काली नदी गांवों में कैसंर बांट रही
काली नदी गांवों में कैसंर बांट रहीhttps://eastkaliriver.org/

संदर्भ गंगा : काली-सचमुच-काली; उद्गम मुजफ्फरनगर से मोदीनगर तक की काली नदी की दास्तां (भाग 1)

उत्तर प्रदेश की काली नदी: मुजफ्फरनगर से गंगा तक का सफर, प्रदूषण और औद्योगिक कचरे से प्रभावित नदी की कहानी। जानें कैसे यह नदी अब जीवनदायिनी नहीं रही।
Published on
4 min read

काली उत्तर प्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है। यह मुजफ्फरनगर नगर की खतौली तहसील स्थित अखाड़ा गांव की 20 एकड़ क्षेत्रफल वाली एक झील से निकलती है और लगभग 410 किमी० की दूरी तय करके कन्नौज (फर्रुखाबाद) के पास गंगा नदी में मिलती है। नदी का जलग्रहण क्षेत्र लगभग 7620 किमी है।

जल प्रदूषण के अध्ययन में इस नदी का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह मुजफ्फरनगर, मेरठ, मोदीगनर (गाजियाबाद) और बुलंदशहर जैसे उद्योग बहुल जिलों का अधिकतम औद्योगिक एवं सीवेज कचड़ा लेकर गंगा नदी में मिलती है।

इस नदी में प्रदूषण का पता लगाने के लिए किसी वैज्ञानिक परीक्षण की भी जरूरत नहीं है। चीनी मिलों, शराब कारखानों, गन्ना मिलों और शहरी नालों का पानी ढोते ढोते बुलंदशहर में इसका रंग ही काला हो गया है। लगता ही नहीं कि यह नदी है। यहां नदी के जल में बालू समाप्त हो चुकी है।

इस नदी का वैज्ञानिक अध्ययन कई एजेंसियों द्वारा किया जा चुका है। इन सबसे प्रदूषण रासायनिक तथा भारी धातुओं का प्रदूषण भी सिद्ध है। नदी की मछलियां तो मर ही चुकी हैं, पशु, पक्षी भी पानी पीते ही बीमार होकर मर रहे हैं और मनुष्य मच्छरों, बैक्टीरिया अथवा वायरस जन्य बीमारियों से। नदी के किनारे खेती पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।

वर्ष 1960 में कासिम और सिद्दकी ने बुलंदशहर की पन्नी जी शुगर ऐंड जनरल मिल्स के कारण होने वाले प्रदूषण का अध्ययन किया था। जून, 1962 में इस नदी में बड़े पैमाने पर मछलियों की मृत्यु होने पर इन दोनों वैज्ञानिकों ने 1966 में जॉर्ज के साथ मिलकर नदी में प्रदूषण का सर्वे किया। यह अध्ययन मुख्यतः कादराबाद ड्रेन द्वारा मोदीनगर से आने वाले प्रदूषण पर आधारित था।

27 साल पहले सन् 52 में हुए प्रदूषण के कारण इस नदी में घुलित ऑक्सीजन कम हो जाने से लगभग 200 कुंतल मछलियां मरी थीं।

इसके लगभग 12 वर्ष बाद वर्ष 1965 में मत्स्य विभाग उत्तर प्रदेश के शोध अधिकारियों एमपी० उपाध्याय, बालेश्वर गुप्त तथा डीएन० सिंह ने अध्ययन किया। इस अध्ययन से ज्ञात हुआ कि नदी में प्रायः हर साल गर्मी की शुरुआत (अर्थात पानी का अनुपात कम होने) और क्रेशर तथा चीनी मिलों में पेराई सीजन शुरू होने पर नवंबर से मार्च के बीच प्रायः मछलियां मरती हैं। बाद के इन पन्द्रह सालों में जो प्रगति हुई है, उसका नतीजा है कि अब मछलियों के मरने की नौबत ही नहीं आती, क्योंकि नदी में उनका अस्तित्व ही नहीं बचा।

मत्स्य विभाग ने आज से पन्द्रह साल पहले बताया था कि नदी के 176 कि०मी० लंबे प्रदूषित क्षेत्र में मछलियों पर जानलेवा असर हुआ है। विभाग ने उस समय सुझाव दिया था कि अब और गंदा नाला का कचड़ा नदी में रोकने के लिए सीवेज पर आधारित फार्म बनाया जाय। 

मोदीनगर औद्योगिक काम्पलेक्स और चीनी मिलों का प्रदूषण रोकने के लिए समुचित शुद्धिकरण संयंत्र लगाये जायें, लेकिन इन सुझावों पर अमल की कौन कहे पिछले पंद्रह सालों में लगातार प्रदूषण बढ़ाने वाले कदम ही उठाये गये हैं।

1985 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डा० मोहम्मद अजमल ने अपने अध्ययन में बताया कि नदी के प्रदूषण में कैडमियम, क्रोमियम, कापर, आयरन, मैंगनीज, निकिल, जिंक और लेड जैसी घातक भारी धातुएं भी शामिल हैं।

उ०प्र० प्रदूषण बोर्ड की ओर से भेजे गये नमूनों की जांच में औद्योगिक विष विज्ञान केन्द्र, लखनऊ ने भी (फरवरी 88) मैगनीज, लेड, आयरन, कोमियम, कैडमियम, निकिल तथा जिंक धातुएं होने की पुष्टि की है। ये सब धातुएं कैंसर समेत अनेकानेक रोगों की जनक हैं। इन सब परीक्षणों के आधार पर नदी के प्रदूषण रोकने का स्थायी उपाय करने के बजाय बोर्ड ने पुनः एक अध्ययन परियोजना 4.4 लाख रुपये की अनुमानित लागत से तैयार की है। किन्तु बोर्ड के गाजियाबाद स्थित क्षेत्रीय कार्यालय को नदी की औद्योगिक स्थिति की ही सही जानकारी नहीं है। क्षेत्रीय अधिकारी द्वारा 30 अगस्त, 1988 को बोर्ड को भेजी गयी एक रिपोर्ट में काली को यमुना की सहायक नदी बता दिया गया है

काली नदी में प्रदूषण के मुख्य स्रोत

काली में प्रदूषण खतौली से ही प्रारंभ हो जाता है। खतौली में अपर इंडिया शुगर मिल का उत्प्रवाह गंदे नाले से नदी में गिरता है। फिर दौराला चीनी मिल, सखौली टांडा चीनी मिल और टाउन एरिया तथा मिलिटरी फार्म का सीवेज और स्लज नदी में आकर गिरता है। मेरठ से पहले हरसौली में तीन क्रेशर इकाइयां भी अपना गंदा पानी इसी नदी में छोड़ती हैं। मेरठ शहर में पीएसी० ड्रेन, डीसीएम० उद्योग समूह, शहर सीवेज की गंदगी नदी में डालती हैं।

मेरठ शहर में अबू नाला, सेंट्रल डिस्टिलरी और शहर का गंदा पानी नदी में गिराता है। इससे आगे एक और गंदा नाला मेरठ में ही गिरता है। मेरठ जिले में करेड़ा गांव के पास और स्थानी के पास मेरठ रोड के कारखानों का गंदा पानी भी काली में ही आता है। मेरठ निवासी चौधरी चौवा का कहना है कि यहां इस साल एक महीने में चार बार मछलियां मरीं। मछलियां मरती हैं तो भयंकर सड़ांध होती है। मछुआरों की सहकारी समिति ने एक बार दौराला चीनी मिल पर मुकद‌मा किया था पर कोई नतीजा नहीं निकला। आगे चलने पर खरौली नाला तथा मोदी उद्योग समूह का गंदा पानी लाने वाला कादराबाद ड्रेन है। हापुड़ से पहले मोहद्दीनपुर शुगर मिल का पानी नदी में गिरता है। हापुड़ शहर का सीवेज, स्लज जिसमें चमड़ा मंडी तथा सरेस कारखानों का गंदा पानी और वायु प्रदूषण भी काली में गिरता है।

हापुड़ में आवास विकास परिषद ने चमड़ा मंडी और सरेस फैक्ट्रियों से सटाकर आवासीय कालोनी बना दी है। किन्तु भयंकर बदबू और खुजली आदि रोगों को जन्म देने वाले वायु प्रदूषण के कारण वहां कोई रहना नहीं चाहता। हापुड़ में बुलंदशहर रोड स्थित बूचड़खाने का गंदा पानी गंदगी का एक और स्रोत है।

हापुड़ की बागपत रोड स्थित भोले की झाल से एक नाला निकलता है जो सतपुरा, नईबस्ती, हरमुखपरी, सी लाइन, विसोखर आदि गांवों की गंदगी लेकर काली में मिलता है। यहीं सात-आठ साल से पेपर मिल का जहरीला पानी गिरता है। बरसात में नाला उफनाता है, तो सारी गंदगी और तेजाबी पानी शहर में फैल जाता है।

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org