रिसर्च: कांच की बोतलों में हो सकते हैं 50 गुना ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक
नफीसा ने पिछले महीने ही फ्रिज में रखी पुरानी प्लास्टिक की बोतलों को फेंक कर कांच की नई बोतलों में पानी रखना शुरू किया है। किचन में रखे कई प्लास्टिक जारों को भी कबाड़ में बेचकर उसने कांच के जार इस्तेमाल करने शुरू कर दिए हैं, खासकर घी-तेल जैसी तरल चीज़ों के लिए। यह सब उसने यूट्यूब पर माइक्रोप्लास्टिक के खतरों से जुड़ा एक वीडियो देखने के बाद किया। वीडियो से उसे पता चला कि इन डिब्बों का माइक्रोप्लास्टिक खाने-पीने की चीजों में घुल जाता है और तरल चीजों में यह खतरा और भी ज़्यादा होता है।
परिवार की सेहत की खातिर उसने एक झटके में अपने किचन से प्लास्टिक की बोतलों और डिब्बों को अलविदा कह दिया। उसने अभी राहत की सांस ली ही थी कि एक और खबर सामने आ गई, जिसमें बताया गया है कि कांच की बोतलों में बिक रहे शीतल पेयों में भरपूर माइक्रोप्लास्टिक पाया गया है। नफीसा फिर परेशान है कि आखिर अब क्या किया जाए?
उसकी यह चिंता जायज़ भी है, क्योंकि फ्रांस के वैज्ञानिकों की ताजा रिसर्च बताती है कि कांच की बोतलों में प्लास्टिक की बोतलों के मुकाबले 50 गुना ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं। पर हर कांच की बोतल के साथ यह समस्या हो, यह ज़रूरी नहीं। पूरी जानकारी के आगे पढ़ें।
फ्रांस की खाद्य सुरक्षा एजेंसी नेशनले डे सेक्यूरिटे सैनिटेयर डे ल'एलिमेंटेशन, डे ल'एनवायरनमेंट एट डू ट्रैवेल (ANSES) का यह अध्ययन सर्वप्रथम जर्नल ऑफ फूड कम्पोजिशन एंड एनालिसिस में ऑनलाइन प्रकाशित हुआ है। साइंस जर्नल साइंस डायरेक्ट में भी इस रिपोर्ट को पुनर्प्रकाशित किया गया। इसके आश्चर्यजनक नतीजों के मुताबिक शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि कांच की बोतलों में बेचे जाने वाले पानी, सोडा, बीयर और वाइन जैसे पेय पदार्थों में प्लास्टिक की बोतलों की तुलना में अधिक माइक्रोप्लास्टिक पाए गए। शोधकर्ताओं ने कांच की बोतलों में बेचे जा रहे कोल्ड ड्रिक्स, नींबू पानी (लेमोनेड) , आइस टी और बीयर में प्रति लीटर औसतन 100 माइक्रोप्लास्टिक कण पाए। यह प्लास्टिक की बोतलों या धातु के कैन में बेचे जा रहे पेयों के मुकाबले तकरीबन 50 गुना तक अधिक था।
एएनएसईएस के अनुसंधान निदेशक गिलियूम डुफ्लोस ने एएफपी को बताया कि टीम का उद्देश्य "फ्रांस में बेचे जाने वाले विभिन्न प्रकार के पेय पदार्थों में माइक्रोप्लास्टिक्स की मात्रा और विभिन्न कंटेनरों के प्रभाव की जांच करना था। हमें इसके विपरीत परिणाम की उम्मीद थी।"
"हमने देखा कि कांच में नमूनों से निकलने वाले कण एक ही आकार, रंग और पॉलिमर संरचना के थे। इसका मतलब वे एक ही प्रकार के प्लास्टिक के थे। ये कांच की बोतलों पर लगे मेटल कैप पर ब्रांडिंग के लिए की गई प्रिंटिंग में इस्तेमाल पेंट के समान थे। कांच और प्लास्टिक की बोतलों में बेचे जा रहे सादे और स्प्रिंग वाटर में माइक्रोप्लास्टिक देखने को मिला। हालांकि, इसमें अन्य पेयों के मुकाबले माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा अपेक्षाकृत कम मिली। कांच की बोतलों के पानी में 4.5 कण प्रति लीटर, जबकि प्लास्टिक की बोतल वो पानी में यह औसतन 1.6 कण प्रति लीटर तक पाई गई।"
गिलियूम डुफ्लोस, अनुसंधान निदेशक, एएनएसईएस
शीतल पेय में प्रति लीटर लगभग 30, नींबू पानी में 40 और बीयर में लगभग 60 माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए। शराब में भी माइक्रोप्लास्टिक पाए गए। हालांकि अलग-अलग पेयों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा में इस अंतर का कारण अभी भी स्पष्ट नहीं किया जा सका है। इसके अलावा एएनएसईएस ने कहा कि चूंकि माइक्रोप्लास्टिक्स की संभावित विषाक्त मात्रा के लिए कोई सर्वमान्य संदर्भ स्तर (reference level) या मानदंड अबतक निर्धारित नहीं हुआ है। इसलिए यह कह पाना संभव नहीं है कि माइक्रोप्लास्टिक्स के ये आंकड़े स्वास्थ्य के लिए स्पष्ट रूप से खतरनाक माने जा सकते हैं या नहीं।
बोतलों के ढक्कन से माइक्रोप्लास्टिक आने की आशंका
अध्ययन में यह भी संभावना जताई गई है कि पेय पदार्थ निर्माता बोतल के ढक्कनों में बदलाव लाकर बोतलों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा को कम कर सकते हैं। इसकी वजह यह है कि एजेंसी ने जब बोतलों के ढक्कन को हवा के प्रेशर से उड़ाकर (एयर ब्लो) उन्हें पानी और अल्कोहल से धोया तो माइक्रोप्लास्टिक संदूषण (Contamination) 60 प्रतिशत तक कम हो गया। इसे देखते हुए संभावना जताई गई कि बोतलों में मिले माइक्रोप्लास्टिक का स्रोत संभवत: कांच नहीं, बल्कि बोतलों में लगी कैप हो सकती है। क्योंकि, माइक्रोप्लास्टिक्स कणों का रंग, आकार और रासायनिक संरचना उन्हीं पेंट से मेल खाते थे जो कैप पर थे। ऐसे में संभावना है कि ढक्कन की सतह पर खरोंचे लगने पर उनपर लगे पेंट की परत के छोटे-छोटे टुकड़े टूटकर पेय में मिल गए होंगे।
बोतलों के पैलेशन/रेस्टिंग की प्रक्रिया के दौरान कैप्स के आपसी घर्षण से सतह पर सूक्ष्म खरोंच आते हैं, जिनसे कण अलग होकर पेय में गिरते हैं । पैलेशन (Palletization) या रेस्टिंग वह प्रक्रिया होती है जिसमें बोतलों को एक साथ लकड़ी या प्लास्टिक के पैलेट्स पर रखकर स्टोर या ट्रांसपोर्ट किया जाता है। इस दौरान बोतलें आपस में टकराती हैं, जिससे कैप्स की सतह पर घर्षण और खरोंच हो सकते हैं, और वहीं से माइक्रोप्लास्टिक कण पेय में गिर सकते हैं।
उधर, ग्लास उद्योग की प्रमुख संस्था ऑल इंडिया ग्लास मेन्यूफ़ैक्चरर्स फेडरेशन (AIGMF) ने इस अध्ययन पर सफाई दी है कि ग्लास नहीं, ढक्कन पर पेंट से संदूषण होता है। एक रिपोर्ट में उनका तर्क है कि ग्लास अत्यधिक भरोसेमंद और पर्यावरण के अनुकूल है, और इसका दुष्प्रचार नहीं होना चाहिए।
भारत में अनिवार्य हो माइक्रोप्लास्टिक रिसाव की जांच
भारत में पारंपरिक रूप से कांच की बोतलों को एक सुरक्षित, प्राकृतिक और पुनः उपयोग योग्य विकल्प माना जाता है। विशेष रूप से बीयर, शरबत, कोल्ड ड्रिंक और दूध जैसी वस्तुओं की पैकेजिंग में कांच की बोतलों का इस्तेमाल किया जाता है। उपभोक्ता भी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित और पर्यावरण-अनुकूल समझकर प्लास्टिक के विकल्प के रूप में इन्हें चुनते हैं।
हालांकि, इस शोध से यह साफ हो गया है कि कांच की बोतल का विकल्प अपने आप में पूरी तरह सुरक्षित नहीं, अगर उसकी कैपिंग तकनीक में लापरवाही बरती जाए। भारत में जहां छोटे और असंगठित बोतल पैकिंग उद्योग कैप्स पर कम गुणवत्ता वाले पेंट और कम गुणवत्ता वाली सामग्री का इस्तेमाल करते हैं, वहां माइक्रोप्लास्टिक कॉन्टेमिनेशन की आशंका और भी गंभीर हो जाती है।
चिंताजनक बात यह भी है कि भारत में इस पर न तो कोई सख्त नियम हैं, न ही उपभोक्ता में इसे लेकर उचित जागरूकता है। ये दोनों ही चीज़ें सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिहाज़ से खतरनाक स्थिति है। ऐसे में ज़रूरी हो गया है कि FSSAI और BIS जैसे नियामक निकाय इस पर दिशा-निर्देश तैयार करें और बोतल पैकेजिंग के हर हिस्से, चाहे वह ढक्कन हो या लेबल, सभी की स्वच्छता और माइक्रोप्लास्टिक रिसाव की जांच को अनिवार्य बनाया जाए। साथ ही इसे अनिवार्य रूप से लागू करने की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।
माइक्रो और नैनोप्लास्टिक क्यों हैं स्वास्थ्य के लिए खतनाक
माइक्रोप्लास्टिक वे प्लास्टिक कण होते हैं जिनका आकार 5 मिलीमीटर से कम होता है। नैनोप्लास्टिक इससे भी सूक्ष्म यानी 1000 नैनोमीटर (1 माइक्रॉन) से भी छोटे होते हैं। अपने अतिसूक्ष्म आकार के कारण ये कण मानव शरीर में श्वसन तंत्र, पाचन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, यहां तक कि त्वचा के माध्यम से भी प्रवेश कर सकते हैं।
माइक्रोप्लास्टिक सामान्यत: खाद्य व पेय पदार्थों और हवा के माध्यम से शरीर में जाते हैं। यह धीरे-धीरे हमारे अंगों में बायो अक्युमुलेट (जैव संचय) होते रहते हैं और शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाते हैं। हाल ही में प्रकाशित शोध बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक का शरीर में उपस्थित होना सूजन (inflammation) और ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस (oxidative stress) का कारण बन सकता है।
ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस वह स्थिति होती है, जब शरीर में मुक्त कणों (free radicals) का स्तर अत्यधिक बढ़ जाता है, जिससे कोशिकाओं की झिल्ली, प्रोटीन और डीएनए को नुकसान हो सकता है। इसके अलावा माइक्रोप्लास्टिक एंडोक्राइन सिस्टम को भी बाधित कर सकते हैं। इन कणों में मौजूद बाइंडर्स या एडिटिव्स जैसे बिस्फेनॉल-A (BPA) और थैलेट्स (phthalates) मानव शरीर के हार्मोन-संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। यह हार्मोनल असंतुलन प्रजनन क्षमता में गिरावट, थायरॉयड गड़बड़ी और मेटाबोलिक समस्याओं का कारण बनता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और यूनाइटेड नेशंस एनवायर्नमेंट प्रोग्राम (UNEP) की एक साझा रिपोर्ट के मुताबिक शरीर में इन रसायनों की दीर्घकालिक मौजूदगी हमारी प्रजनन प्रणाली, भ्रूण विकास और मस्तिष्क पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। माइक्रोप्लास्टिक, रक्त के ज़रिये तंत्रिका कोशिकाओं तक भी पहुंच सकते हैं। ऐसा होने पर अल्ज़ाइमर या पार्किंसन जैसी बीमारियों और अन्य न्यूरोलॉजिकल विकारों का खतरा होता है।
हालांकि, अभी तक मानव शरीर में माइक्रोप्लास्टिक के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर कोई निर्णायक शोध नहीं हुआ है, लेकिन जानवरों पर किए गए प्रयोगों और सीमित मानव-आधारित अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि माइक्रोप्लास्टिक शरीर में कोशिकीय स्तर पर तनाव, प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया, और जैविक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। इसे देखते हुए यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी (EFSA), विश्व स्वास्थ्य संगठन और कई वैश्विक संस्थाएं इस विषय पर विशेष रिसर्च प्रोग्राम चला रही हैं, ताकि इन प्रदूषकों के मानव स्वास्थ्य पर असर की गहराई से जांच की जा सके। इसलिए अभी भले ही "आधिकारिक पुष्टि" का इंतज़ार हो, लेकिन माइक्रोप्लास्टिक को लेकर सतर्कता भरा रवैया अपनाना ही उचित है।
शरीर में कहां-कहां पहुंच चुका है प्लास्टिक
प्रत्येक व्यक्ति औसतन एक क्रेडिट कार्ड के बराबर माइक्रोप्लास्टिक प्रति सप्ताह निगलता है। यह मात्रा लगभग 5 ग्राम होती है। यह हैरान करने वाली बात WWF और ऑस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूकैसल द्वारा किए गए अध्ययन (WWF Report, 2019) में सामने आई।
मानव रक्त में भी माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति दर्ज़। साल 2022 में नीदरलैंड्स की VU University के वैज्ञानिकों ने एक हालिया रिसर्च में पहली बार इंसानी रक्त में पीईटी, पॉलीएथलीन और पॉलिस्टरीन जैसे प्लास्टिक के अंश पाए जाने की बात का खुलासा किया है।
WHO और UNEP की एक साझा रिपोर्ट के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक रक्त प्रवाह में प्रवेश करके ब्लड-ब्रेन बैरियर (BBB) को पार कर सकते हैं। माइक्रोप्लास्टिक कण रक्त के जरिये तंत्रिका कोशिकाओं तक भी पहुंच सकते हैं।
इटली की एक रिसर्च में माताओं के स्तन दूध में प्लास्टिक के अंश मिले (पॉलीमर्स जर्नल, 2023)। रोम के कुछ अस्पतालों में किए गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं के 34 में से 26 माताओं के स्तन दूध के सैंपलों में माइक्रोप्लास्टिक पाए गए।
अमेरिका की लंग रिसर्च संस्था ने अपनी रिसर्च में बताया है कि वायुजनित (airborne) माइक्रोप्लास्टिक, जिनका आकार लगभग 1–5 µm तक होता है, नेसो-फैरिंजियल और ब्रॉन्कियल मार्ग के साथ फेफड़ों में जमा हो सकते हैं। इन कणों को शरीर से निकालना मुश्किल होता है, जिससे सूजन, ऑक्सीडेटिव तनाव और फेफड़ों की कार्यक्षमता में गिरावट जैसी समस्याएं होती हैं।
मानव मल में भी माइक्रोप्लास्टिक की पुष्टि – ऑस्ट्रिया की मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ़ विए के अध्ययन में मानव मल में 9 अलग-अलग प्रकार के माइक्रोप्लास्टिक पाए गए, जो कि औसतन 20 माइक्रो प्लास्टिक कण प्रति 10 ग्राम मल में मौजूद थे (यूरोपियन गैस्ट्रोएंटेरोलॉजी वीक, 2018)।
माइक्रोप्लास्टिक से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य और आंकड़े
बोतलबंद पानी में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा नल के पानी से कहीं अधिक पाई गई - स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क द्वारा 259 बोतलबंद जल के नमूनों पर अध्ययन में पाया गया कि 93% नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक थे। औसतन 10.4 माइक्रोप्लास्टिक कण प्रति लीटर पाए गए।
फूड पैकेजिंग से निकला प्लास्टिक कण – अमेरिका के अग्रणी समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित फ्रेंच एनवायरनमेंट एजेंसी ANSES के 2024 के अध्ययन में प्रोसेस्ड फूड्स (जैसे चिकन नगेट्स) में 60 से अधिक माइक्रोप्लास्टिक कण प्रति सैम्पल मिले, जबकि बिना प्रोसेस चिकन ब्रेस्ट में यह संख्या केवल 2 थी।
समुद्रों में 170 ट्रिलियन माइक्रोप्लास्टिक कण – मार्च 2023 में प्रकाशित एक वैज्ञानिक समीक्षा के अनुसार अब तक समुद्रों में कुल 170 ट्रिलियन माइक्रोप्लास्टिक कण मौजूद हैं, जिनका कुल भार लगभग 22 लाख टन है। यह आंकड़ा 2005 से 2021 के बीच 10 गुना बढ़ा है।
भारत में प्लास्टिक कचरे का उत्पादन – CPCB की रिपोर्ट (2021-22) के अनुसार भारत में हर साल 34 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से 43% पैकेजिंग प्लास्टिक होता है—जो सीधे माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण से जुड़ा है।
इस शोध से अब यह साफ हो गया है कि माइक्रोप्लास्टिक का खतरा जितना दिखता है, उससे कहीं अधिक जटिल हो चुका है, क्योंकि यह केवल बोतलों से नहीं, बल्कि उसकी कैपिंग, प्रोसेसिंग और रेस्टिंग प्रक्रियाओं से भी पैदा हो सकता है। ऐसे में अब ज़रूरी हो गया है कि माइक्रोप्लास्टिक को हमारे शरीर में जाने से रोकने के लिए उत्पादन और प्रोसेसिंग के हर स्तर पर, खासकर पैकेजिंग प्रक्रिया को लेकर कड़े नियम बनाए जाएं और उत्पादों के उपभोक्ताों तक पहुंचने से पहले अलग-अलग चेक प्वाइंट्स पर जांच की बहुस्तरीय व्यवस्था लागू की जाए।