बिहार में बांध : आतंक बनाम आकर्षण

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बिहार में छोटी-बड़ी कई-कई नदियों को बांधने का सिलसिला युद्धस्तर पर जारी है। कहीं लम्बे-ऊँचे तटबंध, कहीं बड़े-बड़े बांध और बराज। नदियों को बांधने की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं जैसे एक ‘महायुद्ध’ की विविध कड़ियां हैं। यह महायुद्ध प्रकृति के खिलाफ लड़ा जा रहा है। कहीं इसका लक्ष्य बाढ़ पर नियंत्रण है और कहीं सुखाड़ पर विजय। इन वृहत् परियोजनाओं की निरंतर बढ़ती संख्या और वर्षों से जारी सिलसिला जैसे इस मान्यता की पुष्टि है कि महायुद्ध ‘अनिवार्य’ है। इस पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। किसी भी युद्ध के लिए यह मान्य है कि लोग कटते-मरते हैं, बस्तियां लुटती-उजड़ती हैं और अपहरण-बलात्कार होता है। इतिहास गवाह है कि इन परिणामों की सम्भावना और पूर्व अनुभव के बावजूद युद्ध नहीं टलता। अक्सर इन

‘सामान्य परिणामों’

की धुन्ध में युद्ध के

‘महान’

लक्ष्य खो जाते हैं। इसके बावजूद युद्ध रुकता नहीं है और इतिहास इस क्रूर तथ्य का भी साक्षी है कि वे सामान्य परिणाम युद्धोन्माद को बढ़ाते हैं।



बिहार में बड़ी परियोजनाओं के नाम पर जारी नदियों को बांधने का

‘महायुद्ध’

भी आज ऐसे ही मुकाम पर है। लाखों की आबादी विस्थापन की पीड़ा झेल रही है। अरबों रुपये पानी में जा रहे हैं। करोड़ों की लूट हो रही है। परिणाम के रूप में कही बाढ़ का विराट रूप प्रकट हो रहा है और सूखाड़ का भुक्तभोगी स्थानीय जनता की पीड़ा कहीं-कहीं आक्रोश में बदल रही है। इसके बावजूद परियोजनाओं के क्रियान्वयन की रफ्तार और नयी-नयी परियोजनाओं की मंजूरी इस बात का प्रमाण देती-सी लगती है कि प्रकृति के खिलाफ यह युद्ध

‘आकर्षक’

है।
 

बहस भी बेमानी

नदी बांधने की आकर्षक अनिवार्यता का परिणाम यह है कि आज यह सवाल भी गौण हो गया है कि युद्ध का वही एकांगी स्वरूप

‘आवश्यक’

क्यों है? वह भी तब जबकि आज भारत के इतिहास में इस युद्ध के 43 वर्षों के परिणाम और अनुभव दर्ज हैं। इस युद्ध की संचालक सरकार द्वारा पेश दावों एवं आंकड़ों के रूप में भी और भुक्तभोगी जनता की हंसी व आंसुओं के रूप में भी। उनसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना भी कठिन नहीं कि

‘प्रकृति के खिलाफ महायुद्ध’

रूपी इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से कुल फायदा अधिक हुआ या कि नुकसान? कौन-सी परियोजना सफल रही और कौन-सी विफल? अगर कहीं फायदा हुआ तो वह किसकी झोली में गया और नुकसान हुआ तो किसके सिर का बोझ बना? ये परियोजनाएं जनता की आर्थिक-सामाजिक आवश्यकता का परिणाम हैं या राजनेताओं की आकांक्षा।

लेकिन आज बड़ी परियोजनाएं आधुनिक विकास के पैमाने बनकर जैसे किसी भी तरह की बहस के दायरे से बाहर हो चुकी हैं। उनको आज

‘सब मर्जों की एक दवा’

के रूप में पेश किया जा रहा है कि उन पर प्रश्न चिन्ह लगाना या बहस की मांग करना सिर्फ

‘मरीज का प्रलाप’

मानकर नकार दिया जा सके।

इन परियोजनाओं से जुड़े

‘वैज्ञानिक चिन्तन’

और

‘सत्ता-स्वार्थ’

की ताकत इस कदर बढ़ चुकी है कि अब उनके खिलाफ आशंका एवं आक्रोश जाहिर करने वालों को अवैज्ञानिक या तेज रफ्तार विकास के दुश्मन करार देना, विरोध करने वालों का मुंह मुआवजे से बंद करना अथवा विद्रोह को गोली-बंदूक के बल पर कुचलना किसी अन्य

‘विकल्प’

की तलाश की तुलना में ज्यादा आसान माना जाने लगा है।

नदी बांधने का उन्माद आज इस बुलंदी पर है कि समाज के संचालकों की स्मृति से उस महत्वपूर्ण और भावी पीढ़ी को दिशा-निर्देश देने वाली

‘बहस’

की याद भी लगभग मिट गयी है, जो गुलाम भारत में शुरू हुई। आजाद भारत में तो दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना के शुरू होते ही ऐसी हर बहस बेमानी ठहरा दी गयी।
 

बाढ़ नियंत्रण कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण

53 वर्ष पूर्व 1937 में 10 से 12 नवंबर तक पटना स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में एक सम्मेलन हुआ। डा. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर तत्कालीन गवर्नर श्री हैलेट द्वारा आयोजित उस सम्मेलन में बाढ़ प्रकोप के मूल-कारण और नियंत्रण के वैकल्पिक उपायों पर लम्बी और तीखी बहस हुई।

उस सम्मेलन में शामिल अधिकांश अभियंताओं, अंग्रेज प्रशासकों से लेकर भारतीय राजनेताओं तक की राय थी कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण के लिए नदियों को

‘बांधना’

नहीं बल्कि उनको

‘मुक्त’

करना अधिक कारगर विकल्प साबित होगा।

इस राय के मूल में यह अवधारणा निहित थी कि बिहार के कृषि क्षेत्र को बाढ़ की जरूरत है। असल सवाल

‘बाढ़ नियंत्रण’

का नहीं बल्कि

‘बाढ़ विभीषिका के नियंत्रण’

का है। नदियों के प्रवाह को मुक्त कर उसे जल्द से जल्द समुद्र में समाने के लिए प्रेरित करना

‘बाढ़’

से होने वाले फायदे को कायम रखते हुए

‘बाढ़ विभीषिका’

को कम करने का सही उपाय हो सकता है।
 

‘नदी बांधना’ भारतीय राजनेताओं के लिए तकनीकी दृष्टि से एकांगी समाधान था, समेकित नहीं। दूसरी ओर नदी बांधना ब्रिटिश शासकों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनावश्यक था। उस समय ब्रिटिश हुकूमत भारत की स्थायी संपत्ति को अपनी प्रचलित नीतियों के तहत किसी मेहनत के बगैर लूट रही थी।

इसके लिए सम्मेलन में नदियों के प्रवाह को हर प्रकार के अवरोध से मुक्त करने के उपायों की वकालत करते हुए नदियों को तटबंधों से बांधने की तकनीक का पुरजोर तरीके से विरोध किया गया। उस वक्त तत्कालीन गवर्नर श्री हैलेट ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए 78 वर्षों के तकनीकी रिकार्डों का उल्लेख किया और यह साबित करने का प्रयास किया कि बिहार-बंगाल के नदी घाटी क्षेत्रों में सिर्फ 50 वर्ष के अन्तराल में एक खतरनाक बाढ़ आती है। उसके लिए नदियों को तटबंधों से घेरना उचित नहीं हैं। श्री हैलेट ने तटबंधों के विरोध में यहां तक कहा-

‘चीन की भी यही समस्या है। अमरीका में, जहां श्रेष्ठ तकनीकी जानकारी उपलब्ध है, वहां भी नदियों पर काबू पाने में तटबंध सफल नहीं हो पाये हैं। बाढ़ की समस्या के मामले में खुला दिमाग रखता हूं, लेकिन दिल से मैं यह स्वीकार करता हूं कि तटबंध लाभ के बजाय अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।’



बंगाल के तत्कालीन अभियंता कैप्टन हाल ने उस समय तक निर्मित तटबंधों को ध्वस्त करने की अपील की।

दूसरी ओर डा. राजेन्द्र प्रसाद सहित कतिपय अन्य भारतीय राजनेताओं ने यह रेखांकित किया कि बिहार में बाढ़ की विभीषिका साल दर साल नयी बुलंदियों को छू रही है। उन्होंने उस वक्त तक निर्मित तटबंधों की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए नये विकल्पों की तलाश का आह्वान किया। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि समस्या के लिए समेकित समाधान की आवश्यकता है।
 

दृष्टि एक - दृष्टिकोण अलग

1937 से 1945 तक वह बहस जिन्दा रही। 1937 की यह बहस इस मायने में

‘अधूरी’

रही कि उसमें क्रियान्वयन के स्तर पर कोई ठोस फैसला नहीं किया जा सका, लेकिन 1945 तक उस बहस में दी गयी चेतावनियां एवं सुझाव गुलाम भारत में किसी भी योजना की मंजूरी के लिए सर्वोच्च पैमाने बने रहे। भारत के आजाद होते ही वह बहस गुलाम भारत की पिछड़ी एवं पराजित मानसिकता का प्रतीक बन गयी।

इसके साथ ही पूरी तस्वीर बदल गयी। जहां

‘गुलाम भारत’

नदियों को मुक्त करने व रखने की हिमायत कर रहा था, वहीं आजाद भारत नदियों को बांधने की हिम्मत करने लगा। शीघ्र ही आजाद भारत ने वह बहस एवं उसकी चेतावनियां ही नहीं भुला दीं, वरन भविष्य के लिए उस तरह की किसी बहस की जरूरत को भी नामंजूर कर दिया।

1937 की बहस को नकारने के प्रथम परिणाम के रूप में दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना प्रकट हुई और उस तरह किसी

‘बहस की जरूरत’

तक को नकारने के परिणाम हैं- बिहार में करीब 428 करोड़ रूपये के खर्च से अब तक निर्मित 3 हजार 454 किलोमीटर लम्बे तटबंध तथा 5600 करोड़ रूपये (1981 के मूल्यों के आधार पर) से निर्मित निर्माणाधीन और प्रस्तावित वृहत् एवं मध्यम परियोजनाएं।

तटबंधों एवं परियोजनाओं के वर्तमान महाजाल में उलझने के पूर्व उस

‘रहस्य’

को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा, जो 1937 की बहस और चिन्तन को 1947 आते-आते पूरी तरह नकारने की

‘प्रक्रिया’

में छिपा है।

यह रहस्य संक्रमण काल की उस राजनीति के विश्लेषण से स्पष्ट होगा, जो 1945 के आस-पास शुरू हुई थी और उथल-पुथल एवं अनिश्चितता के दौर से गुजरते हुए 1947 आते-आते दामोदर घाटी एवं कोसी परियोजनाओं के रूप में ठोस आकार ग्रहण करने लगी।

1937 की बहस के रिकार्ड उपलब्ध हैं। उस बहस के अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है कि ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं की

‘दृष्टि’

एक जैसी थी, लेकिन

‘दृष्टिकोण’

में फर्क था। वैज्ञानिक एवं तकनीकी मानदण्डों के आधार पर बाढ़ के कारण एवं निदान के प्रति ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं (भारतीय अभियंता भी उसमें शामिल थे) की दृष्टि एक जैसी थी, लेकिन उसके राजनीतिक नफा-नुकसान और

‘इस्तेमाल’

के संदर्भ में दोनों पक्षों के दृष्टिकोण अलग-अलग थे। विश्लेषण के जरिये इस निष्कर्ष पर पहुँचना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि भारत की आजादी के लिए संघर्षरत भारतीय राजनेता तकनीकी दृष्टि से जिस उपाय को समस्या का सही और कम नुकसानदेह निदान मान रहे थे, उसी उपाय को ब्रिटिश शासक वर्षों से चले आ रहे अपने साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने के राजनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। इसीलिए दोनों पक्षों में नदी को मुक्त करने के बारे में एक जैसी दृष्टि थी। ‘नदी बांधना’ भारतीय राजनेताओं के लिए तकनीकी दृष्टि से एकांगी समाधान था, समेकित नहीं। दूसरी ओर नदी बांधना ब्रिटिश शासकों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनावश्यक था। उस समय ब्रिटिश हुकूमत भारत की स्थायी संपत्ति को अपनी प्रचलित नीतियों के तहत किसी मेहनत के बगैर लूट रही थी। इस सीधी आय की तुलना में नदी बांधने में मेहनत और भारी पूँजी लगाना उसके लिए फिजूलखर्ची ही था।

1945 में अचानक स्थितियां बदलीं। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन विजयी होकर भी पस्त था। उसकी आर्थिक स्थिति क्षत-विक्षत थी। उसे उद्धार के लिए ब्रिटेन के शोषण के प्रचलित जरिये नाकाफी साबित हो रहे थे। उसे शोषण के तेज और वृहत् साधनों की खोज थी।

उसी वक्त ब्रितानी हुकूमत को यह कड़वा अहसास भी हो चुका था कि अब भारत पर अपना कब्जा बनाये रखना उसके बूते के बाहर है। यानी ब्रितानी हुकूमत को शोषण के तेज एवं वृहत् साधनों की ही नहीं बल्कि उसके नये सूत्रों की तलाश थी, जो बदली हुई स्थिति में भी अक्षुण्ण रहे। जाहिर है, इस लिहाज से ब्रितानी हुक्मरानों के राजनीतिक लक्ष्य बदलने लगे।

दूसरी ओर भारत में आजादी के आंदोलन के नेतृत्व को भी यह स्पष्ट नजर आने लगा था कि ब्रिटिश शासक चंद दिनों के मेहमान हैं। पाश्चात्य चिन्तन एवं विश्व में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के पारखी के रूप में राजनेताओं को ‘सत्ता’ कोई सपना नहीं बल्कि वास्तविकता के रूप में बिलकुल प्रत्यक्ष दिख रही थी। उनमें भारत को सेवा-संघर्ष नहीं बल्कि सत्ता की आंखों से देखने की ललक जगने लगी। इस ललक का पहला संकेत यह था कि महात्मा गांधी जैसे नेता

‘आंदोलन’

की प्रेरणा-भर रह गये और पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगी

‘आजादी’

के असली ‘प्रवक्ता’ बन गये। गांधी

‘भारत का अतीत’

हो गये जबकि नेहरू

‘भारत का भविष्य’

, जो शीघ्र ही वर्तमान बनने वाला था। भारत के भावी शासकों के लिए यह जरूरी था कि वे नये और आजाद भारत को सत्ता की आंखों से देखना-पहचानना सीखें। इसलिए भारत के भावी शासकों के राजनीतिक पैमाने एवं लक्ष्य तेजी से बदलने लगे, क्योंकि उन्हें जल्द ही भारत छोड़कर जाने वाले अंग्रेजी हुक्मरानों का स्थान लेना था।
 

शोषण का साधन विकास का पैमाना बना

यही दौर था जब ब्रितानी हुकूमत ने अचानक बाढ़ नियंत्रण के नाम पर एक तरफ ‘दामोदर घाटी परियोजना’ शुरू करने का फैसला किया और दूसरी तरफ ‘कोसी परियोजना’ का प्रारूप तैयार किया। इसके दो वर्ष बाद ही 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ। कांग्रेसी नेतृत्व ने ब्रिटिश हुक्मरानों से देश का शासन-भार ग्रहण किया। इसके चंद महीने पूर्व अप्रैल, 1947 में ही भारत के भावी शासकों ने कोसी परियोजना को स्वीकृत करने की घोषणा की थी। 1948 में दामोदर घाटी परियोजना का कार्य शुरू हो गया।

इस प्रकार 1937 की जो बहस 1945 आते-आते

‘गुलाम भारत’

के ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए अप्रासंगिक हो गयी, वह 1947 आते-आते आजाद भारत के कांग्रेसी शासकों के लिए भी निरर्थक हो गयी।

इतना ही नहीं 1937 की बहस में व्यक्त दोनों पक्षों की एक जैसी ‘दृष्टि’ भी 1947 आते-आते एक सौ अस्सी डिग्री घूम गयी। लेकिन आश्चर्य चकित करने वाला तथ्य है कि यह परिवर्तित दृष्टि भी दोनों पक्षों की एक जैसी रही। यानी बाढ़ नियंत्रण के लिए कल तक दोनों पक्ष नदी को मुक्त करने की वकालत कर रहे थे और अब नदी बांधने की आवश्यकता पर बल देने लगे।

जाहिर है, इसके कारण दृष्टिकोण में भी बदलाव आ गया। आज भी कहने वालों की शायद कमी नहीं होगी कि 1937 की तरह 1947 में भी दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में फर्क कायम रहा। लेकिन इस फर्क को इसके सिवा और किसी तरह से परिभाषित नहीं किया जा सकता कि परियोजनाएं ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए साम्राज्यवादी शोषण को तेज एवं अबाध बनाने का ‘साधन’ थीं, वही भारतीय शासकों के लिए आधुनिक ‘विकास’ का पैमाना बन गयीं।
 

1987 की बाढ़ में 106 स्थानों पर तटबंध ध्वस्त हुए। सरकार कहती है कि 29 स्थानों पर तटबंध खुद-ब-खुद ध्वस्त हुए, लेकिन 77 स्थानों पर लोगों ने तटबंध काट दिये। सरकार तटबंध काटने के कारणों की तफसील में जाने से बेहतर यह समझती है कि तटबंध काटने वालों को असामाजिक तत्व करार दिया जाए। वह इस सवाल पर न आश्चर्य करती है और न चिन्ता की बाढ़ सुरक्षा के लिए बने तटबंधों को ठीक बाढ़ के वक्त असामाजिक तथ्यों द्वारा तोड़ते देख भुक्तभोगी जनता कैसे और क्यों चुप रहती है ?

दूसरे महायुद्ध के बाद 1945 में कोसी योजना का प्रारूप बना, जिसमें कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर करीब 10 मील लम्बे सीमान्त तटबंध बनाने का प्रस्ताव था। विशेषज्ञों ने कहा कि नदी को बांधने की यह योजना तभी लाभप्रद (इफेक्टिव) हो सकती है जब वाराह क्षेत्र (नेपाल) में एक बड़ा बांध (जलाशय) बने। 1945 में बाढ़ के वक्त भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने कोसी क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण किया और उक्त परियोजना की प्राथमिक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। इस रिपोर्ट के लिए उन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के बांध विशेषज्ञ डा. जेएल सैवेज, श्री वाल्टर यंग और भूवैज्ञानिक डा. एफएच निकेल आदि की मदद ली।

यह महज संयोग नहीं था कि लार्ड वैवेल ने उसी दौरान अचानक दामोदर घाटी बहुउद्देशीय परियोजना के क्रियान्वयन का फैसला कर लिया। बाढ़ नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई सुविधा और जल विद्युत उत्पादन करने की भव्य एवं आकर्षक परियोजना। इसके लिए लार्ड वैवेल ने अमरीका की

‘टेनेन्सी वैली परियोजना’

को क्रियान्वित करने वाले यहां के विशेषज्ञों से तकनीक हासिल की। यहां तक कि टेनेन्सी वैली ऑथारिटी के अध्यक्ष ई मोर्गन को दामोदर घाटी परियोजना के लिए विशेष सलाहकार बनाया गया तथा टीवीए के प्रख्यात विशेषज्ञ इंजीनियर श्री डब्ल्यू एल वुडविन की सेवाएं प्राप्त की गयीं।

प्रख्यात अभियंता स्व. कपिल भट्टाचार्य ने इस परियोजना का क्रियान्वयन शुरू होने के वक्त ही इस ब्रिटिश राज के साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने की

‘देशी शासकों की साजिश’

कहा था। उन्होंने इसके प्रमाण में यह जानकारी भी दी कि 1948 में निर्माण कार्य शुरू होने के 6 वर्ष के भीतर भारत की देसी सरकार ने करीब 45 करोड़ रुपये खर्च किये, जिसमें 21 करोड़ रुपये ब्रिटेन एवं अमरीका से वांछित सामग्री खरीदने के लिए खर्च किया गया।

दूसरी ओर दामोदर घाटी परियोजना का प्रारूप तैयार करने वाले कार्यरत विशेषज्ञों की राय को

‘अंतिम सत्य’

मानकर उसी के अनुरूप

‘कोसी परियोजना’

को भी स्थापित करने की घोषणा की गयी।

यह घोषणा 6 अप्रैल, 1947 को ही निर्मली (तत्कालीन भागलपुर, वर्तमान सहरसा) में आयोजित कोसी पीड़ितों के सम्मेलन में की गयी। उस सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद और श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा भी उपस्थित थे। उसमें तत्कालीन अंतरिम केन्द्रीय सरकार के निर्माण मंत्री एवं महान वैज्ञानिक श्री सी एच भाभा ने करीब 60 हजार स्थानीय बाढ़ पीड़ित गरीब जनता के समक्ष कहा, मुझे पीड़ितों का सामना करने में लज्जा का अनुभव होता है। झिझक होती है। कोसी पीड़ितों के समक्ष हम अकर्मण्य थे। मुझे कोसी नियंत्रण की सारी बाते थोथी लगती थीं, क्योंकि हमने पीड़ितों के लिए कुछ नहीं किया। अब हमारे योजनाकार एवं इंजीनियर कोसी की उच्छृंखलता को नियंत्रित करने जा रहे हैं। नदी नियंत्रण का यह आधुनिक तरीका है। इसका विकास पश्चिम के विकसित देशों में भी पिछले 25 वर्षों में ही हुआ है। हमारे देश के नदी विशेषज्ञों ने भी इसे पिछले करीब 5 वर्षों से स्वीकार किया है।

हम वाराह क्षेत्र (चतरा घाटी) में 750 फीट ऊंचा कंक्रीट का बांध बनायेंगे। उसमें एक करोड़ 10 लाख एकड़ फुट जल का संचयन होगा। उससे नेपाल और बिहार मिलाकर 30 लाख एकड़ जमीन में सिंचाई होगी और 1800 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन होगा।

1937 की बहस की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी कहा,

‘तकनीकी जानकारी के अभाव में कोसी जैसी उच्छृंखल नदियों के नियंत्रण के पूर्व प्रयास असफल रहे हैं। समेकित समाधान के लिए वैज्ञानिक एवं विकसित तकनीक की जानकारी न होने के कारण ही हमारे इंजीनियर ‘तटबंध हां या तटबंध नहीं’ की बहस में उलझे रहे। इसके कारण, चाहते हुए भी, कोई काम नहीं किया जा सका। सौभाग्यवश, अब बड़े बांध के नये ज्ञान को हमारे तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी फुर्ती से आत्मसात् कर रहे हैं।’



यह एक तथ्य है कि निर्मली सम्मेलन की घोषणा आज तक महज एक ‘सपना’ बनी हुई है। इससे दीगर तथ्य यह है कि उस घोषणा के आलोक में यानी श्री भाभा द्वारा घोषित भव्य परियोजना की छाया में वर्तमान कोसी परियोजना (1953) का क्रियान्वयन हुआ, जिसमें चतरा (नेपाल) में बांध तो नहीं बना, लेकिन भारत-नेपाल सीमा पर 3,770 फीट लम्बा बराज और कोसी की धारा को सीमाबद्ध करने के लिए सैकड़ों किलोमीटर लम्बे तटबंधों का निर्माण बिना किसी बहस के संभव हो गया।

अखिल भारतीय स्तर पर बाढ़ से हुई औसत वार्षिक क्षति और बिहार में 1987 बाढ़ से हुई क्षति

मद

बाढ़ से अखिल भारतीय औसत वार्षिक क्षति (1953-1986)

1987 की बाढ़ से बिहार में क्षति

प्रभावित क्षेत्र (लाख एकड़)  

188.33   

117.57

प्रभावित जनसंख्या (लाख)   

313.60

286.70

फसलों की क्षतिः  

क्षेत्रफल (लाख एकड़)          

85.58             

63.47

मूल्य (लाख रु.)                 

34465.15       

58200.00

घरों की क्षति: संख्या (लाख)      

11.56             

17.00

मूल्य (लाख रु.)                 

10226.87       

25800.00

बाढ़ से मृत जानवरों की संख्या   

100630               

5302

बाढ़ से मृत मनुष्यों की संख्या     

1428              

1283

सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षति (लाख रु.)

20017.00       

37200.00

कुल क्षति (लाख रु.)          

71509.02       

121200.00


स्रोतः सिंचाई विभाग/बिहार सरकार

तटबंध: बेकार नहीं खतरनाक

बाढ़ से सुरक्षा यानी तटबंधों की सुरक्षा

विनाश के द्वार को बंद करने का जादू

जल नियंत्रण की राजनीति

यहां यह याद रखना चाहिए कि सिंचाई परियोजनाओं के रूप में नदी बांधने का यह ‘महायुद्ध’ अब ऐसा नहीं रहा कि इस पर नियंत्रण या इसमें ‘हार या जीत’ का फैसला करना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश के हाथ में है। अब यह महायुद्ध विश्व की महाशक्तियों के हाथ में है। यह उन महाशक्तियों की ‘पानी पर कब्जे’ की राजनीति के विस्तार की एक कड़ी बन गया है। इसके तहत लड़ाई भारत जैसे देश में होती है, लेकिन उसका नियंत्रण अमरीका जैसी महाशक्तियां विश्व बैंक जैसा संस्था के जरिये कर रही हैं। उसमें ‘जीत या हार’ का फैसला भी वही पूंजीवादी देश करते रहे हैं।

विश्व में अब जमीन और जंगल के साथ-साथ ‘जल’ भी सत्ता की राजनीति का औजार बन गया है। समुद्री जल पर कब्जे के लिए तो कई देश संघर्षरत हैं। बड़ी परियोजनाएं अब नदियों का जल, भूगर्भ जल और वर्षा के जल पर कब्जे की होड़ का प्रतीक बन गयी हैं। यह तो सामान्य समझ की बात है कि नदी मुक्त रहे तो वह आम जनता की होती है, बंधती है तो उस पर ‘कुछ लोगों’ का कब्जा हो जाता है। उस कब्जे को आम जनता तबाही और कुछ लोगों के मुनाफे के रूप में देख रही है। जैसे, सुवर्णरेखा परियोजना का मुख्य उद्देश्य टाटा के औद्योगिक क्षेत्र को पानी उपलब्ध कराना है। टाटा के औद्योगिक विकास में विदेशी एवं मल्टीनेशनल की पूंजी लगी है। यह पूंजी मुनाफा में फले इसके लिए सुवर्णरेखा परियोजना चल रही है, जिसे भरपूर मदद कर रहा है, विश्व बैंक! यहां तक कि सिंचाई परियोजनाओं के लिए तकनीक भी विदेशों से आयातित हो रही है। अगर इतने से महाशक्तियों द्वारा भारत में उपनिवेश बनाने की साजिश का पूरी तरह खुलासा न होता हो, तो यह भी जोड़ लेना चाहिए कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं ने देश में एक विशेष प्रकार की ‘हरित क्रांति’ पैदा की है। उस क्रांति में शामिल भारतीय किसान को अधिक उपज के नाम पर विशेष किस्म के बीज, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं के लिए विदेश का ‘गुलाम’ बना दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत में भी अन्तरराज्यीय जल विवाद चल रहे हैं।

इस हरित क्रांति को जिंदा रखने के लिए विदेशी तकनीक और विदेशी कर्ज के बढ़ते बोझ का यह आलम है कि जल, जंगल और जमीन के बारे में राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्रीय संवेदना में दरार पड़ती जा रही है। गजब है कि विदेशी कर्ज उस गरीब पर भी है, जो उस कर्ज से पोषित सिंचाई परियोजनाओं से तबाह है।

सिंचाई परियोजनाओं की निरीह भव्यता

भव्य परियोजनाओं के भयानक परिणाम

राष्ट्रीय हित बनाम क्षेत्रीय हित

नदी बांधना आधुनिक विकास की पहचान है

अतिवादी चिन्तन से मुक्ति विकल्प का द्वार खोलेगी

‘जब नदी बंधी’ से साभार

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