प्रकृति संकट से उबरने का रास्ता
मनुष्य और प्रकृति दोनों के शोषण पर आधारित औद्योगिक एवं तकनीकी क्रांति से उत्पन्न पर्यावरण संकट आज सर्वत्र चिंता का विषय है। विकसित, अविकसित, पूंजीवादी, साम्यवादी सभी देश अपने-अपने ढंग से रास्ता तलाश रहे हैं। औद्योगिक रूप में विकसित देशों ने बाहरी मलजल और औद्योगिक कचरे की सफाई के लिए संयंत्र विकसित जरूर किये हैं, पर उनसे समस्या का वास्तविक अथवा स्थायी समाधान नहीं हो पा रहा।
औद्योगिक उत्प्रवाह के एक हिस्से को गैस के रूप में यदि आसमान में उड़ाकर नदी में गिर रहे कचड़े को अपेक्षाकृत कम विषैला बनाया जाता है तो उधर गैस से वायुमंडल में होने वाला प्रदूषण कहीं अधिक व्यापक क्षति पहुंचाता है। इसी तरह शहरी मलजल को साफ करके सीवेज से खेती अथवा मछली पालन की तरकीब भी नुकसानदेह है, क्योंकि भारी धातुएं तथा रसायन ऐसी खेती की उपज और मछलियों में पहुंचकर आदमी को ही नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए अगर पर्यावरण संकट का वास्तविक तथा स्थायी हल करना है तो उसके लिए प्रकृति के नियमों के अनुरूप ही कोई सामाजिक-आर्थिक ढांचा खड़ा करना होगा।
इस बिन्दु पर पहुंचने से पहले संक्षेप में पर्यावरण का तात्पर्य समझना होगा। एक आधुनिक सरल परिभाषा के अनुसार पृथ्वी पर पाये जाने वाले समस्त जीव समुदायों तथा बाह्य भौतिक वातावरण के विभिन्न तत्वों के बीच तथा उनके स्वयं में होने वाली अंतर क्रियाओं की पद्धति को पर्यावरण कहते हैं। भौतिक वातावरण के भाग ऊर्जा, खनिज, पदार्थ, पानी तथा गैसों का सम्मिश्रण और जैवीय भाग पेड़-पौधे, पक्षी तथा अन्य समस्त जीवित प्राणी एक संतुलित पर्यावरण की रचना करते हैं। चूंकि पर्यावरण के दोनों अंग-जैवीय तथा भौतिक वातावरण एक-दूसरे पर पूर्णतः निर्भर हैं और यही निर्भरता ही दोनों को गति प्रदान करती है। यह गति समय के साथ चक्र के रूप में हमेशा चलती रहती है। (जिसका आम आदमी को आभास भी नहीं होता है) इस चक्र में ऊर्जा जीवधारियों में विभिन्न परिवर्तित रूपों में पहुंचती रहती है और अंत में ऊष्मा के रूप में खो जाती है।
ऊर्जा के साथ ही खनिज पदार्थ भी जीवधारियों के शरीर में पहुंचते हैं, जो कि जीव-जंतुओं की विभिन्न क्रियाओं तथा मरने के बाद पुनः वातावरण में मिल जाते हैं। इस प्रकार खनिज पदार्थो का पर्यावरण में चक्र चलता रहता है। संतुलित पर्यावरण का यही मुख्य कार्य है। यदि इस संतुलित पर्यावरण की कोई एक कड़ी नष्ट हो जाए, तो सम्पूर्ण चक्र नष्ट होने लगता है। पर्यावरण संतुलन, क्या, क्यों और कैसे? उदयवर सिंह, आरण्यक मासिक, फरवरी 1987।
इस दृष्टिकोण में पर्यावरण के दो अंग माने गए जैवीय और भौतिक। जैवीय अंग में समस्त पेड़, पौधे, जन्तु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि शामिल हैं और भौतिक में ठोस, खनिज पदार्थ, पानी गैसों का सम्मिश्रण एवं सूर्य ऊर्जा।
आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि लगभग ढाई अरब वर्ष पहले प्रकृति के मौलिक तत्वों पानी, नाइट्रोजन, अमोनिया, मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा पिघले हुए खनिज पदार्थों के बीच उच्च तापमान पर रासायनिक क्रिया हुई, जिसके परिणाम स्वरूप जीव की उत्पत्ति हुई, जिसका करोड़ों वर्षों में जैविक विकास होता गया और आज हम समस्त प्राणी जगत इस वर्तमान अवस्था में पहुंच गए हैं।
इस अध्ययन के प्रारंभ में विभिन्न उपनिषदों तथा भारतीय दार्शनिक ग्रंथों से सृष्टि की रचना का जो विवरण लिया गया है। वह इस आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मिलता-जुलता है।
ऐतरेयोपनिषद, तैत्तरीयोपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, छांदोग्य उपनिषद, यजुर्वेद, मत्स्यपुराण, अथर्ववेद, महाभारत आदि जितने भी भारतीय उपनिषद, पुराण व अन्य धर्म ग्रंथ हैं। उन सब में जीवन के पांच मूल तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश माने गए हैं तथा इनसे ही सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई। प्राचीन भारतीय विज्ञान आधुनिक विज्ञान से इस मायने में एक कदम आगे था कि वह जीव और भौतिक जगत को अलग-अलग करके नहीं देखता था बल्कि जो पांच मूल तत्व हैं उन्हें भी परस्पर परिवर्तनशील मानकर एक मानकर या जितने भी भारतीय धर्म और दर्शन ग्रंथ हैं, उनकी एक खूबी है कि उनमें सृष्टि रचना के मूल तत्वों, उनके परस्पर संबंधी और नियमों को अत्यन्त सरल और सुबोध शैली में समझाया गया और इस गूढ़ रहस्य को जान समझकर आत्मसाक्षात्कार करना तथा ईश्वर की प्राप्तिकर आवाजाही के बंधन से मुक्ति को मोक्ष माना गया।
सृष्टि के समस्त तत्वों में एक मूल तत्व ईश्वर का दर्शन उनकी रक्षा और आदर की ऐसी भावना इन ग्रथों के जरिये जन-जन में भरी गयी जो युग युगांतर तक पर्यावरण का संतुलन कायम रखने में सक्षम साबित हुई। ईश्वर प्राप्ति और मोक्ष की कामना से विधि-विधान से सुने जाने वाले श्रीमद्भागवद् महापुराण में कहा गया है कि जो मनुष्य आकाश, जल, पृथ्वी, प्राणियों आदि का आदर करता है वह परम शांति और ईश्वर कृपा प्राप्त करता है। यानि ईश्वर और प्रकृति, पुरुष और प्रकृति यह सब एक हैं।
आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि समस्त ग्रहों, पृथ्वी, समुद्र, नदी, पहाड़, पेड़, पौधों, हाथी, शेर, चूहा, सांप, बिच्छू, मछली, सूअर, गाय, बैल, अनाज आदि प्रकृति के समस्त तत्वों और जीवों को देवता मानकर उनकी पूजा का प्रावधान किया गया। इस व्यावहारिक विज्ञान की शिक्षा विभिन्न संस्कारों, व्रत, पर्वो और समारोहों के रूप में बचपन से ही मिलने लगती थी।
लोक शिक्षण का यह ऐसा सहज और अद्भुत माध्यम था कि बिना किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में गये इतना जानता और समझता था कि वह पर्यावरण संतुलन के प्राकृतिक नियमों में कोई बांधा न पहुंचाए।
विष्णु संहिता में कहा गया है कि जो मनुष्य अपने सुख के लिए निरापद जीव-जन्तुओं को मारता है उसे मरा हुआ समझना चाहिए। ऐसे आदमी को इस लोक या परलोक में कोई सुख नहीं मिलेगा। और जो मनुष्य जीव-जन्तुओं को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाने से विरत रहता है, यह वास्तव में समस्त प्राणियों का शुभेच्छु है तथा वह परम आनंद प्राप्त करता है।
प्रकृति के समस्त मूल तत्वों की शुद्धता बनाने के लिए स्पष्ट नियम बनाये गये थे। जल प्रदूषण रोकने के लिए यहां मनुस्मृति का उदाहरण देना उपयुक्त होगा।
नाप्सु मूत्रं पुरीषंवा ष्ठीवनं वा समुत्सृजेत् । अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणिवा ।।अर्थात् पानी में पेशाब, टट्टी और थूकना नहीं चाहिए। खून, जहर अथवा कोई पेशाब, टट्टी और थूक से युक्त कोई वस्तु पानी में नहीं फेंकना चाहिए।
इन ग्रंर्थों को दकियानूसी और पुरातनपंथी मानने वाले हमारे आज के वैज्ञानिक और इंजीनियर महानगरीय सभ्यता में कालोनियों की सीवर लाइनें, ताप, जल या परमाणु ऊर्जा के कचड़े और तरह-तरह के कारखानों से निकले दूषित और जहरीले पदार्थ तथा वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता अपनी प्रयोगशालाओं के जहरीले पदार्थ जब योजनाबद्ध रूप से नदियों में डालते हैं तो उनकी वैज्ञानिकता संदिग्ध प्रतीत होने लगती है। पर क्या कोई यह केवल अज्ञानता है? ऐसा नहीं है।
प्रदूषण के कारण आज दुनिया जो पर्यावरण संकट झेल रही है वह वैज्ञानिकों अथवा शासनतंत्र की अज्ञानता नहीं, बल्कि दौलत और सत्ता का एकाधिकार हासिल करने के लिए जान बूझकर किया जा रहा भ्रष्टाचार है।
चरक संहिता में महर्षि अग्निवेश पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण इस रूप में बताते हैं।
वाय्वादीनां यद्वैगुण्यमुसद्यते तस्य मूलमधर्मः,
तन्मूलं वासत्कर्म पूर्वकृतं, तयोर्योतिः प्रज्ञापराध एवं।
तद्यदा देश नगर निगम जनपद प्रधाना धर्ममुत्कम्याधर्मेण प्रजां वर्तयन्ति,
तदात्रितोपकिताः पौरजनपदा व्यवहारोपजीविनश्च तमधर्ममभिवर्धयन्ति,
ततः सोडधर्मः प्रसभं धर्मयत्रर्धन्ते, ततस्त्रेडत्रर्हित धर्माण्ये देवताभिरपपि त्यज्यंते-
यानि वायु आदि समस्त तत्वों के प्रदूषण की जड़ अधर्म अर्थात प्रकृति एवं समाज के नियमों का उल्लंघन है। अधर्म का कारण पूर्वकृत बुरे कर्म हैं। पूर्वकृत बुरे कार्य और अधर्म दोनों की उत्पत्ति का कारण प्रज्ञापराध अर्थात जानबूझकर किया गया गलत कार्य है। जब देश, नगर निगम व जनपदों के मुखिया व राजा धर्म (नियम) की परवाह न करते हुए अधर्म (गैर कानूनी ढंग) से प्रजा के साथ व्यवहार करते हैं तब उनके आश्रित और उपाश्रित सरकारी कर्मचारी और व्यापारी अधर्म को बढ़ाते हैं। अर्थात जब सत्ता का मुखिया रिश्वत लेता है तो उसके नौकर-चाकर खुद और मुखिया के लिए दूसरे से रिश्वत लेते हैं और जो व्यापारी अपना लेन-देन उनके साथ करना चाहते हैं उन्हें वहां के नौकरों को रूपये चढ़ाने पड़ते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए व्यापारी दूसरे तरह के धोखे करते हैं। इस अधर्म में देवता अर्थात सृष्टि के पांच मूल तत्व भी उनका त्याग कर देते हैं। ऐसे देश, जनपद आदि की ऋतुएं विकृत हो जाती हैं, जिससे इंद्र व मेघ यथाकाल नहीं बरसते अथवा सर्वत्र नहीं बरसते। जब विकृत जल बरसता है। वायु ठीक प्रकार से नहीं बहते। पृथ्वी विकृत हो जाती है। जल सूख जाते हैं। औषधियां स्वभाव छोड़कर विकृत हो जाती हैं। उनके स्पर्श तथा आहार के दोष से देश उजड़ जाते हैं। देश विनाश के एक और कारण युद्ध के मूल में भी अधर्म माना गया है। "तथा शस्त्र प्रभवस्यापि जनपदोध्वंसस्याधर्म एव हेतुर्भवति- "I
शस्त्रों अर्थात युद्धों जनपदोध्वंस का भी अधर्म ही कारण होता है। जिनका लोभ, कोध, मोह, अहंकार आदि बढ़ गया है, वे दुर्बल पुरुषों की अवज्ञा करके अपना स्वजन व दूसरों के नाश के लिए शस्त्र द्वारा परस्पर लड़ते हैं। प्राचीन भारत का महाभारत और आधुनिक इतिहास के दो विश्वयुद्ध इसके उदाहरण हैं।
इस विश्लेषण से पर्यावरण संरक्षण के अथवा विनाश के लिए बातें उभरकर सामने आती हैं। पहला यह कि मनुष्य का प्रकृति के अन्य तत्वों और जीव-जन्तुओं से क्या रिश्ता हो और दूसरा यह कि मनुष्य का मनुष्य से क्या रिश्ता हो और इन रिश्तों को संचालित करने की सामाजिक, आर्थिक, व्यवस्था क्या हो? एक समय था जबकि वैदिक काल में इन सबके संतुलन से एक व्यवस्था और उसको संचालित करने वाले नियम बनाए गए। पर कमशः उनका ह्रास हुआ। नियमों के ह्रास और उल्लंघन से ही जाने कितने देश और सभ्यताएं नष्ट हुई। उत्थान और पतन का यह भारत ही नहीं मिश्र, यूनान और दूसरी सभ्यताओं ने भी देखा है। मत्स्य पुराण बताता है कि किस प्रकार महाराज मनु ने मत्स्य अवतार से प्रलय के बाद भी ज्ञानरूप वेदों, तमाम जीवों और सृष्टि की रक्षा का ज्ञान पाया।
तात्पर्य यह है कि इतनी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक उन्नति के बाद भी जब यहां शासक वर्ग ने सत्ता और व्यापारियों ने सम्पत्ति के मोह में भ्रष्ट आचरण करते हुए समाज को संचालित करने वाले नियमों को तोड़ा तो प्रलय टाली नहीं जा सकी।
इसलिए युगांतर तक की व्यवस्था सोचने वाले कांतिदृष्टा महापुरूषों ने आज की तरह चुनाव आधारित पंचसाला योजनाओं के बजाय दीर्घकालीन नीतियां बनायीं।