इटावा जनपद के जल संसाधन की समस्याएँ (Water Resource Problems of Etawah district)

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जल संसाधन की समस्यायें
बाढ़ एवं जल जमाव :
बाढ़ :

(1) अधिक वर्षा :

(2) धरातल :

(3) नदी संगम प्रतिरूप :

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नदी विसर्प :

वनस्पति आवरण की कमी एवं भू कटाव :

‘‘वनस्पति जल के तीव्र बहाव को रोककर बाढ़ को रोकने में सहायता प्रदान करती है। सघन वनस्पति वाले क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति गंभीर नहीं होती है।’’

जनपद के दक्षिणी भाग में वनस्पति का प्रतिशत अति न्यून होने के कारण बाढ़ अधिक आती है। अपरदन से प्राप्त होने वाला कुछ मलबा तो नदी के जल के साथ बह जाता है और कुछ नदी की तलहटी में जमा हो जाता है जिससे नदियों की जल ग्रहण क्षमता कम हो जाने के कारण अधिक वर्षा के समय बाढ़ आ जाती है। जनपद की सेंगर एवं अहनैया इसके अच्छे उदाहरण है। यहाँ नदी की तलहटी उथली हो गयी है अत: वर्षा के समय आस-पास की निम्न भूमि जलमग्न हो जाती है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि जनपद में बाढ़ की समस्या एक गंभीर समस्या है। इस समस्या के समाधान के बिना जनपद का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। इस तथ्य का अनुभव पहले से ही किया जा रहा है अत: इसके समाधान हेतु निम्नांकित प्रयास किये गये हैं।

तटबंधों का निर्माण :

वृक्षारोपण :

‘‘वृक्षों की उपस्थिति जहाँ एक ओर पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखती है वहीं दूसरी ओर जल प्रवाह को तथा मिट्टी के कटाव को रोककर बाढ़ रोकने में सहायक होती है।’’

अत: जनपद के दक्षिणी भाग में वनों का विस्तार किया जाना चाहिए।

निचले क्षेत्रों में बसे हुए ग्रामों को ऊँचाई पर बसाना :

बाढ़ राहत कार्य :

जल जमाव :

जल जमाव पर नियंत्रण के कुछ सुझाव यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं



1. नहर पक्कीकरण जल जमाव का स्थाई समाधान है। यह कार्य अत्यधिक व्यय साध्य है। इसलिये जनपद में नहर के उन्हीं भागों की तली एवं किनारों को पक्का किया जाना चाहिए। जहाँ नहर में निर्मित किये गये अवरोधकों के कारण जल प्रवाह में अवरोध आने से जल निस्यंदन अधिक होता है या नहर की तली की चट्टानें भेद होने के कारण अंत: निस्यंदन होता है। जनपद मुख्य नहर शाखा के दोनों ओर, जहाँ अवरोधक बनाये गये हैं, जल जमाव की समस्या अधिक देखने को मिलती है। लेखक द्वारा स्वयं देखा गया है कि नहरों का जल निस्यंदन उस क्षेत्र में तो रुक गया जहाँ नहरों का पक्कीकरण हुआ है। परंतु ऐसे भागों में भी नहर का पक्कीकरण कर दिया गया है जहाँ उसके बिना भी काम चल सकता था। यदि कहीं केवल नहर की तली को पक्का करना पर्याप्त था तो वहाँ साइडों को भी पक्के करने में अनावश्यक धन का अपव्यय करने से कोई लाभ नहीं। इस धन का उपयोग वहाँ किया जा सकता है जहाँ जल निस्यंदन अधिक है।

2. शहर, सड़क एवं अन्य निर्माण कार्यों से जनपद में जहाँ प्राकृतिक जल प्रवाह अवरुद्ध हो गये हैं वहाँ भूमिगत पुलिया बनाकर प्राकृतिक जल प्रवाह को पुन: खोलना चाहिए। इससे अवरुद्ध जल प्रवाहित होकर प्रमुख जल प्रवाह में मिल सकेगा।

3. नहर के समानांतर निस्यंदन प्रवाह नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए। और इन नालियों के जल को जल की कमी वाले क्षेत्रों को प्रदाय किया जाना चाहिए। इससे आगामी प्रवाह के कारण उत्पन्न जल निस्यंदन पर नियंत्रण होगा तथा नवीन क्षेत्रों को सिंचाई के लिये जल उपलब्ध भी हो सकेगा।

इस प्रकार की निस्यंदन प्रवाह नालियों के निर्माण तथा प्राकृतिक प्रवाह हेतु भी लंबी छोटी नालियों का निर्माण सरकार द्वारा अन्तरराष्ट्रीय विकास परिषद एवं विश्व बैंक की सहायता से किया जाना चाहिए।

4. महेवा एवं भर्थना विकासखंडों के निचले क्षेत्रों के जल प्रवाह को गहरी नालियों द्वारा प्राकृतिक प्रवाह से जोड़ना चाहिए।

5. जल जमाव वाले क्षेत्रों में यथा संभव सिंचाई एवं अन्य कार्यों में अधिक से अधिक भौम जल का प्रयोग किया जाना चाहिए।

6. सिंचाई जल का नियमित एवं नियंत्रित प्रदाय किया जाना चाहिए।

7. सिंचाई की वैज्ञानिक विधि जैसे कूड़ विधि क्यारी विधि थामला विधि (Sprinklers Methods) को समय स्थान एवं आवश्यकतानुसार अपनाना चाहिए।

8. जनपद में पाइप लाइन सिंचाई जल वितरण का सर्वोत्तम साधन सिद्ध हो सकता है। इसके द्वारा जल निस्यंदन पर पूर्ण नियंत्रण होता है। यह खुली नहरों एवं नालियों से अधिक मितव्ययी होता है। पाइपलाइन का प्रयोग खेतों में जल वितरण के लिये भी खुली नालियों की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होता है। खुली नालियों में कृषि भूमि का प्रयोग होता है और कृषि कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है। साथ ही इसके अनुरक्षण में समय और धन दोनों ही अधिक लगते हैं। इसकी तुलना में पाइपलाइन के अनुरक्षण में समय एवं धन दोनों कम लगते हैं। साथ ही यह निस्यंदन की समस्या का स्थाई निदान है।

इतना सब कुछ होते हुए भी इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि पाइपलाइन को बिछाने के लिये तत्काल अत्यधिक धनराशि की आवश्यकता होगी जिसे सरकार एवं कृषकों को एक किस्त में वहन करने में आर्थिक कठिनाई होगी। इसलिये जनपद के जल जमाव ग्रस्त समस्त क्षेत्रों में पाइपलाइन बिछाने का कार्य तर्कसंगत नहीं है। केवल उन्हीं क्षेत्रों में जिनमें जल जमाव की समस्या गंभीर है, मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है तथा साथ ही कृषक संपन्न हैं, नहर शीर्ष कर अत्यधिक जल उपलब्ध रहता है एवं जहाँ जल को ऊपर से नीचे की ओर ले जाना हो व वहाँ पाइप लाइन डालने के अतिरिक्त अन्य कोई सुविधाजनक विकल्प न हो, उन्हीं क्षेत्रों में पाइपलाइन बिछाने का सुझाव दिया जा रहा है।

मृदा अपरदन :

‘‘भैया मैं तो बटाई वाला हूँ। पिछले वर्ष दूसरा किसान था अगले वर्ष तीसरा किसान होगा। हमें भूमि के कटने फटने से क्या मतलब।’’

इससे स्पष्ट है कि भूमि पर कृषकों का स्वामित्व न होने से वे भू-संरक्षण की विधियों का प्रयोग करने के प्रति उदासीन हैं। भूमि स्वामी खेतों से निकट संबंध नहीं रखते। अत: भूमि का उपयोग करने वालों का उस पर स्वामित्व होना आवश्यक है। इस प्रकार की कई महत्त्वपूर्ण बातें ग्रामीणों के सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण से प्रकाश में आ सकती हैं। जो कि अपरदन समस्या के समाधान में सहायक होंगी।

(3) अपरदित भूमि के उपचार के लिये कृषकों को आर्थिक सहायता देने का विधान सरकार द्वारा रखना चाहिए। जिससे अपरदित भूमि की समस्या का उसी समयांतराल में निदान हो सके। उपचारित भूमि में सिंचाई सुविधायें भी विकसित की जानी चाहिए। इसके साथ ही यदि हम कृषकों में सामाजिकता राष्ट्रीय भावना और भूमि अपरदन के प्रति जन चेतना को विकसित करने का प्रयास करें तो यह भूमि अपरदन को रोकने में उपादायी होगा।

(4) अध्ययन क्षेत्र का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात बीहड़ क्षेत्र इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित है। इस भाग में पूर्व से ही घने वृक्षों का अभाव रहा है। साथ ही सरकारी अफसरों की रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति ने जंगल के लगभग सभी बड़े पेड़ों को कटवा दिया है। अब केवल वृक्षों के अवशिष्ट दिखाई पड़ते हैं। शोधार्थी ने स्वयं बड़े अफसरों (एसडीएम तक को) सड़क पर खड़े होकर लकड़ी काटने वालों से धन वसूली करते हुए देखा है।

(5) बीहड़ क्षेत्र में तीव्र गति से उतरता हुआ जल बहता है। जल के इस प्रवाह का नियंत्रण आवश्यक है, क्योंकि एकाएक भारी मात्रा में जल प्राप्त हो जाने के कारण उसके प्रवाही क्षेत्रों में मृदा अपरदन अत्यधिक होता है। इसके लिये मृदा अपरदित क्षेत्रों में जहाँ गहरे गड्ढे नालियाँ आदि बन जाती हैं, वहाँ बाँध बनाकर जल को रोका जा सकता है। पहाड़ी भागों में जलाशय बनाकर भी जल के तीव्र प्रवाह पर नियंत्रण किया जा सकता है।

(6) ज्यों-ज्यों जनसंख्या की वृद्धि हो रही है त्यों-त्यों घरेलू उपयोग के साथ-साथ जलौनी के लिये लकड़ी की मांग भी बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरूप वनों को तेजी से काटा जा रहा है। जिसके कारण मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हो रही है। इस समस्या को दूर करने के लिये आवश्यक है कि लकड़ी के स्थान पर अन्य विकल्पों का विकास हो जिससे लकड़ी पर निर्भरता कम हो सके। ऐसा करने से वन विनाश को रोका जा सकता है, जो मृदा अपरदन की समस्या के समाधान में सहयोगी होगा।

(7) मैदानी क्षेत्रों में बहते हुए जल का वेग रोकने के लिये खेतों की मेड़बंदी करना ऊँची भूमि पर पतली खेती तथा टेढ़ी-मेढ़ी खेती की पद्धति अपनाना आवश्यक होता है जिससे जल का बहना रुककर उपजाऊ मिट्टी वहीं पड़ी रहे।

उपरोक्त उपायों द्वारा मृदा अपरदन की समस्या से निजात पाया जा सकता है।

लवणीय एवं क्षारीय मृदा
लवणीय मृदा :

क्षारीय मृदा :

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लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों का वितरण :

अध्ययन क्षेत्र में लवणीय एवं क्षारीय मृदा बनने के कारण :

1) शुष्क जलवायु


शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में कम एवं उच्च तापमान के कारण जल केशिका उन्नयन द्वारा मृदा की सतह पर पहुँचता है, जहाँ वाष्पन द्वारा जल वायुमंडल में विसरित हो जाता है तथा विलय लवणों का मृदा की सतह पर संचय हो जाता है। अध्ययन क्षेत्र इस समस्या से काफी हद तक प्रभावित है।

2) लवणीय जल से सिंचाई :


लवणों की अधिकता वाले जल से सिंचाई करने पर लवणीय मृदाओं का निर्माण होता है। जल में लवणों की मात्रा के अनुपात में ही लवणों का मृदा सतह पर संचय होता है। लवणयुक्त जल द्वारा सिंचाई करने पर जल पहले मृदा में नीचे की सतह में चला जाता है जो बाद में केशिका उन्नयन द्वारा विलय लवणों साथ सतह पर पहुँचता है। जलवाष्प के रूप में उड़ जाता है। अथवा पौधों द्वारा उपयोग कर लिया जाता है तथा लवण अवशेष के रूप में सतह पर जमे रह जाते हैं। सिंचाई जल में सोडियम की उपस्थिति के कारण लवणीय-क्षारीय मृदाओं का विकास होता है। अध्ययन क्षेत्र का अधिकांश भाग नहर जल के द्वारा लाये गये लवणीय जल से इस प्रकार की मृदा का निर्माण हुआ है।

3) उच्च जल स्तर :


जल स्तर की पर्याप्त ऊँचाई होने पर जल की अधिक मात्रा केशिका प्रभाव से मृदा धरातल तक चली आती है। मृदा सतह पर पहुँचने के बाद विलियन का जल वाष्पित हो जाता है तथा विलय लवण मृदा सतह पर संचित हो जाते हैं। मृदा सतह पर लवणों का संचय केशिका गति भूजल में लवणों की मात्रा एवं वाष्पीकरण की गति पर निर्भर करता है। ताखा, भर्थना, बसरेहर आदि विकासखंडों में इस प्रकार की समस्या देखी जा सकती है।

4) अधो मृदा की अभेद्यता :


अधो मृदा में कड़ी परत होने के कारण जल निचली सतहों में नहीं रिस पाता है जिसके कारण लवणों का लीचिंग नहीं होता और वे सतह पर संचित हो जाते हैं।

5) दूषत जल निकास :


दूषित जल निकास की परिस्थितियों में निचले स्थानों पर एकत्रित जल अन्यत्र नहीं निकल पाता है, जो सूखने पर अपने साथ लाये विलेय लवणों की परत वहीं छोड़ देता है, यह क्रिया अनवरत चलती रहती है, जिसके कारण लवणों की पर्याप्त मात्रा मृदा सतह में एकत्रित हो जाती है। जनपद का उत्तरी एवं उत्तरी पूर्वी भाग लगभग समतल है, जल निचली सतह पर भरा रहता है और निरंतर वाष्पीकरण की क्रिया जारी रहती है। जिससे लवण एकत्रित होते रहते हैं। और वहाँ लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी का निर्माण हो जाता है।

6) क्षारीय उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग :


सोडियम युक्त उर्वरकों की प्रकृति भास्मिक होती है। ऐसे उर्वरकों के निरंतर उपयोग से मृदा संकीर्ण पर सोडियम की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरूप मृदा क्षारीय हो जाती है। ऐसी मृदा में सोडियम नाइट्रेट का प्रतिबंधात्मक उपयोग करना चाहिए।

लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का सुधार :


अध्ययन क्षेत्र की लवणीय एवं क्षारीय मृदा का सुधार निम्न विधियों द्वारा किया जा सकता है -

(अ) भौतिक एवं यांत्रिक क्रियायें :


इन क्रियाओं द्वारा मृदा में उपस्थित हानिकारक लवणों का उन्मूलन किया जाता है, साथ ही क्षारीयता के विस्तार को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

1. लवणों को खुरचकर :


लवणीय मृदा की सतह पर एक भुरभुरी सफेद परत के रूप में लवणों का जमाव होता है। इन लवणों को खुरचकर एकत्रित करके प्रभावित क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है।

2. निक्षालन :


लवणीय मृदा में जल की मात्रा प्रयोग करके विलेय लवणों का निक्षालन कर दिया जाता है। इस प्रकार हानिकारक लवण पौधों की जड़ों की पहुँच से नीच चले जाते हैं। तथा पौधे हानिकारक लवणों के प्रभाव से बच जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में जहाँ का जल स्तर नीचा है, उन भागों के लिये यह विधि उपयोगी है।

3. जल निकास :


मृदा में विलेय लवणों को जल के साथ पृष्ठीय अथवा भूमिगत जल निकास द्वारा प्रभावित क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। उच्च जल स्तर एवं मृदा में कठोर परत होने पर यह विधि अत्यंत उपयोगी होती है।

4. वाष्पीकरण का नियंत्रण :


मृदा की सतह पर घास फूस डालकर जल के वाष्पन को अवरुद्ध कर दिया जाता है। जिससे केशिका उन्नयन नहीं होता तथा निचली सतह से लवण ऊपर की सतह पर नहीं आ पाते।

(ब) रासायनिक सुधार -


रासायनिक सुधारकों के प्रयोग द्वारा अधिक हानिकारक सोडियम लवणों व मृदा संकीर्ण को कम हानिकारक लवणों एवं सीए संकीण में परिवर्तित किया जाता है। इसके सुधार के लिये निम्न रसायनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(1) जिप्सम -


क्षारीय मृदाओं को कृषि योग्य बनाने के लिये जिप्सम का सर्वाधिक प्रयोग किया जाना चाहिए।

(2) गंधक -


विनियम योग्य सोडियम के विस्थापन के लिये गंधक सबसे अधिक उपयोगी पदार्थ है। गंधक का एक परमाणु मृदा संकीर्ण में 3 सोडियम आयन्स को विस्थापित करने में सक्षम होता है।

(3) सल्फ्यूरिक अम्ल -


सल्फ्यूरिक अम्ल का प्रयोग सीधे रूप से क्षारीय मृदाओं के सुधार हेतु किया जाता है। मृदा में इसकी क्रिया तत्वीय एस से उत्पन्न एच टू एस ओ फोर की भाँति होती है। अधिक महँगा एवं दाहक होने के कारण इसका प्रयोग वर्जित है।

(4) चूना पत्थर -


कम पी-एच वाली मृदाओं को सुधारने के लिये पिसे हुए चूना का उपयोग किया जाता है। मृदा पी-एच 7.6 से अधिक होने पर इसका प्रभाव कम हो जाता है क्योंकि इस पी-एच पर चूना मृदा में अविलेय रहता है। मृदा में चूना मिलाने पर मृदा संकीर्ण पर उपस्थित सोडियम सी ए के साथ विस्थापित हो जाता है।

(5) पायराइट्स -


पायराइट्स एक उत्तम सस्ता एवं सुलभ रासायनिक सुधारक है। मृदा में पायराइट्स मिलाने पर यह जैविक रासायनिक परिवर्तनों द्वारा आक्सीकृत होन सल्फ्यूरिक अम्ल व अन्य अम्लीय पदार्थों का निर्माण करता है। मृदा सोडियम से क्रिया करके उसे सीए- मृदा में परिवर्तित कर देता है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जनपद में लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं से प्रभावित एक बड़ा क्षेत्र है। उपरोक्त विधियों के द्वारा इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।

भूमिगत जल का अतिशय दोहन :

जल संसाधन की गुणवत्ता की समस्या :

References

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