जल और समाज
जहाँ पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था। उस दौर में बीकानेर में कोई एक सौ छोटे-बड़े तालाब बने हैं। उनमें से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से वंचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे। ये तालाब उस समाज की उस समय प्यास तो बुझाते ही थे, यह भूजल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं रहता था। श्रद्धा के बिना शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाये, वह आँकड़ों का एक ढेर बन जाता है। वह कुतूहल को शान्त कर सकता है, अपने सुनहरे अतीत का गौरवगान बन सकता है, पर प्रायः वह भविष्य की कोई दिशा नहीं दे पाता।
ब्रजरतन जोशी ने बड़े ही जतन से जल और समाज में ढेर सारी बातें एकत्र की हैं और उन्हें श्रद्धा से भी देखने का, दिखाने का प्रयत्न किया है, जिस श्रद्धा से समाज ने पानी का एक जीवनदायी खेल खेता था।
प्रसंग है रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर। देश में सबसे कम वर्षा के हिस्से में बसा है यह सुन्दर शहर। नीचे खारा पानी। वर्षाजल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूँदें। आज की दुनिया जिस वर्षा को मिलीमीटर/सेंटीमीटर से जानती है उस वर्षा की बूँदों को यहाँ का समाज रजत बूँदों में गिनता रहा है। ब्रजरतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहाँ बने तालाबों का वर्णन करते हैं। और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, कालखण्ड में, जो यों बहुत पुराना नहीं है, पर आज हमारा थोड़ा-सा पढ़ गया समाज उससे बिल्कुल कट गया है।
ब्रजरतन इस नए समाज को उस कालखण्ड में ले जाते हैं, जहाँ पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था। उस दौर में बीकानेर में कोई एक सौ छोटे-बड़े तालाब बने हैं। उनमें से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से वंचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे। ये तालाब उस समाज की उस समय प्यास तो बुझाते ही थे, यह भूजल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं रहता था। ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिये गए हैं।
ब्रजरतन इन्हीं लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं। वे हमें इस रेगिस्तानी रियासत में संवत 1572 में बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते हैं सन 1937 में बने कुखसागर तक। इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें बनाना भी शामिल है और बड़े जतन से इनका रख-रखाव भी उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी श्रद्धा से उनके पालन का वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलता जाता था।
लेकिन फिर समय बदला। बाहर से पानी आया, आसानी से मिलने लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का। फिर जमीन की कीमत आसमान छूने लगी। देखते-ही-देखते शहर के और गाँवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे से पाट दिये गए हैं। पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है। उसके विस्तार में यहाँ जाना जरूरी नहीं।
इसलिये ब्रजरतन जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है। यह शहर का इतिहास नहीं है। यह उसका भविष्य भी बन सकता है।
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