मानवीय गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण (Water pollution due to human activities)

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जल प्रदूषण की चर्चा करते ही हमारे सामने बड़े-बड़े उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल के दृश्य आ जाते हैं। हम जल प्रदूषण का अर्थ औद्योगिक जल प्रदूषण से ही लेते हैं। लेकिन उद्योगों के अतिरिक्त जल प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं। यहाँ हम कुछ ऐसी मानवीय गतिविधियों की चर्चा करें जिनसे जल प्रदूषण होता है।

1. घरेलू दूषित जल :-

हमारे देश की जनसंख्या 1 अरब से ज्यादा है तथा महानगरों को छोड़कर अन्य विभिन्न शहरों में घरेलू दूषित जल या सीवरेज के समुचित उपचार की व्यवस्था नहीं है। जिन शहरों में सीवरेज उपचार की व्यवस्था है, उनमें भी सारे शहर से उत्पन्न होने वाले सीवरेज के उपचार हेतु पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। फलस्वरूप बड़ी मात्रा में सीवरेज या दूषित जल अनुपचारित रह जाता है और ये अनुपचारित दूषित जल नालों के माध्यम से सीधे ही नदियों में जा मिलता है।

देश की राजधानी दिल्ली से निकलने वाले दूषित जल के उपचार के लिये बनाए गए सीवरेज ट्रीटमेंट प्लान्ट भी सारे दिल्ली शहर में सम्पूर्ण सीवरेज का उपचार करने में सक्षम नहीं हैं। फलस्वरूप काफी बड़ी मात्रा में ये घरेलू दूषित जल यमुना नदी में मिलकर उसे प्रदूषित कर रहा है। यही हाल गंगा नदी का भी है, जिसमें नदी के तट पर स्थित नगरों से निकलने वाला दूषित जल बिना किसी उपचार के नदी में मिल रहा है। आज स्थिति ये है कि विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण देश की प्रमुख नदियाँ नालों में तब्दील हो गई हैं।

जैसा कि हम जानते हैं कि घरेलू दूषित जल, जिसमें बड़ी मात्रा में मुख्यतः मानव मल-मूत्र आदि होता है, स्वच्छ जलस्रोत के प्रदूषण का एक मुख्य कारण होता है। ये न सिर्फ जलस्रोतों को दूषित करता है वरन अनेक जानलेवा रोगों का कारक भी बनता है। अनेक कोलीफॉर्म इस दूषित जल में पनपते हैं और विभिन्न रोगों का कारण बनते हैं। पीलिया, टाइफाइड, हेपेटाइटिस, हैजा, डायरिया, पेचिश, चर्म रोग आदि के रोगाणु ऐसे ही दूषित जल में पनपते हैं। सूक्ष्म जीव वैज्ञानिक (माइक्रो बॉयोलॉजिस्ट) कहते हैं, कि घरेलू दूषित जल में अनेक ऐसे रोगाणु होते हैं, जो पानी को छानने, उबालने यहाँ तक कि इनके सामान्य रासायनिक उपचार से भी नहीं मरते। बल्कि उपचारित जल को पीने वालों के पाचनतंत्र में पहुँचकर ये अनेक रोगों को जन्म देते हैं।

घरेलू दूषित जल के सड़ने से दुर्गंध युक्त गैसें जैसे हाइड्रोजन सल्फाइड आदि उत्पन्न होती है। मुख्यतः मल-जल में दुर्गंध का कारण भी यही हाइड्रोजन सल्फाइड गैस होती है। मल-जल का एक बूँद दूषित जल हजारों गैलन पेयजल को प्रदूषित कर उसे पीने के अयोग्य बना देता है। क्योंकि एक बूँद मल-जल, जल में कोलीफॉर्म की असंख्य कॉलोनियाँ होती हैं। जब ये जल स्वच्छ जल में मिलता है तो बड़ी तेजी से कोलीफॉर्म की कॉलोनियाँ भी बहुगुणित होती हैं और सम्पूर्ण पेयजल दूषित हो जाता है।

घरेलू दूषित जल में कार्बनिक यौगिक बड़ी मात्रा में होते हैं। साथ ही इसमें नाइट्रेट एवं फास्फेट बड़ी मात्रा में होते हैं। घरेलू दूषित जल स्वच्छ जलस्रोतों में स्वपोषण का कारण बनता है। इसके कारण स्वच्छ जल में शैवाल एवं अन्य वनस्पतियों की वृद्धि की दर बढ़ जाती है। वनस्पतियों के बढ़ने एवं उनके नष्ट होने के बीच सन्तुलन कायम नहीं रह जाने के कारण वनस्पति पानी में ही सड़ने लगती है। इस प्रकार स्वच्छ जलस्रोत सीवरेज के पानी से तो दूषित होते ही हैं, जलीय वनस्पतियों के सड़ने के कारण उनके दूषित होने की दर एवं मात्रा दोनों ही बढ़ जाती है।

जलस्रोतों में घरेलू मल-जल, शहरी-ग्रामीण बहाव जलस्रोतों का निस्तारण के कार्यों में उपयोग आदि के कारण जल न सिर्फ गन्दा या दूषित होता है वरन इसमें अनेक हानिकारक और जानलेवा जीवाणु पनपने लगते हैं। जल के फीकल संदूषण से जल में जीवाणु, वायरस प्रोटोजोआ, परजीवी कीट और अनेक रोग वाहक पनपते हैं, जो तरह-तरह के रोगों को जन्म देने के लिये जिम्मेदार होते हैं।

दूषित जल में पनपने वाले जीवाणुओं/विषाणुओं से होने वाले रोग

रोग

उत्पादक जीव

टाईफाइड

सलमोनेला टाइफी

हैजा

विब्रियो कोलेरा

जीवाणु दस्त

सिगेला एसपीपी

लेप्टोसपाइरोसिस

लेप्टोस्पैरा

विषाणुसंक्रमण हेपिटाइटस

हेपाटाइटिस विषाणु

प्रोटोजोओअमीबा-पेचिस

एंटामोबाहिस्टोलिटिका

पेचिस

गियार्डिया

हेलमिंथिसबिलहर्जिया

सिस्टोमोसा एसपीपी

गुइनिया कीट

ड्रेकुनकुलुस मेडिनंसिस

2. जलस्रोतों का निस्तारी की तरह उपयोग :-

हमारे देश में आज भी प्राकृतिक जलस्रोतों को निस्तारी के लिये उपयोग में लाया जाता है। इनमें तालाब, नदियाँ, नाले एवं नहरें शामिल हैं। आज भी देश में, विशेषकर गाँवों या झुग्गी बस्तियों में, दैनिक क्रिया-कलाप शौच आदि के लिये स्वच्छ शौचालयों का निर्माण नहीं किया गया है। संसाधनों के अभाव एवं निजी आदतों के कारण आज भी अधिकतर लोग अस्वच्छ एवं अस्वास्थ्यकर ढंग से खुले में शौच आदि करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इस हेतु ज्यादातर तालाबों का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, नहाने, कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने आदि के कार्य भी तालाबों में किए जाते हैं।

जलस्रोतों के किनारे इस प्रकार के क्रियाकलापों से इनका जल प्रदूषित होता है। इनमें कोलीफॉर्म की संख्या बढ़ने का यह प्रमुख कारण है। इसी प्रकार नहाने एवं कपड़े धोने का साबुन भी जलस्रोत में मिलता है। कपड़े धोने के साबुन में कास्टिक सोडा, फास्फेट आदि बड़ी मात्रा में होते हैं। इस प्रकार जलस्रोत रासायनिक रूप से भी प्रदूषित होते हैं।

3. जलस्रोतों में मूर्तियों एवं अन्य सामग्रियों के विसर्जन से :-

भारतीय संस्कृति में विभिन्न तीज-त्यौहारों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें सार्वजनिक गणेशोत्सव एवं देवी दुर्गा पूजा उत्सव शामिल हैं। इन अवसरों पर गणपति एवं देवी दुर्गा की प्रतिमाएँ सार्वजनिक रूप से स्थापित की जाती हैं। दस दिवसीय गणेशोत्सव एवं नौ दिवसीय दुर्गोत्सव के उपरान्त ये प्रतिमाएँ नदियों या तालाबों में तथा समुद्र किनारे स्थित शहरों की प्रतिमाएँ समुद्रों में विसर्जित की जाती हैं। पहले ये प्रतिमाएँ मिट्टी से बनाई जाती थीं, परन्तु अब आसानी से बन जाने, आकार देने एवं परिवहन में सुविधाजनक होने के कारण अधिकतर प्रतिमाएँ प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनाई जाती हैं। इनसे बनी मूर्तियों की फिनिशिंग भी आसानी एवं अच्छी तरह से हो जाती है।

इन प्रतिमाओं को आकर्षक रूप देने एवं सजाने आदि के लिये रसायनयुक्त पेंट, वार्निश, रंग आदि का उपयोग किया जाता है। विसर्जन के दौरान ये सभी हानिकारक रसायन जिनमें लेड क्रोमियम, कॉपर, मरकरी, कैडमियम जैसी भारी धातुएँ एवं कार्बनिक विलायक आदि शामिल होते हैं, जलस्रोतों में मिल जाते हैं। पानी में घुलनशील एवं अघुलनशील सभी पदार्थ जल प्रदूषण का कारण बनते हैं। पेंट, वार्निश एवं रंग में उपस्थित रसायनों में भारी धातुओं के अतिरिक्त अन्य रासायनिक विलायक या कैंसरकारक रसायन पाए जाते हैं, जो पानी में मूर्तियों के विसर्जन से पानी में मिल जाते हैं। इसी प्रकार प्लास्टर ऑफ पेरिस भी विभिन्न रसायनों का मिश्रण होता है। यह स्वाभाविक रूप से गलकर मिट्टी नहीं वरन अघुलित अवस्था में रहकर मलबे के रूप में एकत्र हो जाता है। यह मलबा जलस्रोतों की गहराई को कम कर न केवल उनकी जल ग्रहण क्षमता को कम करता है। बल्कि सिल्ट के रूप में जलस्रोतों की तलहटी पर जमा होकर उनकी पोरोसिटी या सरन्ध्रता को भी कम कर देता है, जिससे पानी भूमि की सतह के भीतर प्रवेश नहीं करता।

फलस्वरूप सतह पर स्थित जलस्रोतों के माध्यम से होने वाली स्वाभाविक पुनर्भरण की प्रक्रिया की गति कम हो जाती है और कालान्तर में रूक भी जाती है। अध्ययनों में पाया गया है कि मूर्तियों के विसर्जन के दौरान एवं बाद में जलस्रोतें की जल गुणवत्ता प्रभावित होती है। विसर्जन के दौरान एवं तुरन्त बाद पानी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा अत्यंत कम या कभी-कभी शून्य भी हो जाती है। अर्थात मूर्ति में उपस्थित रसायन पानी में घुलित ऑक्सीजन का पूर्णतः उपयोग कर लेते हैं। इस प्रकार घुलित ऑक्सीजन में कमी आने से जलीय जीवों एवं वनस्पति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

स्थानीय जलस्रोतों में मूर्ति विसर्जन के पूर्व, उसके दौरान एवं तुरन्त बाद जब जलीय नमूनों का संग्रहण कर उनमें सामान्य पैरामीटर्स का आकलन किया गया जिसका निष्कर्ष यह निकला कि विसर्जन के दौरान एवं तुरन्त बाद जलस्रोतों की बी.ओ.डी. एवं सी.ओ.डी. में 2 से 3 गुना तक वृद्धि होती है। इसी प्रकार भारी धातुओं की सूक्ष्म मात्रा भी इस दौरान जल में अवलोकित की गई।

उपरोक्त आयोजनों के अतिरिक्त, सामान्य तौर पर लोग नदियाँ, नहर आदि जलस्रोतों में घरों में उपयोग की जाने वाली छोटी बड़ी मूर्तियाँ, पूजन सामग्री, फूल, मालाएँ आदि प्रवाहित करते हैं। ये सभी सामग्रियाँ कई बार सीधे पॉलीथीन में बाँधकर नदियों में डाल दी जाती हैं। ये चीजें पानी में सड़कर पानी को प्रदूषित करती हैं। ये पॉलीथीन की थैलियाँ जल एवं जल में पनपने वाले जन्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। अनेक जन्तुओं के इन थैलियों में पूर्णतः फँस जाने या उनके गले में फँस जाने से ये जीव दम घुटने से मर जाते हैं। कुछ जीव इन्हें अपना भोजन समझकर निगल जाते हैं और जिसके फलस्वरूप उनकी मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार ये जलीय जीवन को प्रभावित करते हैं।

4. कीटनाशक एवं फर्टिलाइजर से :-

कृषि कार्य में उपयोग होने वाले कीटनाशकों एवं फर्टिलाइजर के वर्षाजल के साथ बहकर जलस्रोतों में मिलने से जलस्रोतों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में हरित क्रांति के बाद कृषि उत्पादन में सबसे बड़ा बदलाव यही आया कि कृषि पैदावार को बढ़ाने हेतु खेती के दौरान बड़ी मात्रा में रासायनिक उर्वरक मिट्टी में मिलाया जाने लगा है, ताकि अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त हो सके। इसी प्रकार खड़ी फसलों को विभिन्न जीवाणुओं, विषाणुओं, टिड्डी, कीटों आदि से बचाने के लिये बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है। ये कीटनाशक छिड़काव के दौरान हवा में फैलकर वायु प्रदूषण फैलाते हैं। इसी प्रकार वर्षा के दिनों में जब वर्षा का जल इन रासायनिक कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरक के सम्पर्क में आता है तो अपने साथ इन्हें घोलकर बहा लाता है। ये बहाव जब जलस्रोतों में मिलता है तो ये रासायनिक फर्टिलाइजर एवं कीटनाशक भी इनमें मिल जाते हैं। कीटनाशकों में उपस्थित हानिकारक रसायन जलीय, जीवों, वनस्पतियों और मानव स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है।

कुछ स्थानों पर नदियों के किनारे कछार में सब्जियाँ एवं फल जैसे तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी आदि की खेती की जाती है। इनकी खेती के दौरान भी डाले जाने वाले उर्वरक और कीटनाशक नदी के जल में मिलते हैं। नदी तट पर इनका उपयोग करने से इनके पानी में मिलने की सम्भावनाएँ भी अधिक होती है तथा इनका प्रभाव भी अधिक होता है, क्योंकि ये सीधे ही पानी में मिल जाता है।

5. घरेलू ठोस अपशिष्ट से :-

घरेलू कचरे का समुचित प्रबंधन आज भी देश में एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। समुचित प्रबंधन के अभाव में हमारे शहरों एवं गाँवों में कचरे के बड़े-बड़े ढेर लगे रहते हैं। यहाँ तक कि इनके लिये निर्धारित डम्प साइट पर भी इनका समुचित निष्पादन करने की बजाए उन्हें डम्प करके रखा जाता है। कचरे के इन ढेरों पर वर्षा के दिनों में गिरने वाला पानी अपने साथ गन्दगी, बैक्टीरिया आदि को बहाकर जलस्रोतों में मिला देता है। इस प्रकार ये दूषित जल स्वच्छ जलस्रोत को प्रदूषित कर देता है। घरेलू ठोस अपशिष्ट के डम्प साइट जहाँ पर घरेलू ठोस अपशिष्ट को गड्ढे खोदकर गाड़ा जाता है। वहाँ पर कचरे की इन डम्प साइट से उत्पन्न होने वाले लीचेट के वर्षाजल के साथ जलस्रोतों में मिलने से जलस्रोत प्रदूषित होते हैं।

6. नदी तट पर मेलों आदि के आयोजन से :-

जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय अपने सभी उत्सव अत्यन्त हर्षोल्लास से मनाते हैं। नदियाँ चूँकि सृष्टि के उत्पन्न होने की परिचायक हैं, इसलिये उन्हें कारण जीवनदायिनी और पवित्र माना जाता है। धर्मपरायण हिन्दू अनेक पर्वों एवं दिवसों पर नदी में स्नान करना पुण्यकारी मानते हैं। साथ ही नदियों के किनारे विशेष अवसरों जैसे- कुम्भ का मेला आदि अवसरों पर मेले का आयोजन भी किया जाता है। इन अवसरों पर बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। विभिन्न गतिविधियों के कारण नदी में बड़ी मात्रा में गन्दगी एवं अपशिष्ट डाल दिये जाते हैं जिससे नदी का जल प्रदूषित होता है।

इस प्रकार विभिन्न मानवीय गतिविधियाँ भी जल प्रदूषण का कारण बनती हैं। इन पर नियंत्रण लगाकर तथा मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाले दूषित जल के समुचित उपचार से जल प्रदूषण पर नियंत्रण लगाया जा सकता है।

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