्य की खासी भयावह तस्वीर पेश करने वाले अलगोर भी अगर वापी में आते तो वहां के बदलाव से काफी आश्चर्यचकित हो जाते।
पांच साल पहले की ही तो बात है जब वापी से गुजरने पर रसायनों की बदबू से खुद को बचाने के लिए नाक पर हाथ रखना पड़ता था। वापी में बहती नदी दमनगंगा का पानी उसमें छोड़े जाने वाले प्रदूषित अपशिष्ट जल के कारण लाल नजर आता था। और तो और, वापी के भू-जल में प्रदूषण का जहर घुल चुका था। वापी और उसके आसपास के 11 गांवों के हैंडपंप और कुंओं का पानी रसायनों के कारण जहरीला और लाल रंग का हो गया था। इससे राज्य सरकार का गुजरात औद्योगिक विकास निगम (जीआईडीसी), जिसके तहत वापी की औद्योगिक इकाइयां आती हैं, वापी के निवासियों को पीने का शुद्ध जल मुहैया कराने को बाध्य हुआ।
1997 तक दमनगंगा नदी में छोड़े जाने वाले रसायनों का सीओडी लेवल 3,500 था जो 1997 में जीआईडीसी और कुछ स्थानीय औद्योगिक इकाइयों द्वारा कम्युनिटी एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईपीटी) की स्थापना के बाद खासा कम हो गया। संयुक्त प्रयासों के चलते ही वापी वेस्ट ऐंड एफ्यूलेंट मैनेजमेंट कंपनी लि. (वीडब्लूईएमसीएल) की स्थापना की गई जिसने रासायनिक इकाइयों के अपशिष्ट जल (रसायनयुक्त) के प्रबंधन के साथ-साथ सीईपीटी के संचालन का काम संभाला। उस समय वीडब्लूईएमसीएल के प्रबंधन को, जिसके सदस्य आज 800 स्थानीय रासायनिक और रंगसाजी उद्योग हैं, राज्य सरकार ने वापी की स्थानीय रासायनिक इकाइयों को सौंप दिया था।
और जब तक इस क्रांति के एक पुरोधा और एक स्थानीय रासायनिक इकाई के मालिक अनिल मर्चेंट वीडब्लूईएमसीएल के प्रबंध निदेशक रहे, स्थिति ठीक रही और सीओडी स्तर कम होकर 1,200 पर आ गया। लेकिन 2000 में उन्होंने जैसे ही प्रभार छोड़ा स्थिति एकदम पलट गई। वीडब्लूईएमसीएल के सीईपीटी में अपशिष्ट जल की सफाई के बावजूद सीओडी स्तर 2,000 पर चला गया। कारणः सीइपीटी को अपशिष्ट जल भेजने वाली कंपनियां अपने ट्रीटमेंट प्लांट पर इनकी सफाई के बिना इन्हें भेज रही थीं। जाहिर है ऐसा वह पैसा बचाने के लिए कर रही थीं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी), और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी), जिसके कुछ अधिकारियों की दोषी उद्योगपतियों से सांठगांठ थी, के प्रयास रंग नहीं ला सके।
अंततः वापी की सबसे बड़ी इकाई यूनाइटेड फॉस्फोरस के राजू श्रॉफ सरीखे कुछ जिम्मेदार उद्योगपति आगे आए और 2008 में वे परिस्थितियों को ढर्रे पर लौटाने के लिए वीडब्लूईएमसीएल के एमडी पद पर मर्चेंट को दोबारा ले आए। इधर, श्रॉफ ने पहल की तो उधर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2008 में अलग से जलवायु परिवर्तन विभाग की स्थापना करने वाली गुजरात की पहली राज्य सरकार और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने दबाव बनाने का काम किया।
नतीजतन, 2008 में सीईपीटी के ट्रीटमेंट के बाद जो सीओडी स्तर 1,000 पर था वह 500 पर आ गया है और जिसके जल्द ही स्वीकार्य स्तर 250 पर पहुंचने की उम्मीद है। पहले पीएच स्तर अम्लीय था लेकिन अब वह न्यूट्रल या गैर-अम्लीय अथवा सामान्य है। वापी में अमोनिया नाइट्रोजन का स्तर 200 से घटकर 65 मिग्रा प्रति लीटर पर आ गया है जबकि स्वीकार्य सीमा 50 मिग्रा की है। टोटल सस्पेंडेड सॉलिड्स (टीएसपी) के स्तर में भी बहुत बड़ा सुधार देखने को मिला है। यह प्रति लीटर 1,000 मिग्रा से 500 पर आ गया है लेकिन इसकी स्वीकार्य सीमा 300 मिग्रा है।
लेकिन सीईपीटी की एक बड़ी उपलब्धि प्राकृतिक रूप से न सड़ने वाले सीओडी के स्रोतों की पहचान करना है। इसके लिए नई तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है जो संभवतः भारत में पहली बार है। श्रॉफ के मुताबिक, “वापी में सुधार में तीन कारकों ने अहम भूमिका निभाई है। संवाद और ज्ञानहीन उद्योगपतियों में जानकारी का संचार करना, जिससे उन्हें प्रदूषण नियंत्रण पर खर्च करने के लिए राजी कराया जा सका। साथ ही उन इकाई मालिकों के खिलाफ कड़े कदम उठाना भी, जो नई तकनीकी को अपनाने के लिए खर्च नहीं करना चाहते थे।”
आज वापी स्थित सीईपीटी तीसरी दुनिया के देशों के संभवतः अच्छी तरह साजो-समान से लैस स्थान है। इसके पास घुलनशील जैव प्रदूषकों के सफाई में प्रयोग होने वाला एरेशन टैंक हैं। तरल पदार्थों से प्लास्टिक और कचरा हटाने के लिए ऑटोस्क्रीन, अपशिष्ट जल को समान रूप से मिलाने के लिए इक्वेलाइज़र टैंक, गाद से निपटने के लिए डिकेंटर हाउस और अपशिष्ट जल से सीओडी लेवल को कम करने के लिए एफएसीसीओ और यूएसएबी रिएक्टर सरीखी तकनीकें प्रयोग में लाई जा रही हैं, जो भारत में कहीं और नहीं हैं।
2008 में जब मर्चेंट ने वीडब्लूईएमसीएल के एमडी का कार्यभार दोबारा संभाला तो उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए नियमों का उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना 25,000 रु. से बढ़ाकर 1,00,000 रु. कर दिया। जानकारी न रखने वाले लोगों से मुलाकात कर उन्होंने औद्योगिक प्रदूषण से निबटने के फायदों से उन्हें रू-ब-रू कराया। मर्चेंट कहते हैं, “वापी के एक कुख्यात रसायन व्यापारी को मैं वीडब्लूईएमसीएल की ओर से 1999 में अदालत ले गया था। वह बड़े स्तर पर घातक औद्योगिक प्रदूषण फैला रहा था, बावजूद इसके कि उसके पास नीरी समेत सभी सरकारी एजेंसियों से प्रमाण पत्र थे। जिससे पता चलता है कि प्रदूषण हटाने के लिए प्रतिबद्ध सरकारी एजेंसियों में किस कद्र भ्रष्टाचार हावी है।”
परिस्थितियां अब पूरी तरह बदल चुकी हैं। गुजरात सरकार के तीन वरिष्ठ अधिकारियों ने जिसमें वन सचिव एस.के. नंदा, उद्योग सचिव एम.के. साहू और जीपीसीबी सदस्य-सचिव हार्दिक शाह (जो हाल तक पर्यावरण उप-सचिव हुआ करते थे) ने मुख्यमंत्री मोदी के सीधे दिशा-निर्देश में 2008 से यहां स्थिति को अनुशासित रखने का बीड़ा उठाया है। दूसरी ओर, केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भी दबाव बनाया। नतीजतन, इन तीनों ने वीडब्लूईएमसीएल का नियंत्रण उद्योगपतियों से लेकर पर्यावरण विशेषज्ञों/तकनीकी विशेषज्ञों और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों को सौंप दिया क्योंकि मर्चेंट तथा श्रॉफ के ईमानदारी भरे प्रयासों के बावजूद कई उद्योगपति वीडब्लूईएमसीएल बोर्ड को अपने मुताबिक चला रहे थे।
अब मर्चेंट वीडब्लूईएमसीएल के तकनीकी सलाहकार बन गए हैं। उसका सीईओ एक पर्यावरण विशेषज्ञ को बनाया गया है। इस नई व्यवस्था में वीडब्लूईएमसीएल के चेयरमैन जीआइडीसी के प्रबंध निदेशक और आइएएस अधिकारी अरविंद अग्रवाल हैं। प्रदूषण नियंत्रण के लिए विलक्षण भागीदारी की मिसाल कायम करते हुए अब प्रतिबद्ध सरकारी अधिकारी समझदार स्थानीय उद्योगपतियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। गुजरात सरकार ने इस बोर्ड को एन्वॉयर्नमेंट प्रोफेशनल लोगों के हाथ में देने का प्रयास किया। जो वापी के हालात में और सुधार लाएंगे। श्रॉफ कहते हैं, “नरेंद्र मोदी के प्रदूषण नियंत्रण को लेकर कड़े रुख के चलते कोई भी उद्योगपति रियासत नहीं मांगता है।”
महत्वपूर्ण यह है कि अगर प्रदूषण नियंत्रण की कीमत पर गौर किया जाए तो वह भी बहुत ज्यादा नहीं है। उदाहरण के लिए, अगर मझोले स्तर की कोई रासायनिक इकाई रोजाना 100 किलो लीटर पानी का प्रयोग करती है और उसका सालाना कारोबार 25 करोड़ रु. का है तो उसे प्रदूषण के प्रबंधन पर 50,000 रु. प्रति माह खर्च करने होंगे जबकि प्राइमरी इफ्लुएंट ट्रीटमेंट यूनिट लगाने का खर्च 40 लाख रु. है। यह मझोले स्तर की किसी इकाई के मालिक के लिए बहुत ज्यादा नहीं माना जाता। चेन्नै स्थित सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट के पर्यावरण विशेषज्ञ जी. शेखरन कहते है, “वापी का उदाहरण सारे देश के लिए एक उदाहरण है। अगर वापी ऐसा कर सकता है देश के बाकी हिस्सों में भी यह संभव है।”
लेकिन अधिकतर लोग यह नहीं भूले हैं कि इस दिशा में बढ़ने की राह पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी.एन. किरपाल ने दिखाई थी, जिन्होंने 1997 में औद्योगिक प्रदूषण के खिलाफ गुजरात में मुहिम चलाई थी। उस समय वे गुजरात के मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने राज्य की कई इकाइयों को बंद भी करवा दिया था। बेशक कई लोगों ने उन्हें उस समय कोसा होगा, लेकिन वही लोग आज उनकी प्रंशसा करने से पीछे नहीं रहते होंगे।