टेहरी बांध भारत का सबसे ऊंचा बांध है,फोटो क्रेडिट- ​​​wikipedia
टेहरी बांध भारत का सबसे ऊंचा बांध है,फोटो क्रेडिट- ​​​wikipedia

बाँध हिमालय की पुष्ठभूमि में

1947 में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल की प्राप्यता 6008 घनमीटर थी वहीं पचास वर्षों में यह घट कर 2266 घनमीटर रह गई। इसलिये यह भावना तीव्र होती गई कि वर्षा के जल को सागरों और प्राकृतिक झीलों में समाने से पहले ही धरती की तनिक ऊँचाइयों में रोक लिया जाये  जिसे आवश्यकतानुसार वर्ष के सूखे दिनों में उपयोग किया जा सके। इस विचार से प्रेरित होकर पूरे विश्व में विशाल बाँधों की रचना हुई।
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सम्पूर्ण भारत को वर्षा के रूप में जितना जल मिलता है उसका लगभग 5 प्रतिशत पड़ोसी देशों से आने वाली नदियाँ अपने साथ लाती है। यदि । हम केवल भारत की भूमि पर बरसने वाले औसत वार्षिक जल को देखें, तो यह लगभग 1215 मिलीमीटर है। यह वर्षा जल भी विश्व की ओसत वर्षा से कहीं अधिक है। समस्या यह है कि स्थान विशेष ओर मात्रा के परिपेक्ष में इसका बंटवारा अत्यंत विषम है। उत्तर-पूर्वी भारत में 2500 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा की तुलना में पश्चिमी राजस्थान में यह मात्र 100 मिलीमीटर है। दूसरी कठिनाई यह है कि वर्षा का 80 प्रतिशत भाग केवल जून से सितंबर के महीनों में ही बरस जाता है और वह भी तेज वालों के रूप में इसका कुछ भाग हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र की अधिक उंचाइयों में वर्ष के रूप में रुक जाता है, परंतु अधिकांश जल ढलवां भूमि में तेजी से बहता हुआ निकल जाता है। अनुमानतः वर्षा के जल का लगभग 1150 घन किलोमीटर जल प्रति वर्ष सीधे समुद्रों में समा जाता है। यदि यह भूमिगत जलभंडारों के रूप में जमा हो सकता तो तमाम मानवीय आवश्यकताओं एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से यह उत्तम पर्याय होता।  

प्रकृति के पारितंत्रों के जल संचय की सामर्थ्य सीमित है। शहरीकरण एवं भवनों तथा सड़कों के निर्माण के फलस्वरूप धरातल में जो परिवर्तन होते हैं, उनसे इसमें और कमी आती है। बढ़ती जनसंख्या के दबाव में प्राकृतिक वनों को काट कर अधिकाधिक भूमि को कृषि के लिये उपयोग करना भी आवश्यक हो गया है। उत्पादकता में वृद्धि के लिये विकसित बीजों, उर्वरकों एवं कृषि रसायनों के बढ़ते उपयोग से जल की खपत बढ़ गई है। परिणाम यह हुआ कि जहाँ 1947 में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल की प्राप्यता 6008 घनमीटर थी वहीं पचास वर्षों में यह घट कर 2266 घनमीटर रह गई। इसलिये यह भावना तीव्र होती गई कि वर्षा के जल को सागरों और प्राकृतिक झीलों में समाने से पहले ही धरती की तनिक ऊँचाइयों में रोक लिया जाये  जिसे आवश्यकतानुसार वर्ष के सूखे दिनों में उपयोग किया जा सके। इस विचार से प्रेरित होकर पूरे विश्व में विशाल बाँधों की रचना हुई। भारत में भी मानसून के अतिरिक्त जल को बाँधने और उद्योगों, विद्युत उत्पादन एवं सूखे मौसम की कृषि के लिये नियंत्रित उपयोग करने की दिशा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई जिससे देश के आर्थिक विकास को गति मिली। सन 1954 और 1994 के अंतराल में 4300 बड़े बाँधों का योजनाबद्ध रूप से निर्माण हुआ जिससे जल द्वारा सिंचित भूमि के विस्तार में पाँच गुना वृद्धि हुई और इस देश को विश्व के बड़े बाँधों वाले देशों के समकक्ष स्थान मिला। आज भी भारत इस दिशा में लगातार प्रगति की ओर अग्रसर है।

बाँधों के इतिहास में सबसे अग्रणी अमरीका की कोलोरेडो नदी पर बना हूवर बाँध है जो सन 1935 में देश को समर्पित किया गया था। यह केवल 5 वर्षों में तैयार हो गया था और इससे उपलब्ध जल और जल विद्युत ने सूखे से ग्रस्त छ: विशाल पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी अमरीकी राज्यों की अर्थ व्यवस्था को पर्यटन, कृषि और ऊर्जा से सँवार दिया था।

पर्वतीय प्रदेशों की स्थलाकृति बाँध बनाकर जल की विशाल राशि को संग्रह करने के लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ प्रस्तुत करती हैं। विशेष रूप से हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में घाटियों तथा संकरे गार्जों के बीच बहती हुई नदियों को रोकने का कार्य अपेक्षाकृत कम लंबे परन्तु सुदृढ़ बांधों द्वारा किया जा सकता है। हिमालय के दक्षिणी ढलानों में पर्याप्त वर्षा होती है और वहां की अधिकांश नदियों में साल भर पानी रहता है।

सिंचाई के अतिरिक्त बाँधों का मुख्य उपयोग जल विद्युत उत्पादन के लिये किया जाता है। यह ऊर्जा का प्रदूषण मुक्त एवं चिरस्थायी ( Perennial) साधन है जिसका उत्पादन सामर्थ्य आवश्यकता पड़ने पर थोड़े ही समय में घटाया बढ़ाया जा सकता है। इसे दूरस्थ एवं अगम्य क्षेत्रों में सुलभ कराना संभव है। भारत में जल विद्युत उत्पादन की कुल क्षमता का 78 प्रतिशत अंश गंगा-ब्रह्मपुत्र मेघना तथा सिंधु नदी-प्रणालियों के जल संग्रहण क्षेत्रों का योगदान है। उत्तर-पश्चिमी भारत में भाखड़ा तथा टिहरी बाँध देश के सबसे बड़े बाँधों की श्रेणी में आते हैं जिनके जल की आपूर्ति क्रमशः सतलज-व्यास एवं भागीरथी के जल संग्रहण क्षेत्रों के जल से होती है ।

उत्तर-पूर्वी भारत को दक्षिण-पश्चिमी मानसून से जल की विशाल मात्रा मिलती है। ब्रह्मपुत्र- बराक नदियों का जल संग्रहण क्षेत्र लगभग 2,38,473 वर्ग किलोमीटर है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 7.3 प्रतिशत है। अकेले अरुणाचल प्रदेश के धरातल पर बहने वाले जल का विभव (Potential) सम्पूर्ण जल विद्युत विभव (hydropotential) का 31 प्रतिशत है। कामेंग,सुबानसिरी, सियांग, दिबांग और लोहित नदियों और उनकी सहायक नदियों (tributaries) से 30,000 मेगावाट जल विद्युत उत्पादन की योजनाएं बनाई गई हैं। इस क्षेत्र की नदियाँ गहरे गार्जों से होकर बहती हैं जिन पर बाँध बनाना अपेक्षाकृत आसान है। वहां जनसंख्या की विरलता के कारण जन विस्थापन जैसी सामाजिक समस्याएं भी कम हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत के विभिन्न राज्यों की विद्युत उत्पादन की क्षमता निम्न सारणी में दर्शाई गई है :

उत्तर-पूर्वी भारत के जल विद्युत उत्पादन का समुचित उपयोग न केवल इस क्षेत्र के विकास के लिये महत्वपूर्ण है, ब्लकि इससे सम्पूर्ण देश की विद्युत ऊर्जा की स्थिति भी मजबूत होगी। आज के नियमों के अनुसार प्रदेशों को उनकी प्राकृतिक संपदा के उपयोग के बदले 12 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा निःशुल्क दी जाती है जिससे उन प्रदेशों में उद्योगों को बल मिले। इन प्रयासों से उन क्षेत्रों की उत्पादकता बढ़ेगी, रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी, बाढ़ों से होने वाली क्षति कम होगी,

सड़कों, पर्यटन, मत्स्य पालन तथा नौकायन का विकास होगा। वर्ष के शुष्क मौसम में नदियों के जल प्रवाह में वृद्धि होगी। विद्युत ऊर्जा की उपलब्धि से ग्रामीण विद्युतीकरण को गति मिलेगी तथा उद्योगों का विकास होगा। बाँधों के निर्माण तथा जल विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में भारत में अन्यत्र हुए प्रयोगों के अनुभव का लाभ इन नई योजनाओं को मिल सकता है। आरंभ में उत्तर-पूर्वी प्रदेशों में पैदा की गई विद्युत ऊर्जा की उस क्षेत्र में आंशिक खपत ही होने की संभावना है। इसे सिलिगुड़ी के संकुचित द्वार से देश के अन्य क्षेत्रों में प्रेषण (transmit) करना भी एक बड़ी चुनौती है। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के विषम भू-भाग (terrain) तथा परिवहन की कठिनाइयाँ भी विद्युत उत्पादन, संचार तथा इनका रख-रखाव भी एक खर्चीला कार्य है। यह क्षेत्र विश्व का एक अतिविशिष्ट जैवविविधतायुक्त क्षेत्र (Biodiversity hotspot) माना जाता है। इसलिये इसका भी ध्यान रखना है कि इसके पर्यावरण को कोई हानि न हो।

हिमालय की नदियाँ अपने साथ लाये गये अघुलनशील पदार्थों को, जिनमें गोलाश्म (boulders), मिट्टी और मलवा (detritus) मुख्य हैं, बाँध के जलाशय में छोड़ देती हैं। हिमालय की नदियाँ अपने साथ अत्यधिक मलवा लाती हैं। इसके मूल से हिमालय के जन्म का इतिहास जुड़ा है। हिमालय अपेक्षाकृत एक नई पर्वतमाला है। करोड़ों वर्ष पूर्व इसका जन्म विशाल यूरेशियन महाद्वीपीय प्लेट (plate) तथा धीमी गति से उत्तर दिशा में बढ़ती हुई भारतीय प्लेट की टक्कर से हुआ। इस टक्कर के भीषण संवेग (momentum) से महाद्वीपों की संधि के स्थान पर भूमि ऊपर उठने लगी और पर्वत श्रृंखलाएं तथा घाटियाँ बनीं। इस घटना के बाद भी भारतीय प्लेट उत्तर दिशा में बढ़ती रही जिससे समय- समय पर हिमालय पर्वतमाला का उत्थान होता रहा। आज भी भारतीय प्लेट दो सेन्टीमीटर प्रति वर्ष की गति से उत्तर की ओर बढ़ रही हैं और हिमालय प्रति वर्ष 5 मिलीमीटर ऊपर उठता जा रहा है। इस निरंतर उथल-पुथल के कारण ही हिमालय में भूकंपनीयता विद्यमान है तथा इसकी भूमि में संहतता (compactness) भी नहीं है ।

गाद (siltation) का सीधा प्रभाव बाँधों की जल संचय क्षमता पर पड़ता है। इस दृष्टि से हिमालय से निकलने वाली नदियों पर बने बाँध अधिक प्रभावित होते हैं। बाँधों के जलाशयों का गाद से भरना बाँधों के निर्माण काल में ही होने लगता है क्योंकि इनकी पृष्ठभूमि में सड़कों, जल का मार्ग परिवर्तन करने के लिये बनी सुरंगों तथा अन्यान्य अवसंरचना (infrastructures) के निर्माण में हुई खुदाई से उत्पन्न मलवा जलाशयों में ही समाता है। बहुत दूरी तक ढलवीं घाटियों में बहने वाली नदियों को प्रायः अनेक स्थानों में बाँधा जाता है जिससे उनकी जल विद्युत उत्पादन की क्षमता का पूरा लाभ उठाया जा सके। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि इन तमाम बाँधों के बनने तथा जल के परिवर्तन (diversion) के बाद नदियों में बहुत कम जल बचता है। यह स्थिति न केवल जल के अधिकार की कानूनी समस्या पैदा करती है बल्कि नदी के जलीय पारितंत्रों तथा जैवविविधता को भी हानि पहुँचाती हैं। तीस्ता, भागीरथी, अलकनन्दा तथा उनकी सहायक नदियों की कुछ ऐसी ही विषम परिस्थिति हो चुकी है। 

बाँधों को अत्यधिक गाद से बचाने के लिये नदी के जल संग्रहण क्षेत्र में सघन वनीकरण अत्यंत आवश्यक है। यदि संभव हो तो कृषि के स्थान पर फलों के उद्यानों को प्राथमिकता मिले, जिनकी मिट्टी अपेक्षाकृत कम खोदी जाती है। भू-क्षरण वाले क्षेत्रों में नई सड़कों का निर्माण न हो, न ही नई बस्तियाँ बसाई जाएं। बाँध की योजना के साथ ही जल संग्रहण क्षेत्र के उपचार (catchment area treatment, CAT) की योजना भी बनाई जाती है। यह आवश्यक है कि CAT पर बाँध बनने से पहले ही कार्यान्वयन आरंभ हो सके। बाँधों का निर्माण अत्यंत खर्चीला इंजीनियरिंग उद्यम हैं, इसलिये यह आवश्यक है कि बाँध अपना पूर्ण पूर्वानुमानित जीवन जियें । यह अत्यधिक गाद का ही दुष्प्रभाव है कि जिस टिहरी बाँध की योजना बनाते समय इसकी अनुमानित आयु 100 वर्ष आँकी गई थी, जब यह देश को 2004 में समर्पित किया गया इसकी आयु सिमट कर केवल 62 साल रह गई।

नदियों में जल के साथ बहते हुए मलवे को बाँध के जलाशय में पहुँचने से पहले ही रोक सकें, इसके लिये प्रौद्योगिक विकल्पों की सहायता ली जाती है। बाँध से ऊर्ध्वप्रवाह (upstream) में चेक बाँध (check dams) बनाये जाते हैं जिनमें मलवा समा सके या बाढ़ के समय अत्यधिक मलवा होने पर जल को चैनल (channel) द्वारा अन्यत्र ले जाया जा सके। अत्यधिक क्वार्टजाइट (quartzite) वाली सिल्ट (silt) बाँध से संबन्धित विद्युत गृहों के टरबाइनों व यंत्रों, (turbines) को भी हानि पहुँचाती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में उपयुक्त स्थलों पर नदी के जल को बराज (barrage) बना कर चैनल द्वारा अन्यत्र ले जाया जाता है जहाँ इसका उपयोग सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन के लिये करते हैं। ऐसी परियोजनाओं को 'बहती नदी की परियोजना' (run-of-the- river projects) कहते हैं। इनमें न तो बड़े बाँध होते हैं न ही जलाशय। हिमाचल प्रदेश की नाथपा झाकरी इसी श्रेणी की एक परियोजना है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों के गाँवों में छोटी-छोटी जल धाराओं के मार्ग को अस्थायी बराज द्वारा रोक कर जल को चैनलों द्वारा अन्यत्र ले जाते हैं। इस जल का उपयोग सिंचाई, पनचक्कियों को चलाने एवं घरेलू जल की आपूर्ति के लिये करते हैं। ये बराज वर्षा ऋतु में आने वाली छोटी-बड़ी आकस्मिक बाढ़ों से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं परन्तु इन्हें श्रमदान द्वारा बिना किसी कठिनाई के पुनः ठीक कर लिया जाता है।

पड़ोसी देशों से आने वाली नदियां विशेष प्रकार की समस्याओं को जन्म दे सकती हैं जिसका एक उदाहरण सन 2004 में सतलुज नदी की घाटी (हिमाचल प्रदेश) में घटित घटना है। तिब्बत में सतलुज की एक सहायक नदी पारिचू में भूस्खलन ने एक अस्थायी बाँध को जन्म दिया। इसके टूटने पर सतलुज में आकस्मिक बाढ़ आ गई जिससे घाटी में नदी के तट पर बसे गाँव तथा जल विद्युत योजनाएं संकट में आ गई। तब यह आशंका प्रकट की गई थी कि क्या यह केवल एक प्राकृतिक घटना ही थी? विश्व में कई नदियाँ एक से अधिक देशों में होकर बहती हैं। ऐसी स्थिति में इनका कृषि तथा उद्योगों के लिये उपयोग तथा सुरक्षा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।

ऊँचाई पर स्थित तिब्बत का पठार जल का विशाल भंडार है जिससे निकलने वाली नदियाँ चारों दिशाओं में बहती हुई अनेक देशों में प्रवेश करती हैं। तिब्बत पर अधिकार स्थापित कर क्या चीन दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में जल के बहाव को नियंत्रित कर सकता है? उत्तरी चीन का बड़ा भू-भाग एक सूखा प्रदेश है जहाँ कृषि तथा उद्योगों के विकास के लिय जल की नितांत कमी है। चीन का प्रयत्न है कि दक्षिण की ओर बहने वाली नदियों पर बाँध बना कर जल को चैनलों द्वारा उत्तर की ओर ले जाया जाये । ब्रह्मपुत्र नदी के पूर्वी मोड़ पर विश्व का सबसे बड़ा और गहरा गॉर्ज स्थित है। यह आशंका व्यक्त की गई है कि चीन इस क्षेत्र में योजनाबद्ध रूप से कार्य कर रहा है। इससे न केवल हिमालय की पारिस्थितिकी (ecology) पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, बल्कि भारत में प्रवेश करने वाले जल की मात्रा का नियंत्रण और इससे जुड़े हुए राजनीतिक एवं सामरिक पहलू भारत के हित को संकट में भी डाल सकते हैं। यह आशंका की जाती है कि भविष्य में जल, खाद्यान्न, जंगल और उद्योग वे संसाधन होंगे जिनके लिये संघर्ष हो सकते हैं।

हिमालय के अंतर्गत बनाये गये बाँधों की सुरक्षा के लिये सबसे अधिक खतरा भूकंपों से है । सम्पूर्ण हिमालय एक तीव्र भूकंपीय क्षेत्र है जिसके अभिलेखित इतिहास में 14 बड़े भूकंपों का जिक्र आता है। इनमें से चार भूकंपों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8 से अधिक आकलित की गई है। उत्तर-पश्चिमी भूखंड (हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार) तथा उत्तर-पूर्वी भारत ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ अनेक छोटे-बड़े बाँध बनाये गये हैं। यह माना जाता है कि बाँधों तथा अन्य इंजीनियरिंग प्रतिष्ठानों की सुदृढ़ता तथा सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा गया है, परन्तु अनेक भूवैज्ञानिकों तथा तकनीकी विशेषज्ञों के विचार से यह विवादास्पद है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India) के अभिलेखों के अनुसार टिहरी बाँध से 320 किलोमीटर परिधि के अंतर्गत क्षेत्र में 4-7 रिक्टर तीव्रता के 77 भूकंपों के अधिकेन्द्र (epicenters ) स्थित हैं। 1999 के विनाशकारी चमोली भूकंप के अधिकेन्द्र से टिहरी बाँध केवल 125 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

बाँधों को केवल उस क्षेत्र की प्राकृतिक भूकंपनीयता से ही भय नहीं है, बाँधों के जलाशय भी भूकंपों को जन्म दे सकते हैं। भारत में इसका पहला अनुभव दिसंबर 1967 में महाराष्ट्र के कोयना बाँध से संबन्धित M 6.3 माप के भूकंप से हुआ जिसके बाद भूकंप के छोटे-छोटे झटके अगले 40 वर्षों तक कोयना के दक्षिण में 20 किलोमीटर की दूरी तक के क्षेत्र में अनुभव किये गये। कोयना से 25 किलोमीटर दक्षिण में वारना बाँध बनने के बाद झटकों के अभिकेन्द्र और अधिक दक्षिण की ओर हट गये ।

अन्य भूकंपों की भांति ही जलाशयों से प्रेरित भूकंप भी विवर्तनिक (tectonic) भूकंपों की श्रेणी में आते हैं। इनका जन्म पहले से ही उपस्थित भ्रंशों (faults) में नये सर्पणों (slips) के बनने से होता है। कोयना तथा वारना में पहले से ही उपस्थित भ्रंश 5 से 11 किलोमीटर की गहराई में थे। नये जलाशय के पहली बार भरने से जो प्रतिबल पैदा होते हैं, वह इन भूकंपों का कारण बनते हैं। पिछले वर्षों की सर्वोच्च सतह से अधिक ऊँचाई तक यदि तेजी से पानी भरने लगे तब भी यही स्थिति उत्पन्न होती है। यह विचार सर्वमान्य है कि क्षोभ (purturbation) नये सर्पण ( slips) बनाने में सहायक हो सकते हैं (जैसे कोयना-वारना क्षेत्र में) या उनके बनने में बाधक भी हो सकते हैं (जैसे सिंधु पर बने तारखेला बाँध)। सम्पूर्ण हिमालय अति तीव्र भूकंपनीयता वाला क्षेत्र है इसलिये अधिक ऊँचाइयों पर बड़े-बड़े जलाशयों वाले बाँधों का होना जोखिम से परिपूर्ण स्थिति है।

समाज तथा पर्यावरण पर बाँधों के दुष्प्रभाव की प्रायः अनदेखी की गई है और इन्हें नदियों के बेसिनों के विकास का एकमात्र साधन माना गया है। इस धारणा में अनेक विसंगतियाँ हैं। बाँध के रूप में उपस्थित भौतिक अवरोध से जलधारा के ऊपरी (upstream, ऊर्ध्वप्रवाह) तथा निचले (downstream, अनुप्रवाह) अंगों में परस्पर पोषक द्रव्यों (nutrients) एवं जीवों (organism) का आदान-प्रदान अवरुद्ध हो जाता है, जिससे उनकी नदीय पारिस्थितिकी (riverine ecology) में अंतर आ जाता है। नदियों के बहते जल में अकार्बनिक मलवा तथा जैविक पदार्थों का परिवहन एक विशेष संगठित विधि से होता है जो अन्य जलीय पारितंत्रों से एकदम भिन्न है तथा इसे एक असामान्य प्रत्यास्थता (resilience) एवं स्वतः स्वच्छ बनाने की क्षमता देता है। गर्मी के मौसम में गहरे बाँध के जलाशय की ऊष्मा स्तरित (stratified) होकर घुली हुई ऑक्सीजन खो देती है जो जलीय जीवों के लिये अहितकर है। बाँध बनाने की क्रिया में विस्फोटकों का अत्यधिक उपयोग होने से ध्वनि, धूल तथा मलवे से प्रदूषित जल अनेक संवेदनशील जीवों को हानि पहुँचाता है। बाँध के जल में डूबी हुई भूमि अनेक जीवों के रहने योग्य नहीं रह जाती। छोटे बाँधों के जलाशयों के जलस्तर में प्रायः होने वाले फेर बदलों के फलस्वरूप जलाशय के परिधि क्षेत्र में छोटे-छोटे प्रगतिरुद्ध (stagnant) कुंड बन जाते हैं जिनमें रोग फैलाने वाले मच्छर एवं घोंघे फलते-फूलते हैं। एक बड़ा जलाशय स्थानीय जलवायु में असामान्य परिवर्तन ला सकता है।

यदि बाँध के अनुप्रवाह (downstream) में मिलने वाली सहायक नदियाँ अपने साथ अत्यधिक मलवा लाती हैं तो नदी का संकुचित प्रवाह उसे अपने साथ ले जाने में असमर्थ हो सकता है। ऐसी स्थिति में तलछट बैठने लगती है और नदी का तल ऊपर उठने लगता है। इससे नदी की चौड़ाई बढ़ने लगती है।  न केवल तटीय भूमि की क्षति होती है, अपितु अधिक मलवे के कारण जल की पारदर्शिता भी घट जाती है और जल की शुद्धि के लिये आवश्यक प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में बाधा पहुँचती है। यदि नदी में स्थान-स्थान पर कई छोटे बाँध बनाये जाएं, जो एकाकी बड़ा बाँध बनाने का विकल्प माना जाता है, तो नदी का तंत्र (system) खंडित हो जाता है। यह मछलियों के लिये हानिकारक है।

बाँधों के जलाशयों की विस्तृत सतह से वाष्पीकरण द्वारा जल की बहुत हानि होती है। अनुमान लगाया गया है कि टिहरी बाँध के जलाशय से प्रतिदिन औसतन 1.4 लाख घनमीटर जल वाष्प बन कर उड़ जाता है। सिंचाई के लिये बनाई गई नहरों के अपने ही दुष्प्रभाव हैं। इनसे वाष्पीकरण द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में जल की हानि तो होती ही है, निस्यंदन (seepage) द्वारा जल के फैलाव एवं लवणीभवन (salination) के कारण बहुत सी भूमि खेती के लिये अनुपयुक्त हो जाती है।

तकनीकी दृष्टि से हिमालयी क्षेत्र में बाँध बनाने के लिये उपयुक्त स्थान वह है जहाँ नदी एक चौड़ी घाटी में बहती हो तथा घाटी के निचले छोर में एक संकरे गॉर्ज से बाहर निकलती हो। ऐसे स्थान में गॉर्ज पर एक छोटे बाँध का निर्माण कर जल की विशाल राशि को संचित किया जा सकता है। कुसंयोग से प्रायः ऐसी ही घाटियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में खूब उपजाऊ होती हैं जिनके अपेक्षाकृत मैदानी भाग की परिधि में बसे गाँवों में खेतिहर लोग एवं उनके पशुओं के रहने की व्यवस्था होती है। बाँध के जलाशय के भरने पर यह ऊपजाऊ घाटी पानी में डूब जाती है और सदियों से बसे गाँव और बड़े यत्न से सँवारी गई सोपानी ( terraced) भूमि जल समाधि ले लेते हैं। प्रायः घाटी के ग्रामीण कहीं दूर रहने के लिये विवश हो जाते हैं जहाँ की जलवायु, संस्कृति और जीविकोपार्जन उनके लिये बिल्कुल अपरिचित होते हैं। यों तो बाँधों की योजना बनाते समय प्रभावित जनों के पुनर्वास का पूरा प्रावधान रखा जाता है परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है । बाँध बनाने की आरंभिक अवस्था से ही विस्थापन शुरू हो जाता है परन्तु कभी-कभी बाँध में पानी भरने पर ही बल प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बाँधों की योजना में बाँध पीड़ितों का विस्थापन और असंगठित पुनर्वास एक अत्यंत दुखद प्रसंग रहा है। एक गणना के अनुसार, जिसमें 140 बड़े और मँझले आकार के बांधों का अध्ययन किया गया, 4.38 करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए। जिन्हें पुनर्वास मिला वह भी न्यायपूर्ण नहीं था। जमीन के बदले जमीन देने के कोरे सिद्धांत से विस्थापित जनों की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। अपनी धरती से स्वेच्छा से पलायन भी एक दुखद प्रसंग है। यदि यह जबरन हो तो यह पीड़ा कई गुना अधिक बढ़ जाती है।

जब भारत बहुद्देशीय विशाल नदी घाटी योजनाओं पर विचार कर रहा था, तब भी हिमालय के अंतर्गत नैनीताल, शिमला, दार्जिलिंग आदि कई छोटे नगरों को छोटे-छोटे जल विद्युत उत्पादन गृह प्रकाशित कर रहे थे। दार्जिलिंग को बिजली देने वाला सिद्रापोंग जल विद्युत गृह सबसे पुराना (सन् 1897 ) विद्युत गृह था। हिमालय के दूरस्थ क्षेत्रों में बरसात या प्राकृतिक जलस्रोतों के जल को ऊँचे स्थानों में प्राकृतिक या स्वनिर्मित तालाबों में जमा किया जाता था। इस जल को पाइप द्वारा घाटी में ले जाकर टरबाइन को चलाया जाता था, इससे इतनी बिजली मिल जाती थी कि छोटे-छोटे नगरों को प्रकाश मिल सके।

हिमालय के ग्रामीण क्षेत्रों में आटा पीसने या धान कूटने के लिये पनचक्कियों का चलन बहुत समय से होता आया है। इनका रख-रखाव ग्रामीण स्वयं करते आये हैं। छोटी-छोटी जल धाराओं (गाड़, खड के पानी को स्वनिर्मित बराज (barrage) द्वारा नालियों में ले जाकर लकड़ी से बने टरबाइन चलाये जाते हैं जो पत्थर की चक्कियों को गति देते हैं। इन्हें हिमाचल प्रदेश-उत्तराखंड में घराट या घट कहते हैं, विश्व भर में पिछले 20-30 वर्षों में इनकी क्षमता बढ़ाने के प्रयोग किये गये हैं जिनको UNDP (United Nation's Development Programme) की पर्वतीय जलविद्युत योजना (Hilly Hydel Project) तथा सरकार की अपारंपरिक ऊर्जा साधन विभाग ने हर प्रकार की सहायता उपलब्ध की है।

विश्व में वर्षा तथा हिम के रूप में मिलने वाले जल का 80 प्रतिशत अंश पर्वतीय क्षेत्रों को ही मिलता है। हिमालय को मानसून के रूप में जितना जल मिलता है उतना विश्व में कहीं नहीं बरसता, परन्तु इसके बरसने के स्थल तथा काल की विसंगतियों का परिणाम यह है कि मध्य तथा उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में जल की नितांत कमी है और अधिकतर खेती वर्षा से मिले जल पर आधारित रहती है। छोटे-छोटे नदी नाले जिन्हें पिघलते हिमनदों (glaciers) तथा जल धाराओं से जल मिलता है, पीने के पानी की आपूर्ति के लिये भी अपर्याप्त होते हैं। फिर सिंचाई तथा फसलें उगाना तो दूर की बात है। विश्व बाँध आयोग (World Commission on Dams, WCD) के कथन के अनुसार 1990 के बाद निर्मित बड़े बाँधों से केवल आदेश क्षेत्र (Command Area) के किसानों और व्यवसायियों को ही लाभ मिला है जबकि इनकी लागत का बोझ पूरे समाज ने उठाया है।

पं. नेहरू ने सन् 1954 में भाखड़ा बाँध को देश को समर्पित करते हुए इसे "देश को शक्ति, हिम्मत और संकल्प के साथ आगे बढ़ने का प्रतीक" बतलाया था। सन् 1958 में उन्होंने पश्चात्ताप करते हुए कहा था कि मैं सोचने लगा हूँ कि हम कदाचित विशालता के रोग (disease of gigantism) से ग्रसित हैं।"

संपर्क सूत्र डॉ. चंद्रशेखर पांडे,  एमेरिटस साइन्टिस्ट सीएसआईआर, 9598 सी-9 बसंत कुंज, नई दिल्ली -110070

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