सीसा प्रदूषण का अर्थ, कारण और निवारण (Meaning, causes and prevention of lead pollution in Hindi)
सीसा प्रदूषण का अर्थ, कारण और निवारण (Meaning, causes and prevention of lead pollution in Hindi)

सीसा प्रदूषण का अर्थ, कारण और निवारण (Meaning, causes and prevention of lead pollution in Hindi)

सीसा अपनी प्राकृतिक अवस्था में बहुत कम पाया जाता है। परन्तु इसे अयस्कों से बहुत सुगमता से प्रगलित किया जा सकता है। अनुमानतः भारत में सीसे और जस्ते के संयुक्त अयस्क लगभग 384  मिलियन टन हैं जिसमें राजस्थान से उपर्युक्त अयस्कों की मात्रा 335 मिलियन टन है। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा, बिहार और पश्चिमी बंगाल में भी इसके कुछ अयस्क हैं। भारत में सीसे की उत्पादन क्षमता लगभग 89,000 टन प्रति वर्ष है जो कि विश्व बाजार में कुल उत्पादन क्षमता का केवल 0.5 प्रतिशत है।
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आज से लगभग 4000 से 5000 वर्ष पूर्व के मानव की अपेक्षा आज के मानव में सीसे की मात्रा लगभग दस से सौ गुना अधिक हो गई है और विकसित तथा विकासशील देशों के लिए पर्यावरण में सीसे का बढ़ता प्रदूषण चिंता का विषय बन गया है।

आज कई भारी धातुएं पर्यावरण के संदर्भ में  चिंता का विषय बन चुकी हैं। तीव्र गति से बढ़ रहे शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप इन धातुओं की सान्द्रता में वृद्धि हुई है। वे धातुएँ सौन्दर्य प्रसाधनों, रंगों, वार्निशों, इंधन में इस्तेमाल होने वाले द्रवों व गैसों, भवन निर्माण सामग्रियाँ रासायनिक उर्वरकों आदि में विद्यमान रहती हैं। सामान्य रूप से भारी धातुएँ वे हैं जिनका घनत्व 5 से अधिक हो, किन्तु आजकल इस मूल धारणा में परिवर्तन हो चुका है। अब भारी धातुएं उन्हें माना जाता है जिनमें इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण का गुणधर्म पाया जाता है।

विगत कुछ वर्षों से इन भारी धातुओं में से

कैडमियम, लेड, मरकरी, क्रोमियम, निकेल जैसी धातुएँ अपनी विषाक्तता के कारण चर्चा का विषय बनी हुई हैं। 

इनमें से कुछ तो इतनी अधिक घातक हैं कि यदि दस लाख भाग में इनका एक भाग भी विद्यमान रहे तो ये जानलेवा सिद्ध हो सकती हैं। लेड यानी सीसा एक ऐसी ही भारी धातु है जो अब पर्यावरण में प्रदूषण के रूप में जानी जाती है। शहरों में वाहनों के पेट्रोल से निकला सीसा वायुमंडल में व्याप्त रहता है इस कारण से यह श्वास द्वारा शरीर में प्रविष्ट होता है। इस प्रकार 0.08 मि.ग्रा. सीसा प्रतिदिन शरीर में प्रविष्ट हो सकता है। मनुष्य के शरीर में कुल 100-400 मि.ग्रा. सीसा रहता है। संचयी विष होने के कारण दैनिक मात्रा थोड़ी होने पर भी दीर्घकाल में सीसे का काफी संचय हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि 50 वर्ष की आयु तक यकृत, वृक्क तथा अस्थियों में 15-1400 अंश दशलक्षांश (पीपीएम) सीसा जमा हो जाता है।

आज से लगभग 1000 से 5000 वर्ष पूर्व के मानव की अपेक्षा आज के मानव में सीसे की मात्रा लगभग दस से सौ गुना अधिक हो गई है। अतः विकसित तथा विकासशील देशों के लिए पर्यावरण में सीसे का बढ़ता प्रदूषण चिंता का विषय बन गया है। आज के इस औद्योगिक युग में सीसे का प्रयोग दैनिक जीवन में अनेक रूपों में हो रहा है, जैसे पेन्ट, वर्णकों, पात्रों, सीसा संचायक बैटरियों तथा स्वचालित वाहनों के पुर्जी इत्यादि में टेट्राएथिल लैंड (टी.ई.एल.) का उपयोग पेट्रोल में 'एंटीनाकिंग एजेंट के रूप में भी किया जाता है।

 हमारे देश सहित कई विकासशील देशों में सीसा प्रदूषण का कारण बढ़ती यातायात समस्या भी है। चढ़ते यातायात की समस्या कई देशों में गंभीर होती जा रही है। वायु को प्रदूषित करने में सीसा एक प्रमुख कारण है। वैज्ञानिकों के अनुसार सीसा बच्चों को जल्दी व अधिक नुकसान पहुंचाता है। हमारे शरीर का जैसे-जैसे विकास होता है, वह सीसे के विनाशकारी प्रभावों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेता है। इसलिए एक वयस्क व्यक्ति के 100 ग्राम रक्त में सीसा की 80 माइक्रोग्राम की मात्रा सुरक्षित मानी जाती है। स्मरण रहे, सीसे का कभी क्षय नहीं होता। यह जीवन-भर शरीर में जमा रह सकता है और इसकी अधिकता वयस्क शरीर के अवयवों को भी हानि पहुंचा सकती है।

सीसा अपनी प्राकृतिक अवस्था में बहुत कम पाया जाता है। परन्तु इसे अयस्कों से बहुत सुगमता से प्रगलित किया जा सकता है। अनुमानतः भारत में सीसे और जस्ते के संयुक्त अयस्क लगभग 384  मिलियन टन हैं जिसमें राजस्थान से उपर्युक्त अयस्कों की मात्रा 335 मिलियन टन है। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा, बिहार और पश्चिमी बंगाल में भी इसके कुछ अयस्क हैं। भारत में सीसे की उत्पादन क्षमता लगभग 89,000 टन प्रति वर्ष है जो कि विश्व बाजार में कुल उत्पादन क्षमता का केवल 0.5 प्रतिशत है। ईसा से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से ही सीसे की उपयोगिता तथा मानव पर इसका प्रभाव वर्णित है। सबसे पहले मिस्रवासियों को इस धातु का पता चला। रोमन शासनकाल में इसका प्रयोग जलवाही सेतु के अस्तरों, जल के पाइपों, खाना बनाने वाले बर्तनों तथा मंदिरा पात्रों के बनाने में किया जाता था। बी.सी. नाइकेन्टर ने 'एलिक्स फार्मा' में लिखा है कि सीसे के अंतग्रहण से मानव में अरक्तता, शूल तथा तंत्रिकाविष के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अभी कुछ समय पूर्व तक यह माना जाता था कि सीसा विषाक्तता का मूल कारण केवल औद्योगिकीकरण है और उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिकों के स्वास्थ्य पर ही इसका कुप्रभाव पड़ता है परन्तु अब पाया गया है कि जनसाधारण भी इससे प्रभावित होते है।

सीसा की विषाक्तता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सीसे से कलई किए गये बर्तनों के अत्यधिक इस्तेमाल के फलस्वरूप प्राचीन रोमवासी कम आयु में ही मृत्यु के मुंह में चले जाते थे। अभी हाल ही में नेशनल वाटर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, कनाडा के डॉ. जेरोम नृयागू ने इन पूर्ववर्ती समाचारों की पुष्टि की कि अपने समय के महान शक्तिशाली रोम साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण सीसे से उत्पन्न विषाक्तता थी। डॉ. नृयागू ने प्राचीन अभिलेखों का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया, उससे पता चला कि रोम का अभिजात वर्ग गठिया से पीड़ित था और क्रमशः उसका मानसिक हास होता चला गया। इसके अलावा बाद में जो हड्डियाँ खोदकर निकाली गई, उनमें सीसे की भारी मात्रा पाई गयी। इस असामान्यता का कारण यह बताया गया है कि कुलीन रोमवासी जब अपने लिए शराब बनवाते थे तो वे अंगूर के रस को सीसे की पालिश वाले वर्तन में उबलवाते थे। सीसा उन्हें बला की आकर्षक सुगंध और मोहक मधुरता प्रदान करता था। यह अति सुगंधित शराव अति सुस्वादु व्यंजनों में भी डाली जाती थी।

सीसे के खनन, परिष्करण तथा सीसे से बनी वस्तुओं के उपयोग से सीसा पर्यावरण में विस्तारित होता रहता है। प्राथमिक रूप में सीसा प्रचुर मात्रा में जलीय बहि प्रवाही धारा से जल में तथा धूप और धूल में आ जाता है। जल में विसर्जित किया हुआ निलंबित सीसा नदियों की तलहटी की तलछट में मिल जाता है और अंततः समुद्री तलछट में पहुँच जाता है। इसके अतिरिक्त जल में समाविष्ट सीसा हजारों कि.मी. की दूरी तक बह कर भूमि अथवा समुद्र के तलछट में एकत्रित होता रहता है। सीसा आधारित उद्योगों की निकटतम भूमि और इस पर लगे पेड़-पौधों, फल-सब्जियों आदि पर सीस की मात्रा अधिकतम होती है। लेकिन अधिकतम दूरी पर इसकी मात्रा कम होती जाती है।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही एक परियोजना द्वारा देश के औद्योगिक शहरों में वायु खाद्य पदार्थों और जल में सीसे की मात्रा का सर्वेक्षण करने पर कुछ चिंताजनक आंकड़े सामने आये हैं। वायु में सीसे की मात्रा धनवाद, लुधियाना और कोलकाता नगरों में क्रमश: 0.55 माइक्रोग्राम घ.मी. तथा 1.26 माइक्रोग्राम/प.मी. पाई गई है। खाद्य पदार्थों के नमूनों में बारुईपुर में 19.7 माइक्रोग्राम ग्रा., राउरकेला में 18.0 माइक्रोग्राम ग्रा. और चैल में 16.34 माइक्रोग्राम ग्रा. है। इसी प्रकार पेय जल में सीसे की मात्रा कोलकाता में 0.59 माइक्रोग्राम मि.ली., झांसी में 0.132 माइक्रोग्राम / मि.ली. और धनबाद में 0.054 माइक्रोग्राम मि.ली. आंकी गई जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अनुमेय सीसे की मात्रा (0.05 माइक्रोग्राम / मि.ली.) से अधिक है।

भारत में तमिलनाडु में रसम तैयार करने वाले वर्तन 'ईया चोम्बू' (सीसे का लोटा) में सीसा भारी मात्रा में पाया गया है। अतः इसका उपयोग नहीं करने की सलाह देनी चाहिए। 1977 में आन्ध्र प्रदेश के गुन्टूर जिले के मलप्याडु नामक ग्राम के मवेशी सीसे की विषाक्तता से दुष्प्रभावित हुए थे। मवेशियों को यह बीमारी सीसा मिले रसायनों से प्रदूषित हुए जल को पीने के कारण हुई थी। हुआ यह था कि उपर्युक्त ग्राम के निकट की नदी में एक रासायनिक कारखाने द्वारा उक्त रसायन छोड़ दिये जाते थे और मवेशी इस नदी का जल पिया करते थे। परिणामस्वरूप कई पशुओं की जानें चली गयी।

वस्तुतः लैंड या सीसा एक संचयी विष है। दैनिक मात्रा थोड़ी होने पर भी लम्बे समय में सीसे का काफी संचय हो जाता है। यह पात्रों, मिट्टी और पानी के  पाइपों से पर्यावरण में आता है। अनुमान है कि प्रतिदिन भोजन द्वारा मनुष्य को 0.2 से 0.25 मि.ग्रा. सीसा मिलता है। जन के माध्यम से प्रति लीटर 0.1 मिग्रा. सीसा शरीर मे पहुँचता है। मृदु तथा अम्लीय जल में यह मात्रा अधिक हो सकती है। सीसा की अत्यल्प मात्रा शरीर के लिए सहय है परन्तु शरीर में इसकी अधिक मात्रा एकत्र हो जाने से यह विष का काम करता है। सामान्यतः जनसाधारण में सीसे की मात्रा 10 से 30 माइक्रोग्राम प्रति 100 मि.ली. रक्त तक होती है। रक्त में इसकी मात्रा के 70-80 माइक्रोग्राम मि. ली. तक बढ़ जाने से शरीर में रक्त विषाक्तता के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अंतग्रहण किए गए सीसे का लगभग 10 से 20 प्रतिशत भाग तथा अंतःश्वसन द्वारा ग्रहण किए गए सीसे का लगभग 40 प्रतिशत भाग शरीर में अवशोषित हो जाता है। अवशोषित सीसा शरीर के कोमल ऊतकों में पुनर्वितरित हो जाता है। लगभग 9 माइक्रोग्राम प्रति दिन की दर से हड्डियों में एकत्रित होने लगता है। अवशिष्ट सीसा वृक्क में होकर उत्सर्जित हो जाता है। सीसे के प्रभाव में मानव के तंत्रिका तंत्र, जठरांत-क्षेत्र, रुधिर-तंत्र, वृक्क तंत्र तथा जनन तंत्र अधिक प्रभावित होते हैं।

। सीसा की विषाक्तता से उल्टी, अरक्तता तथा गठिया की समस्या उत्पन्न होती है। अधिक सान्द्रता की स्थिति में मृत्यु तक हो सकती है। प्रायः कमरे की दीवारों में लगे पेन्ट को चाटने से पशुओं में सीसा की विषाक्तता उत्पन्न होते देखी गई है। इससे पशु चक्कर काटते हैं। उसको दिखाई नहीं पड़ता, उसकी भूख मर जाती है, उसके मुंह से लार गिरती है, वह दांत पीसता है और उसके दस्त पतले और दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं। अंत में वह पक्षाघात का शिकार हो जाता है प्रायः बगीचों में या चरागाहों में लैड आर्सेनेट के छिड़काव से दूषित चारा खाने, कूप-करकट में पड़े सफेद लेड के डिब्बे चाटने से पशुओं में सीता विषाक्तता उत्पन्न होती है। तंत्रिका तंत्र पर सीसे का प्रभाव उसकी तीव्रता तथा प्रभावन अवधि पर निर्भर करता है। बच्चे सीसे से तंत्रिका आविषी प्रभाव के प्रति वयस्कों की अपेक्षा अधिक सुग्राही होते हैं। इसके प्रभाव से प्रायः बच्चों में मस्तिष्क विकृति और वयस्कों में परिचीय तंत्र विकृति हो जाती है। सीसे द्वारा प्रेरित तंत्रिका विकृति से धड़ की पेशियों में दर्द और दुर्बलता के साथ-साथ उदरीय शूल हो जाता है। सीसे की अधिकतम मात्रा के दीर्घ प्रभावन के फलस्वरूप हाथों व पैरों की प्रसारिणी पेशियां क्षीण हो जाती हैं जिससे उनके निष्क्रिय होने का भय रहता है। इसके अतिरिक्त तंत्रिका तंत्र के विकृत होने से पेशियों में गुच्छे बन जाते हैं। सीसे के दीर्घकालीन प्रभावन से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र विशेष रूप से प्रभावित होता है जिसे सामान्यतः मस्तिष्क विकृति के नाम से जाना जाता है। इस विकृति में घबराहट, उत्तेजनशीलता, सिरदर्द, पेशियों में कंपन, मंदता, बुद्धिक्षीणता, मतिभ्रम, एकाग्रचित्त न होना आदि मुख्य लक्षण दिखाई देने लगते हैं विकृति के बढ़ जाने से मानव में प्रलाप, उन्माद, ऐंठन पक्षाघात तथा कोमा की स्थिति आ जाती है। उनके प्रमस्तिष्क गोलार्धो के सामान्य संचलन प्रायः विलुप्त होने लगते हैं और कोशिकाओं की अंतःस्तरीय कोशिकाओं में सूजन, रुधिर कणिकाओं का उत्सरण और परिसंवहनी रक्तस्राव होने लगता है। साथ ही तंत्रिका कोशिकाएं खंडित होने लगती हैं।

सीसा विषाक्तता से उदर शूल के उत्पन्न होने से सिर में दर्द होने लगता है जो कि पेशियों के दर्द से संबंधित होता है। इसके उपरांत कब्ज हो जाता है और कुछ ही दिनों में उदरीय दर्द के साथ ऐंठन होने लगती है दर्द और कब्ज तीव्र होने पर उल्टी भी हो सकती है। मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है तथा वजन में कभी और थकावट अनुभव होने लगती है। ये लक्षण एक से दो सप्ताह तक रहते हैं। सीसे के अत्या प्रभावन से ही श्रमिकों में सीसे की मात्रा लगभग 40 से 80 माइक्रोग्राम मि.मी. रक्त की रहती है। युवाओं में अरुचि, उत्तेजनशीलता, उल्टी, थकावट आदि जैसे लक्षण भी दिखाई देते हैं। इसके बाद यदि सीसे का सामान्य प्रभावन न हो तो ये लक्षण स्वतः लुप्त हो जाते हैं।

वृक्क विकृति भी सीसे की मात्रा व उसके प्रभावन की अवधि पर निर्भर करती है। वृक्कों के केशिकागुच्छ (ग्लोमेरुल) और नलिकाएं भी विकृत होने लगती हैं साथ ही इससे धमनियां और धमनिकाएं भी प्रभावित हो जाती है। निकटस्थ नलिका कोशिकाओं में क्षति होने से नलिका निरुद्ध होने लगती है जिससे इसका पुनरावशोषण प्रभावित होता है दीर्घकालीन सीसा प्रभावन से नलिकाओं में पूर्ण पुनरावशोषण न होने से शरीर के लिए उपयोगी मुख्य तत्व जैसे अमीनो अम्ल ग्लूकोज और फॉस्फेट मूत्र से उत्सर्जित होने लगते हैं किन्तु मूत्र में यूरेटों के उत्सर्जित न हो पाने से रक्त में यूरेट की मात्रा बढ़ जाती है जिसे "अतियूरेट रक्तता" कहते हैं। सीसा की अधिक मात्रा से शरीर में संधि की बीमारियां (जैसे अर्थराइटिस एवं गाउट हो जाती है। वृक्क की क्षति में अतितनाव" भी उत्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, सीसे के प्रभाव से हृदय के इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ में भी परिवर्तन आ जाते हैं किन्तु अभी यह पूर्ण रूप से ज्ञात नहीं हो पाया है कि संवहन तंत्र में यह परिवर्तन रक्त वाहिकाओं के सीधे प्रभावित होने से होता है अथवा वृक्क में विकृति होने से। सीसा का प्रभाव जनन तंत्र पर भी पड़ता है। मृदभांड (पॉटरी) और सफेद सीता उद्योगों में कार्य करने वाली महिलाओं में अचानक गर्भपात होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। इन महिलाओं में अरुचि, बंध्यता, मृतजन्म, अनियमित अंडोत्सर्ग आदि लक्षण भी देखने को मिलते हैं। यह भी पता चला है कि मदिरा सेवन कर रही महिलाओं के गर्भावस्था के तीसरे माह में सीसा प्लेसेन्टा से होकर गर्भ को क्षति पहुँचाता है। गर्भावस्था के दौरान सीसे के दीर्घकालीन प्रभावन से तंत्रिका में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। पुरुषों के जनन-तंत्र भी सीसा के प्रभाव से वंचित नहीं है। सीसा विषाक्तता से शुक्र की मात्रा में कमी आ जाती है तथा शुक्राणुओं की गतिशीलता भी कम हो जाती है। शुक्र के लगभग 40 प्रतिशत शुक्राणु अपसामान्य हो जाते हैं। इस प्रकार पुरुषों की जनन क्षमता कम हो जाती है। 

अध्ययनों से यह लता चला है कि पारे और कैडमियम की भांति सीसा भी संचयी प्रभाव वाला विष है यदि एक बार उसका अवशोषण हो जाए तो वह शरीर में जमा होने लगता है प्रविष्ट होने वाले सीसे में से कुछ यकृत और पित्तवाहिनी के रास्ते पुनः जठरान्तिक मार्ग में लौट सकता है। शेष सीसा यकृत से गुजरने के बाद रक्त धारा में मिल जाता है और शरीर के समूचे ऊतकों तक पहुँच जाता है। सीसा प्रोटीन से तुरन्त मिल जाता है। इस तरह प्रोटीन रक्त में सीसा पहुंचाने में सहायक होता है। शरीर में जो सीसा रह जाता है, उसका अधिकांश अन्ततः खनिज हड्डी में बस जाता है, जहां वह आंशिक रूप से कैल्शियम का स्थान ले लेता है। अतः कुल सीसे की मात्रा का शरीर के ऊतकों में कोई संतुलित वितरण नहीं होता। उसकी सबसे अधिक मात्रा (7-11 पी. पी. एम.) हड्डी में पाई जाती है उससे कम वक्त में (2 पी. पी. एम.) और गुर्दे में 1 पी.पी.एम. पाई जाती है। मस्तिष्क, हृदय और मांसपेशी के ऊतकों में उसकी अति अल्प मात्रा (0.01. पी. पी. एम.) होती है शरीर में सीसे की मात्रा जन्म के बाद बढ़ती ही जाती है। संभवतः मस्तिष्क और स्नायु के ऊतकों में जीवन के प्रथम बीस वर्षों में और हड्डियों में कोई 40 वर्ष के बाद अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच जाती है। सीसा गर्भनाल में भी प्रवेश कर सकता है। जन्म के बाद बच्चों में सीसे की मात्रा बढ़ने का कारण बच्चों को डिब्बाबंद दूध खाद्य पदार्थ का सेवन कराना है।

सीसे के संबंधी प्रभाव सामान्यतः तीन प्रकार की शारीरिक कोशिकाओं में देखे जाते हैं। वे हैं मस्तिष्क और स्नायु की कोशिकाएं, वृक्क की कोशिकाएं और लाल रक्त कोशिकाएं सहनशील स्तरों से परे सीसा मस्तिष्क और स्नायु की तथा वृक्क की कोशिकाओं में असाध्य परिवर्तन करता है। सीसा वयस्कों के मुकाबले बच्चों के मस्तिष्क तथा स्नायु की कोशिकाओं को प्रभावित करता है जबकि वयस्कों में प्राथमिक प्रभाव वृक्क और वकृत पर होते हैं।

अनुसंधानों द्वारा यह पता चला है कि सीसा की मामूली सी मात्रा भी जैव-सामग्री को इस हद तक प्रभावित करती है कि वह अपना सामान्य कार्य नहीं कर सकती। सीसा कोशिकाओं की क्रियाओं में बाधा डालता है विशेषतः हीमोग्लोबिन संयोजन पर इसका प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि सीसा रक्त के ऑक्सीजनवाही पिगमेन्ट "हीम" के निर्माण के लिए आवश्यक एन्जाइमों की क्रिया में बाधा डालता है। सीसे के कारण जो रक्ताल्पता होती है, उसका सीधा सम्बन्ध हीमोग्लोबिन के संयोजन में कमी से ही है।

अमरीका की पर्यावरण संरक्षण एजेन्सी के शोध वैज्ञानिकों ने सीसे पर स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों का जो पुनरावलोकन किया है, उससे पर्याप्त जानकारी यह प्रमाणित करने में सक्षम है कि सीसे की कम मात्रा भी अनेक प्रच्छन्न शारीरिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप कर सकती है। यह भी पता चला है कि सीसे की कम मात्रा भी विटामिन-डी की स्वनान्तर क्रिया में बाधक होती है विटामिन-डी की इस क्रिया में कमी आ जाने से शरीर सीसे को अधिक मात्रा में सोख सकता है और यह दुष्चक्र इस धातु के प्रतिकूल प्रभावों को द्विगुणित कर सकता है।

सीसे की विषाक्तता से बचने की दिशा में सीसे के उपयोग को कम से कम करके बचाव ही इलाज है की अवधारणा का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। सीसा विषाक्तता हो जाने की स्थिति में भोजन में कैल्शियम तथा विटामिन सी की मात्रा बढ़ाकर इसके हानिकारक प्रभाव से बचा जा सकता है। मदिरापान करने वाले तथा कुपोषण के शिकार व्यक्तियों में सीसा विषाक्तता अधिक देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त वयस्कों की उपेक्षा बच्चे इससे अधिक प्रभावित होते हैं। औद्योगीकरण के प्रसार के कारण अब छोटे शहरों में भी जनसाधारण में सीसा विषाक्तता की संभावना हो गई है अतः समय रहते ही सीसा विषाक्तता से बचाव के उपाय नितांत आवश्यक हैं। इसलिए सीसा आधारित उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों के कार्यस्थल पर वायु के आवागमन की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। सीसा विषाक्तता से बचने के लिए निर्धारित नियमों का पालन श्रमिकों द्वारा अवश्य की आवश्यकता है किया जाना चाहिए। बहिः प्रवाही जल तथा धुआँ में सीसे की अधिकतम अनुमेय मात्रा निर्धारित की जानी चाहिए तथा किसी भी दशा में इस निर्धारित सीमा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। 

अनुसंधानों से यह पता चला है कि जिस भोजन में कल्शियम, प्रोटीन, विटामिन-सी, ई, बी-कॉम्पलेक्स (नियासिन) और आयोडीन जैसे तत्वों की कमी रहती है, उससे सीसे के अवशोषण में वृद्धि हो सकती है। अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि चोकरदार आटे, छिलके वाले अनाज, दालों, दूध, पनीर, हरी सब्जियों के सेवन से सीसे की विषाक्तता से बचा जा सकता है।

औद्योगिक केन्द्रों और निकटस्थ क्षेत्रों के जल और वायु संबंधी पर्यावरण का भी समय-समय पर सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। शहरों में जहाँ पेट्रोल की खपत अधिक है, पर्यावरण में सीसे की मात्रा का सर्वेक्षण होना आवश्यक है। साथ ही ऐसे ही उपाय किये जाने चाहिए जिनसे पेट्रोल दहन से उत्पन्न सीसा धीरे-धीरे समिश्रित हो। आजकल विकासशील देशों में ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं ताकि पेट्रोल में सीसे के स्थान पर किसी अन्य तत्व का प्रयोग किया जा सके जिससे पर्यावरण को सीसे के प्रदूषण से सुरक्षित रखना संभव हो सके पर्यावरण के सर्वेक्षण के साथ-साथ श्रमिकों तथा उनके परिवारों और जनसाधारण में सीसा विषाक्तता का नियमित जांच शिविर लगाने के प्रबंध किए जाने की आवश्यकता है।  

संपर्क सूत्र

डॉ. दिनेश मणि, डी. फिल., डी.एससी., एसोशियेट प्रोफेसर, रसायन विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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