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हिमालय में हिमालय का क्या

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उपरोक्त विवेचना सहज रूप से प्रश्न उठाती है कि हिमालय में हिमालय का अर्थात अपना क्या है? या सिर्फ दूसरों का समाहित कर अपनी दो संतानें उत्पन्न कर हिमालय पर्वत बन गया? ऐसा नहीं है? हिमालय का अपना भी कुछ है। हिमालय के अपने को जानने के लिये हिमालय के कुटुम्ब की जानकारी अत्यंत आवश्यक है। आइये। इसके कुटुम्ब से परिचय पहले करें।

श्वेत ताज धारित विश्व के सर्वोच्च गगनचुंबी पर्वतों से सुसज्जित मानव और देवताओं के आस्थाओं का केंद्र हिमालय पर्वतमाला अपने चुंबकीय आकर्षण के लिये विख्यात है। भूवैज्ञानिकों के लिये यह पर्वतमाला केवल रहस्य और रोमांच से ही भरपूर नहीं है बल्कि उनको सतत चुनौती भी देती है कि मेरे उत्थान और उद्भव के रहस्य मेरे अंदर ही समाहित है, उनको ढूंढ़ो और जनसामान्य के सम्मुख लाओ। पर्वत माला का भौतिक विन्यास उत्तरोत्तर दिशा में जटिल होने के साथ-साथ ऊँचाईयों के नए आयामों को बनाता हुआ दुर्गम होता जाता है। मानव की क्षमता, सहनशीलता और जुझारूपन की परीक्षा भी इस पर्वतमाला में हो जाती है। यह एक दैवीय सुखद आनन्द में परिवर्तित हो जाती है जब मनुष्य अपने कदम पर्वतों की चोटी पर रखता है।

वैज्ञानिकों द्वारा इस पर्वतमाला का अध्ययन पिछले दो सौ वर्षों से किया जा रहा है, परंतु अध्ययन की पूर्णता फैलते हुए विज्ञान के क्षेत्र के कारण दूर-दूर तक परिलक्षित नहीं हो रही है। भूविज्ञान भी इसका अपवाद नहीं है। हिमालय के उद्भव और उत्थान के बारे में जो भी जानकारी अभी तक उपलब्ध है वह कम मनोरंजक नहीं है। हिमालय जैसी विशालकाय पर्वतमालाएं धरातल पर तथा समुद्र की तलहटी पर अनेको हैं। लम्बाई के मान से हिमालय पर्वत ‘मेरिट लिस्ट’ में काफी नीचे है। मिड अटलांटिक सीज तथा एंडीज के सम्मुख इसकी तुलना करना इसको नीचा दिखाने के समान होगा।

भूविज्ञान के गहन अध्ययन से पता चलता है कि किसी भी विस्तृत पर्वत श्रृंखला के निर्माण में करोड़ों वर्षों का समय लगता है। पहले तो कई करोड़ वर्ष तक नदियों द्वारा लायी गई बजरी, कंकर, रेत तथा धूल जैसा महीन मलवा समुद्र की तलहटी में जमा होता है। मलवा जमा होने के समय अनुकूल परिस्थिति में समुद्र के पानी से चूने के पत्थर निर्माण के लिये पदार्थ भी निक्षेपित होता रहता है। जब बहुत अधिक मात्रा में मलवा जमा हो जाता है प्रकृति का संतुलन धीरे-धीरे आंतरिक क्रियाओं के चलते डगमगाने लगता है और इसी के फलस्वरूप समुद्र के अंदर का प्रभावित भाग धीरे-धीरे उभरकर पर्वत का निर्माण करना शुरू कर देता है। यह प्रक्रिया समुद्र के विलुप्त होने के पश्चात भी चलती रहती है। भूवैज्ञानिकों ने इस मूल प्रक्रिया की व्याख्या अलग-अलग तरह से होना बताया है। अधिकतर पर्वत श्रृंखलाएं एक समय चक्र में निर्मित होती हैं। हिमालय की संरचना बताती है कि उसके उत्थान की प्रक्रिया बहुत भिन्न है जो आज के पाँच साढ़े पाँच करोड़ वर्ष पूर्व शुरू हुई थी और अभी भी उसी गति से चल रही है जिस गति से शुरू हुई थी।

हिमालय के उत्थान में मोटे तौर पर सात विभिन्न प्रकार की पट्टियों का योगदान रहा है। ये पट्टियां हिमालय में लंबवत रूप में पायी जाती हैं। कोई बड़ी है तो कोई छोटी, कोई चौड़ी है तो कोई पतली तथा एक ही पट्टी कहीं पर बहुत चौड़ी हो जाती है तो कहीं पर सिकुड़कर अत्यंत पतली हो जाती है और कई जगहों पर तो पृथ्वी में विलुप्त भी हो जाती है और फिर विभिन्न दूरी के अंतराल पर पुन: उभर आती है। इन पट्टियों का भूवैज्ञानिक इतिहास अत्यंत रोचक है। हिमालय का आधार स्वयं का अपना नहीं है, इसे जबरदसती हिमालय का हिस्सा बनने के लिये प्रकृति ने मजबूर किया है, कुछ को हिमालय ने अतिक्रमित कर अपना उपनिवेश बनाया है तो कुछ को हिमालय ने अपने शिशु के रूप में उत्पन्न कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिमालय अगर उत्तर में अपने साम्राज्य को खो रहा है तो दक्षिण में वह अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा है। इस उथल-पुथल से भरे नाटकीय घटना क्रम के थमने के आसार आगामी करोड़ों वर्षों में होंगे, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

उपरोक्त विवेचना सहज रूप से प्रश्न उठाती है कि हिमालय में हिमालय का अर्थात अपना क्या है? या सिर्फ दूसरों का समाहित कर अपनी दो संतानें उत्पन्न कर हिमालय पर्वत बन गया? ऐसा नहीं है? हिमालय का अपना भी कुछ है। हिमालय के अपने को जानने के लिये हिमालय के कुटुम्ब की जानकारी अत्यंत आवश्यक है। आइये। इसके कुटुम्ब से परिचय पहले करें।

अगर हम दक्षिण से उत्तर की ओर चलें तो इसके कुटुम्ब का पहला सदस्य है सिंधु गंगा ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा निर्मित विशाल मैदानी भूभाग जो दो सौ से चार सौ किलोमीटर चौड़ा है। यह हिमालय के कुटुम्ब का नवीनतम सदस्य है। इसका निर्माण पिछले पर्वत माला के रूप में उभरने के पूरे आसार हैं। इस विस्तृत मैदानी भाग को हम भूवैज्ञानिक शब्दावली में ‘ग्रेट हिमालय मौलासिक प्लेन’ कह कर अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकते हैं। मैदानी भाग की समाप्ति पर एकाएक बाह्य हिमालय के नाम से शिवालिक पर्वतमालाओं का प्रदेश उभरता है। हिमालय जब पर्वतराज के रूप में अपना आकार लेने लगा तो उभार के प्रतिरोध स्वरूप इसने अपने दक्षिण में करीब दो करोड़ वर्ष पूर्व एक विशाल द्रोणी अथवा गर्त का निर्माण किया। इस छिछले गर्त में उभरते पहाड़ से निकले अवसाद जमा हुए जिनसे उपरोक्त दो पट्टियां निर्मित हुर्इं। सम्मान के तौर पर इन दोनों को हम हिमालय का पुत्र मान सकते हैं। बाल्यावस्था की शिवालिक श्रेणियां मूलत: कच्ची चट्टानों से बनी हैं शैशवावस्था के ग्रेट मौलासिक प्लेन में रेत और धूल ज्यों की त्यों है, इसको दृढ़ चट्टान में परिवर्तित होने में दसियों लाख वर्ष लगेंगे।

शिवालिक श्रेणियों के बाद लघु हिमालय और उच्च हिमालय की दो पट्टियां आती हैं जो साठ से लेकर दो सौ करोड़ से भी अधिक पुरानी चट्टानों से निर्मित हैं। भूवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि ये दोनों पट्टियां प्राय: द्वीपीय भारत की शैलों का विस्तार हैं। भूवैज्ञानिक हलचलों के कारण राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, दक्षिण आसाम और मेघालय की शैल विशाल पैमाने पर नीचे की ओर मुड़ी और फिर हिमालय में कुछ परिवर्तन के साथ ऊपर उभर कर आयीं। हिमालय पर्वत की रीढ़ का निर्माण करने वाली दोनों पट्टियां मूलरूप से प्राय: द्वीपीय भारत का हिमालय में प्रतिनिधित्व करती हैं।

उच्च हिमालय के उत्तर में टेथियन पट्टी मिलती है जिसमें अधिकतर अवसादी शैलें हैं। यह क्षेत्र भारत को पुन: गौरवान्वित करने वाला है क्योंकि इसके 70 करोड़ वर्ष से भी अधिक समय तक महाद्वीपीय मलबे का जमाव होता रहा था। ऐसे स्थान विश्व में गिने चुने हैं जहाँ पर इतने लम्बे समय तक जमाव चलता रहा हो। यही वास्तव में हिमालय का अपना क्षेत्र है। यह अत्यंत दुर्गम क्षेत्र भारत में कश्मीर, हिमाचल तथा उत्तराखण्ड में मिलता है, भारतीय सीमा के पार तिब्बत में यह अधिक विकसित है। इस क्षेत्र के उत्तर में भारतीय और यूरेशियन प्लेटों का संधि क्षेत्र है जो सिंधु संधि के नाम से जाना जाता है। पतली सी पट्टी के रूप में विकसित यह क्षेत्र हिमालय का मूल उद्गम स्थान है, इसके निर्माण में भारतीय और यूरेशियन दोनों प्लेटों का योगदान है। सिंधु संधि के उपरांत कश्मीर और लद्दाख में पूरा हिमालय क्षेत्र आता है।

इस क्षेत्र में हिमालय के उत्थान में लगने वाले शक्तिशाली बलों का प्रभाव स्पष्ट देखने को मिलता है और इन्ही बलों के चलते यह क्षेत्र हिमालय के क्षेत्र में समाहित हुआ। लद्दाख में सिंधु संधि के अलावा शेक संधि भी मिलती है। ये दोनों संधियां पूर्व में थोड़ी चलकर एक ही हो जाती है। श्योक संधि के ऊपर पठारीय भारत की गोन्डवाना शैलें मिलती हैं जो स्पष्ट रूप से यह कहती हैं कि हिमालय के उत्थान के पूर्व भारत का पठार अत्यंत विशाल था। हिमालय तो प्राचीन गोन्डवाना महाद्वीप के परिवार के बँटवारे और पुन: उस परिवार के कुछ सदस्यों के समायोजन की देन है।

सम्पर्क

अजय कुमार बियानी

डी.बी.एस. (पीजी) कालेज, देहरादून।

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