संदर्भ गंगा : दिल्ली से आगरा पेयजल अभाव, बीमारी और बेकारी का संकट और यमुना की दर्द-ए-दास्तां (भाग 3)
वजीराबाद (दिल्ली) से इटावा के बीच यमुना के किनारे शहरों, कस्बों और गांवों में बसी लगभग दो करोड़ आबादी, पशु, पक्षी और जलीय जीव-जंतु यमुना में भयंकर प्रदूषण का शिकार हैं। इनमें से आम लोग जहां पीने, नहाने, सिंचाई के पानी के संकट और अनेकानेक बीमारियों से त्रस्त हैं, मछुवारों के लिए विशेष रूप से रोजगार का संकट भी खड़ा हो गया है।
आगरा की छिपी टोला मछली मंडी पहुंचते ही मुझे अनेक मछुवारों ने घेर लिया और आपबीती सुनाने लगे। इनमें से सबकी एक राय थी कि सरकार उन गरीबों की सुनवाई नहीं करती। प्रशासन को तो उनकी बात सुनने का भी समय नहीं है।
जनकल्याण मत्स्यजीवी सहकारी समिति आगरा ने 1977 से 80 के बीच जहरीले पानी के खिलाफ कई बार प्रदर्शन किया। पानी के नमूने जांच के लिये भरवाये। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को रजिस्टर्ड शिकायतें भेंजी, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बाद में कुछ लोगों ने घुसपैठ और तिकड़म करके समिति को ही बकायेदार बनाकर डिफाल्टर घोषित करवा दिया और मछुवारे चुप होकर बैठ गये। मछुवारों का कहना है कि उन लोगों ने राज्यमंत्री सीताराम निषाद, जो पहले मत्स्य विभाग के मंत्री थे, से मिलकर अपनी समस्याएं लिखित और मौखिक रूप से बतायीं। पर वे भी जहरीले पानी की रोकथाम नहीं करवा पाये।
ताजमहल के समीप यमुना के कगार पर स्थित गांव गढ़ी बंगस के हर भजन निषाद का कहना है कि चमड़े के पानी की वजह से सब्जी नहीं हो पाती। मिट्टी में खारापन आ गया है। हरभजन को शिकायत है कि पुलिस और अस्पताल वाले लावारिस लाशें यमुना में डाल जाते हैं जिन्हें गिद्व, कौवे और कुत्ते नोचते खाते और बदबू फैलाते हैं। यमुना का पानी पीकर मछलियों के जिन्दा रहने लायक नहीं रहा, इसे पीकर जानवर भी मर जाते हैं। आदमियों में तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं। सरकार ने गांव में पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए जो हैंडपंप लगवाया था, वह सूखा रहता है। गांव वाले यह समस्या हल करने के लिए सरकार से नलकूप लगाने की मांग कर रहे हैं।
गांव वाले बताते हैं कि पहले नदी में "बड़ी तगड़ी मच्छी (मछली)" होती थी। ठेकेदारों ने कछुवों का निर्यात कर दिया। गांव वाले बताते हैं कि जो कुछ मछलियां जिंदा बचती हैं वह जेठ के महीने में पानी कम होने और प्रदूषण बढ़नें पर मर जाती हैं।
छिमीटोला मछली मंडी में नंदलाल बताते हैं कि टैनरीज की गंदगी से आदमी बीमार पड़ते हैं, मछली मर जाती हैं, पर सरकार सुनती नहीं।
नई आबादी निवासी मछली ठेकेदार राजाराम याद करके बताते हैं कि बारह साल पहले उसने नदी का ठेका लिया था। लेकिन मथुरा फैक्ट्री के जहरीले पानी से मछलियां मर गयीं। प्रशासन ने उसे कोई मुआवजा नहीं दिलवाया। राजाराम का कहना है कि हाल के वर्षों में मछली उत्पादन कम हो जाने से अब लोग ठेका लेने से भी कतराते हैं। पहले आठ-दस लाख रू. का ठेका होता था। राजाराम बताते हैं कि हर साल सितंबर महीने में दिल्ली से काला पानी आता है।
बुलंदशहर से आकर शाहदरा में यमुना में गिरने वाले झरना नाले में पहले काफी मछलियां होती थीं। पर शराब और चीनी मिलों की गंदगी से अब उसमें मछलियां नहीं के बराबर हैं। तीन साल पहले इस नाले में मछली का ठेका 65 हजार रू0 में छूटा था, पर अब कोई बोली नहीं लगाता। मछुवारे बताते हैं कि पंजाब और दिल्ली से गंदगी बढ़ने पर जब कभी अचानक बांध खोल दिया जाता है तो उनमें बांस, बल्ली और जाल भी बह जाते हैं। सितंबर 1988 में ऐसा हो चुका है।
आगरा क्षेत्र में मछली नीलामी के 14 क्षेत्रों में मछलियां समाप्त प्राय होने के कारण इस समय बोली नहीं आ रही। इनमें जमुना नंबर तीन, झरना नाला, जाजो खेरिया (उटंगज), हिनौरा, खेड़ागढ़ (बनवसा), बगन, खारी और फिरोजाबाद के इलाके शामिल हैं।
मछुवारों की एक शिकायत यह भी है कि जो कुछ मछली बची भी हैं उन्हें बड़े ठेकेदार ले लेते हैं।
आगरा के जिन क्षेत्रों में मछुवारे रहते हैं वे हैं नुनिहाई, काला मछली मुहल्ले, फतेहपुर सीकरी, तहसील बाह का अखोरा गांव प्रमुख हैं। रूनकुता के ठाकुर भी मछली के ठेके लेते हैं।
नुनिहाई मुहल्ले के नारायण सिंह, बुलाकीदास, लल्लूराम, भगवान सिंह को शिकायत है कि मछली खत्म होने से वे बेकार हो गये हैं। उनका कहना है कि जब बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुंचाने या पानी के अन्य किसी जोखिम वाले काम की जरूरत होती है तो उन्हें बुलाया जाता है, पर पीपे के पुल या अन्य विभागों में उन्हें रोजगार नहीं दिया जाता। उनका कहना है कि किसी पार्टी ने मछुवारों के लिए कुछ नहीं किया। चुनाव के बाद सब भूल जाते हैं।
नुनिहाई मुहल्ले में मछुवारों के ज्यादातर घर टूटे-फूटे, खपरैल या छप्पर के मिले, अनेक मछुवारों ने अब मूंगफली, पान, चाय या सब्जी की दुकानें खोल ली हैं। 75 फीसदी मकान कच्चे हैं। यहां के रामकिशन को शिकायत है कि बाहर के गैर मछुवा ठेकेदार पैसे के लालच में भी शिकार करते हैं, जबकि नीचे से मछलियां अंडा देने के लिए आती हैं। इनकी शिकायत है कि ये ठेकेदार छोटे जाल लगाकर मछलियों के छोटे बच्चे भी पकड़ लेते हैं और सुखाकर बाहर भेज देते हैं।
पचास वर्षीय कांतिलाल का कहना है कि उनके बचपन में यमुना में खूब मछली मिलती
थीं। उनका कहना है कि प्रशासन ठेकेदारों का साथ देता है जो उनको रुपये देता है। मछुवारों की कोई नहीं सुनता ।
मछुवा जनकल्याण समिति के सचिव भूरि सिंह बताते हैं कि जो मछुवारे पहले 20-25 रू0 कमाते थे अब वह आठ-दस रुपये ही कमा पाते हैं।
उनको शिकायत है कि मछुवारों के मुहल्ले में सरकार स्कूल भी नहीं खोलती कि बच्चे पढ़ सकें। उनकी मांग है कि मछुवारा उन्हीं लोगों को माना जाय जो नदी में शिकार करते हैं न कि ठेका लेने या मंडी में मछली बेंचने वाले को। वह ठेकेदारों की फर्जी सहकारी समितियों को मान्यता न देने की भी मांग करते हैं। श्री सिंह का कहना है कि नदी से बालू-कंकड़ निकालने और नाव चलाने का ठेका मछुवारों को ही दिया जाय, ताकि उन्हें कुछ रोजगार मिल सके।
मछुवारों की एक मुख्य शिकायत यह भी है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कारखानों के जहरीले पानी की रोकथाम नहीं कर रहा है।
बातचीत और मुहल्ले में घूमने पर कुछ और भी बातें पता चलीं। एक यह कि ज्यादातर मछुवारों के परिवार बड़े हैं। एक बाप के छह-सात बेटे होना आम बात है। ज्यादातर मछुवारों को जुए और शराब की लत है। इस समुदाय में शिक्षित तथा नौकरी पेशा लोगों की तादाद बहुत कम है।

